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छत्तीसगढ़ राज्य में मुर्गी पालन

छत्तीसगढ़ राज्य में मुर्गी पालन

ग्रामीण मुर्गीपालन पारंपरिक पद्धति

छत्तीसगढ़ प्रदेश के ग्रामीण, खासकर आदिवासी समुदाय के लोग, पांरपरिक पद्धति से कुक्कट पालन करते हैं। राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या लगभग 30% है।  यहाँ सदियों से पाई जाने वाली मुर्गी नस्लों में प्रमुख हैं - असील याकूत, चित्ता, पीला एवं देसी आदि। आदिवासियों कि संस्कृति एवं जीवन शैली में मुर्गियों का एक विशिष्ट स्थान होता है।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अधिकाँश गरीब परिवार मुर्गी पालन पर आंशिक निर्भरता रखते हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि प्रदेश की कुल 81 लाख कुक्कट संख्या में लगभग 30% की संख्या देसी घरेलू मुर्गियों की है। आमतौर पर प्रत्येक आदिवासी परिवार में 5-10 मुर्गियाँ पाली जाती हैं। देसी मुर्गियाँ वर्ष में 3 बार ही अंडे देती है। इस प्रकार प्रत्येक बार 10-12 अंडे देने पर वर्ष मने उनका औसत उत्पादन कुल 30-35 अंडे माना जा सकता है। इस उत्पादन का 10-15% हिस्सा अंडे के रूप में खाने के उपयोग में लाया जाता है तथा 85-90% हिस्सा चूजे उत्पन्न कर उन्हें मांस के लिए पाला जाता है। देसी मुर्गी का वृद्धि दर अत्यंत धीमी होती है, परन्तु फिर भी प्रदेश में देसी मुग्रियों की संख्या अधिक होने के कारण, प्रदेश का 20% अंडा उत्पादन एंव 40% मांस देसी मुर्गियों द्वारा प्राप्त किया जाता है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है अप्रत्यक्ष रूप से यह आदिवासी गरीब परिवारों के लिए नियमित आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

ग्रामीण परिवार बिना लागत एवं बहुत कम देखरेख कर अपने घरों की बाड़ी में कुक्कट पालन करते हैं। फलस्वरूप, कुक्कट पक्षियों का प्रमुख आहार घरेलू बचा-खुचा खाद्य पदार्थ, कीड़े-मकोड़े एवं जैविक खेद अवशेष होता है। इस तरह से स्थानीय अनुपयोगी वस्तुओं को देसी मुर्गियों अंडे एवं मांस में बदलने का काम करती हैं। इससे इन कुक्कुटों के मांस का स्वाद अच्छा एवं अधिक गुणात्मक होने से इनका बाजार मूल्य अधिक होता है। इन्हीं धनात्मक गुणों के काँ मांसाहारी एंव पारम्परिक प्राथमिकताओं के कारण स्थानीय आदिवासी अधिकतर रंगीन देसी मुर्गी पालते हैं। रंगीन मुर्गी परिवेश में रंगों की अनुकूलता के करण शिकारी जानवरों एवं परभक्षी पक्षियों का शिकार होने से बच जाती है।

कुक्कुट पालन से ग्रामीणों को लाभ

  • अतिरिक्त आय
  • आकस्मिक आवश्यकता पड़ने पर कुक्कुट विक्रय करके धन की उपलब्धता
  • पारिवारिक स्वास्थ्य एवं पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका
  • मनोरंजन, जैसे मुर्गा लड़ाई
  • देवी देवता पूजन में चढ़ावा।
  • मेहमानों की खातिरदारी, विशेषकर शादी या त्यौहार पर

देसी कुक्कट कई बीमारी एवं बदलते मौसम की मार का जड़ता से सामना करती है। साथ ही विदेसी मुर्गियों के विपरीत देसी मुर्गी एक अच्छी में होती है, जो अपने अण्डों को सेती हैं एवं चूजों को अपने साथ लिए घुमती है तथा उनके लिए भोजन जुटाती है। देसी मुर्गी के उपरोक्त सभी गुण आदिवासी जीवन शैली के लिए बहुत उपयुक्त होने के कारण दोनों का सदियों का साथ रहा है।

घरेलू कुक्कट पालन से जुडी समस्याएं

भारत के ग्रामीण परिवेश में महिलाओं का पशुपालन गतिविधियों में 74% योगदान रहता है। छत्तीसगढ़ में संभवतः यह अह्दिक है लेकिन जागरूकता के अभाव में कुक्कुट विक्रय एवं उसकी आय से आदिवासी महिलाएं प्रायः वंचित रहती है। वर्तमान में क्षेत्रीय अशिक्षा एवं जागरूकता एक अभाव में कुक्कुट में मृत्यु दर अधिक होती है।

इतना निश्चित है कि घरेलू मुर्गियाँ घूम-घूमकर जितना भी आहार जुटाएं, वह उनके अंडा अथवा मांस उत्पादन हेतु पर्याप्त नहीं होता। यही कारण है कि घरेलू मुर्गियों के वजन में बढ़ोत्तरी फार्म मुर्गियों की उपेक्षा कम होती है। देसी मुर्गियों में एक किलो वजन, प्राप्त करने में लगभग 6 माह का समय लग जाता है। चूजों को ठंड, बरसात, कई प्रकार की बीमारियों, चील-कौओं, कुत्ते, भेड़ियों आदि से सुरक्षित न रख पाने के कारण ग्रामीण परिवेश में, चूजों में मृत्यु दर बहुत अधिक पाई जाती है।

प्रायः यह देखा गया है कि पशुपालक किन मुर्गियों को प्रजनन के लिए उपयोग करेंगे एवं किसे बेचेंगे इसका चयन ठीक से नहीं कर पाते जिससे कई बार अच्छी कुडुक मुर्गी या ज्यादा अंडे देने योग्य मुर्गियों को बेचा या खाया जाता है अयोग्य मुर्गी चूजे उत्पन्न करने के लिए रख ली जाती है।

इसी तरह अंडे सेने वाली मुर्गियों हेतु पृथक से व्यवस्था नहीं की जाती, जिससे कुछ भ्रूण-रहित अण्डों से चूजे उत्पन्न नहीं हो पाते। व्यवसायिक मानसिक नगण्य होने के कारण ग्रामीण मुर्गीपालक अपनी मुर्गियों पर लगभग कोई खर्च नहीं करते और न ही उससे हुए लाभ का कोई हिसाब रखते हैं। चूजे, दाना, स्वास्थ्य सेवाओं की निरंतर अनुपलब्धता, प्रशिक्षण एवं विस्तार कार्यक्रमों की कमी एवं स्थाई बाजार में अभाव के कारण स्थानीय आदिवासी अभी भी मुर्गी पालन को एक व्यवसाय के रूप में आत्मसात नहीं का कर पाए हैं।

देसी मुर्गी पालन से बस्तर एवं सरगुजा जैसे वनांचलों में जैव विविधता का संरक्षण एवं संर्वधन किया जाना संभव  हो सकता है। यह एक ऐसे विकास का पथ है, जो जन साधारण की स्वाभाविक रूचि एवं आर्थिक उन्नति के साथ पर्यावरण परिपूरक भी है।

प्रदेश में कुक्कट पालन विस्तार-क्षमता का आंकलन

  • प्रदेश में आदिवासी ग्रामीण महिलाओं को विगत वर्षों में स्वसहायता  समूह के रूप में संगठित एवं प्रशिक्षित करने का अभियान वृहद् स्तर पर चलाया गया है। इन महिला समूहों के पास आयवर्धक कार्य करने के लिए बहुत ही सिमित साधन है, जिनमें घरेलू कुक्कुट पालन इनका पारिवारिक आय का स्रोत भी है।
  • खुली पद्धति से पाली जाने वाली देसी मुर्गियों की बाजार में अच्छी मांग एवं विक्रय दर है।
  • पशुपालन विभाग से प्रशिक्षित गौसेवक, बस्तर एकीकृत पशुधन विकास परियोजना, जगदलपुर द्वारा प्रशिक्षित ग्राम सहयोगकर्त्ता, राष्ट्रीय सम विकास योजनान्तर्गत प्रशिक्षित पैरावेट गौसेवक आधारभूत पशु चिकित्सा सेवायें (कुक्कट स्वास्थ्य सेवाएं भी) सहायक पशी चिकित्सा क्षेत्र अधिकारी प्रशिक्षण केंद्र महासमुंद, कुक्कुट पालन के क्षेत्र में नेक अभूतपूर्व संभावना ने जन्म लिया है।
  • स्वास्थ्य विभाग की मितानिनें, ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य कार्यकर्ता होने के साथ-साथ कुशल विस्तर कार्यकर्ता भी हैं। इन्हें कुक्कुट पालन के क्षेत्र में प्रशिक्षित कर विस्तार कार्यक्रमों में सहभागी बनाया जा सकता है।

शारीरिक संरचना

ब्रायलर

लेयर

देसी

अधिक शारीरिक वृद्धि दर

अधिक अन्डोत्पादन एवं  कम शारीरिक वृद्धि दर।

कम अन्डोत्पादन एवं  कम शारीरिक वृद्धि दर।

एक से डेढ़ माह में लगभग 1.5 किलो वजन

लगभग 300 से 325 अंडे प्रति मुर्गिद प्रति वर्ष

लगभग 30 से 40 अंडे प्रतिवर्ष तथा 6 8 माह में किलो शरीर भार

ग्रामीण परिवेश में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम

ग्रामीण परिवेश में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम

ग्रामीण परिवेश में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक

सफेद रंग के होते हैं।

सफेद एवं रंगीन दोनों पाए जाते हैं।

अधिकतर रंगीन होते हैं।

24 घंटे मुर्गी घर में रखकर दाना-पानी वहीं उपलब्ध कराया जाता है।

24 घंटे मुर्गी घर में रखकर दाना-पानी वहीं उपलब्ध कराया जाता है।

आंगन एवं घर के आस-पास खुले स्थान में पाली जाती है। अपना दाना-पानी स्वयं जुटाती है।

बाजार कीमत रु. 80 से 90 प्रति किलो जीवित वजन

बाजार कीमत रु. 2 से 3 प्रति अंडा एवं कम अन्डोत्पादन उपरान्त मुर्गी कीमत रु. 35 से 45 प्रति नग।

बाजार कीमत रु. 4 से 5 प्रति अंडा एवं 120 से 130 प्रति किलो जीवित वजन।

मांस के लिए पाला जाता है।

अण्डों के लिए पाला जाता है।

मांस एवं अण्डों के लिए पाला जाता है। अधिक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट मांस की मान्यता।


मुर्गी आवास की व्यवस्था

बस्तर के प्रायः सभी परिवारों के पास कुछ मुर्गियाँ होती है। एक मुर्गी वर्ष भर में 30-40 अंडें देती हैं। कुछ अण्डों में भ्रूण नहीं होता, लेकिन बाकी एक करीब 20-22 अण्डों से चूजे निकलते हैं। यद्यपि कोई व्यवस्थित अध्ययन नहीं किया गया है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इन 20-22 चूजों में से केवल 2-3 पक्षी मिलती है। अनुमान है कि इनमें से लगभग 20 से 40% बीमारी से, 20% समुचित देखभाल के अभाव तथा सर्दी-गर्मी के प्रकोप से मारे जाते हैं।

1.  अच्छा मुर्गी आवास ठंड, बरसात, तेज धुप एवं जंगली जानवरों से बचाता है।

2.  आवास के होने से मुर्गियों को दाना-अपने देना तथा दवा पिलाना आसान होता है।

मुर्गीघर बनाते समय ध्यान रखने योग्य बातें

1. मुर्गीघर अपने आवास के साथ लगा हुआ एवं स्थानीय सामग्रियों से बनाया जा सकता है। जहाँ तक हो सके, घर को पूर्व-पश्चिम दिशा की ओर बनाएं।

2. यदि संभव तो मुर्गीघर को इक्कट्ठे हुए पानी, बाढ़ आदि से बचाने हेतु घर के फर्श को जमीन से करीब 1 फुट ऊँचा बनाएं ताकि बीट आदि नीचे इकट्ठा हो जाए जिसे बाद में खाद के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

3.  मुर्गीघर बहतु महंगा नहीं होना चाहिए, परन्तु घर की मजबूती, आराम तथा सुरक्षा का  पूरा ध्यान रखना चाहिए।

4. लकड़ी अथवा बांस या मिट्टी का फर्श समतल करके बनाया जा सकता है।

5. घर का फर्श ऐसा होना चाहिए कि  नमी तथा दरार पड़ने से बचा रहे, आसानी से साफ किया जा सके, मजबूत हो तथा चूहों इत्यादि का प्रवेश न होने पाए।

6. चूँकि हमारे प्रदेश में प्रचुर मात्र में वर्षा होती है, घर की छत ऐसी होनी चाहिए कि बारिश का पाने बहकर निकल जाए। छत दीवार होनी चाहिए। गांवों में आसानी से उपलब्ध पैरा का इस्तेमाल छत बनाने के लिए किया जा सकता है। पैरा से ढंकी छत में से पानी चुने की गुंजाइश नहीं रहती।

7. मुर्गी घर में आस-पास पेड़ लगाएं ताकि पेड़ों की छाया उस पर पड़ती रहे।

8. दीवारों का लगभग 75% हिस्से को बांस की जाली बनाकर ढकें। जालीदार दीवार में मोटा बोरा का पर्दा लगाएं जिसे सामान्यतः गोल घुमाकर ऊपर बांध कर रखें। आवश्यकतानुसार बारिश या तेज धुप पड़ने पर उसे खोल कर नीचे लटका दें ताकि मुर्गियाँ पानी तह गर्मी से बची रहें। इन बोरोन को अधिक गर्मी के दिनों में पानी डालकर ठंडा रखें।

विभिन्न श्रेणी की मुर्गियों हेतु जगह की आवश्यकता निम्नानुसार है

श्रेणी

आवश्यक जगह (वर्ग फीट प्रति मुर्गी)

छोटे चूजे

0.5

2-6 हफ्ते

0.75

6 हफ्ते  से अधिक

1.00

ब्रायलर

1.00

लेयर/बड़े मुर्गी

1.50-2.00


दाना-पानी के बर्तन

1.  मुर्गियों के दाने तथा पानी के बर्तनों हेतु समुचित जगह उपलब्ध करवाना अयंत आवश्यक है। सामान्यतः दाने-पानी बर्तनों हेतु इतनी जगह उपलब्ध होनी चाहिए कि कुल संख्या की आधी मुर्गियाँ एक समय में खा-पी सकें।

2.  पानी के लिए चित्र में दर्शाए गये थोड़े महंगे बर्तनों का उपयोग किया जाता है। ग्रामीण पशुपालक चाहें तो इन्हें खरीदकर उपयोग कर सकते हैं।

3.  ग्रामीण मुर्गिपालक बांस के तने बर्तनों को कुक्कुट दाना पानी हेतु उपयोग कर सकते हैं। गाँव में बांस आसानी से तथा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है तथा इसका उपयोग भी आसान, सस्ता एवं कम मेहनत लगने वाला होता है।

4.  तीन या चार फीट लंबे मोटे बांस को बीच से चीरा लगाकर दो हिस्सा कर लड़की के खूंटी पर रखा जाता है। इन बर्तनों को समय-समय पर साबुन तथा गुनगुने पानी से ढोने तथा सुखाने के  बाद पुनः उपयोग करते हैं। दाने को व्यर्थ जाने से बचाने हेतु बर्तनों में दाना आधे से अधिक नहीं भरना चाहिए।

5.  पानी के लिए बांस बर्तन के अतिरिक्त चित्र अनुसार घरेलू अनुपयोगी वस्तुओं का भी उपयोग किया जा सकता है।

6.  सही जगह पर  दाना-पानी  के बर्तनों को रखकर मुर्गियों के लिए समुचित जगह उपलब्ध करना आवश्यक है। आवश्यकतानुसार मुर्गियों को घर के बाहर भी दाने-पानी की व्यवस्था की जा सकती है।

मुर्गी घर में रुस्ट

रात में मुर्गियों को ऊँची जगह पर उड़कर पैरों से पेड़ आदि की डाल पकड़ कर सोने की आदत होती है। मुर्गी घर में ऐसी सुविधा न होने पर मुर्गियाँ दाना-पानी बर्तन अदि के ऊपर बैठती है एवं उनके बीट से गंदगी फैली है। मुर्गी घर में एक ऐसी व्यवस्था (जिसे रुस्ट कहते हैं) रखने पर मुर्गियाँ यहाँ-वहां न बैठकर निर्धारित जगह में ही रहेंगी। इसके लिए उनके घर में ही लगभग 5 से. मी. व्यास का बांस जमीन से करीब 1 मीटर की ऊंचाई पर लगाना चाहिए। 13 पक्षियों के लिए बांसों की कुल लम्बाई 3-4 मीटर के बीच होना चाहिए।

अंडे सेने हेतु व्यवस्था

अंडे सेने वाली मुर्गियों हेतु अलग से व्यवस्था करना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए बांस की बनी टोकनी का उपयोग समुचित संख्या में करना चाहिए ताकि अण्डों को टूट-फुट से बचाया जा सके। लगभग 1 वर्ग फीट तथा 6-9 इंच टोकनी में पैरा बिछाने से अंडे नहीं फूटेंगे।

देसी मुर्गी का आहार

मुर्गी की तुलना एक मशीन या फैक्ट्री से की जा सकती है, जो ग्रामीण परिवेश में उपलब्ध जैविक अनुपयोगी पदार्थों को पौष्टिक प्रोटीन (अंडा या मांस) में बदल देती है। देसी मुर्गी घर के आस-पास उपलब्ध चारे एवं कीड़े मकोड़ों को बड़ी चतुरता एवं चपलता से हासिल करती है। इस वजह से उनकी उर्जा खपत होती है। जिससे बढ़त कम होती है। यदि ग्रामीण पशुपालक सुबह एवं शाम को अल्प मात्रा में कुक्कट दाना नियमित रूप से दे तो उनकी मुर्गियों को 1 किलो शरीर भर पहुँचाने कें कम समय लगेगा एवं पशुपालक अधिक लाभाविंत होंगे। साथ ही उक्क्त कुक्कुट दाने में गाँव में उपलब्ध कम खर्चीले पौष्टिक सामग्री मिलान से कुक्कुट दाने का व्यय भी कम किया जा सकता है।

निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं

1. पानी सबसे सस्ता एवं आहार का प्रमुख पदार्थ होता है। जीवित मुर्गी में 55-60% पानी ही होता है। दाने को नर्म करने व पचाने, हजम हुए भोजन को खून में ले जाने, शरीर के अंदर से ख़राब तत्वों के बाहर निकालने और शरीर का तापमान बनाये रखने के लिए मुर्गियों को पानी की आवश्यकता होती है। मुर्गी घर एवं आंगन के पास बांस बर्तनों (बांस बर्तन संबंधित जानकारी इस पुस्तक में उपलब्ध हैं) या किसी भी साफ बर्तन में स्वच्छ, ताजे पानी को 24 घंटे सुगमता से उपलब्ध कराना अति आवश्यक है।

2. नियमित कृमिनाशक द्वापान तथा वाह्य परजीवी नाशक का उपयोग करना चाहिए।

3. मुर्गियों को नियमित हरा चारा एवं स्थानीय उपलब्ध आहार प्रदान करने से उनकी बढ़त केवल स्वयं द्वारा चरने से ज्यादा तेजी से हो सकती है जिससे ग्रामीण पशुपालक लाभाविंत हो सकते हैं।

उपरोक्त उपाय अपनाने से देसी मुर्गियों में रोग भी कम लगते हैं। स्वस्थ्य मुर्गी में भोजन का उपयोग रोगों से लड़ने के लिए न होकर अंडा व मांस बनने के लिए होने लगता है।

कुक्कुट आहार के घटकों का संक्षिप्त विवरण एवं उनका महत्व

घटक

शरीर के भीतर कार्य

स्रोत

पानी

पाचन, शरीर के तापमान को बनाये रखना, शरीर से अनावश्यक तत्वों को निकालना

पानी, ताजा हरा चारा

कार्बोहाईड्रेडट

ऊष्मा, उर्जा तथा उत्पादकता के लिए

पीली मक्का, जौ, ज्वार, राईस पोलिस, कनकी

प्रोटीन

बढ़ोत्तरी, ऊतक निर्माण, अंडा एवं मांस उत्पादन

मूंगफली तिल व सोयाबीन की खली, दाल का छिलका, मछली का चुरा, हरा चारा (बरसीम)

खनिज

हड्डी निर्माण, अंडा उत्पादन, शरीर के सभी तंत्रों के लिए

हड्डी का चुरान नमक चुना सीप. संगमरमर का चुरा

विटामिन

सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए उत्पादन बेहतर अंडा व मांस उत्पादन  के लिए

हरा चारा, पीली मक्का, मछली का चुरा, धुप


हरा चारा

हरा चारा प्रोटीन, खनिज एवं विटामिन का अच्छा स्रोत है, जो हर आयु वर्ग की मुर्गियों को दिया जाना चाहिए। यह मुर्गियं के स्वास्स्थ्य व अंडा उत्पादन के लिए बहुत उपयोगी है। यदि पत्तेदार हरा चारा फूल आने से पहले काटकर मुर्गियों को दिया जाए तो उन्हें प्रोटीन, खनिज एवं विटामिन एवं लोबिया सर्वोत्तम माने जाते हैं। इसके अलावा गोभी, गाजर, मुली आदि के पत्ते, पालक जैसी सब्जियों के अनुपयोगी पत्तों के हिस्से भी दिए जा सकते हैं] मुर्गी आहार में एजोला भी दिया जा सकता है। हरे चारे को साफ पानी  से धोकर एवं काटकर देना चाहिए। हरा चारा को निम्नलिखित मात्रा अनुसार खिलाना चाहिए।

मुर्गी- 30 से 50 ग्राम प्रतिदिन

चूजा-20 से 30 ग्राम प्रतिदिन

मुर्गी आहार के लिए दीमकों का उपयोग

  • पुराने सूती कपड़े के टुकड़े/ बोरे का टुकड़ा
  • गोबर के सूखे कंडे एवं थोड़ा कच्चा गोबर
  • लकड़ी के सूखे टुकड़े
  • दीमक युक्त, दीमक बाम्बी का टुकड़ा
  • पर्याप्त नमी
  • 2-3 दिनों तक मटके को उलटकर, आस-पास में पानी छिड़कर रखते हैं।

मटके को पलटकर, दीमक चूजों को खिलाया जा सकता है। इससे उन्हें अच्छा प्रोटीन मिलता है। जिससे अच्छी बढ़त होती है।

मुर्गी पालन हेतु मुर्गियों का चयन

ग्रामीण परिवेश में पशुपालक मुर्गियों को एक से डेढ़ किलो के वजन होने पर कुछ को बेचते हैं, कुछ को खाने एवं मेहमानों को खिलाने, एवं शेष को चूजे उत्पन्न करने के लिए (प्रजनन के लिए) उपयोग करते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि पशुपालक किन मुर्गियों को प्रजनन के लिए उपयोग करेंगे एंव किन्हें बेचेंगे, का चयन ठीक से नहीं कर पाते है जिससे कई बार कुडुक मुर्गी या ज्यादा अंडे देने योग्य मुर्गियों के बेचा या खाया जाता है एवं अग्योय मुर्गी चूजे उत्पन्न करने के लिए रख ली जाती है। इसका प्रतिकूल असर मुर्गी पालन के व्यवसाय पर पड़ता है।

प्रजनन हेतु कितने मुर्गे या मुर्गियों को रखना है, निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है।

1. मुर्गी घर की क्षमता – कम जगहों में ज्यादा कुक्कुट रखने पर कई तरह की समस्याएं आ सकती हैं।

2. खाने के उपयोग अथवा बेचने की क्षमता ।

3. पशुपालक की कुक्कुट दाना पानी एवं देखभाल करने की क्षमता ।

उपरोक्त आधार पर पशुपालक को यह तय करना चाहिए कि वह कितनी मुर्गियों को बेचेंगे एवं कितनों को प्रजनन हेतु रखेंगे।

प्रजनन हेतु मुर्गा/मुर्गियों का चयन

1. तेजी से बढ़ने वाले, स्वस्थ मुर्गा/मुर्गी चयन योग्य हैं। ऐसे कुक्कुटों की मजबूत चोंच एवं छोटे तथा पैने नाख़ून होते हैं। चमकदार लाल कलगी स्वास्थ्य एवं चुस्त कुक्कुट की निशानी होती है।

2. जो मुर्गियाँ कम उम्र में अन्डोत्पादन प्रारंभ कर देती है, उन्हें एवं उनके चूजों को भविष्य में  प्रजनन हेतु चयन करना चाहिए।

3. दो वर्ष से अधिक समय तक अंडे दे रही मुर्गियों को प्रजनन के लिए पुनः उपयोग नहीं करना चाहिए।

4. मुर्गियों के अंडे देने के स्थान के दोनों तरफ नुकीली हड्डी होती है। तीन ऊँगली बराबर फासला अधिक अच्छा माना जाता है।

5. उन मुर्गियों का चयन करें जिनक गुदा द्वार साफ, नर्म एवं बड़ो हो।

6. कुछ मुर्गे अकेले इधर से और उधर भटकते हैं। प्रजनन हेतु उन मुर्गियों का चयन करना चाहिए, जो प्रजनन योग्य मुर्गियों के पीछे दौड़ती है।

7. चयनित प्रजनन योग्य मुर्गों को एक वर्ष के भीतर बदल देना चाहिए।

पशुपालक ऐसे नर कुक्कुट को आपस में बदल सकते हैं।

अंडा सेने वाली मुर्गी की देखभाल

देसी मुर्गी एक अच्छी माँ होने के कारण हमेशा अपने अंडे और चूजों को समुचित देखभाल करती है। कुडुक मुर्गी अण्डों या नवजात चूजों के ऊपर पंखों को फैलाकर बैठकर उन्हें शरीर के तापमान से गर्म रखती है। यह देखा गया है कि कुडुक मुर्गी की देखभाल ग्रामीण पशुपालक नहीं का पाते  हैं। मुर्गी को कहीं  भी बैठना पड़ता है एवं इसके कुछ अंडे खराब होने के साथ-साथ जूं किलनी आदि से भी वह परेशान रहती है।

निम्नलिखित बातों पर ध्यान देने से अण्डों की संख्या में बढ़ोत्तरी फलस्वरूप चूजों की संख्या बढ़ाई जा सकती है-

1. घोंसला/ले इंग नेस्ट, वह स्थान है जो दिए गये चित्र अनुसार बनाना चाहिए। यह एक बांस की टोकती या लकड़ी के बक्से से बनाया जा सकता है। जो मुर्गी घर के कोनों में , किसी ऊँचे स्थान पर रखा गया हो। घर पर उपलब्ध पुरानी टोकरी, टूटी हंडी का भी उपयोग किया जाता है।

2. घोंसला/लेइंग नेस्ट पर सुखी, मुलायम, साफ पैरा/घास का बिछौना बिछाया जा सकता है, जहाँ कुडुक मुर्गी बैठ सके।

3. इन मुर्गियों को उनके घोंसलों (लेइंग नेस्ट) को जूँ, किलनी, पिस्तू आदि बाह्य परजीवी से मुक्त रखना चाहिए (विधि इस पुस्तक में दी गयी है) ताकि बार-बार खुजली से परेशानी न हो व मुर्गी आराम से अंडे से सकें।

4. एक साफ-सुथरा आरामदायक घोंसला/ नेस्ट बनाने से मुर्गियाँ कहीं भी अंडा नहीं देती है। इससे गंदे अण्डों से मुक्ति मिलती है तथा जंगली जानवर/पक्षी अंडे खा नहीं पाते हैं। साथ ही अण्डों के चटकने टूटने, अंडे खाने की आदत में कमी तथा अंडे ख़राब होने अक अंदेशा कम रहता है।

5. अंडा देने वाली मुर्गी को नियमित (प्रति तीन माह पश्चात) कृमिनाशक द्वापान कराना चाहिए।

6.  घोंसला/नेस्ट की जगह- मुर्गियों हमेशा एकांत स्थान पर ही अंडे देना पसंद करती है, इस कारण घोंसला/नेस्ट हेमशा ऐसे स्थान पर रखें जहाँ

क.   एकांत हो (घर के अंदर या मुर्गी कोठे के कोने में)

ख.   अँधेरा रहे (सीधे सूर्य की रौशनी न पड़ें )

ग.    हवादार हो।

घ.    जमीन से कम से कम 2 फीट/1 हाथ की ऊंचाई पर हों।

ङ.     ठंडा व् सुखी जगह हो।

च.    घोंसला/नेस्ट के नजदीक हर समय साफ, पीने का पानी उपलब्ध होना चाहिए तथा उपलब्धता के अनुसार दाना (कोंडा, पत्ती/भाजी, मक्का आदि) रखना चाहिए।ऐसा करने से मुर्गी ज्यादा से ज्यादा समय अंडा सेने के लिए बैठती है।

अण्डों की कैंडलिंग (भ्रूण परिक्षण)

ग्रामीण पारंपरिक मुर्गी-पालन व्यवस्था में मुर्गियों से प्राप्त सभी अंडे मुर्गियों के नीचे सेने हेतु रख दिय जाते हैं। इस पराक्र मुर्गी इन अन्डो को, प्राकृतिक विधि से सेने का कायर करती है, जिससे 21 दिनों पश्चात चूजे उत्पन्न होते हैं।

अंडे दो प्रकार के होते हैं- शाकाहारी एवं मांसाहारी। शाकाहारी अंडे मादा पक्षियों नर की अनुपस्थिति में दिए जाते हैं, अतः इनमें भ्रूण (बच्चा) नहीं होता। मादा पक्षियों को नर से प्रजनन कराने के बाद मांसाहारी अंडे प्राप्त होते हैं जिसमें भ्रूण उपस्थित रहता है। इस प्रकार के अण्डों से, मुर्गी के नीचे 21 दिनों तक रखने के पश्चात छुए निकलते हैं।

मुर्गी द्वारा सेने हेतु अण्डों को मुर्गियों के नीचे रखने से पहले भ्रूण परीक्षण करने वाली मशीन को कैंडलर कहते हैं। साधारणतः यह टिन पर बल्ब लगा होता है तथा दूसरे सिरे पर एक छेद होता है। जमीन पर अँधेरे कमरे में कैंडलर के बल्ब को जलाकर, दूसरे सिरे पर अंडा रखा जाता है। ध्यान से देखने पर यदि अंडे के चौड़े सिरे कि ओर, अंडे के भीतर, कालापन लिए एक छोटा गोला तैरता हुआ दिखाई दे, तो वह भ्रूण- रहित अर्थात शाकाहारी होगा।

यह परिक्षण कार्य मुर्गी के अंडा सेने से चौथे-पांचवे दिन पर करना चाहिए. जब भ्रूण न हॉट उसे स्वयं के खाने अथवा बेचने में उपयोग किया जा सकता है।

कैंडलर के स्वरुप में ग्रामीण परिस्थिति को देखते हुए सुविधा एवं उपलब्ध संसाधन अनुसार बदलाव कर कैंडलर बनाया जा सकता है।

डब्बा कैंडलर

1. ग्रामीण परिवारों में प्रायः प्रत्येक घर में टिन का डब्बा आसानी से उपलब्ध रहता है। एक साधारण टिन के डब्बे को लेकर उसमें छैनी-ह्थौड़ी की सहायता से डब्बे की गोलाई के मध्य में एक लगभग 3 से. मी. व्यास का गोला काटें।

2. डब्बे के निचले सिरे का बल्ब के होल्डर जितने साईज का गोला काटकर उसमें होल्डर फिट करें तथा बिजली कनेक्शन से जोड़ते हुए बल्ब जलाएं।

3. इस डब्बे को जमीन पर रखने के लिए एक स्टैंड भी बनाया जा सकता है। अथवा डब्बे को ऐसे ही रखा जा सकता है।

  • बिजली की अनुपलब्धता होने की स्थिति में एक बार में 10-15 तक अण्डों का भ्रूण –परिक्षण करने हेतु टॉर्च का इस्तेमाल भी किया जा सकता है।
  • इस हेतु साधारण पाउडर या टिन का लंबा सा डब्बा ले लें तथा नीचे की पेंदी निकालकर ऊपरी सतह पर एक छेद कर दें तथा टॉर्च को जलाकर डब्बे के अंदर रख दें।
  • कार्डबोर्ड  को गोलाई में मोड़कर टॉर्च के आकार का बना लें। कार्डबोर्ड का एक ढक्कन को लगकार टॉर्च की रौशनी में अण्डों का भ्रूण परिक्षण करें।
  • किसी भी कैंडलर का नियमित उपयोग से पहले, पद्धति का अच्छा अभ्यास कर लेना अति आवश्यक है।

कैंडलिंग से लाभ

कैंडलिंग से भ्रूण रहित अंडे, जिन्हें अन्यथा कुडूक मुर्गी की नीचे सेने हेतु रख दिया जाता है, को अलग कर खाने अथवा बेचने में उपयोग किया जाता है। इस प्रकार अण्डों को बर्बाद होने से बचाया ही जा सकता है तथा इससे अतिरिक्त आय का साधन भी बनाया जा सकता है। साथ ही सिमित अंडे होने के कारण कुडूक मुर्गी के शरीर का तापमान सभी अण्डों पर समान रूप से पड़ता है एवं अंडे से चूजे निकलने का अनुपात (हैचिंग%) अधिक होता है।

मुर्गी चूजों की देखभाल

सामान्यतः चूजों के पालन में ग्रामीण पशुपालकों को सबसे ज्यादा कठिनाई आती है। चूजों में मृत्यु की आशंका सबसे अधिक होती है। चूजों को तेज गर्मी, ठण्ड, बरसात, कई प्रकार की बीमारियों, चील-कौवों से सुरक्षित रखना अतिआवश्यक है। चूजों को प्रथम 3-4 सप्ताह की उम्र तक पालने में निम्नुसार सावधानियां बरतनी चाहिए।

1. दूरस्थ जगह से चूजे क्रय करके लाने की वजह से उनमें भूख एवं थकान होती है। उन्हें सबसे पहले किसी छाँव एवं शांत सी जगह में रखकर बारीक़ जोंदरा (मक्का) अथवा दलिया कागज (पुराने अखबार/समाचार पत्र) के बिछौने पर छिड़ककर देना चाहिए। चुजें जब कागज के ऊपर चलते हैं तो पंखे की खड़खड़ाहट से वे नीचे पड़े दाने को खोजकर खा पाते हैं। चूजों की थकान मिटाने के लिए पानी में थोड़ा उगद मिलाकर पिलाना चाहिए। इसमें उर्जा प्राप्त होती है।

2. कुक्कुट फार्म/हैचरी से चूजे आने से पहले मुर्गी घर को चुने या गोबर से लीपना चाहिए। सबसे अच्छा यह ही कि जिस मुर्गी घर में नये चूजे आए अन्य मुर्गियों का प्रवेश रोकना चाहिए। लेकिन जब घरेलू मुर्गी के चूजों को पालने की बात तो ऐसा करना उचित नहीं है।

3. चूजों को हमेशा खुले में नहीं रखना चाहिए। इस पुस्तक में वर्णित मनुष्यों के घर के अहाते में, मुर्गी घर में , या रात के समय एवं दोपहर के आंगन में बड़ी टोकनी की नीचे ढँक कर रखना चाहिए। टोकनी की चौड़ाई 27 इंच उंचाई 18 इंच एवं ऊपर एक 8 इंच चौड़ा छेद होना चाहिए।

4. मुर्गी घर एवं उपरोक्त अनुसार टोकनी में दाना-पानी की पर्याप्त व्यवस्था रखनी चाहिए।

5. मुर्गी घर में प्रथम दो सप्ताह तक इन एवं रात दोनों समय बल्ब जलाकर चूजों को ठण्ड से बचाना चाहिए। दो सप्ताह के बाद केवल रात में बल्ब जलाना ही पर्याप्त है। रात में बल्ब जलाने से एक लाभ और होता है कि रात में रौशनी होने के कारण वे रात में भी दाना-पानी लेते रहते हैं। जिससे उनकी बढ़त तेजी से होती है। मुर्गी फार्मों के चूजों के जल्दी बढ़ाने के कई कारणों में से यह भी एक है।

6. बिजली न होने पर सिगड़ी अथवा तगाड़ी में कोयले के अंगार या लकड़ी के गुटके के अंगार रखकर उसे ईटों का घेरा बनवाकर चूजों को सुरक्षित एवं अनुकूल तापमान में रखा  जा सकता है।

7. बल्ब कितनी ऊंचाई पर हो या सिगड़ी कितनी दूरी पर रहे इस बात को निम्नानुसार परखा जा सकता है। यदि चूजों बल्ब या सिगड़ी के बहुत पास-पास इकट्ठे हो रहें हो तो इसका अर्थ होगा कि  बल्ब को थोड़ा नीचे, चूजों के पास रखा जाएँ या सिगड़ी में अंगार बढ़ाया जाएँ। यदि मुर्गी चूजे बल्ब या सिगड़ी से बहुत हट हरें तो इसका अर्थ होगा कि बल्ब को थोड़ा ऊपर, चूजों से दूर रखा जाए या सिगड़ी में अग्गार घटाया जाएं।

8. प्रथम सप्ताह की उम्र में चूजों को झुमरी रोग (रानीखेत) बचाव के लिए एफ 1 टीका लगाना चाहिए। एक माह की उम्र होने पर यह टीका पुनः लगाना उचित है। टीका लगाने की विधि विस्तार में इस पुस्तक में दी गई है।

9. प्रत्येक माह में 3 दिन एक चम्मच टैट्रासाइक्लीन पाउडर एक कसेला/एक बड़े गिलास पानी में घोलकर पिलाना चाहिए। यह मात्रा 15-20 चूजों के लिए पर्याप्त होती है। ऐसा करने से चूजों को सफेद दस्त एवं सर्दी जुकाम से बचाया जा सकता है।

10. इसी तरह माह में बार सभी चूजों को 3-3 बूंद पिपराजीन दवा, ड्रापर या सिंरिज की मदद से , पिलाने से चूजों के पेट में कृमि (गेंडरुक/पेट के कीड़े) नहीं होंगे जिससे उनकी बढ़त तेजी से हो सकती है।

ठण्ड के मौसम में चूजों की देखभाल

ठण्ड के मौसम में चूजों कि विशेष देखभाल की आवश्कता होती है। चूजों को भूसे अथवा बुरादे की बिछावन तैयार कर रखना चाहिए। मुर्गी घर की खिड़की आदि को बोर से ढंकना चाहिए। बल्ब को नीचे लटका कर यथासंभव कमरे को गर्म रखना चाहिए। दाने का बर्तन अधिकांशतः भरा रहना चाहिए।

बरसात के मौसम में चूजों की देखभाल

मुर्गीघर को बरसात  में गिला होने से सदैव बचाना चाहिए। बिछावन हेमशा सुखा रहना चाहिए। यदि बिछावन में गीलापन आ जाए तो चुना मिलाकर

बैकयार्ड कुक्कुट पालन योजना

योजना का उद्देश्य –अनुसूचित जनजाति वर्ग के परिवारों के जीवन स्तर में सुधार लाना उनकी आय हेतु अतिरिक स्रोत उपलब्ध कराना।

योजना का विवरण- योजना के अंतर्गत पात्र हितग्राहियों को 15 दिवसीय 55 उन्नत नस्ल के रंगीन चूजे, कुक्कुट आहार, परिवहन सहित प्रदाय किए जाते हैं।

पात्र हितग्राही- अनुसूचित जनजाति वर्ग के हितग्राही।

इकाई लागत- रु.1200 प्रति इकाई (जिसमें रु.935/- को 55 चूजों की कीमत, 200 रूपये खाद्यान एवं रूपये 65/- परिवहन हेतु)

अनुदान/अंशदान राशि –योजनान्तर्गत प्रति इकाई 75% (900/-रूपये) राज्य शासन द्वारा अनुदान दिया जाता है तथा 25% (300/- रपये) अंशदान राशि हितग्राही द्वारा जमा कराई जाती है।

हितग्राही चयन –पात्र हितग्राहियों को ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत एवं जिला पंचायत के अनुमोदन पश्चात योजना का लाभ दिया जाता है।

मुर्गियों में कृमिनाशक औषधियों का उपयोग

मुर्गियाँ, आहार एवं गंदे पानी के साथ जमीन की मिट्टी भी खा जाती अहि मिट्टी में कृमि (गेंडरुक/पटार) के अंडे रहते हैं। आहार तथा गंदे पानी के साथ कृमि के अंडे मुर्गियों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। कृमि के अंडे मुर्गियों के शरीर में प्रवेश करने पर पेट में पहुँच कर मुर्गियों में नये कृमि पैदा करते हैं। मुर्गियों के पते में कृमि तैयार होने पर वह मुर्गियों की आँतों में पहुंचकर आँतों से मुर्गियों का रक्त चुसना प्रारंभ कर देते हैं। इस तरह मुर्गी जो आहार खाती है वह कृमि के द्वारा चूस लिया जाता है। इस तरह कृमि के द्वारा आहार का एक बड़ा हिस्सा उपयोग में लेने के कारण मुर्गी अस्वस्थ हो जाती है तथा अंडे देना बंद कर देती  है और कमजोरी के अकारण दूसरी बीमारियों से प्रभावित हो जाती है।

अतः मुर्गियों में कृमियों का नियंत्रण एवं उपचार अत्यंत आवश्यक जिसके लिए निम्नलिखित कार्यवाही करना चाहिए।

1. मुर्गियों को प्रत्येक माह कृमिनाशक –पिपराजिन औषधि देना चाहिए।

2. प्रत्येक माह में एक तिथि निश्चित कर लेना चाहिए।

3. मुर्गियों की संख्या के अनुसार औषधि की खुराक निर्धारित कर लेना चाहिए।

4. कृमिनाशक औषधि देने के कम से कम 4 घंटे पूर्व से मुर्गियों को दाना-पानी नहीं देना चाहिए जिससे मुर्गियों का पेट खाली रहे तथा वह प्यासी रहें।

5. कृमिनाशक औषधि हमेशा प्रातःकाल में ही देना चाहिए।

6. कृमिनाशक औषधि इतने पानी में ही देना चाहिए जितना मुर्गियाँ पूरी तरह पी जाएँ।

7. जिस दिन कृमिनाशक औषधियां मुर्गियों को दी जाएं, उसके दूसरे दिन प्रातः मुर्गी घर का बिछौना (लीटर) अच्छी तरह उल्ट-पुलट देना चाहिए, जिससे मुर्गियों के पेट से निकली कृमि लिटर में दबकर कर जाएं और कृमि पुनः न खा सकें।

8. कृमिनाशक औषधि देने के बाद मुर्गियों को पानी में विटामिन युक्त औषधि देना चाहिए।।

इस तरह कृमियों पर नियंत्रण  कर मुर्गियों से पूरा-पूरा लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

मुर्गियों में बाह्य परजीवी नाशक औषधियों का उपयोग

मुर्गियों में जूं, किलनी, पिस्सू आदि बाह्य परजीवियों का प्रकोप हो जाता है। बाह्य परजीवी मुर्गियों के त्वचा, पंख एवं पैरों पर रहकर उनके शरीर से खून चूसते हैं जिससे मुर्गियाँ कमजोर हो जाती हैं, साथ ही परजीवियों के प्रकोप से वे बेचैन रहती है एवं ठीक से भोजन नहीं चुग पाती हैं। मुर्गियाँ एक दूसरे को चोंच मारकर परजीवियों को चुघने की कोशिश करती है जिससे उन्हें चोट लगने का खतरा भी रहता है।

बचाव - 5 भाग छाना हुआ राख में 1 भाग लिन्डेन या गैमेक्सीन पाउडर को एक कसेला में मिलाएं एवं एक-एक कर सभी मुर्गियों को उसका लेप लगाएं।

मुर्गी रोग एवं टीकाकरण

मुर्गियों में जीवाणु द्वारा उत्पन्न रोगों से 25-100% तक मृत्यु दर होने की संभावना रहती है। आर्थिक दृष्टिकोण से मुर्गियों के रोगी हो जाने पर इलाज लाभकारी नहीं होता। कुछ बीमारियों से बचाव के लिए पहले से प्रयास करना आवश्यक होता है। अतः मुर्गी पालकों को अपनी मुर्गियों में होने वाले रोगों के लक्षण, रोकथाम, टीकाकरण तथा इलाज के संबंध में जानकारी होना चाहिए। घरेलू मुर्गी पालन में आमतौर पर मुर्गियों को निम्नाकिंत दो बीमारियों से पहचाना चाहिए तथा नियमित टीकाकरण चाहिए-

रानीखेत (झुमरी) रोग- यह मुर्गियों की सबसे भयानक व जल्दी फैलने वाली अत्यंत संक्रामक बीमारी है। इसमें शत-प्रतिशत चूजे पर मर जाते हैं। इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं-छींकना, जम्हाई लेना, साँस लेना, सांस लेने में कठिनाई (साँस लेने पर सीटी कसी आवाज आती है), खांसी, बुखार, दस्त(हरा/पीला) आदि। बाद में टांगों एवं पंखों में लकावा हो जाता है।

चेचक माता रोग (फाउल पाक्स) यह एक छूत का रोग है तथा बड़ी मुर्गियों एवं चूजों दोनों में होता है। रोग के कारण मृत्यु तो कम होती हो, पर मुरिज्ञों में अंडा उत्पादन काफी कम हो जाता है। इसमें, त्वचा, आँख नाक व मुंह में चेचक के दाने निकल आते हैं, शरीर के पंखहीन भागों, जैसे-कलगी, गर्दन, टांग आदि पर मोटी पपड़ी बन जाती है, आँखों पर सृजन आ जाती है। मुर्गियं बार-बार छींकती है व तेज बुखार चढ़ता है। कई बार अन्य मुर्गी को चोंच मार-मर कर घायल कर देती है।

टीकाकरण करने के पूर्व क्या करें?

1. हाथों के नाखूनों को अच्छी तरह से काटें

2. हाथों को कम से कम दो बार साबुन एवं साफ पानी से अच्छी तरह धोएं और बाद में तौलिया से न पीछे बल्कि हाथों को हवा में सुखाएं।

3. उबलते पानी में सिरिंज के विभिन्न भागों को अलग-अलग डालकर 15-20 मिनट उबालें।

4. उबलने के पश्चात चिमटी की सहायता से सिरिंज को निकालकर, बर्तन में रखें।

5. टीका बनाने की विधि-

मुर्गियों के उपरोक्त दोनों टीके सुखी हुई, शीशी बंद गोली के रूप में मिलते हैं, जिन्हें टीकाकरण के पूर्वं, साथ में उपलब्ध, घोलक में घोलकर बनाया जाता है।

1. टीके तथा घोतक की सील खोलें।

2. लगभग 1 मि.ली. घोलकर सिरिंज में भरकर टीके की शीशी में डालें। टीके की शीशी को हिलाकर टीके को घोलें।

3. टीका हमेशा बर्फ में रखकर घोलें ।

4. मुर्गियों में टीका निर्धारित मात्रा/डोज स एकम नहीं लगाना चाहिए।

टीकाकरण संबधी आवश्यक बातें-

1. टीकाकरण बाजार से लाने से लेकर उपयोग करने तक इसे थर्मस के अंदर बर्फ में रखें।

2. टीका खरीदते समय टीके के उपयोग की अंतिम तारीख देखनी चाहिए।

3. टीका लगने से पहले सिरिंज आदि को आच्छी तरह साफ करना चाहिए।

4. टीके को दिए गए निर्देश के अनुसार ठीक प्रकार मिलाना चाहिए।

5. टीके को गर्मी या लू से बचाएं।

6. घोलक को टीका तैयार करने से पूर्व ठंडा करना चाहिए।

7. टीका तैयार कर लेने पर इसे 2 घंटे के अंदर इस्तेमाल करें वरना असर जाता रहेगा।

8. पुराना टीका फेंक दें। हमेशा नया टीका तैयार करके लगाएं।

9. टीका लगाने के 1 दिन पूर्व  से तथा 2-3 दिन बाद तक चूजों का विटामिन तथा एंटीबायोटिक पाउडर दें।

10. बीमार मुर्गियों का टीकाकरण न करें।

11. टीका लगाने के साथ-साथ कृमिनाशक द्वापान अवश्य कराएं।

12. प्रथम टीकाकरण के 14 से 21 दिन बाद से रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है।

झुमरी रोग/रानीखेत रोग

यह देसी मुर्गियों का एक प्रमुख रोग है जिससे सबसे ज्यादा नुकसान मुर्गी पालक को होता है। यह एक विषाणु जनित रोग जिससे इलाज संभव नहीं हिया, अर्थात टीकाकरण ही एकमात्र बचने का उपाय है। रोग के विषाणु अक्सर दूषित जल व दाने तथा बीमार व स्वस्थ्य मुर्गियों के एक दुसरे के संपर्क में आने से फैले है। इस कारण यह बेहद आवश्यक है कि मुर्गियों में रानीखेत का टीकाकरण नियमित रूप से मिया जावे।

झुमरी बीमारी के मुख्य लक्षण

1. सभी मुर्गियों का बीमार होना तथा प्रायः 90% से ज्यादा बीमार मुर्गियों की मृत्यु होना ।

2. सुस्त होना एवं खाना-पीना बंद करना।

3. सिर में सुजन व मुंह से लार गिरना।

4. आधार मुंह खोलकर लंबी-लंबी साँस लेना एवं साँस लेने में आवाज आना।

5. मुर्गियों का ऊँघना.झुमरना ।

6. हरा/पीला दस्त होना।

7. लकवा मारना-पंख लटक जाना/पांव का अकड़ जाना

8. गर्दन टेड़ी होना।

रानीखेत बीमारी फैलने पर क्या करें?

रोग नियंत्रण की दृष्टि से पुरे गाँव/पारा को एक खुला देसी मुर्गी फार्म माना जा सकता है। किन्तु ऐसे देसी मुर्गी फार्म में कुछ विशेष ध्यान देने योग्य बातें है-

1. मुर्गियों को बाजार में लेकर जाने व बाहरी मुर्गियों (कई बार बीमार) को बाजार से  गाँव/पारा में लाने का कोई नियन्त्रण नहीं होता है।

2. टीकाकरण प्रतिशत का कम होना, जिसके निम्न कारण हो सकते है-

  • देसी मुर्गी पुर्णतः खुली पद्धति में पाली जाती अहि। अक्सर मुर्गियों के पेड़/छत में रहने के कारण मुर्गी पालक अपनी सभी मुर्गियों का टीकाकरण नहीं करा पाते हैं।
  • आदिवासियों में जागरूकता की कमी होने के कारण भी टीकाकरण के समय सभी घरों की मुर्गियों का टीकाकरण नहीं होता है।

3.  एक त्वरित रोग –ऐसा रोग जिसके फैलने की सुचना पशुपालन विभाग को देना चाहिए।

अतः प्रथम दृष्टि में देसी मुर्गियों में झुमरी रोग नियंत्रण अत्यंत कठिन कार्य लग सकता है पर योजनाबद्ध वैज्ञानिक तरीके से यह कार्य बहुत सरलता से किया जा सकता है।

झुमरी रोग फैलने की सूचना मिलते ही-

1. सर्वप्रथम स्वयं गाँव/पार में जाकर देखें। अक्सर यह देखा गया है कि सफेद दस्त, कोराईजा बीमारी से मृत्यु को भी ग्रामीण पालक झुमरी रोग बता देते है।

2. झुमरी रोग पाए जाने की स्थिति में सभी स्वास्थ्य दिखती मुर्गियों में तुरंत टीकाकरण करना चाहिए।

3. बड़ी मुर्गियों में आर बी टीका लगाना चाहिए।

4. चूजों एवं छोटी मुर्गियों में एफ 1 टीका लगाना चाहिए।

5. सभी बीमार मुर्गियों को अलग रखने की सलाह देना चाहिए।ऐसे मुर्गियों को ट्रैट्रासाइक्लिन पाउडर पानी में मिलाकर पिलाया जा सकता है।

6. टीकाकरण के दौरान सभी मुर्गी पालकों को नियमित टीकाकरण (आर 2 बी टीका) साल में तीन बार करने की सलाह देना चाहिए।

झुमरी रोग को रानीखेत नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि यह बीमारी हमारे देश में उत्तराचंल प्रदेश की रानीखेत नामक जगह पर पहली बार देखी गयी थी।

टीकाकरण विधि

झुमरी अथवा रानीखेत रोग: इसके लिए दो तरह टीके लगवाने पड़ते है- एफ 1 एवं आर बी टीका ।

एफ 1/बी 1/लसोटा

1. चूजों को यह टीका लगवाना चाहिए।

2. एक शीशी (वायल) टीका द्रव्य से 100 चूजों को टीका लगाया जा सकता है।

3. टीका द्रव्य को बताएं अनुसार घोल बनाएं, बर्फ में रखे, एवं 2 घंटे के भीतर खपत कर लें।।

4. घोल बनाने के बाद एक या दो बूंद टीकाद्रव्य आँख या नाक में डाले।

आर 2 बी/आर/ बी./रानीखेत रेग्युलरन

1. बड़े मुर्गियों को यह टीका लगवानी चाहिए।

2. एक शीशे (वायरल) टीका द्रव्य से 100 मुर्गियों को टीका लगाया जा सकता है।

3. टीका द्रव्य को उपरोक्त अनुसार घोल बनाएं बर्फ में रखें एवं 2 घंटे के भीतर खपत कर लें।

4. घोल बनाने के बाद 0,5 एम्.ए. टीकाद्रव्य इंजेक्शन द्वारा मांस में लगाएं।

5. अच्छो हो कि यह टीका उन मुर्गियों में लगाएं जिन्हें एफ 1 टीका पहले लग चूका हो।

6. चार माह के भीतर पुनः आर 2 बी टीका लगाना चाहिए।

माता रोग/चेचक/फाउल पाक्स

देसी मुर्गियों में चेचक/माता रोग एक आम व् दूसरी प्रमुख बीमारी है। इससे ग्रस्त प्रायः सभी छोटे चूजों की मृत्यु हो जाती है। बड़ी मुर्गियों की मृत्यु तो कम होती है पर स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। चेचक/माता रोग एक विषय जनित रोग होने के कारण इसके इलाज नहीं हो सकता है। अर्थात टीकाकरण ही एकमात्र बचने का उपाय है। चूँकि बीमारी पूरे साल गाँव/पारा की मुर्गियों में बड़े छोटे/बड़े रूप में होती रहती है, इस कारण बीमारी से बचने के लिए नियमित टीकाकरण (साल में दो बार) करना आवश्यक है।

लक्षण

चेचक/माता रोग के तीन किस्में/रूप हैं-

त्वचा का चेचक-

यह किस्म/ रूप सबसे अधिक देखने को मिलते है। छोटे-छोटे मटमैले छालों की तरह दाने कलगी तथा पंख रहते हिस्सों का उभर आते हैं। व् जल्दी से बढ़ जाते हैं और पपड़ी बन जाते है। फिर आपस में जुड़ जाते हैं व चेचक का रूप में ले लेते हैं, फैलते-फैलते नाक पर, आँख पर और चोंच के दानों किनारों पर भी आ जाते हैं। यह चेचक 3 या 4 सप्ताह भोजन चरने में कठिनाई के कारण मृत्यु हो जाती है।

बड़ी मुर्गियों की मृत्यु तो नहीं होती पर स्वास्थ्य पर बड़ा बुरा असर पड़ता है। तथा वजन व अंडा उत्पादन में बहुत कमी आ जाता है।

गले का चेचक –

चेचक की यह किस्म सबसे ज्यादा नुकसानदेह है। इससे छोटे चूजों व बड़ी मुर्गियाँ की समान रूप से मृत्यु होती है। गले वाली चेचक में मुंह व गले के अंदर उभरे हुए छाले हो जाते है, जो बड़े होकर और गहरे हो जाता  हैं। जिसके कारण मुर्गियाँ अच्छी तरह खा नहीं पाती व उनकी हालत जल्दी बिगड़ जाती है व मृत्यु हो जाता है।

आँखों का चेचक-

इस किस्म में बीमारी  का प्रभाव आँखों में दीखता है। आँखों में पानी आने लगता है जो बाद में गाढ़ा हो जाता है, आखें पीप से भर जाती है और फल आती है। पलक चिपक जाती हैं और मुर्गी देख नहीं पाती।  फलस्वरूप भूख से मृत्यु हो जाती है। यह जानना आवश्यक है कि एक ही समय में अलग-अलग मुर्गियों में तीनों किस्में देखी जा सकती है।

छालों या फफोलों पर कोई एक अच्छा एंटीबायोटिक मलहम लगाकर रोग की तीव्रता को कम किया जा सकता है, लेकिन इस बीमारी का कोई सीधा इलाज संभव नहीं है। रोग न होने से पहले नियमित टीकाकरण ही बचाव का एकमात्र सही एवं सस्ता उपाय है।

टीकाकरण विधि-

1. चीजों एवं बड़ी मुर्गियों को यह टीका लगाना चाहिए।

2. एक शीशी (वायल) टीका द्रव्य से 100 चूजों/मुर्गियों को टीका लगाया जा सकता है।

3. टीका द्रव्य को पूर्व में बताई विधि अनुसार घोल बनाएं, बर्फ में रखें, एवं 2 घंटे भीतर खपत कर लें।

4. चेचक टीका का 0.5 एम्.ए. टीका द्रव्य इंजेक्शन दारा मांस में लगाया जाता है।

5. यह टीका साल में दो बार लगवाएं।

6. इस रोग के टीकाकरण में, वर्ष एक रुपया प्रति मुर्गा खर्च आता है। `

मुर्गियों की अन्य बीमारियाँ एवं उपचार

मुर्गियों में बहुत सारी बीमारियाँ होती है, परन्तु अधिकतर बीमारियाँ बड़े कुक्कुट फार्मों में देखने को मिलती है। ग्रामीण अंचल की घरेलू देसी मुर्गियाँ में वातावरण एवं बीमारियाँ से बचाव हेतु अंदरूनी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है जिसकी वजह से ये काफी बीमारियों से बच जाती है। लेकिन घरेलू मुर्गियों में पिछले अध्याय में वर्णित झुमरी एवं चेध्क प्रमुख बीमारियाँ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त घरेलू देसी मुर्गियों में निम्नलिखित बीमारियाँ पायी जाती है।

1. सफेद दस्त

2. खुनी पेचिश

3. सर्दी जुकाम

सफेद दस्त/बैसिलरी व्हाईट डायरिया/पुलोरम बीमारी

यह रोग मुख्यतः चूजों में होता है जिससे काफी संख्या में चूजों की मृत्यु होती है। बाद में यह बड़ी मुर्गियों में भी फैलता है। रोग से ग्रस्त मुरियों के अण्डों में भ्रूण मर जाते हैं। रोगी मुर्गियों की बीट चुने जैसी सफेद होती है तथा मल विसर्जन के समय दर्द होता है, कुक्ष पक्षी अंधे या लंगड़े भी हो जाते हैं। चूजे एवं मुर्गियों का पिछला भाग दस्त के कारण चिपक जाता है।

उपचार-

ट्रैट्रासाइक्लिन पाउडर दवा-

यह दवा किसी भी पशु दवा दूकान में उपलब्ध होती है। 20 चूजे अथवा 5 बड़ी मुर्गियों के लिए कप पानी (50 एम्. एल) में  2 चुटकी (2 ग्राम) दवा घोलें एवं ड्रापर या सिरिंज द्वारा बीमार चूजों को दो-दो बूंद एवं बड़ी मुर्गियों के पांच-पांच बूंद तीन दिनों तक लगातार पिलाने से बीमार दूर की जा सकती है। पीने के पानी में घोलकर भी दवा मिलाकर मुर्गी  घर में रखे पानी बर्तन में डाल दें एवं प्रभावित चूजे या मूर्तियों का अपनी इच्छा अनुसार इस पानी को पीने दें। ऐसा  तीन दिनों तक करें।

लिक्सेन पाउडर, युरासेल पाउडर –

इन दवाओं को  भसी उपरोक्तानुसार उपयोग किया जाता है।

रोकथाम

1. बिछौना, मुर्गीघर एवं उसके आसपास की जगह की साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए।

2. ट्रैट्रासाइक्लिन पाउडर दवा/ लिक्सेन पाउडर, युरासेल पाउडर/लारासोल पाउडर-ऊपर बताई गई दवा को आधी मात्रा में देने पर यह रोकथाम करने में सहायक है।

खुनी पेचिश/खुनी दस्त/कॉक्सीडियोसिस-

यह रोग मुख्यतः पक्षी रखने के स्थान पर नमी के कारण होता है। सबसे प्रमुख लक्षण खुनी दस्त होता है। प्रभावित चूजे खाना नहीं खाते हैं, पंखों को नीचे झुकाकर रखते हैं। कलगी का रंग भूरा होने के साथ-साथ, अन्डोत्पादन कम हो जाता है। इस रोग से चूजे काफी कमजोर हो जाते हैं एवं आँख मूंदकर बैठ जाते हैं। इस बीमारी से काफी बड़ी संख्या में पक्षियों की मृत्यु हो जाती है। यह रोग कम आयु के पक्षियों को करीब दो से तीन सप्ताह की आयु में लगता है जो बाद  में बड़ी मुर्गियों में भी फैलता है।

उपचार

कॉक्सीडिया रोधक दवाएं जसी एम्प्रोलियम, सल्फाक्वीनॉक्सेलिन, सल्फामीराजीन आदि आसानी से उपलब्ध है। दवा के ऊपर दर्शायी गयी मात्रा के अनुसार दवा को दाने अथवा पानी में मिलाकर सात दिनों तक प्रभावित मुरियों को देना चाहिए। साथ ही विटामिन एवं खनिज मिश्रण को पानी में मिलाकर देने से भी रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।

रोकथाम-

1. इस रोग की रोकथाम के लिए मुर्गियों का बिछावन या मुर्गी घर फर्श सुखा तथा साफ रखना चाहिए। बिछावन गीला होने पर चुना मिलकर बिछावन को पलट देना चाहिए।

2. निम्नलिखित औषधियों में से किसी एक को दाना में मिलाकर खिलावें या पीने के पानी में मिलाकर। दवा युक्त पानी के साथ सादा पानी न दें। रोकथाम के लिए 2-3 माह तक या जब तक आवश्यकता हो दवा देना चाहिए।

मुर्गियों में सर्दी-जुकाम

ठंड के समय, बारिश में भींगने पर पर या खुले में बाहर रहने पर मुर्गियों को, खासकर चूजों को या बीमारी हो जाती है। मुर्गियों का सुस्त रहना, कलगी में नीलापन, दाना-पानी कम खाना एवं चोंच से पतला स्राव का बहना प्रमुख लक्षण है। चूजे एवं मुर्गियाँ पास-पास आकर झुण्ड बना लेते है इससे यह बीमारी और भी फैलती है।

उपचार

ट्रैट्रासाइक्लिन की  ¼ टैबलेट सुबह सहम खिलावें। सल्फाडिमीनन (16% घोल) 10 मिली. 1 लीटर पानी में  मिलाकर पिलावें।

रोकथाम –

1. मुर्गियों को रात में खुला नहीं छोड़ना चाहिए। सस्ता एवं सुलभ मुर्गी घर बनाकर ही मुर्गी पालना चाहिए।अन्य लाभ के अतिरिक्त इस बीमारी की रोकथाम भी इससे की जा सकती है।

2. मुर्गियों के ठंड से बचाना चाहिए। आवश्यकता होने पर 60 या 100 वॉट का बल्ब मुर्गी घर में जलाना चाहिए। इससे कमरा गर्म रहता है।

3. उपरोक्त वर्णित  ट्रैट्रासाइक्लिन दवा को इस बीमारी की रोकथाम या तीव्रता का कम करने में उपयोग किया जा सकता है। उक्त दवा मुर्गियों को हर 3 माह में  एक बार 3 दिन तक लगातार पिलाना चाहिए।

4. चूजों का रखरखाव शीर्ष में वर्णित तरीके से बल्ब या अंगार भरे कसेले का उपयोग करने से भी इस रोग से बचा जा सकता है।

प्रमुख बीमारियों के लक्षण

बीमारी

प्रमुख लक्षण

बचाव

झुमरी/रानी खेत

ऊँघना एवं दस्त

बीमारी से पहले नियमित टीकाकरण आवास एवं बर्तनों की साफ सफाई बीमार मुर्गी एवं ठण्ड से बचाव बीमार मुर्गी से दूर रखना

 

नाक से पानी आना

 

पैर एवं पंख में लकवा मारना

 

सांस लेने में कठिनाई

 

बहुत सारी मुर्गी के साथ प्रभावित

चेचक/पॉक्स

कलगी, चेहरा एवं आँखों में फोड़े

मुर्गी से दूर रखना

 

फोड़े फुटकर घाव

 

बहुत सारी मुर्गी एक साथ प्रभावित

सफेद दस्त

ऊँघना

आवास एवं बर्तनों की साफ सफाई लक्षण दिखने पर तुरंत उपचार

 

खुनी दस्त

 

कमजोरी

खुनी दस्त

ऊँघना

आवास एवं बर्तनों की साफ सफाई लक्षण दिखने पर तुरंत उपचार

 

खुनी दस्त

 

कमजोरी

कृमि

वजन न बढ़ना

प्रति तीन माह कृमि नाशक दवा पिलाना

 

कमजोरी

 

अन्य बीमारी से प्राकृतिक बचाव शक्ति कम होना

सर्दी

ऊँघना

बीमारी मुर्गी एवं ठण्ड से बचाव लक्षण दिखने पर तुरंत उपचार

 

नाक से पानी आना

 

साँस लेने में कठिनाई

 

साँस लेने में घरघराहट

 

कमजोरी

 

मुर्गियों की नस्लें

नस्ल

महत्वपूर्ण लक्षण

प्लाईमाउथ रॉक

यह अमेरिका में साँस और अण्डों के लिए अत्यधिक प्रचलित है। यह कई रक रंगों में मिलती है जसे-उजले, पीले, नीले, भूरे इत्यादि। इसके मुर्गे का रंग मुर्गी से हल्का होता है। इस नस्ल का कलंगी, लोलक और हसिया पूंछ  रोड आइलैंड रेड और व्हाइट लेगहॉर्न से छोटा होता है। इसके मुर्गे का वजन 4.25 किलो तथा मुर्गी का वजन 3.25 किलो होता है।

रोड आइलैंड रेड

ये पक्षी शरीर वाले होते हैं। इनका शरीर लंबा और आयाताकार होता है। यह अंडा देने और मांस दोनों दृष्टिकोण से उपयोगी नस्ल हैं। इनमें मांस की मात्रा अधिक होती है। इसका पूरा शरीर पंख से ढंका रहता है। यह बहुत परिश्रमी होती है तथा सभी मौसम गर्मी, सर्दी और बरसात में सभी जगह अच्छी तरह पलती है। यह वर्ष भर में 150-200 अंडे दे सकती है। इसके मुर्गे का वजन 4 किलो तथा मुर्गी का वजन 3 किलो होता है।

रोड आइलैंड व्हाइट

यह रोड आइलैंड रेड की तरह होती है। इसका रंग उजला होता है।

न्यूहैम्पाशायर

यह रोड आइलैंड रेड की तरह होती है तथा रोड आइलैंड रेड में विकसित हुई है। यह एक कलंगी होती है। इसके मुर्गे का वजन 4 किलो तथा मुर्गी का वजन 3 किलो होता है।

औरपिंगटन

यह एक कलंगी की होती है। इसका शरीर लंबा, गहरा एवं गोलाकार होता है।  इसकी छाती भरी हुई होती है तथा पीठ चौड़ी होती है। इसके पर अमेरिकन नस्लों की अपेक्षा ढीले होते हैं। यह एक अच्छा भोज्य योग्य पक्षी है इसे अण्डों के लिए भी विकसित किया गया है, ये कई एक रंग के होते हिं, जैसे उजली, काली, पीली, नीली। इसके मुर्गे का वजन 5 किली तथा मुर्गी का वजन 3.50 किलो होता है।

कोर्निश

यह अति उत्तम मांस गुण की होती है। इसकी त्वचा पीली होती है। इसका शरीर मांस वाला होता है और घने परों से भरा होता है। इसकी छाती गहरी और चौड़ी होती है जिससे कंधे की चौड़ाई अधिक होती है। यह छोटी कलंगी की होती है। यह उजले, लाल-उजले तथा गहरे रंग का होती अहि। इसके मुर्गे का वजन 3.5 4.5 किलो तथा मुर्गी 2.75 किलो से 3.5 किलो की होती है।

ससेक्स

यह मांस के लिए सर्वोत्तम मानी जानी वाली नस्ल है। देखने में सुंदर होती है। शरीर प्रांरभ से अंत तक भरा होता है। शरीर लंबा कंधों के पास चौड़ा होता है। सीना विकसित तथा उभरा होता है। एक कलंगी होती है। इस नस्ल की मुर्गियाँ और तीन तरह की होती है, जैसे-लाल, चितकबरा और हली। इसके मुर्गे का वजन 4 किली तथा मुर्गी का वजन 3 किलो होता है।

व्हाइट लेगहार्न

यह उजले रंग की होती है। यह एक कलंगी होती है। कलंगी का रंग गुलाबी होता है। इसके कान  का लोलक उजला होता है। इसकी चोंच पीली, छाती उभरी हुई, पैर लंबे तथा सर छोटा होता है। यह 5-6 माह में अंडा देने योग्य हो जाती है। यह दाना कम चुगती है परन्तु अंडे अधिक देती है। दूसरे देशों में कई प्रकार की नस्लें इससे तैयार की गई हैं। इसके 2-3 माह के चूजों का मांस खाने में अच्छा होता है। इसके बाद इसका मांस अस्वादिष्ट होने लगता है। इसके मुर्गे का वजन 2.75 किलो तथा मुर्गी का वजन 1.75 किलो होता है। यह वर्ष भर में 200-25- उजले अंडे देती है। इससे विकसित नस्लों की मुर्गियाँ 250-300 अंडे देती हैं।

मिनॉर्का

यह दो रंग होती है – एक काली और दूसरी उजली। लेकिन उजली बहुत कम ही देखने में आती है। यह धातु रूप काली परों वाली होती है। यह देखने में सुदंर लगती है। यह अधिक अंडे देने वाली होती है। इसके अंडे बड़े आकार के उजले रंग के होते हैं। यह दाना कम खाती है। यह एक कलंगी होती है तथा कलंगी का रंग गुलाबी होती है। एसक चूजे बहुत जल्दी बढ़ते हैं और करीब तीन माह में इसके नर (कॉकरिको भोज्य योग्य हो जाते हैं। इसके मुर्गे का वजन 3 किलो तथा मुर्गी का वजन 2.75 किलो होता है। इसे कई एक जगहों में रेडफेसेड भी कहा जाता है।

कोचिन

यह भारी आकृति का वजनदार होती है। इसके परों में अत्यधिक पंख होते हैं। इसके पंख लंबे और काफी होते हैं जिससे यह बहुत बड़ी दिखाई देती है। ये सभी के कलंगी होते हैं। इसके मुर्गे का वजन 5 किलो तथा मुर्गी का वजन 4 किलो होता है।

असील

इस प्रकार की मुर्गियाँ सही में खेल मनोरंजन की मुर्गी हैं। इसके मुर्गों की लड़ाई देहातों में प्रसिद्ध है जिससे लोग मनोरंजन करते हैं। इसका मांस अच्छा भोज्य योग्य हैं। इसका मानस काफी स्वादिष्ट होता है। यह अंडे बहुत कम देती है। किन्तु अण्डों पर चिपककर बैठती है। यह घूमते-फिरते अधिक स्वस्थ रहती है। पर, यह घेरों में अच्छी तरह नहीं पलती। इसके कलंगी छोटे आकार की होती अहि। चोंच छोटी, सिर छोटा चौड़ा तथा गर्दन लंबी होती है। इसका शरीर भारी तथा पैर लंबे होते हैं। इसके शरीर की बनावट गोल होती है। यह देखने में बहुत शोभनीय होती है। यह झगडालू प्रकृति की होती है। यह कई एक रंग  की होती है, जसे-उजली, काली, लाल-काली, रंग-बिरंगी इत्यादि। ये वर्ष भर में 30-40 अंडे देती है। इसके मुर्गे का वजन 2.5.5 किलो तथा मुर्गी का वजन 2.3-5 किलो होता है।

 

स्त्रोत:  कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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