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मुर्गीपालन के जरिये आ रहा बदलाव

प्रगति की राह पर

आधी आबादी प्रगति की राह पर अग्रसर हो रही है। स्वावलंबी होने के लिए आधी आबादी आज के दौर में कई तरह के कार्य को न केवल कर रही है, बल्कि मेहनत के दम पर इन कार्यो को कर के अलग पहचान भी बना रही है। पूरे प्रदेश में कई तरह के कार्यो को कर के ये महिलाएं अपनी जीवटता और हार ना मानते हुए आगे बढ़ने की सीख अन्य महिलाओं को दे रही हैं। मुजफ्फरपुर जिले में आधी आबादी मुर्गीपालन कर के खुद के साथ समाज में भी हो रहे बदलाव का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत कर रही हैं। ये महिलाएं आमतौर पर थोड़ी मुश्किल और जिम्मेवारी से जुड़े मुर्गीपालन कर के आर्थिक रुप से मजबूत हो रही हैं।

मुर्गीपालन करने की इच्छुक महिलाएं

मदद के हाथ, मुर्गीपालन करने की इच्छुक महिलाओं तरक्की का रास्ता  को 150 मुर्गे या मुर्गियां पालना होता है। इन्हे किस्तों में चूजा दिया जाता है। जिसे मदर यूनिट में पाला जाता है। इसे पालने वाले पिंजड़े पर अनुदान दिया जाता है। दो हजार रुपये में मिलने वाले पिंजड़ा पर एक हजार रुपये अनुदान दिया जाता है। चूजों को सरकारी मान्यता प्राप्त हैचरी से खरीदा जाता है। सभी को तीन से 28 दिनों तक पाला जाता है। इनको दाना खिलाने के लिए भी अनुदान दिया जाता है। दाना के लिए कम से कम 60 रुपये प्रति चूजा का आंकड़ा है। जिसमें से 10 रुपये चूजे पालने वाले को देना होता है बाकि रुपये अनुदान के रुप में मिलते हैं। प्रोजेक्ट के हिसाब से खिलाने के खर्च का आंकलन कर के पैसे दिये जाते हैं।सेहत का भी होता है ख्याल मुर्गीपालन के दौरान इन जीवों के सेहत का भी ख्याल रखा जाता है। वैसे तो रोग से लड़ने की अपनी प्रतिरोध क्षमता होने के कारण इनकी सेहत जल्दी खराब नहीं होती है, लेकिन अगर कभी ये बीमार पड़ते हैं तो इनकी देखभाल संस्था चिन्हित अस्पताल के जरिये करवाती है।

मुर्गीपालन ‘कैश क्रेडिट’ व्यापार

बड़ी संख्या में जुड़ी हैं महिलाएं । कंचन कहती हैं, मुर्गीपालन के लिए जब महिलाओं से बात करने की शुरुआत की गयी तब इसके लिए हमने इनसे बात की तो हर नये काम की तरह यहां भी परेशानी उठानी पड़ी। इनको समझाना आसान नहीं था। आर्थिक स्तर पर फायदे की बात जब समझायी गयी तब इन्होंने इस कार्य के लिए हामी भरा। तब जिले के कुलनी, मीनापुर, बोचहा, मुशहरी, सकरा आदि प्रखंडों की महिलाओं से संपर्क किया गया था। इन सभी प्रखंडों से करीब 250 महिलाओं ने अपनी रुचि दिखायी। बाजार में इनकी मांग को देखते हुए महिलाओं की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। कंचन के अनुसार, ये सभी महिलाएं मुर्गीपालन को ‘कैश क्रेडिट’ व्यापार समझती हैं। समय के अनुरूप इनकी पैसे की मांग इस व्यवसाय हो पूरी हो जाती है, जिस कारण लगातार इससे जुड़ने वाली महिलाओं की संख्या में वृद्धि हो रही है। आर्थिक क्षेत्र में आया बदलाव इतने बड़े स्तर पर हो रहे मुर्गीपालन के बाद हो रहे बदलाव को लेकर स्थानीय स्तर पर एक सर्वे भी कराया गया। जिसमें यह बात सामने आयी कि इससे जुड़ी सभी महिलाओं को आर्थिक रुप से मजबूत होने में काफी मदद मिली है। इस व्यवसाय के दम पर ये महिलाएं हर माह में करीब चार से पांच हजार रुपये अजिर्त कर ले रही हैं।

अंतिम कतार में खड़े वर्ग

पहले की सीख आयी काम मुर्गीपालन कर रही ये महिलाएं जिले के उन क्षेत्रों से रहती हैं, जहां प्रगति की रफ्तार कम है। ये सभी गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वाली और समाज के अंतिम कतार में खड़े वर्ग से ताल्लुक रखती हैं। घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए ये पहले से भी पशुपालन और मुर्गीपालन जैसे काम करती रही हैं। तब इस काम को कर के यह मनमाफिक पैसे अजिर्त नहीं कर पाती थी, महिला उत्थान के लिए कार्य करनी वाली एक संस्था ने जब इनकी हालत और मुर्गीपालन करने की इच्छा को देखा तो इनकी इच्छा के मुताबिक ही काम करने का प्रशिक्षण देने की बात सोची। संस्था की जुड़ी कंचन कुमारी बताती हैं, इन घरों में पहले भी एक - दो मुर्गे या मुर्गियों को पाला जाता रहा है। हमने इसके अलावा अंडे के उत्पादन, बिक्री पर ध्यान दिया, थोड़ी हिचकिचाहट के बाद ये तैयार हो गयी। इस काम को 2013 में शुरू किया गया।

ब्रॉयलर और लाल कलगी वाले देशी मुर्गे पहली पसंद

जिसकी मांग, उसका पालन कंचन बताती हैं, मुर्गीपालन के लिए मुख्यत: ब्रॉयलर और लाल कलगी वाले देशी मुर्गे पहली पसंद होते हैं। स्थानीय बाजारों में इन दोनों की मांग बराबर बनी रहती है। ब्रॉयलर का रंग उजला और देशी मुर्गे की पहचान उसके लाल चटख रंग के कलगी से हो जाती है। सबसे अहम बात यह कि कलर के हिसाब से भी इनके दाम मिलते हैं। बड़े हो जाने के बाद इनके खिलाये जाने वाले खाने को लेकर भी कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। दाना की विशेषता इनकी मजबूरी नहीं होती है। इसलिए इसे ‘डाकयार्ड पोल्ट्री प्रोडक्शन’ भी कहते हैं। ये घर के भोजन के अंश, खेतों की फसलों को चुग कर जी लेते हैं। इसके अलावा मुर्गियों के अंडे की भी काफी मात्र में बिक्री होती है।

अच्छी कीमत स्थानीय बाजारों में

मिलती है अच्छी कीमत स्थानीय बाजारों में मुर्गे के साथ अंडों की विशेष मांग और खपत होती है। इनमें उजले सफेद अंडों की बिक्री विशेष रुप से होती है। आम तौर पर गर्मी के मौसम में 70 से 80 रुपये प्रति दर्जन की कीमत पर बिक जाते हैं, लेकिन जाड़े के मौसम में इनकी कीमत में उछाल आ जाता है। मुर्गे के मांस की भी कीमत बहुत अच्छी मिल जाती है। पालने के लिए मिलने वाले चूजों में 75 नर, 75 मादा चूजे दिये जाते हैं। नर दो से ढ़ाई महीने में करीब दो किलो तक के हो जाते हैं। इनका मांस दो सौ रुपये प्रति किलो तक बिकता है। अपने जीवन काल में एक मुर्गी लगभग 180 अंडे देती है। तब तक इसकी भी वजन करीब ढ़ाई किलो तक हो जाती है। बाजार में इसका मांस भी इसी दर पर बिक जाता है।

सुधी पाठकगण ज्यादा जानकारी के लिए निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं: कंचन कुमारीप्रलाद महिला स्वयं सहायता समूह, पंचायत - प्रलादपुर, ब्लॉक - मुशहरी, जिला - मुजफ्फरपुर, मोबाइल नंबर - 07544000687

स्त्रोत : संजीव कु्मार, स्वतंत्र पत्रकार,पटना बिहार।

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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