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औषधीय पौधों की खेती में जैव उर्वरक का महत्व

औषधीय पौधों की खेती में जैव उर्वरक का महत्व

भूमिका

हाल के वर्षो में औषधीय पौधों का महत्व बढ़ा है। इसकी खेती भारत के कई प्रदेशों – महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु एवं राजस्थान के कई हिस्सों में सफलता पूर्वक की जा रही है। देश के अन्य हिस्सों में भी इसकी खेती शुरू हो रही है। ज्यादातर जड़ी-बुटी जंगलों से ही प्राप्त होता है जहाँ किसी तरह के रासायनिक खाद पौधों को नहीं मिलते जिससे उनकी गुणवत्ता कायम रहती है। रासायनिक खादों के उपयोग से प्राय: यह देखा जाता है कि उनके गुण, स्वाद एवं रोग नियंत्रण में कमी आ जाती है और दवाओं का असर कम होता है। साथ ही जमीन की उर्वरता पर भी प्रभाव पड़ता है। पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के कई भागों में उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से भूरन्धता कम होने से जल मग्नता एवं जल निकास की समस्या आने लगी। उर्वरकों में विद्यमान अम्ल की क्रिया से भूमि अभिक्रिया व मृदा सूक्ष्म जीव क्रिया का ह्रास हो रहा है।

जैविक उर्वरक का प्रयोग सरल एवं कम खर्चीला है अत: जड़ी बूटी की खेती में इनका उपयोग करना चाहिए ताकि इसे निर्यात करने में दिक्कत न हो।

जैविक खाद के वर्णन निम्नवत

  1. वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद): वर्मी कम्पोस्ट जैविक पदार्थो से केंचुए की सहायता से तैयार किए जाते हैं। यह किसी भी प्राकृतिक या रासायनिक उर्वरक की तुलना में सर्वश्रेष्ठ भूमि परिवर्धक है। इसके उपयोग से 2-3 वर्षो की अवधि में 3-5 टन प्रति हेक्टेयर देने पर रासायनिक उर्वरक की खपत में 50 प्रतिशत की कमी की जा सकती है। इसके साथ ही मृदा की जलधारण क्षमता भी बढ़ जाती है। केंचुओं के पेट में जो रासायनिक क्रिया होती है उससे भूमि में पाये जाने वाले नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्सियम एवं अन्य सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है। जमीन हल्की हो जाती है और हवा का आवागमन बढ़ जाती जिससे पौधों की बढ़वार अच्छी होती है। भूमि में उपयोगी जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है जिससे सिंचाई के अंतराल में वृद्धि हो जाती है।
  2. एजोटा बैक्टर: एजोटोबैक्टर कल्चर में सूक्ष्म जीवाणु होते हैं जो भूमि व जड़ों की सतह में मुख्य रूप से रहते हुए वायुमंडलीय नाईट्रोजन को पोषक तत्वों में परिवर्तन करके पौधों को उपलब्ध कराता है। इसे सभी प्रकार के जड़ी-बूटी की खेती में प्रयोग किया जा सकता है।
  1. स्पाईरीलम: यह धान्य कुल की फसलों में प्रयोग किया जता है। यह पौधों की जड़ों के ऊपर या अंदर उगता है यहीं पर नाईट्रोजन का स्थिरीकरण करता है। इसे कई सुगंधित पौधे जैसे लेमन घास, पामा रोजा, इसफलोग इत्यादि औषधीय पौधों में दिया जा सकता है। इससे उपज में 20-25 प्रतिशत की वृद्धि होती है।
  1. पी.एस.पी. कल्चर: पौधों के लिए फास्फोरस एक महत्वपूर्ण तत्व है। पी.एस.पी. कल्चर जमीन के अंदर अघुलनशील फास्फोरस की कमी पूरा करता है। बाहर से दिये गये फास्फोरस मिट्टी में स्थिर हो जाता है। अत: सभी फास्फोरस पौधों द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता है। पी.एस.पी. कल्चर अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में बदलकर पौधों को उपलब्ध कराता है।

प्रयोग विधि: जैव उर्वरक के 250 ग्राम के पैकेट को 300 मिलीलीटर पानी और गुड़ में घोलकर बीजों में मिलाते हैं एवं थोड़ी देर के लिए छाया में सुखाकर तुरन्त इसकी बोआई करें। जैविक उर्वरक को खड़ी फसल में देने के लिए मिश्रण बनाएं।

  1. गोबर खाद – 50 किलो ग्राम
  2. राजोबियम कल्चर – 1.5 किलो ग्राम
  3. पी.एस.पी. कल्चर – 3.0 किलो ग्राम
  4. ऐजोटो बैक्टर – 0.5 किलो ग्राम

जैविक उर्वरक की 2-3 किलो को 50 किलो छने हुए कम्पोस्ट में मिलाकर बुआई के समय एक एकड़ में डालें। नर्सरी में बीज को पानी में हल्का नम कर उसमें एक पैकेट डाल कर बुआई करें।

रोपा लगाते समय 4 पैकेट कल्चर 15 लीटर पानी में घोल बनाकर पौधों की जड़ों को 20-30 मिनट डुबाकर रोपाई करें।

जैव उर्वरक के लाभ

  1. फसलों का उत्पादन 25-30 प्रतिशत बढ़ता है।
  2. भूमि में औसतन 40 से 80 किलोग्राम तक नाईट्रोजन परिवर्तित होकर बची रहती है।
  3. जड़ी बूटी की जैविक खेती में इसकी आवश्यकता पड़ती है।
  4. रासायनिक खादों की मात्रा कम की जा सकती है।
  5. यह पर्यावरण दूषित नहीं करता।

 

स्रोत: समेति तथा कृषि एवं गन्ना विकास विभाग, झारखंड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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