हर दूसरे घर में है ट्रैक्टर और कार
बारिश के भरोसे होने वाली धान की खेती में नुकसान से पस्त हो चुके ग्राम झिक्की के एक किसान बेनीप्रसाद साव की जिद ने पूरे गांव और इलाके की तस्वीर और तकदीर बदल दी। नई फसल की कोशिश में हाथ-पैर मार रहे साव को कई बार विफलता मिली। पर हार नहीं मानी। वह बिहार से लीची के कुछ पौधे लेकर आए। आज स्थिति यह है कि झिक्की में ही लीची के 1500 से ज्यादा पेड़ हैं। 90 परिवारों का यह गांव हर साल चार करोड़ रुपए से ज्यादा की लीची पैदा कर रहा है। गांव के हर दूसरे घर में ट्रैक्टर, कार या स्कॉर्पियो जैसी महंगी गाडिय़ां हैं। झिक्की की देखा-देखी आसपास के दर्जनभर से ज्यादा गांवों के लोगों ने लीची की खेती शुरू कर दी है।
जशपुर से करीब 85 किलोमीटर दूर घने जंगल के बीच बसे गांव झिक्की की पहचान ही लीची वाले झिक्की नाम से है। कुछ लोग लीची की खुद मार्केटिंग करते हैं, तो कुछ ठेकेदारों को पेड़ का ठेका दे देते हैं। गांव में सिंचाई की सुविधा नहीं है। बारिश अच्छी हुई, तो गांव के लोगों को धान की फसल मिल जाती थी। साव को अपने रिश्तेदारों से बिहार में मुजफ्फरपुर में लीची की खेती के बारे में पता चला। वे मुजफ्फरपुर गए। वहां की खेती देखी। लगा की उनके गांव का मौसम भी कुछ-कुछ ऐसा ही है।
30-32 साल पहले जब वह लीची के पौधे लेकर आए, उस समय गांव क्या, जिले में किसी को पता नहीं था कि लीची होती क्या बला है। पर साव को इससे होने वाली कमाई का अंदाज था। उनकी कोशिश रंग लाई। पांच साल के अंदर पेड़ बड़े हुए और लीची से उनको अच्छा पैसा मिलने लगा। साव के नाती कृष्णा गुप्ता ने बताते है कि उनके परिवार की देखा-देखी गांव के बाकी लोगों ने भी इन्हीं पेड़ों से कलम काटकर लीची के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। साव तो नहीं रहे, पर उनके परिवार ने लीची की खेती को बढ़ावा देने का जिम्मा उठा लिया है। आज झिक्की के हर घर में लीची के पांच से लेकर 150 तक पेड़ हैं।
झिक्की के अलावा आसपास के तटकेला, पिरई, जुरूड़ाड, रायकेरा बूढ़ाडांड़, महादेवडांड़, बम्बा, जुरगुम , जुजगु, टांगरडीह, ओड़का, छाताबार, झगरपुर जैसे दर्जनभर से ज्यादा गांव लीची की खेती कर रहे हैं। दो हजार हेक्टेयर से ज्यादा बड़े इलाके में ली जा रही लीची से हर साल किसानों को करोड़ों रुपए की कमाई होने लगी है। आसपास के शहरों में यहीं से लीची की सप्लाई होने लगी है।
लीची का एक पौधा लगाने की लागत 300 रुपए से भी कम आती है। तीन साल के अंदर उत्पादन मिलना शुरू हो जाता है। बडिंग करके इसका कलम बनाने से एक पौधा 100 रुपए में बिकता है। बहुत खराब उत्पादन होने पर भी एक पेड़ 60 से 80 किलो लीची तो दे ही देता है, जो 6-7 हजार रुपए कमाई दे जाती है।
गांव के किसानों ने बताते है कि इस फसल को बेचने के लिए कोई स्थानीय मार्केट नहीं है, लेकिन बाहर के फलों के ठेकेदार यहां आकर पेड़ में लगे फलों को खरीदते हैं। दो-तीन पेड़ लगाने वाले लोगों की फसल स्थानीय बाजार मेंं हाथों-हाथ बिकती है। अंबिकापुर, कोरबा, बिलासपुर, रायपुर सहित अन्य शहरों के ठेकेदार यहां खरीदी के लिए आते हैं।
यहां का वातावरण लीची के लिए अनुकूल है। पूर्व में शासन के द्वारा लीची लगाने वाले किसानों को प्रेरित किया जाता था। वर्तमान में अभी ऐसी कोई योजना नहीं है, जिससे लीची उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके।
साव के नाती कृष्णा गुप्ता बताते हैं कि अच्छी फसल हुई, तो एक पेड़ मई-जून के दो महीने में ही 50-60 हजार रुपए से ज्यादा की कमाई दे जाता है। ज्यादा पेड़ों वाले किसान तो सीजन में 5 से 8 लाख तक कमा लेते हैं। लीची की फसल ने पूरे गांव की सूरत बदल दी है। झोपडिय़ों की जगह पक्के मकान हैं। हर दूसरे घर में ट्रैक्टर, कार और स्कॉर्पियो जैसा एक वाहन तो है ही। लोगों को रोजगार के लिए भी भटकना नहीं पड़ता।
स्त्रोत
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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