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बिहार में कुक्कुट पालन

बिहार में कुक्कुट पालन

  1. परिचय
  2. कुक्कुट पालन के लाभ
  3. ब्रूडर भवन तथा उपकरणों की सफाई
    1. पुराने लीटर का निष्कासन
    2. भवन की सफाई
    3. उपकरणों की सफाई
  4. ब्रूडर भवन में चूजों का प्रबंधन
    1. प्रति मुर्गी भूमि की आवश्यकता
    2. चूजों में सघनता के कुप्रभाव
  5. लीटर
  6. अमोनिया वाष्प की रोकथाम
  7. तापमान
  8. पानी
  9. दाना
  10. ब्रूडिंग उपकरण
    1. ताप नियंत्रण
    2. हावर टाइप ब्रूडर
    3. ब्रूडर गार्ड
    4. पानी के बर्तन
    5. दाने के बर्तन
  11. दाना संग्रहण
  12. कुक्कुट में होने वाले प्रमुख रोग, उनके लक्षण एवं बचाव
    1. जीवाणु जनित रोग
    2. विषाणु जनित रोग
  13. टीकाकरण से संबंधित कुछ आवश्यक जानकारियां
  14. मुर्गियों में टीकाकरण कार्यक्रम
  15. परजीवी रोग
  16. अंत: परजीवी बीमारियाँ
    1. गोलकृमि
    2. फीताकृमि
    3. खुनी पेचिस
    4. कुक्कुट जनित रोग
    5. विटामिन व खनिज तत्वों की कमी से होने वाली बीमारियां
  17. मुर्गियों को बीमारी से बचने हेतु ध्यान देने योग्य बातें
  18. बर्ड फ़्लू (एवियन इन्फ्लूएंजा) के संबंध में आवश्यक तथ्य एवं जानकारी
  19. सामान्य जानकारी
    1. बाड़े में सुरक्षित रखें
    2. साफ-सफाई रखें
    3. आहार एवं पेयजल व्यवस्था
    4. अपने पौल्ट्री फार्म में बीमारियों को प्रवेश करने से रोकें
    5. बीमारी उधार न लें
    6. लक्षणों को पहचाने
    7. बीमार पक्षी की सूचना
  20. मुर्गी पालकों के लिए सुझाव

परिचय

मुर्गीपालन आज एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुका है तथा पिछले कुछ दशकों में ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह व्यवसाय के रूप में अपनाया जाने लगा है। ग्रामीण दशकों में ग्रामीण विकास में कुक्कुट पालन की दो प्रमुख भूमिकाएँ हैं तथा दूसरा यह कि कुक्कुट एक पौष्टिक पालन है।

कुक्कुट पालन के लाभ

  1. कम भूमि की आवश्यकता
  2. कम प्रारंभिक लागत
  3. पैसे की शीघ्र वापसी
  4. व्यापार में लचीलापन
  5. कम लागत में अधिक उत्पादन
  6. स्वरोजगार का अवसर

व्यवसायिक ब्रायलर फार्मिंग का मुख्य आधार अच्छी नस्ल के चूजे तथा चूजों का समुचित प्रबंधन है क्योंकी चूजे ही बड़े होकर आय का स्रोत बनते हैं। अत: अधिक आय के लिए ब्रायलर चूजों का पालन ध्यानपूर्वक एवं वैज्ञानिक ढंग से ही करना चाहिए। कुक्कुट जीवन के प्रथम 5 या 6 सप्ताह का समय ब्रूडिंग काल कहलाता है तथा इस काल में चूजों को जहाँ रखा जाता है उस भवन को ब्रूडर हाउस कहते हैं। ब्रूडर हाउस बनाते समय निम्न बिंदूओं का ध्यान रखना आवश्यक है :

  1. ब्रूडर भवन (हाउस) अलग एवं वयस्क मुर्गियों के शेड से कम से कम 300 फीट दूर होना चाहिए अन्यथा रोग फैलने का भय रहता हैं।
  2. ब्रूडर भवन के बाहर लगभग 100 फीट पर एक चाहरदिवारी बना देनी चाहिए तथा इस चाहरदिवार के दरवाजा बंद रखना चाहिए।
  3. ब्रूडर भवन के अंदर आगन्तुक को आवागमन नहीं होना चाहिए।
  4. ब्रूडर भवन के सफाई एवं नि: संक्रमण का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। ब्रूडर भवन खुला एवं हवादार होनी चाहिए।
  5. ब्रूडर भवन के बारह छोटे गड्ढे में संक्रमण रोधी पदार्थ भर देना चाहिए ताकि भवन में घुसने से पूर्व पैर धोये जा सके।
  6. ब्रूडिंग प्रक्षेत्र, सूखे व ऊँचे स्थान पर जहाँ चूहे आदि न पहुँच सकें, बनाना चाहिए। कृषि हेतु जो भूमि बेकार हो एवं जल निकास सुविधा युक्त हो, उसका प्रयोग किया जा सकता है।
  7. शेड के किनारे की दीवारें उत्तर – दक्षिण तथा अंत की दीवारें पूरब – पश्चिम की ओर होने चाहिए। शेड की छत सिरों पर 3-4 फीट छज्जा निकाल देना चाहिए।
  8. शेड का फर्श बाहरी भूमि से कम से कम एक फीट ऊँचा होना चाहिए।

चूजों का नया समूह आने से पूर्व ही ब्रूडर भवन के बाहर की चाहरदिवार के अंदर प्रत्येक वस्तु की साफ सफाई अति आवश्यक है।

ब्रूडर भवन तथा उपकरणों की सफाई

चूजों का एक समूह निकलते ही पूरे भवन की सफाई, नि: संक्रमण इत्यादि तुरंत ही प्रारंभ कर देना चाहिए ताकि नये समूह के आने से पूर्व भवन एक या दो सप्ताह खाली पड़ा रहे। नि: संक्रमण एवं धूम्रकरण से कीटाणु व क्षय रोग फैलने वाले कारक नष्ट हो जाते हैं तथा भवन खाली रहने से कई परजीवी एवं कीटाणुओं का जीवन – चक्र भंग हो जाता है। अत: रोगों की रोकथाम के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। सफाई निम्न प्रकार होनी चाहिए:

पुराने लीटर का निष्कासन

प्रयोग में लाया पुराना लीटर पूर्णतया ब्रूडर भवन से हटा देना चाहिए। पानी की तेज धार से भवन के अंदर धो दें एवं चूने से पुताई कर दें।

भवन की सफाई

सारा कूड़ा –करकट भवन से दूर ले जाना चाहिए तथा फर्श को खुरच कर सफाई कर देनी चाहिए। पानी की तेज धार से भवन के अंदर धो दें एवं चूने से पुताई कर दें। नि: संक्रमण के उपरांत भवन को सूखने देना चाहिए।

उपकरणों की सफाई

समस्त उपकरण जैसे दाना- पानी के बर्तन आदि को भवन से बाहर लाकर अच्छी तरह मंजाई, धुलाई तथा नि: संक्रमण कराना आवश्यक है।

ध्रूमकरण : भवन को बंद करके अथवा पर्दों से ढक कर फार्मेलाडिहाइड की 3 गुनी सांद्रता द्वारा धूम्रकरण करना चाहिए। दाना संग्रहण हेतु बंद बर्तन भी धूम्ररंजित करा दें तथा ब्रूडर हाउस के बाहर साफ – सफाई तथा घास कटाकर सारे क्षेत्र में संक्रमण रोधी पदार्थों का छिड़काव करवायें।

ब्रूडर भवन में चूजों का प्रबंधन

प्रति मुर्गी भूमि की आवश्यकता

ब्रूडर भवन में प्रति मुर्गी भूमि की आवश्यकता इस बात पर निर्घ्त करती है कि उस भवन में बड़ी से बड़ी कितनी आयु की मुर्गी/मुर्गा रखा जाना है। इसके अतिरिक्त प्रजनन में प्रयोग होने वाले नर व मादा को अधिक जगह की आवश्यकता होती है। ग्रीष्म ऋतू में शीत काल की अपेक्षा अधिक जगह की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त जगह का आकलन मुर्गी की नस्ल व प्रकार के अनुरूप होता है। ब्रायलर चूजों हेतु विभिन्न आयु के लिए प्रति चूजा भूमि की आवश्यकता तालिका। में दी गई है।

प्रति मुर्गी आंकलन करते समय उपकरणों जैसे दाना- पानी के बर्तन आदि द्वारा घेरे जाने वाले क्षेत्र भी ध्यान दे रखना चाहिए।

चूजों में सघनता के कुप्रभाव

चूजों को पर्याप्त जगह मिलनी चाहिए। सघनता के कारण निम्नलिखित कूप्रथाव पड़ते हैं

  1. चूजे दाना कम खाते हैं।
  2. चूजों की वृद्धि दर कम हो जाती है।
  3. दाने को मांस में परिवर्तित करने की क्षमता घट जाती है।
  4. मृत्यु दर में वृद्धि
  5. मांसाहारी एवं हिंसक प्रवृत्ति बढ़ने के कारण चूजे एक- दुसरे को काट – काट कर घायल कर देते हैं।
  6. वक्ष में छाले बनने की अधिक संभावना।
  7. पंखों की वृद्धि में ह्रास।
  8. मांस उत्पादकता एवं गुणवत्ता में कमी।
  9. अधिक खर्चा व हानि।

ब्रायलर चूजों हेतु संस्तुत पर्श का स्थान, आहार तथा पानी का स्थान

आयु सप्ताह में

फर्श स्थान वर्ग फीट/चूजा

आहार स्थान इंच/चूजा

पानी का स्थान इंच/चूजा

1

0.2

1.5

0.5

2

0.2

2.0

0.7

3

0.3

2.0

0.7

4

0.4

2.5

0.8

5

0.6

2.5

0.8

6

0.8

3.0

1.0

7

0.9

3.0

1.0

लीटर

विभिन्न प्रकार के लीटर पदार्थ जैसे धान की भूसी, लकड़ी का बुरादा, भुरभुरी मिट्टी आदि प्रयोग में लाये जाते हैं। ब्रूडर भवन के पर्श पर लगभग 2 इंच (5 सेमी.) मोटा लीटर बिछा देना चाहिए। लीटर की मोटाई मौसम के अनुसार परिवर्तित की जा सकती है। जाड़ों में अधिक मोटा लीटर बिछाना चाहिए। पुराना व कीटाणुनाशक छिड़का लीटर प्रयोग में न लाए। अच्छे लीटर पदार्थ में निम्नलिखित गुण होते हैं:  -

  1. सस्ता होना चाहिए।
  2. हल्का होना चाहिए।
  3. शोषण क्षमता अधिक होनी चाहिए।
  4. मुलायम व दबने वाला होना चाहिए।
  5. ऊष्मा संचालन क्षमता कम होनी चाहिए।
  6. वातावरण से नमी न ले।
  7. खाद की तरह प्रयोग किया जा सके।

प्रथम तीन सप्ताह में लीटर हल्का नम होना चाहिए। अत्यधिक शुष्क लीटर पर चूजों का निर्जलीकरण होने का भी रहता है।  प्रयोग होते – होते लीटर यदि अधिक गिला हो जाए तो लीटर पपड़ी व अधिक गीला लीटर हटा कर सूखा लीटर मिला देना चाहिए।

अमोनिया वाष्प की रोकथाम

चूजों के माल एवं नमी के कारण ब्रूडर हाउस में नौसादर जैसे गंध व वाष्प रहती है। इसका स्तर बढ़ने पर भवन में घुसने से आँखों में जलन का आभास होता है। अधिक अमोनिया वाष्प के कारण चूजों का वजन कम हो जाता है।

फास्फोरस अम्ल (1.91 किलो/ वर्ग मी.) या सुपर फास्फेट (1.09 किलो/वर्ग मी.) के प्रयोग से अमोनिया वाष्प पर नियंत्रण किया जा सकता है। चुने का प्रयोग भी अमोनिया की रोकथाम के लिए किया जा सकता है।

ब्रूडर भवन में थोड़ी आर्द्रता आवश्यक भी है क्योंकि शुष्क वातावरण में चूजे ठीक से नहीं पनपते तथा पंखों का विकास भी ठीक से नहीं होता।

रंगीन या सफेद बल्व द्वार प्रकाश प्रदान कराना चाहिए। खुले भवनों में भी प्रथम 48 घंटों में कृत्रिम प्रकाश देना चाहिए। प्रथम दो दिन तीव्र प्रकाश देना लाभकारी सिद्ध होता है उसके बाद प्रकाश की तीव्रता कम कर देनी चाहिए।

तापमान

ब्रूडर का तापमान 85-90 डिग्री फारेनहाइट (30-320 सेंटीग्रेड) लीटर के 2 इंच ऊपर तथा के नापी के 6 इंच तक 1 दिन आयु के चूजों के लिए होना चाहिए। मांस व प्रजनन हेतु व नर चूजों के लिए अधिक ताप की आवश्यकता होती है। जैसे- जैसे चूजे बढ़े होते जाएँ तापमान 5-70 सेंटीग्रेड/सप्ताह कम करते जाएँ। यदि चूजे हावर से चले जाएँ तो इसका अर्थ है तापमान अधिक है और यदि हावर के अंदर घुसकर गुच्छा सा बनाएं तो तापमान कम समझना चाहिए। स्थिति अनुसार तापमान बढ़ा या घटा दें। यदि चूजे हावर के नीचे समान रूप से वितरित हो तो तापमान सही समझना चाहिए। जब तक चूजों के पंख पूरी तरह न निकल जाए बाह्य ऊष्मा स्रोत न हटाएँ। सामान्यत: आरंभ में 1 वाट प्रति चूजा तथा बाद में ½ वाट प्रति चूजे के हिसाब से बल्ब लगा कर ऊष्मा प्रदान की जा सकती है। बिजली न होने पर अंगीठी या बुखारी जलाकर ऊष्मा प्रदान की जा सकती है।

पानी

चूजे शीघ्र ही खाना व पीना सीख लेते हैं। चूजों को प्रतिदिन स्वच्छ व ताजा पानी उपलब्ध कराएँ। पानी के बर्तन रोज साफ करके एकदम हावर के बाहर लीटर पर ही रखें। चूजों के आने से 4 घंटे पूर्व ही पानी ब्रूडर भवन में रख दें ताकि पानी का तापमान ब्रूडर भवन के अनुरूप (लगभग 65 सेंटीग्रेड या अधिक हो जाए) पानी में चीनी भी मिलाई जा सकती है। इससे प्रारंभिक मृत्यु दर कम हो सकती है। प्रथम 15 घंटों में 8 प्रतिशत तक चीनी पानी में मिलाकर दी जा सकती है। यदि चूजे दबाव ग्रस्त दिखाई दें तो प्रथम 3-4 दिन पानी में विटामिन व इलेक्ट्रोलैट्स घोल कर दिए जा सकते हैं। पानी सदैव दाने से पूर्व दें तथा यदि सब चूजों को पानी नहीं मिल पा रहा हो तो पानी के बर्तन व प्रकाश की तीव्रता बढ़ा दें। शुरू में फव्वारे नुमा बाद में नालीनूमा बर्तन प्रयोग में लाये जाते हैं।

दाना

चूजों को स्वच्छ व ताजा दाना ही उपलब्ध करें जो कि उनकी शारीरिक वृद्धि व आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त अवयव प्रदान कर सकें। दाना संग्रहण अधिक से अधिक सात दिन तक के लिए होना चाहिए। बढ़े छपटे बर्तनों में दाना रखें ताकि सब चूजों को आसानी से दाना मिल सके। दाना थोड़ा-थोड़ा व जल्दी – जल्दी लगाना चाहिए। यह भी सुनिश्चित कर लें कि दाना सब चूजे खा पा रहे हैं या नहीं। यदि कुछ समस्या है तो उसका निदान करें। कुछ प्रक्षेत्रों में एवं मौसम में वेंट पेस्टिंग की समस्या हो जाती है। इसके निवारण हेतु टूटी मक्का (छोटा कण) देनी चाहिए। ब्रायलर चूजों के सप्ताहवार मानक शरीर भार, आहार खपत तथा आहार की

मांस में परिवर्तन की क्षमता तालिका 2 में दर्शाई गई है।

ब्रायलर स्टॉक का मानक शरीर भार, आहार खपत और आहार परिवर्तन

आयु सप्ताह में

शरीर भार एवं प्राप्ति

आहार खपत

आहार परिवर्तन

ग्रा.

प्राप्ति (ग्रा.)

ग्रा.

ग्रा.

सप्ताहिक

संचयी

1

190

150

121

121

0.81

0.81

2

325

175

268

393

1.53

1.21

3

540

215

353

756

1.64

1.40

4

820

280

540

1230

1.93

1.50

5

1130

310

670

2000

2.16

1.77

6

1500

370

836

2850

2.28

1.90

7

1850

350

865

3718

2.47

2.01

सारे चूजे एक साथ अंदर व एक साथ बाहर प्रबंध

इस प्रकार के प्रबंध एक ब्रूडर भवन में एक साथ लगभग एक ही आयु के चूजे अंदर लिए जाते हैं तथा ब्रूडिंग के पश्चात् उन्हें एक साथ ब्रूडर भवन से निकाल दिया जाता है। उसके बाद नया  समूह लेने से पूर्व भवन व प्रक्षेत्र की साफ- सफाई व नि: संक्रमण आदि कर लिया जाता है। इस प्रकार का प्रबंध रोग नियंत्रण एवं उन्मूलन में काफी प्रभावी होता है किन्तु इसमें मजदूरी की लागत ज्यादा आती है। इस कारण कई प्रक्षेत्रों पर अलग - अलग आयु सीमा के चूजे अलग – अलग पीला जाते हैं।

ब्रूडिंग उपकरण

ताप नियंत्रण

ब्रूडर भवन में ताप नियंत्रण हेतु विभिन्न प्रकार के ईंधन या ईंधन स्रोत प्रयोग में लाए जाते हैं, जैसे द्रवित पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, मीथेन, मिट्टी का तेल, लकड़ी कोयला, बिजली, सौर ऊर्जा आदि।

हावर टाइप ब्रूडर

सर्वाधिक प्रयोग में आने वाले ब्रूडर हावर प्रकार के ही होते हैं। बैटरी ब्रूडर का प्रयोग अधिक नहीं होता। हावर टाइप ब्रूडर में प्रति इकाई धातु का एक गोल या कोणीय टुकड़ा ऊष्मा को परावर्तित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। हावर को एक रस्सी या तार के सहारे छत से लटका दिया जाता है और आवश्यकतानुसार ऊँचा या नीचा किया जा सकता है। हावर प्रकार के ब्रूडर विभिन्न प्रकार से गर्म रखे जा सकते हैं, जैसे गैस, मिट्टी का तेल, बिजली का बल्ब आदि। एक 6 फीट के हावर में लगभग 500 चूजे रखे जा सकते हैं।

ब्रूडर गार्ड

ब्रूडर के अंदर चूजों को ऊष्मा स्रोत के समीप एक सीमा के अंदर ही केन्द्रित कर रखने के लिए ब्रूडर गार्ड का प्रयोग होता है। यह 16 – 24 इंच चौड़ी पट्टियां होती है जिन्हें ऊष्मा स्रोत का चारों ओर खड़ा कर घेराबंदी कर दी जाती है। जैसे – जैसे चूजे बड़े होते जाते हैं यह घेरा बढ़ा दिया जाता है। ब्रूडर गार्ड ठोस या जालीदार हो सकते हैं किन्तु ठोस ब्रूडर गार्ड अधिक प्रचलित हैं।

पानी के बर्तन

छोटे चूजों के लिए छोटे फव्वारेनुमा पानी के बर्तन प्रयोग में लाए जाते हैं। इसमें एक कटोरे के अंदर जारनुमा बर्तन उल्टा करके रखा जाता है जिसमें से पानी धीरे – धीरे कटोरे में आता रहता है। इसके बाद बड़े बर्तन प्रयोग किए जाए हैं।

दाने के बर्तन

प्रथम पांच दिनों में दाने के लिए चपटे, चौड़े व उथले बर्तनों का प्रयोग करना चाहिए। इसके बाद ट्रफ़ या नालीनुमा बर्तन इस पर चौड़ी जालीदार ढक्कन हो, उनमें दाना देना चाहिए। यह जालीदार बर्तन लगभग 4-6 फिट लंबे होते हैं तथा ऊपर चौड़ी जाली रहती है ताकि चूजे बर्तन के अंदर न घुसें और दाना ख़राब न हो।

दाना संग्रहण

दाना संग्रहण के लिए बड़े ड्रम के प्रकार की ढक्कनदार बर्तन प्रयोग में लाया जाना चाहिए। यह बर्तन इतने बड़े हो कि लगभग एक सप्ताह का दाना संग्रहित कि जा सके।

प्रमुख बिन्दु

(i) ब्रायलर उत्पादन हेतु अच्छी नस्ल के चूजे प्रतिष्ठित हैचरी अथवा स्रोत से लेने चाहिए।

(ii) ब्रूडर हाउस ऊँचे व सूखे स्थान पर बनाएं।

(iii) ब्रूडर हाउस हवादार होने चाहिए तथा ताप नियंत्रण सुचारू होना चाहिए।

(iv) लीटर सूखा एवं स्वच्छ रहे तथा कभी – कभी लीटर को स्क्रेपर अथवा खुरपी के सहायता से हिलाते रहना चाहिए।

(v) दाना पानी एवं बर्तन स्वच्छ एवं नि: संक्रमित हो।

(vi) दाना व पानी स्वस्छ एवं ताजा दें। दाना अच्छे प्रकार का होना चाहिए।

(vii) प्रति मुर्गी पर्याप्त भूमि उपलब्ध कराएँ। चूजों को कभी भी सघन न होने दें।

(viii) नियमित निरीक्षण, उपचार एवं मृत चूजों का निष्कासन तथा शव विच्छेदन आदि कराना चाहिए।

(ix) टीकाकरण कार्यक्रमानुसार कराएँ।

(x) सारे चूजे एक साथ अंदर व एक साथ बाहर प्रणाली रोग नियंत्रण में अत्याधिक प्रभावी है अत: इसे अपनाएं।

कुछ अन्य विशेष ध्यान देने योग्य बातें जो कि ब्रायलर उत्पादन को प्रभावित करती है तथा कृषक के लाभ को भी प्रभावित करती है, निम्न प्रकार हैं –

(i) कुक्कुट आहार की ऊँची कीमत एवं मिलावटी अथवा निम्नस्तरीय दाना।

(ii) अच्छी नस्ल के चूजों की अनुपलब्धता तथा बिचौलियों द्वारा अच्छी नस्ल के साथ चूजों की मिलावट।

(iii) अपर्याप्त स्वास्थय देखभाल।

(iv) ब्रायलर तथा ब्रायलर उत्पादों की मांग में उतार चढ़ाव/अनिश्चित विपणन।

उपरोक्त बिंदूओं को ध्यान में रखते हुए सदैव प्रयास करना चाहिए कि इन कारणों से होने वाली हानि को रोकने के उपाय किए जाएँ तथा आश्यकता पड़ने पर नजदीकी विशेषज्ञों की राय ले ली जाये।

कुक्कुट में होने वाले प्रमुख रोग, उनके लक्षण एवं बचाव

सफल कुक्कुट पालन के लिए मुर्गियों में होने वाले रोगों के बारे में जानकारी अति आवश्यक है, क्योंकी इससे कुक्कुट पालक को अत्यधिक आर्थिक हानि हो सकती है। रोग सर ग्रसित मुर्गी से निम्न लक्षण परिलक्षित होते हैं जो कि स्वस्थ्य मुर्गी से अलग होते हैं –

 

  1. बीमार मुर्गी एक स्थान पर बैठ जाती है तथा घूमना फिरना बंद कर देती है।
  2. खाना – पीना कम या बिल्कुल बंद कर देती है।
  3. पंख ढीले पड़ जाते हैं तथा मुर्गी थरथराती है।
  4. मुर्गी को पेचिस हो जाती है।
  5. बीमारी मुर्गी का वजन व अंडा उत्पादन कम हो जाता है।
  6. आँखों की चमक कम हो जाती है।
  7. रोग की प्रकोपता बढ़ने पर मृत्युदर बढ़ जाती है।

 

मुर्गियों में पाये जाने वाले रोगों को कारक जीवों के आधार पर निम्न प्रकार वर्गीकृत किया गया है।

जीवाणु जनित रोग

मुर्गी गृह या मुर्गियों में जीवाणुओं की उपस्थिति एक आम बात है। जीवाणु प्राय: मुर्गी से अंडे के माध्यम से चूजों में तहत मुर्गी के मल - मूत्र से अंडे में स्थानांतरित होते हैं। मुर्गी घर में जीवाणु पानी – दाना, हवा, बिछावन व मुर्गी घर में प्रयोग होने वाले उपकरण तथा काम करने वाले व्यक्ति के जरिए चूजों या मुर्गी में आ सकते हैं। जीवाणुओं से होने वाली प्रमुख बीमारियाँ निम्न प्रकार की है।

रोग

लक्षण

बचाव एवं उपचार

ओम्फालाइटिस

1-4 दिन के आयु के चूजों में होती है। चूजों का पेट फूल जाता है तथा पेट में अंदर काला, पीला या नीला पानी जमा हो जाता है। चूजों का यकृत, गुर्दे, फेफड़े या हृदय खराब हो जाते है तथा मृत्युदर बढ़ जाती  है।

बचाव के लिए चूजों को पहले 5 दिन तक डॉक्टर की सलाह पर पैलविन/एनरोसिन/फूलोक्सिडीन/नियोड्क्स/ कोलीस्टीन आदि दवाएँ इलेक्ट्रोलैट्स को पानी में घोलकर देना चाहिए।

पुल्लोरम

चूजे व वयस्क मुर्गियों में पायी जाती है। चूजे ब्रूडर के नीचे एकत्रित होते हैं। सफेद या हरे रंग की पेचिस होती है तथा साँस लेने में कठिनाई होती हैं। 7 -10 दिन के अंदर चूजे मरने लगते हैं मुर्गी दाना खाना  कम कर देती है तथा पेचिस का शिकार हो जाती है। फलत: अंडा उत्पादन कम हो जाता है।

पूल्लोरम रहित फार्म या हैचरी से ही चूजे खरीदने चाहिए। मुर्गियों को स्वस्थ्य मुर्गियों से अलग कर देना चाहिए। कुक्कुट आवास हवादार होए तथा बिछावन पर विसंक्रमण  कारी घोल का छिड़काव करना चाहिए। रोग के उपचार के लिए स्लाफोनामाइडस/एनरोफ्लोक्सोसिन/फैफ्लोक्सोसिन/ सिपरोफ्लोक्सिन/टेरामाइसिन/माइकोसल आदि दवाओं को पानी में घोल बना कर पिलाना चाहिए।

फाल टायफाइड (मियादीबुखार)

यह रोग दो सप्ताह तक की उम्र के चूजों में होता है। बीमार चूजे सिर को नीच के झुकाए खड़े रहते हैं। दाना खाना कम कर देते हैं, पेचिस हो जाती हैं तथा लंगड़ा कर चलते हैं। चूजों की आंत में सूजन आ जाती तथा 10-20 प्रतिशत तक चूजे मर जाते हैं।

कुक्कुट आवास में पक्षियों, चूहों तथा आगंतुकों का प्रवेश बंद कर देना चाहिए इसके उपचार के लिए भी फाउल टायफाइड  में प्रयोग की गई दवाओं का प्रयोग किया जाता है।

 

कुक्कुट हैजा

मुर्गी दाना कम खाती है, तेजी से साँस लेती है, मुहं से लार बहती है कलगी तथा गलचर्म में सूजन व नीलापन आ जाता है, पेचिस होती है तथा 10 – 20 प्रतिशत मुर्गियां  मर जाती है।

कुक्कुट आवास में चूहे व मक्खी पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। दाने – पानी के बर्तन साफ व बिछावन स्वच्छ होनी चाहिए। सल्फनोमाइड्स/ टेट्रासा इक्लिन/ माइकोसल/एरोथ्रोसिन आदि दवाओं को पानी में घोलकर पिलाना चाहिए, बीमारी का प्रभाव तीव्र होने पर मुर्गियों को जेंटामाइसिन/एरिथ्रोमाइसिन/लिंकोस्पैकटिन/ ट्रेटासाइक्लिन आदि दवाओं का इंजेक्शन देना चाहिए।

जुकाम (कोराइजा)

मुर्गी की आंख, चेहरे व कलगी में सूजन आती है, साँस लेने में कठिनाई होती है व कभी कभी छींक आती है,

कुक्कुट आवास हवादार हो, अमोनिया गैस एकत्र नहीं होनी चाहिए, मुर्गियाँ प् प्रत्याबल  से मुक्त होनी चाहिए, बीमार मुर्गियों को अलग कर देना चाहिए। सल्फोसीटामाइड/एरोथ्रोमाइसिन/;लिंकोस्पैकटिन/टेट्रासाइक्लिन/टाईलोसीन तथा माइकोसल दवाईयों का घोल बनाकर पानी में पिलाना चाहिए।

पुराना जुकाम (सी.आर.डी.)

वयस्क पक्षियों में सांस लेने में परेशानी होती है, नाक से पानी आता है व खाँसी भी आती है, छींकते हुए व साँस लेते समय आवाज सुनाई पड़ती है, दाना कम खाती है, फलस्वरूप अंडा उत्पादन घट जाता है, फेफ़ड़े व वायु कोष में पीले रंग के दाने पाये जाते हैं।

पुराना जुकाम रहित फार्म या हैचरी से ही चूजे प्राप्त करने चाहि, बीमार मुर्गी की पहचान करके स्वस्थ पक्षियों से अलग कर देना चाहिए। लिंकोस्पैकटिन /टाइलोसीन/टाइमोटिन/एरिथ्रोमाइसिन आदि दवाओं को पानी में घोलकर पिलाना चाहिए।

किलनी बुखार

यह हर उम्र मुर्गियों में होता है, बीमार मुर्गी पड़ी जाता है, शरीर का तापमान बढ़ जाता है, मुर्गी दाना खाना बंद कर देती है तथा पानी ज्यादा पीती है, में रक्त की कमी हो जाती है, अंतत: मुर्गी मर जाती है।

रोकथाम के मुर्गी घर में किलनियों अंकुश लगाना चाहिए। बीमारी के इलाज हेतु टेट्रासाइक्लीन/पैलविन/एनरोफ्सोसि/

एम्पिसिलीन/एम्पीसाइक्लीन/आदि दवाओं को पानी में शरीर घोलकर पिलाना चाहिए। बीमारी का प्रभाव तीव्र होने पर मुर्गियों को जेंटामाइसिन/ टेरामाईसिन/पेनिसलिन/ स्ट्रेप्टोमाइसिन आदि दवाओं का इंजेक्शन देना चाहिए।

विषाणु जनित रोग

मुर्गियों में विषाणु जनित रोग आर्थिक दृष्टि से अधिक हानिकारक होते हैं। क्योंकी इन बीमारियों का इलाज उपलब्ध नहीं है। विषाणुओं द्वारा रोगों के लिए एंटीबायोटिक्स लाभदायक नहीं होती है अत: इन रोगों की टीकाकरण एवं जैव सुरक्षा प्रबंध के द्वारा ही नियंत्रण किया जा सकता है। विषाणु जनित रोगों से बचाव व रोकथाम के लिए पक्षियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने तथा रोग ग्रसित मुर्गियों को अन्य संक्रमणों से बचाने हेतु दवाएँ दी जाती है। मुर्गियों में विषाणुओं से होने वाले कुछ महत्वपूर्ण रोगों का वर्णन निम्नलिखित है –

रोग

लक्षण

रोकथाम एवं उपचार

रानी खेत (आर. डी.)

यह बीमारी हर उम्र की मुर्गी को प्रभावित करती है इस बीमारी के होने पर पक्षी एक जगह पर एकत्रित हो जाते हैं, खाना ओइना बंद कर देते हैं, सफेद व हरे रंग की पेचिस होती है। कुछ पक्षी खड़े नहीं हो पाते हैं या कुछ की गर्दन टेढ़ी हो जाती है। प्रभावित मुर्गियों मर जाती है, कभी - कभी पूरा कुक्कुट समूह नष्ट हो जाता है। यह बीमारी एक महामारी का रूप धारण कर लेती है।

बीमारी होने पर तुरंत आर. डी. एफ. वैक्सीन की 1-1 बूँद हर मुर्गी की नाक व आंख में देना चाहिए। पानी में एंटीबायोटिक्स तथा मल्टीविटामिन का घोल पिलाना चाहिए, मरी हुए मुर्गी को जलाकर या दफनाकर पूर्णतया नष्ट कर देना चाहिए। बीमारी की रोकथाम के लिए आर.डी. टीकाकरण करना चाहिए।

मैरेक्स (एम. डी.)

यह बीमारी ज्यादातर 8-16 सप्ताह की उम्र वाली मुर्गियों में होती है। इस बीमारी के कारण मुर्गियों लकवा हो जाता है व गर्दन टेढ़ी हो जाती है। मुर्गी एक पाँव आगे व एक पीछे करके पड़ी रहती है। जिससे वे दाना- पानी ठीक से नहीं खा पाती, फलस्वरूप मुर्गी मर जाती है। कुछ मुर्गियों अंधी हो जाती है, मरी हुई मुर्गियों के जिगर, गुर्दों आदि में गांठे (ट्यूमर) हो जाती है।

बीमारी होने पर पानी में मल्टी विटामिन देने से मुर्गियों को राहत मिलती है लेकिन रोकथाम के लिए एक दिन की उम्र वाले चूजों को टिका देना आवश्यक है। प्रभावित मुर्गियों के गिरे हुए पंखों को जलाकर या दफनाकर नष्ट कर देना चाहिए।

गम्बोरो (आई. बी.डी.)

यह बीमारी 3-12 सप्ताह तक के पक्षियों में होती है इस बीमारी में मुर्गी व चूजे आवास के एक कोने में सिर झुकाए खड़े रहते हैं, चूजे थरथराते हैं, सफेद व पीले रंग की पेचिस होती है, दाना कम खाते हैं तथा 20-30 प्रतिशत तक बीमार मुर्गियों मर जाती है। इस बीमारी के कारण पक्षियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में गिरावट आती है, जिसके कारण मुर्गियाँ अन्य रोगों की शिकार हो जाती है तथा मृत्युदर बढ़ जाती है और टीकाकरण का फायदा मुर्गियों को नहीं हो पाता है।

इस बीमारी के उपचा रके लिए एंटीबायोटिक्स, मल्टीविटामिन तथा लिमामिजलका घोल एवं जिट्रेस आदि दवाईयों को पिलाने से फायदा हो सकता है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए चूजों को 3 और 5 सप्ताह पर टीकाकरण हो चुका है उसी के द्वारा दिए गए अंडों से चूजे प्राप्त करने चाहिए। मरी हुई मुर्गियों को सही ढंग से नष्ट कर देना चहिए।

लीची रोग

यह बीमारी 3-10 सप्ताह तक के पूँजी में होती है। इस बीमारी के कारण चूजे खाना पीना बंद कर देते हैं तथा उन्हें सफेद, हरे या पीले रंग की पेचिस हो जाती है, ग्रसित चोजे पंख ढीले करके खड़े रहते हैं तथा 24 घंटे के अंदर मर जाते हैं। इस बीमारी के कारण 70-80 प्रतिशत तक मृत्युदर हो जाती है, मरे गूए चूजों के ह्रदय के ऊपर पानी जमा हो जाता है तथा कभी कभी मोटा सफेद आवरण पाया जाता जो दिखने में छिली हुई लीची जैसा दिखता है। यह बीमारी ज्यादातर कम प्रतिरोधक क्षमता वाले चूजों में होती है।

इस बीमारी के होने पर मुर्गियों को मल्टीविटामिन, जिट्रेंस आदि का घोल बनाकर पानी में पिलाना चाहिए। रोकथाम के लिए अभी भी सही टीका उपलब्ध नहीं है, लेकिन चूजों की रोग प्रतिरोधक क्षमता न घटने पाये इसका ध्यान रखना जरूरी है। चूजों को गम्बोरो से बचाकर इस बीमारी पर अंकुश लगाया जा सकता है।

चेचक (फाउल पॉक्स)

यह हर उम्र की मुर्गियों में पायी जाती है परन्तु 8 सप्ताह से अधिक उम्र की मुर्गियों में सबसे अधिक होती है। इस बीमारी में मुर्गियों की कलंगी, गलचर्, चेहरा व पाँव आदि पंख विहीन अंगों पर फुंसी जैसे दाने दिखते हैं। 2-4 दिन के बाद फुंसी घाव का रूप से लेती है तथा 8-10 दिन बाद घाव सूखकर पपड़ी बन जाता है, मुर्गी दाना कम कहती है, फलस्वरूप अंडा उत्पादन घट जाता है, शारीरिक वजन कम हो जाता है। मृत्युदर कम होती है लेकिन जब यह दाने मुहं के अंदर होते हैं, तब मुर्गियों को खाने- पीने में कठिनाई होती है। जिस कारण मृत्युदर बढ़ जाती है।

मुर्गियों को एंटीबायोटिक्स, मल्टीविटामिन आदि दवाईयों को पानी में मिलकर देना चाहिए। रोकथाम के लिए टीकाकरण अवश्य कराएँ। मुर्गी आवास में मच्छर का नियंत्रण अति आवश्यक है।

ई. डी. एस. – 76

यह बीमारी अंडे देने वाली मुर्गियों में होती है इस बीमारी के कारण मुर्गियों में अंडा उत्पादन अचानक घट जाता है तथा कुछ मुर्गियाँ पतले व बिना छ्लिके वला अंडा देती है। बीमारी के 3-4 सप्ताह के बाद अंडे की पैदावार में थोड़ा सा सुधार होता है। किसी - किसी मुर्गी में दस्त भी आते हैं और इसके अलावा कोई अन्य लक्षण दिखायी नहीं देता।

 

प्रभावित मुर्गियों म को पानी में मल्टीविटामिन, कैल्शियम, फास्फोरस देना चाहिए। बीमारी की रोकथाम के लिए 18-20 सप्ताह की मुर्गियों को ई.दी. एस. – 76 का एक टिका मांसपेशी में देना चाहिए। यह बीमारी अंडे द्वारा द्वारा संक्रमित होती है अत: ई. दी. एस.-76 बीमारी मुक्त फार्म या हैचरी से ही चूजे प्राप्त करने चाहिए। मुर्गियों को बतखों से दूर रखना चाहिए।

टीकाकरण से संबंधित कुछ आवश्यक जानकारियां

विषाणुओं द्वारा फैलने वाली बीमारियों की रोकथाम के लिए टीकाकरण किया जाता है। टीकाकरण करते समय कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए जो निम्नलिखित हैं-

क. कुक्कुट पालक को टीकाकरण का उपयुक्त समय, विधि तथा खुराक के बारे में पशु चिकित्साधिकारी से जानकारी लेनी चाहिए।

ख. टीके के बारे में सही जानकारियाँ जैसे उसका स्रोत, बैच न. व नाम आदि नोट करना चाहिए।

ग. टीका और उसका घोल बनाने में प्रयोग होने वाले पदार्थ को रेफ्रीजरेटर में रखना चाहिए, रेफ्रीजरेटर न होने की स्थिति में बर्तन में बर्फ डालकर रखा जा सकता है।

घ. टीके को निर्माता कंपनी के निर्देशानुसार प्रयोग करना चाहिए।

ङ. टीकाकरण सुबह करना चाहिए।

च. टीकाकरण बीमार मुर्गियों में नहीं करना चाहिए।

छ. टीकाकरण करने पर कुछ प्रतिक्रिया से बचने के लिए टीकाकरण के तीन दिन पहले तथा तीन दिन बाद तक मल्टीविटामिन का घोल पिलाना चाहिए।

मुर्गियों में टीकाकरण कार्यक्रम

टीके का नाम

पक्षी की उम्र

खुराक

टीकाकरण का ढंग

मैरेक्स वैक्सीन

एक दिन

0.2 मिली

गर्दन की चमड़ी की नीचे

आर. डी. एफ. स्ट्रेन

1 या 5 दिन

2 बूँद

1-1 बूँदआँख तथा नाक के माध्यमसे

आई. बी. डी.

14 दिन

2 बूँद

उक्त

इंटरमीडिएट स्ट्रेन

आर. डी. एफ. स्ट्रेन

28 दिन

2 बूँद

उक्त

आई.बी.डी.

35 दिन

2 बूँद

उक्त

इंटरमीडिएट स्ट्रेन

फाउल पॉक्स

42 दिन

1 बूँद

पंख की चमड़ी में

आर.डी.आर. 2 बी

8-10 सप्ताह

0.5 मिली.

मांस पेशी में

परजीवी रोग

कुछ बाह्य परजीवी जैसे किलनी, जूएँ आदि मुर्गियों के पंख या चमड़ी में पाये जाते हैं तथा  पक्षियों का खून चूस कर संक्रमित करते हैं जिसके कारण मुर्गी के शरीर में खुजली होती है, तथा अंडा उत्पादन घट जाता है। मुर्गियों को इन परजीवियों की संख्या अधिक होने पर 2 मिली. मैलाथियान/सामथियान/नूभान/एक्टोमीन आदि कीटनाशक दवाओं को 10 लीटर पानी में मिलाकर मुर्गियों पर तथा उनके आवास में छिड़काव करना चाहिए। इन कीटनाशक दवाईयों के को मुर्गियों के दाने- पानी से दूर रखना चाहिए। इस दवा के प्रयोग के बाद मल्टीविटामिन को पानी में मिलाकर पिलाना चाहिए।

अंत: परजीवी बीमारियाँ

अंत: परजीवी मुर्गियों के अंदर जैसे आहारनाल, श्वासनली व आँख में पायी जाते हैं। इनके द्वारा हो वाली बीमारियाँ निम्न प्रकार हैं।

गोलकृमि

यह कृमि आंतों में पाया जाता है। इसके कारण मुर्गी कमजोर हो जाती है। तथा रक्तहीनता के लक्षण दिखाई देते हैं। अंडा उत्पादन कम हो जाता है, कृमियों की संख्या अधिक होने पर आंतों में गांठ बन जाती है जिसके कारण मुर्गियों की मृत्यु भी हो सकती है।

उपचार – मुर्गियों को विपराजिन, लिभामिजल आदि दवाओं का घोल एक बार पिलाना चाहिए।

फीताकृमि

बाहर घूम- घूमकर खाने वाले पक्षियों में ज्यादातर पाया जाता है। यह कृमि मध्यवर्ती प्राणी जैसे मक्खी, चींटी, घोंघा, केंचुआ आदि की सहायता से अपना जीवन चक्र पूरा करता है। जब मुर्गी इस मध्यवर्ती प्राणी को अपना आहार बनाती है तब यह कृमि उसके शरीर में चला जाता है। इसके कारण मुर्गियों में कमजोरी, रक्तहीनता व अंडा उत्पादन में कमी जैसे लक्षण दिखते हैं।

उपचार – पशु चिकित्सक की सलाह पर अल्वेनंदाजोल नमक दवा को पानी या आहार में मिलाकर दिया जाना चाहिए।

खुनी पेचिस

इसको काक्सिडीयोसिस भी कहते हैं। यह बीमारी ज्यादातर 3-12 सप्ताह की उम्र के पक्षियों में होती है। प्रभावित मुर्गियाँ सिर को नीचे करके कमरे के एक कोने में दूसरी मुर्गियों से दूर खड़ी रहती है, पंख ढीले हो जाते हैं तथा खुनी पेचिस होती है। कुछ घंटों के बाद बीमार मुर्गियों की  मृत्यु हो जाती है।

उपचार – बीमार मुर्गियों को डॉक्टर की सलाह पर एम्प्रोसल, एम्प्रोलियम, सल्फक्यूनीजौलिन नामक दवाई को पानी में मिलाकर 3-5 दिन तक पिलाना चाहिए। रोकथाम के लिए आवास की विछावान को सदैव सूखा रखना चाहिए और दाने में सेलाइनोमाइसिन, मेडूटामाइसिन कौक्सिदियोस्टेट मिलाकर नियमित रूप से खिलाना

चाहिए।

कुक्कुट जनित रोग

कुक्कुट में फफूंदी मुर्गियों की विछावन व राशन में प्रयोग होने वाली खली के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। कुछ फफूंदी मुर्गियों के राशन में अपने विष छोड़ देती है। इस विषक्त राशन को खाने पर मुर्गियों बीमार हो जाती है जिसके कारण उनका वजन कम हो जाता है, अंडे की पैदावार घट जाती है तथा प्रभावित मुर्गियों मर जाती हैं।

उपचार – इससे बचने के लिए मुर्गियों को फफूंद रहित दाना खिलाना चाहिए।  दाने में एल्यूमीनियम सिलिकेट मिलाने से विष की तीव्रता कम हो जाती है। प्रभावित मुर्गियों को मल्टीविटामिन, लिव-52, ब्रोटोन आदि दवाईयां पानी में मिलाकर देनी चाहिए। राशन में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने पर विष का प्रभाव किसी हद तक कम किया जा सकता है।

वयस्क मुर्गियों भी फफूंदी रोग से प्रभावित होती है जिसके कारण साँस लेने में कठिनाई होती है छींकना, मुंह खोलकर साँस लेते हैं ब्रूडर के नीचे खड़े रहते हैं, पंख ढीले हो जाते हैं, नाक से पानी निकलता है तथा 10-20 चूजे मर जाते हैं।

उपचार - प्रभावित मुर्गियों को एक ग्राम नीला थोथा (कॉपर सल्फेट) 2 लीटर पानी में मिलाकर एक दिन के अन्तराल पर 3-5 बार देना चाहिए। जैव सुरक्षा की दृष्टि  से प्रयोग होने वाली विछावान व अन्य उपकरण को फार्मेलिन के द्वारा उपचारित करना चाहिए।

विटामिन व खनिज तत्वों की कमी से होने वाली बीमारियां

संतुलित आहार मुर्गियों की विटामिन्स तथा खनिज तत्वों की आवश्यकता पूर्ति करता है। तथापि इन तत्वों अथवा विटामिन्स की कमी से होने वाली बीमारियाँ व उनके निदान निम्न प्रकार हैं।

विटामिन

कमी के लक्षण

उपचार

विटामिन – ए

शारीरिक, कमजोरी, विकास में रूकावट, अंडा उत्पदान में कमी, आँखों से पानी आना व कीचड़ जमाना रोग प्रतिरोधक क्षमता का घटना या कम होना मुख्य लक्षण हैं।

फौमीटोन, विमरौल आदि दवाओं का घोल या मुर्गी राशन में हाइब्लेंड मिलाकर देना चाहिए।

बी-कम्प्लेक्स

भूख में कमी, पैरों में लकवा, पाचन शक्ति में कमी, अंडा उत्पादन में कमी, पैर की अंगूलियों के अंदर की पर मुड़ जाना तथा लंगड़ा कर चलना मुख्य लक्षण हैं। इसके अलावा त्वचा में खुजली होना, चोंच के किनारे में घाव होना तथा पंख टूट जाना भी शामिल हैं।

मुर्गियों को दाने या पानी में ग्रोबिप्लेक्स, माइसल-बी आदि दवाईयों देना चाहिए।

विटामिन – डी

रिकेट्स या आस्टियोमालेशिया नामक बीमारी होती है, पाँव की हड्डी कमजोर हो जाती है, लंगड़ापन, गांठों में सूजन आती है, अंडा उत्पादन घट जाता है तथा मुर्गी पतले छिलके वाले अंडे देती है।

राशन में डीसीरल व हाइब्लेंड नामक दवाईयां दी जाती है।

विटामिन – ई

मुर्गियों के प्रजनन अंगों के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। मुर्गियों की गर्दन पीछे की ओर घूम जाती है तथा मुर्गी को लकवा हो जाता है।

पानी में फौमीटोन, विमरौल या ई- केयर – से नामक दवाइयां दी जाती हैं। राशन में हाइब्लेंड मिलाकर खिलाया जाता है।

विटामिन – के

शरीर के अंदर रक्तस्राव होता है जिसके कारण मुर्गी मर सकती है।

दाने में हाईब्लेंड मिलाकर खिलाना चाहिए।

खनिज तत्व

कमी के लक्षण

उपचार

कैल्शियम एवं फास्फोरस

कमी के कारण रिकेट्स व ऑस्टियोमलेशिया नामक बीमारी होती, हड्डियों कमजोर हो जाती है, मुर्गी लंगड़ाकर चलती है, अंडे का छिलका कमजोर तथा उत्पादन घट जाता है।

मुर्गी राशन में आई. एस. आई. मुहर मुर्गी ह्यूक्त खनिज मिश्रण प्रयोग करना चाहिए। पानी में ऑस्टियो न्यूट्रीकल, मेरिकल, कैल्सी रौल आदि दवाईयों दी जाती है।

मैग्नीज

इसके कारण स्लिप टेंडन नामक बीमारी होती है जिसके कारण पाँव मुड़ जाते हैं, मुर्गियों को खड़े होने में परेशानी होती है, अंडा उत्पादन घट जाता है अंतत: मुर्गी मर जाती है।

मुर्गी राशन में खनिज तत्वों का मिश्रण मिलाना चाहिए तथा पानी में जीप्रोमिन नामक दवा देनी चाहिए।

पोटेशियम

मांस पेशियों में कमजोरी, दिल का दौरा पड़ना, साँस लेने में कठिनाई तथा आकस्मिक मृत्यु इसके मुख्य लक्षण हैं।

उक्त

आयोडीन

घेंघा रोग होता है तथा शारीरिक वृद्धि रूक जाती है।

उक्त

लोहा व तांबा

मुर्गियों रक्तहीनता की शिकार हो जाती है, फलस्वरूप कमजोर हो जाती है।

उक्त

जिंक (जस्ता)

शारीरिक विकास रूक जाता है, पंखों का गिरना तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, हड्डियों के जड़ों में सूजन आना मुख्य लक्षण हैं।

उक्त

मुर्गियों को बीमारी से बचने हेतु ध्यान देने योग्य बातें

क. स्वस्थ मुर्गियों को बीमारी व मरी हुई मुर्गियों से दूर रखना चाहिए।

ख. मुर्गी आवास व उसमें प्रयोग होने वाले उपकरण जैसे दाने व पानी के बर्तन तथा बिछावन आदि को साफ रखना चाहिए एवं इसमें समय - समय पर जीवाणुनाशक दवा का छिड़काव करना चाहिए।

ग. मुर्गियों को समय – समय पर दाने या पानी में एंटियोटिक्स, विटामिन्स व खनिज लवण देने पर उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जा सकती है।

घ. मुर्गियों को प्रमुख बीमारियों से बचाने के लिए उचित आयु पर टीकाकरण करना आवश्यक है।

ङ. अंडा देने वली मुर्गियों को महीने में एक बार कृमियों से बचाव के लिए दवाई अवश्य द दें ।

च. मरी हुई मुर्गी, मुर्गियों के मलमूत्र, गिरे हुए पंख व टूटे हुए अंडे आदि को मुर्गी आवास से दूर सुरक्षित स्थान पर दफना या जला देना चाहिए।

छ. मुर्गियों को दुसरे वन्य पक्षी व जानवर आदि से दूर रखना चाहिए।

ज. मुर्गियों के स्वस्थ्य की जाँच पशु चिकित्सक dद्वारा समय – समय पर करानी चाहिए।

बर्ड फ़्लू (एवियन इन्फ्लूएंजा) के संबंध में आवश्यक तथ्य एवं जानकारी

इससे डरे नहीं सावधानियाँ बरतें

मुर्गी पालने वाले तथा मुर्गी व्यवसाय से जुड़े अन्य लोग विशेष रूप से ध्यान दें कि

  • बीमारी मुर्गियों के सीधे संपर्क में न आयें।
  • दस्ताने या किसी भी अन्य सुरक्षा साधन का इस्तेमाल करें।
  • बीमारी पक्षियों के पंख, श्लेष्मा और बीट को न छूएं।
  • छूए जाने की स्थिति में साबुन से तुरंत अच्छे तरीके से हाथ धोएं।
  • मुर्गियों को बाड़े में रखें।
  • संक्रमित पक्षियों को मार कर उनका सुरक्षित निपटान करें।
  • बीमार अथवा मरे हुए पक्षी की सूचना निकटतं पशु चिकित्सा संस्था को तुरंत दें। ऐसा करना जन स्वास्थय के लिए आवश्यक है।

सामान्य जानकारी

  • बर्ड फ़्लू मुख्यत: मुर्गियों का बड़ा ही संक्रामक रोग है।
  • संक्रमित पक्षी के संपर्क में आने से यह संक्रमण मनुष्यों में फ़ैल सकता है।
  • बर्ड फ़्लू के वायरस ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप के कई देशों में मुर्गी पालन व्यवसाय को नुकसान पहूंचाया है।
  • यह अत्यंत संक्रामक वायरस जनित रोग है। जिसके कारण मुर्गी पालन व्यवसाय को भरी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
  • मनुष्यों में बर्ड फ़्लू के लक्षण साधारण फ़्लू से मिलते- जुलते हैं। जैसे की साँस लेने में तकलीफ, तेज बुखार, जुकाम और नाक बहना ऐसी शिकायत होने पर नजदीकी स्वास्थय केंद्र को तुरंत इसकी सूचना दें।
  • सामान्यत: बर्ड फ़्लू का वायरस 700 सी. तापमान पर नष्ट हो जाता है।
  • किसी स्थान पर बर्ड फ़्लू रोग की पुष्टि होने पर भी अंडे व चिकन 700 सी. तापमान पर पकाकर खाने में कोई नुकसान नहीं हैं।

मुर्गे- मुर्गियों के संक्रामक रोगों से बचाव के लिए सोने – से खरे कुछ उपाय

पक्षियों को रानीखेत गम्बोरो और बर्ड फ़्लू जैसी कई बीमारियाँ हो सकती है। ये बीमारियाँ एक पक्षी से दूसरी पक्षी में व दूषित पानी से अथवा प्रभावित पक्षी के माल-मूत्र, पंखों आदि के जरिए पूरे झुंड को तेजी से प्रभावित कर सकती है। मुर्गी पालन से जुड़े होने के नाते आप अच्छी तरह जानते हैं कि अपने पक्षियों को इन बीमारियों से बचाना कितना महत्वपूर्ण हैं?

आइये अपने पक्षियों के साथ – साथ अपने बचाव के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाएं –

बाड़े में सुरक्षित रखें

अपने पक्षियों को बाड़े में रखिए, केवल आपकी पौल्ट्री फार्म की देखभाल करने वालों को ही पक्षियों के पास जाना चाहिए।  अनावश्यक लोगों को बड़े में प्रवेश न करने दें। अपने मुर्गे – मुर्गी को दूसरे पक्षियों के संपर्क में न आने दें। दो प्रजातियों की पक्षियों को एक ही बाड़े में न रखें।

साफ-सफाई रखें

पक्षियों के बड़े में और सके आसपास साफ सफाई बहुत जरूरी है। इस  प्रकार जीवाणु और विषाणुओं से बचा जा सकता है, पक्षियों के बाड़ों को साफ – सुथरा रखें। अपने पौल्ट्री फार्म/बाड़े को नियमित रूप से चुने अथवा कीटाणुनाशक दवाओं को छिड़काव कर संक्रमण मुक्त करते रहें।

आहार एवं पेयजल व्यवस्था

पक्षियों को स्वच्छ एवं शीतल पेयजल और सन्तुलित आहार देवें। पक्षियों का भोजन एवं पेयजल रोजाना बदलें व पेयजल और भोजन के बर्तनों की नियमित साफ – सफाई करें।

अपने पौल्ट्री फार्म में बीमारियों को प्रवेश करने से रोकें

अपने आपको और बाजार या अन्य फार्मों में अन्य पक्षियों के संपर्क में आने वाली हर चीज की साफ़-सफाई रखें। नये पक्षी कम-से-कम 30 दिनों तक अपने स्वथ्य पक्षियों से दूर रखें। बीमारी को फैलने से रोकने या बचाव के लिए पौल्ट्री के संपर्क में आने से पहले और बाद में अपने हाथ, कपड़ों और जूतों को धोयें तथा संक्रमण मुक्त करें।

बीमारी उधार न लें

यदि आप अन्य फार्मों से उपकरण या पस्खी लेते हैं तो अपने स्वस्थ पक्षियों के संपर्क में आने से पहले भली भांति उनकी सफाई करें और संक्रमण मुक्त करें। अनावश्यक लोगों व अन्य फार्म पर कार्यरत मजदूरों एवं वाहनों को अपने फार्म पर प्रवेश न दें।

लक्षणों को पहचाने

अपने पक्षियों पर नजर रखें, यदि पक्षियों की आंख, गर्दन और सिर के आस – पास सूजन है और आँखों से रिसाव हो रहा है, कलगी और टांगों में नीलापन आ रहा है, अचानक कमजोरी पंख गिरना बढ़ रहा है और पक्षियों की हरकत में कमी आ रहा है, अचानक कमजोरी, पंख गिरना बढ़ रहा है और पक्षियों की हरकत में कमी आ रही है, पक्षी आहार कम ले रहे हैं व अंडे भी कम दे रहे हैं और असामान्य लक्षण दिखाई देते हैं तो इसे छुपायें नहीं क्योंकी यह आपके परिवार के स्वास्थय के लिए नुकसानदायक हो सकता है।

बीमार पक्षी की सूचना

अपने पक्षियों की हर असामान्य बीमारी अथवा मौत की सूचना तुरंत निकटतम पशु चिकित्सा संस्था व जिले के उपसंचालक पशु चिकित्सक सेवाएँ को तत्काल दें।

मुर्गी पालकों के लिए सुझाव

(i) ब्रायलर उत्पादन हेतु अच्छी नस्ल के चूजे प्रतिष्ठित हैचरी अथवा लेने चाहिए।

(ii) ब्रूडर हाउस ऊँचे व सूखे स्थान पर बनायें।

(iii) ब्रूडर हाउस हवादार होने चाहिए तथा ताप नियंत्रण सुचारू होना चाहिए।

(iv) लीटर सूखा एवं स्वच्छ रहे तथा कभी-कभी लीटर को स्क्रेपर अथवा सहायता लसे से हिलाते रहना चाहिए।

(v) दाना व पानी स्वच्छ एवं ताजा दें। दाना अच्छे प्रकार का होना चाहिए।

(vi) प्रति मुर्गी पर्याप्त भूमि उपलब्ध कराएँ। चूजों को कभी भी सघन न होने दें।

(vii) नियमित निरीक्षण, उपचार एवं मृत चूजों का निष्कासन तथा शव विच्छेदन आदि कराना चाहिए।

(viii) सारे चूजे एक साथ अंदर व एक साथ बाहर प्रणाली रोग नियंत्रण में अत्याधिक प्रभावी है अत: इसे अपनाएं।

अन्य विशेष बातें –

(i) कुक्कुट आहार की ऊँची कीमत एवं मिलावटी अथवा निम्नस्तरीय दाना।

(ii) अच्छी नस्ल के चूजों की अनुपलब्धता तथा बिचौलियों द्वारा अच्छी नस्ल के साथ खराब चूजों की मिलावट।

(iii) अपर्याप्त स्वास्थय देखभाल।

(iv) ब्रायलर तथा ब्रायलर उत्पादों की मांग में उतार चढ़ाव/अनिश्चित विपणन। उपरोक्त बिंदूओं को ध्यान में रखते हुए सदैव प्रयास करना चाहिए कि इन कारणों से होने वाली हानि को रोकने के उपाय किए जाएँ तथा आवश्यकता पड़ने पर समीपस्थ विशेषज्ञों की राय ले ली जाए।

 

स्रोत : पशुपालन सूचना एवं प्रसार विभाग, बिहार सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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