दूध एक अमृत तुल्य खाद्य पदार्थ है जो मानव जाति के लिये ईश्वर प्रदत्त एक वरदान है। दूध पोषक गुणों से भरपूर आनुवंशिक, प्रजनन इत्यादि पर निर्भर करती है। स्वास्थ्य निधि को सुरक्षित रखने वाला महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ है। न केवल मनुष्य, बल्कि अन्य प्राणी भी अपने नवजात शिशु के आगमन पर उसका स्वागत दूध से ही करते हैं। दूध की गुणवत्ता आदि काल से हमारे वेदों पुराणों में वर्णित है। हमारी सभ्यता, संस्कृति में दुग्ध उत्पादन और पशुपालन रचा बसा है। आज के परिवेश में भी दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के प्रयास, दुग्ध क्रान्ति लाने के प्रयास व्यापक स्तर पर किये जा रहे हैं और इन व्यापक प्रयासों के सुखद परिणाम यह रहे हैं कि आज दुग्ध उप्पादन के क्षेत्र में भारत की यश पताका सबसे आगे फहरा रही है। वार्षिक दुग्ध उत्पादन 141 मिलियन टन के स्तर तक पहुँच चुका है।
यद्यपि बढ़ता दुग्ध उत्पादन प्रसन्नता का विषय है, परन्तु दूध एक ऐसा खाद्य पदार्थ है कि यदि दुग्ध उत्पादन के दौरान स्वच्छता का ध्यान न रखा जाये तो स्वास्थ्य के लिए घातक हो जाता है और बीमारियों का एक कारण भी। विश्व दुग्ध बाजार में अपनी प्रभुता बनाये रखने के लिये श्रेष्ठ गुणवत्ता वाला तथा स्वच्छ स्वच्छ दुग्ध उत्पादन एक अनिवार्यता है। विशेष रूप से विश्व व्यापार संगठनों के मानकों के अनुरूप दुग्ध और दुग्ध उत्पादों को खरा उतारने के लिये भारत को अच्छी गुणवत्ता वाले दुग्ध और दुग्ध। उत्पादन पर अपना लक्ष्य केन्द्रित करना होगा। यह दुर्भाग्य पूर्ण ही है कि दुग्ध की सूक्ष्मजीवाणुविक गुणवत्ता में अभी भी कोई खास सुधार नहीं आया है, क्योंकि ग्राम स्तर पर दुग्ध उत्पादन के पूर्ण साफ सफाई की समुचित व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा जाता है। स्वच्छ दुग्ध उत्पादन बनाने के लिये फार्म स्तर पर अरोग्यकारी में आने से प्रदूषित हो जाता है, अतः फार्म स्तर पर दुग्ध की स्वच्छता, गुणवत्ता बनाये रखने वाले उपाय अपनाने चाहिये। दूध की संघटनात्मक गुणवत्ता तो पशु की खिलाई-पिलाई, प्रबन्ध, आनुवंशिक, प्रजनन इत्यादि पर निर्भर करती है।
हमारे देश में दूध में जीवाणुविक संख्या स्वीकृत सीमाओं से ज्यादा होती है। इसका मुख्य कारण फार्म पर सफाई का न होना, दूध के बर्तनों को साफ सुथरा एवं दोहक को साफ न रहना। दोहन का अनुचित तरीका तथा बीमारी और खराब संग्रहण व्यवस्था का होना है। इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान में कृषकों के ज्ञान स्तर पर अध्ययन किये गये, जिससे यह तथ्य सामने आया कि स्वच्छ दुग्ध उत्पादन के बहुत से ऐसे पहलू है जिनकी जानकारी पूरी तरह पर पशुपालकों को नहीं थीं।
विशेष रूप से दुग्ध दोहन से लेकर संक्रामक बीमारियों से पशु के बचाव की वैज्ञानिक पद्धत्ति से पशुपालक अनभिज्ञ थे। अतः आवश्यकता इस बात की है कि स्वच्छ दुग्ध उत्पादन की सम्पूर्ण जानकारी डेरी पशुपालकों को होनी चाहिये जिससे कि वे दुग्ध खराब होने से हुई आर्थिक ह्मन से बच सकें तथा स्वच्छ दुग्ध उत्पादन कर अधिक लाभ प्राप्त कर जन सम्पदाको सुरक्षित रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें सकें।
पशुपालकों और डेरी उद्योगियों को दुग्ध उत्पादनकी तथा अस्वास्थ्यकर परिस्थितर्यों में उत्पन्न दूध के घातक प्रभाव के सम्बन्ध में जानकारी हेतु प्रशिक्षण दिये जाने चाहिये।
यद्यपि पास्चुरीकरण से जीवाणुविक संख्या काफी कम हो जाती हैं परन्तु फिर भी जीवाणुविक बीजाणु को नष्ट किया जा सकता है जो कि बाद में सक्रिय हो जाते और संवृद्ध हो जाते है। पास्चुरीकरण के दौरान उच्च तापमान जीवाणु को असक्रिय कर देते हैं लेकिन बाद में जीवाणु सक्रिय हो जाते हैं जो कि को दूध खराब कर देते हैं और इससे स्वास्थ्य को भी खतरा बनता है। कुछ जीवाणु विषाक्तता उत्पन्न करते हैं। जीवाणुओं की अधिक संख्या विषाक्तता का कारण बनती है। कुछ जीवाणु ताप स्थानीय जीवाणु उत्पन्न करते हैं जो कि बाद में दूध को खराब कर देते हैं। यद्यपि पास्चुरीकरण की प्रक्रिया रोगजनिक जीवाणुओं को समाप्त कर देती है। दूध में प्रारम्भिक उच्च जीवाणुविक गणना अवांछित होती हैं अतः कोडेक्स मानकों के अनुसार तैयार दुग्ध उत्पाद न केवल सुरक्षित और श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले होने चाहिये बल्कि कच्चा दूध इस प्रकार उत्पादित किया जाये जिसमें कि जीवाणुविक संख्या कम से कम हो और प्रदूषित न हो। स्वच्छ दुग्ध उत्पादन के लिये पशु का स्वास्थ्य होना आवश्यक है जिसके लिये फार्म स्तर पर समुचित सफाई, निसंक्रमण और संतुलित आहार पर पूरा ध्यान रखना चाहिये। प्रदूषण के खतरों को कम करने के लिये पशुपालक को उत्पादकता स्तर पर समुचित आरोग्य कारी पद्धत्तियों को अपनाना चाहिये।
स्वच्छ दूध हम स्वस्थ पशु से ही प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिये पशु का समय-समय पर परीक्षण किया जाना चाहिये जिससे आश्वस्त हुआ जा सके कि पशु रोगों से ग्रस्त तो नहीं है। दुधारू पशुओं में थनैला रोग प्रमुख रोग है जिसमें पशु पीड़ित रहते है। थनैला रोग से ग्रस्त पशु का दूध मनुष्यों के लिए अहितकर है। टयूबरक्यूलोसिस और बूसियोलोसिस अन्य दो बीमारियाँ हैं जो मनुष्यों को भी प्रभावित कर सकती हैं और दूध के माध्यम से मनुष्यों तक पहुँच सकती हैं जो पशु दवाई ले रहे हों। उनके दूध का उपयोग मनुष्यों द्वारा नहीं किया जाना चाहिये। विशेष रूप से एन्टीबायटिक से कुछ व्यक्तियों को एलर्जी होती है। अगर दूध में एन्टीबायटिक हो तो संवर्धक उत्पाद मक्खन, चीज कलचर्ड दूध में जीवाणुविक प्रर्वतक बढ़ते नहीं हैं जिससे डेरी उद्योग की बहुत अधिक हानि होती है। स्वच्छ दुग्ध उत्पादन के लिये पशु को स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है।
अच्छी गुणवत्ता वाले दुग्ध उत्पादन के लिये समुचित मात्रा में हरा चारा, भूसा दाना से युक्त संतुलित आहार जिसमें आवश्यक मात्रा में पोषक और खनिज लवण हो, पशु को दिया जाना चाहिये, घटिया भूसा और विटामिन ई की कमी से आक्सीकरण बढ़ जाता है। यह भी आवश्यक है कि पशु का आहार और चारा कीटनाशक से रहित हो। हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि चारा और पशु आहार का संग्रह आर्द्रता रहित वातावरण में हो ताकि विषाक्तता न उत्पन्न हो सके।
सफाई की दृष्टि से पशुपालक बाड़े नाँद समुचित स्थान पर स्थित और निर्मित होनी चाहिये। पशुशाला ऊँचे स्थान पर होने चाहिये जिससे कि वर्षा और सतही पानी इकट्ठा न हो सके और मक्खी, मच्छर पैदा न हो सके। अच्छी प्रकार से डिजाइन, कंकरीट फर्श सही निकासी व्यवस्था और प्लास्टर टायल की दीवालें होने से सफाई में आसानी रहती है। यह भी आवश्यक है कि दोहन और दुग्ध रख रखाव की व्यवस्था वाले स्थान पर छत होनी चाहिये और स्थान हवादार होना चाहिये, जिससे मक्खी, मच्छर एवं धूल और वर्षा से दूध पशुशाला को दुग्ध दोहन से पूर्ण रूप से साफ कर लेना चाहिये। खाद, गोबर और मिट्टी के कण वहाँ नहीं बचने चाहिये। दूध दोहन के दौरान बीड़ी, सिगरेट आदि नहीं पीना चाहिये। पशुशाला को साफ करने तथा पशु बर्तन आदि की सफाई के लिये हैं। पर्याप्त पानी की व्यवस्था होनी चाहिये। सूअर और मुर्गी पशुशाला में नहीं रखे जाने चाहिये।
पशुशाला, पशु बर्तन आदि की सफाई व्यवस्था समुचित होनी चाहिये। इससे धुलाई रगड़ाई, ब्रशिंग, पालिशिंग आदि प्रक्रियाओं को अपनाया जा सकता है। सफाई करने वाले कैमिकल (रसायन) का प्रयोग करे सकते हैं। इनसे अधिकांश कीट, रोगाणु और धूल आदि नष्ट हो जाते हैं। गाय बांधने, दुग्ध दोहन के स्थान को अच्छी प्रकार से साफ करना चाहिये।
रोगाणु नाशन क्रिया के द्वारा संक्रमण फैलाने वाले अवयवों को नष्ट कर दिया जाता है और जो एजेन्ट प्रयोग किया जाता है उसको रोगाणुनाशक कहा जाता है। इन रोगजनक घटकों को नष्ट करने के लिये विविध प्रकार रौगणनाशक फार्म पर प्रयोग किये जा सकते हैं। ये रोगजनक धूल, मिट्टी दरारो और बिल्डिंग की दरारों में बने रहते हैं। सूर्य के प्रकाश में भी रोगाणु नाशन की क्षमता होती है। अतः पशुओं के घर में सूर्य का प्रकाश अवश्य आना चाहिये। दूध के बर्तनों को पाँच मिनट उबलते पानी में रखकर रोगाणु रहित कर सकते हैं। रौगाणु नाशन के लिये कैमीकल, जैसे एसिड अल्कलाईज और अन्य घटक जैसे पोटैशिम परमैगनेट, हाइड्रोजन पैराक्साइड, अल्कोहल, फारमेलिडिहाइड, फिनौल इत्यादि का उपयोग किया जा सकता है।
दुग्ध दोहन से पूर्व और बाद में खाली बर्तनों को तुरन्त साफ कर लेना चाहिये। इसके लिये उबलता पानी, भाप और रसायनतत्व प्रयोग कर सकते हैं। छोटे और सीमान्त किसान टीपोल जैसे प्रक्षालक का प्रयोग कर सकते हैं। दुग्ध के बर्तनों को अच्छी प्रकार से साफ कर लेना चाहिये जिससे उसमें प्रक्षालक तत्व शेष न रह जाये। बर्तन धोने के पश्चात उलटा करके रख देना चाहिये। बर्तन में हवा लगाने से दुर्गन्ध आदि समाप्त हो जायेगी। गरीब कृषक और पशुपालक जो कैमिकल आदि का प्रयोग करने में असमर्थ हों वे बर्तन को धोने के बाद धूप में सुखा लें। मिट्टीं और राख से बर्तन को साफ नहीं करना चाहिये।
दूध दुहने से पहले अयन और थन के अग्रभाग को साफ करें। ऐसा करने से थनैला और अन्य बीमारियाँ कम फैलेगी। दूध में धूल आदि नहीं गिरेंगी, जिससे दूध की जीवाणुविक गुणवत्ता बढ़ेगी साथ ही दुग्ध स्रवण में सहायता मिलेगी। अयन और थनाग्र को गुनगुने पानी से धोयें। अच्छा यह रहेगा कि पानी में एक चुटकी पोटेशियम परमैगनेट मिला लें। दूध दोहन से पहले पशु की पूँछ को पीछे की टांगो से बांध लेना चाहिये। अयन धोने के पश्चात कागज/तौलिया या कपड़े से सुखा लें। प्रत्येक पशु के अयन को तौलियों से पोछे और उपयोग किये गये तौलिये को अयन धोने वाले पानी में न डुबायें। अयन को साफ करने के लिये किसी प्रक्षालक का उपयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि दूध को प्रदूषित होने का खतरा रहता है।
पूर्व दोहन
दूध की असमान्यता का परीक्षण करने के लिये थोड़ा सा दूध वास्तविक दोहने से पहले निकाले लें । थनैला रोग परीक्षण करें। थनैला रोग से ग्रस्त पशु का दूध अन्य दूध में मिश्रित न करें। इस उद्देश्य के लिये स्ट्रिप या अन्य कोई ओटा बर्तन उपयोग किया जा सकता है।
वास्तविक दोहन
पूर्व दोहन द्वारा दुग्ध स्रवण के लिये साफ हो जाता है। अब हम वास्तविक दोहन आरम्भ कर सकते हैं। पूरे हाथ से दोहन करना चाहिये। दुग्ध दोहक को अपने हाथ अच्छी प्रकार से साफ करने चाहिये और उसे सुखे तौलिया से सुखायें। उसके हाथ में कोई घाव नहीं होना चाहिये। यह आश्वस्त कर लेना चाहिये दुग्ध दोहन की प्रक्रिया से जुड़े लोगों को कोई रोग न हो विशेष रूप से टी.बी जैसी बीमारी से ग्रस्त न हो। दूध दोहन 6-8 मिनट के अन्दर पूरा कर लेना चाहिये। दुग्ध दोहन के पश्चात थनों के अग्रभाग को जीवाणुविक नाशक घोल में डुबायें जिससे संक्रमण की आशंका कम हो।
मशीनद्वारा दोहन
विशेष सावधानी के बावजूद भी हाथ से दुग्ध दोहन के दौरान दूध प्रदूषित हो जाता है। मशीन से दूध दोहन से हाथ से दुग्ध दोहन से जुड़ी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है।
लेखन: बी.एस.मीणा एवं गोपाल सांखला
स्त्रोत: पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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