कोलियस फोर्सकोली जिसे पाषाणभेद अथवा पत्थरचूर भी कहा जाता है, उस औषधीय पौधों में से है, वैज्ञानिक आधारों पर जिनकी औषधीय उपयोगिता हाल ही में स्थापित हुई है। भारतवर्ष के समस्त उष्ण कटिबन्धीय एवं उप-उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के साथ-साथ पाकिस्तान, श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राजील, मिश्र, ईथोपिया तथा अरब देशों में पाए जाने वाले इस औषधीय पौधे को भविष्य के एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान में भारतवर्ष के विभिन्न भागों जैसे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा राजस्थान में इसकी विधिवत खेती भी प्रारंभ हो चुकी है जो काफी सफल रही है।
कोलियस का पौधा लगभग दो फीट ऊँचा एक बहुवर्षीय पौधा होता है। इसके नीचे गाजर के जैसी (अपेक्षाकृत छोटी) जड़े विकसित होती हैं तथा जड़ों से अलग-अलग प्रकार की गंध होती है तथा जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलती जुलती होती है। इसका काड प्रायः गोल तथा चिकना होता है तथा इसकी नोड्स पर हल्के बाल जैसे दिखाई देते है। इसी प्रजाति का (इससे मिलता जुलता) एक पौधा प्रायः अधिकांश घरों में शोभा कार्य हेतु तथा किचन गार्डन्स में लगाया जाता है। जो डोडीपत्र (कोलियस एम्बोनिक्स अथवा कोलियस एरोमेटिक्स) के रूप में पहचाना जाता है। कोलियस एरोमैटिक्स को हिन्दी में पत्ता अजवाइन कहा जाता है तथा मराठी एवं बंगाली में पत्थरचुर । इसे पत्ता अजवाइन इसलिए कहा जाता है क्योकि इसके पते से अजवाइन जैसी खुशबू आती है तथा औषधीय उपयोग के साथ-साथ कुछ घरों में लोग इसके भजिए बनाकर भी खाते है। इस प्रकार से तो कोलियस फोर्सखोली तथा कोलियस एरोमेटिक्स एक जैसे ही दिखते हैं परन्तु जहां कोलियस एरोमैटिक्स में अजवाइन जैसी खुशबू आती है वहां कोलियस फोर्सकोली में इतनी तीव्र गंध नहीं होती। दूसरे कोलियस एरोमैटिक्स के पत्ते काफी मांसल (Spongy) होते है जबकि कोलियस फोर्सखोली के पत्ते ज्यादा मांसल नहीं होते।
कोलियस फोर्सकोली में मुख्यता बार्बटुसिन, प्लैक्ट्रिन, प्लैक्ट्रिनॉन-ए : कोलियोल, एसीटोजाइकोलीसोल, एलाइलरोलीनोन, कोलियोनोन, कोलियोसोल, डीआक्सीकोलीनोल, क्रोसीटीन डायलीहाईड, नेप्थोपाईरोन्स, सीकोएबिटेन डिटरपीन 1 तथा 2 तथा फोर्सकोलीन नामक तत्व पाए जाते है।
हिन्दी - पाषाणभेद, अथवा पत्थरचुर
संस्कृत - मयनी, माकन्दी, गन्धमूलिका
कन्नड़ - मक्काड़ी बेरू, मक्काण्डी बेरू अथवा मंगना बेरू
मराठी - मैमनुल
वानस्पतिक नाम - कोलियस फोर्सकोली अथवा कोलियस बाबैट्स बैन्थ
वानस्पतिक कुल - लैबिएटी/लैमिएसी
औषधीय जगत में पाषाणभेद अथवा पत्थरचुर शब्द का उपयोग उन विभिन्न औषधीय पौधों के लिए किया जाता है जिनमें शरीर के विभिन्न भागों जैसे किडनी, ब्लैडर आदि में पाई जाने वाली पथरी अथवा पत्थर (स्टोन आदि) को तोड़ने गलाने की क्षमता होती है। इसे एक संयोग ही कहा जा सकता है कि हमारे देश के विभिन्न भागों में ऐसे दस से अधिक औषधीय पौधे पाए जाते हैं जो उनके मूलभूत गुणों में भिन्नता होने बावजुद पाषाणभेद के रूप में जाने एवं पहचाने जाते है। पिछले पृष्ठ पर दिये गये विवरणों से देखा जा सकता है कि ऐसे अनेक औषधीय पौधे है जिन्हें पाषाणभेद अथवा पत्थरचुर के रूप में जाना जाता है। ऐसे में कोलियस फोर्सकोली के लिए पत्थरचुर अथवा पाषाणभेद शब्द सुविधा की दृष्टि से प्रयुक्त तो किया जा सकता है परन्तु तकनीकी रूप से शायद यह सही होगा। फलतः प्रस्तुत चर्चा में वर्णित किए जा रहे पौधे हेतु इसके वानस्पतिक नाम फोलियस फोर्सकोली का ही यथावत उपयोग किया जा रहा है। राजनिघण्टुकार ने इसकी पहचान कामन्दी, गन्धमूलिका के नाम से की है।
औषधीय उपयोगिता की दृष्टि से कोलियस एक अत्याधिक महत्वपूर्ण पादप के रूप में उभर रहा है।
औषधीय उपयोग में मुख्यता इसकी जड़ें प्रयुक्त होती हैं जिनसे फोर्सकोलिन नामक तत्व निकाला जाता है। जिन प्रमुख औषधीय उपयोगों में इसें प्रयुक्त जा रहा है, वे निम्नानुसार हैं -
कोलियस फोर्सखोली की खेती इसकी जड़ों की प्राप्ति के लिए की जाती है। यूं तो कोलियस फोर्सखोली एक बहुवर्षीय पौधा है परन्तु कृषिकरण की दृष्टि से छ: माह की अवधि में इसकी जड़ो में उपयुक्त तत्व विकसित हो जाते है। इसकी खेती की विधि से संबंधित अन्य विवरण निम्नानुसार है-
कोलियस का प्रवर्घन बीजों से भी किया जा सकता है तथा कलमों से भी। वैसे व्यवसायिक कृषिकरण की दृष्टि से कोलियस का प्रवर्धन कलमों से किया जाना ज्यादा उपयुक्त होता है। इसके लिए कलमों को पहले नर्सरी बेड्स में भी तैयार किया जा सकता है तथा सीधे खेत में भी लगाया जा सकता है। नर्सरी में इसकी कलमों को तैयार करने की प्रक्रिया निम्नानुसार होती है -
पत्ती पलेटने वाले केटरपिलर्स, मीली बग तथा जड़ो को नुकसान पहुंचाने वाले नीमाटोड्स वे प्रमुख कीट हैं जो इस फसल को नुकसान पहुंचा सकते है। इनके नियंत्रण हेतु मिथाईल पैराथियान का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर पौधों पर छिड़काव किया जा सकता है अथवा पौधों की जड़ों की डेंचिग की जा सकती है। इसी प्रकार कार्बोफ्युरॉन 8 कि.ग्रा. ग्रेनुअल्स का प्रति एकड़ की दर से उपयोग करके सूत्रकृमियों को नियन्त्रित किया जा सकता है। कभी-कभी फसल पर बैक्टीरियल बिल्ट का प्रकोप भी हो सकता है जिसके दिखते ही केप्टान दवा के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करके इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है। यदि यह बीमारी नियंत्रित न हो तो एक सप्ताह के बाद पुनः इस दवा का छिड़काव किया जा सकता है।
प्रतिरोपण के दो-ढाई माह के उपरान्त कालियस के पौधों पर हल्के नीले जामुनी रंग के फूल होने लगते है। इन फूलों को नाखुनों की सहायता से तोड़/काट दिया जाना चाहिए अन्यथा जड़ों का विकास प्रभावित हो सकता है।
रोपण के लगभग 5 से 6 माह के अन्दर कोलियस की फसल कटाई/उखाड़ने के लिए तैयार हो जाती है। यद्यपि तब तक इसके पते हरे ही रहते है परन्तु यह देखते रहना चाहिए कि जब जड़े अच्छी प्रकार विकसित हो जाएँ (यह स्थिति रोपण के लगभग 5 से 6 माह के बाद आती है, तो पौधो को उखाड़ लिया जाना चाहिए। उखाड़ लिया जाना चाहिए। उखाड़ने से पूर्व खेत की हल्की सिंचाई कर दी जानी चाहिए ताकि जमीन गीली हो जाए तथा जड़ें आसानी से उखाड़ी जा सकें। पौधे उखाड़ लेने के उपरान्त इनकी जड़ों को काट कर अलग कर लिया जाता है तथा इनके साथ जो मिट्टी अथवा रेत आदि लगा हो उसे झाड़ करके इन्हें साफ कर लिया जाता है। साफ कर लेने के उपरान्त इन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है अथवा बीच में चीरा लगा दिया जाता है। इस प्रकार टुकड़ा में काट लिये जाने के उपरान्त इन्हें धुप में सुखा लिया जाता है। अच्छी प्रकार से सूख जाने पर इन्हें बोरियों में पैक करके बिक्री हेतु प्रस्तुत कर दिया जाता है। सूखने पर ये ट्युबर्स गीले ट्यूबर्स की तुलना में लगभग 12 प्रतिशित रह जाते है।
एक एकड़ की खेती से औसतन 8 क्विंटल सूखे ट्यूबर्स की प्राप्ति होती है जिनकी बिक्री दर यदि 3500 रू. प्रति क्विंटल मानी जाए तो इस फसल से लगभग 28000 रू. की प्राप्तिया होती है। इनके साथ-साथ प्लांटिग मेटेरियल की बिक्री से भी 6000 रू. की अतिरिक्त प्राप्तियां होगी। इनमें से विभिन्न कृषि क्रियाओं पर यदि 11800 रू. का खर्च होना माना जाए तो इस छ: माह की फसल से किसान को प्रति एकड़ 22000 रू. का शुद्ध लाभ प्राप्त हो सकता है। निःसंदेह कोलियस फोर्सखोली एक बहुउपयोगी औषधीय फसल है। न केवल इसके औषधीय उपयोग बहुमूल्य हैं बल्कि अपेक्षाकृत नई फसल होने के कारण इसका बाजार भी काफी समय तक बने रहने की संभावनाएं है। इस प्रकार दक्षिणी भारत तथा मध्यभारत के किसानों के लिए व्यवसायिक दृष्टि से यह एक काफी लाभकारी सिद्ध हो सकती है।
कोलियस की सूखी जड़ों की खरीदी हेतु कम्पनियों द्वारा पुर्नखरीदी करार (Buyback Agreement) किए जा रहे है। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश में कार्यरत प्रमुख कम्पनी है मे. कस्तूरी हर्बल फार्म, भोपाल । इस कम्पनी द्वारा भारतीय स्टेट बैंक के साथ भी कोलियस की खेती के प्रोत्साहन हेतु अनुबंध करार दिया गया है। कोलियस की सूखी जड़ो की बिक्री हेतु पुर्नखरीदी करार करने के इच्छुक किसान भाई मे. कस्तूरी हर्बल फार्म, ग्राम : मिसरोद, जिला : भोपाल (म.प्र.) फोन क्र. (0755) 2499231, मोबाइल क्र. : 9826442203 पर सम्पर्क कर सकते है।
(अ) व्यय की मदें |
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1. कलमों / बीजों की लागत |
5000/- |
2.नर्सरी तैयार करने की लागत 3. खेत की तैयारी पर लागत |
1000/- 2000/- |
4. खाद की लागत |
2000/- |
5. पौध प्रतिरोपण का खर्च |
1500/- |
6. भू–टनिको/ कीटनाशकों की लागत |
1500/- |
7. निंदाई-गुड़ाई पर व्यय |
3000/- |
8. सिंचाई व्यवस्था पर व्यय |
2000/- |
9. फसल उखाड़ने पर व्यय |
2500/- |
10.फसल साफ करने, सुखाने आदि की लागत |
2000/- |
11.पैकिंग एवं ट्रांसपोर्टेशन पर व्यय |
4000/- |
योग
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26,500/-
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(ब) कुल प्राप्तियां
1. ट्यूबर्स/जड़ों की बिक्री से प्राप्तियां (800 कि.ग्रा. ट्यूबर्स 85 रू. प्रति कि.ग्रा. की दर से ।
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68000/-
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2. बीज/कलमों अथवा प्लांटिंग मेटैरियल के रूप में प्राप्तियां |
6000/
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कुल योग शुद्ध लाभ = 74000-26500
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74000/- 47500/- एकड़
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अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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