यह लिलीएसी कुल का बहुवर्षीय मांसल पौधा है जिसकी ऊंचाई 2-3 फीट तक होती है। इसका तना बहुत छोटा तथा जड़े भीझकड़ा होती है। जो कि जमीन के अन्दर कुछ ही गहराई तक रहती है। मूल के ऊपर से काण्ड से पत्ते निकलते है। पत्ते मांसल, फलदार, हरे तथा एक से डेढ़ फुट तक लम्बे होते है। पत्तों की चौड़ाई 1 से 3 इंच तक मोटाई आधी इंच तक होती है। पत्तों के अन्दर घृत के समान चमकदार गुदा होती है। जिसमें कुछ हल्की गंध आती है तथा स्वाद में कड़वा होता है। पत्तों को काटने पर एक पीले रंग का द्रव्य निकलता है जो ठण्डा होने पर जम जाता है जिसे कुमारी सार कहते है। आयुर्वेद में इसे घृतकुमारी के नाम से पहचानते है। ग्वारपाठा मुख्यतः फलोरिडा, वेस्टइंडीज, मध्य अमेरिका तथा एशिया महाद्वीप में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। भारत में पूर्व में विदेशों से लाया गया था लेकिन अब पूरे देश में खास कर शुष्क इलाको में जंगली पौधों के रूप में मिलता है। भारत में इसकी खेती राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा हरियाणा के शुष्क इलाकों में की जाती है।
आयुर्वेद के मतानुसार ग्वारपाठा कडुवा, शीतल, रेचक, धातु परिवर्तक, मज्जावर्धक, कामोद्दीपक, कृमिनाशक और विषनाशक होता है। नेत्र रोग, अवूर्द, तिल्ली की वृद्धि, यकृत रोग, वमन, ज्वर, खासी, विसर्ग, चर्म रोग, पित्त, श्वास, कुष्ठ पीलियां, पथरी और व्रण में लाभदायक होता है। आयुर्वेद की प्रमुख दवायें जैसे घृतकारी अचार, कुमारी आसव, कुवारी पाक, चातुवर्गभस्म, मंजी स्याडी तेल आदि इसके मुख्य उत्पाद है। प्रसाधन सामग्री के निर्माण में भी उपयोग मुख्य प्रमुख रूप में किया जाता है। त्वचा में नयापन लाने के लिए इसके उत्पादों का उपयोग पौराणिक काल से ही हो रहा है। उत्पादों का विश्व बाजार में काफी माँग के चलते ग्वारमाठा के खेती की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
ग्वारपाठे को मुख्यतः गर्म आर्द्र से शुष्क व उष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है।
हालांकि घृतकुमारी की खेती असिंचित तथा सिंचित दोनों प्रकार की भूमि में की जा सकती है परन्तु इसकी खेती हमेशा ऊँची भूमि पर करनी चाहिये। खेत की गहरी अच्छी जुताई होना चाहिए।
वर्षा ऋतु से पहले खेत में एक दो जुताई 20-30 से०मी० की गहराई तक पर्याप्त है जुताई के समय 10-15 टन गोबर की खाद एकसार भूमि में अंतिम जुताई के साथ मिला देनी चाहिये।
इसकी बिजाई सिंचित क्षेत्रों में सर्दी को छोड़कर पूरे वर्ष में की जा सकती है लेकिन उपयुक्त समय जुलाई-अगस्त है।
इसकी बिजाई 6-8' के पौध द्वारा किया जाना चाहिए। इसकी बिजाई 3-4 महीने पुराने चार-पांच पत्तों वाले कंदो के द्वारा की जाती है। एक एकड़ भूमि के लिए करीब 5000 से 10000 कदों/सकर्स की जरूरत होती है। पौध की संख्या भूमि की उर्वरता तथा पौध से पौध की दूरी एवं कतार से कतार की दूरी पर निर्भर करता है।
एलोईन तथा जेल उत्पादन की दृष्टि से नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लान्ट जेनेटिक सोर्सेस द्वारा घृत कुमारी की कई किस्में विकसित की गयी है। सीमैप, लखनऊ ने भी उन्नत प्रजाति (अंकचा/ए०एल०-1) विकसित की है। वाणिज्यिक खेती के लिए जिन किसानों ने पूर्व में ग्वारपाठा की खेती की हो तथा जूस/जेल आदि का उत्पादन में पत्तियों का व्यवहार कर रहे हों, सम्पर्क करना चाहिए।
इसके रोपण के लिए खेत में खूड़ (रिजेज एण्ड फरोज) बनाये जाते है। एक मीटर में इसकी दो लाईंने लगेगी तथा फिर एक मीटर जगह खाली छोड़ कर पुनः एक मीटर में दो लाईने लगेंगी। यह एक मीटर की दूरी ग्वारपाठे काटने, निकाई गुड़ाई करने में सुविधाजनक रहता है। पुराने पौधे के पास से छोटे पौधे निकालने के बाद पौधे के चारो तरफ जमीन की अच्छी तरह दबा देना चाहिये। खेत में पुराने पौधों से वर्षा ऋतु में कुछ छोटे पौधे निकलने लगते है इनकों जड़ सहित निकालकर खेत में पौधारोपण के लिये काम में लिया जा सकता है। नये फल बाग में अन्तरवर्ती फसल के लिए ग्वारपाठा की खेती उपयुक्त है।
बिजाई के तुरंत बाद एक सिंचाई करनी चाहिये बाद में आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिये। समय-समय पर सिंचाई से पत्तों में जेल की मात्रा बढ़ती है।
फसल बिजाई के एक मास बाद पहली निकाई गुड़ाई करनी चाहिए। 2-3 गुड़ाई प्रति वर्ष बाद में करनी चाहिये तथा समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिये।
मुख्यतः इस फसल पर किसी तरह के कीटों एवं बीमारी का प्रकोप नही पाया गया है। कभी कभी दीमक का प्रकोप हो जाता है। पौध लगाने के एक वर्ष बाद में परिपक्व होने के बाद निचली तीन पत्तियों को तेज धारदार हांसिये से काट लिया जाता है। पत्ता काटने की यह क्रिया प्रत्येक तीन-चार महीने पर किया जाता है।
प्रति वर्ष एक एकड़ से घृतकुमारी 20000 कि०ग्रा० प्राप्त किये जा सकते है।
ताजा पत्ती का वर्तमान भाव बाजार में 2-5 रू प्रति कि० ग्रा० है। इन पत्तों को ताजा अवस्था में आयुर्वेदिक दवाईयां बनाने वाली कंपनिया तथा प्रसाधन सामग्री निर्माताओं को बेचा जा सकता है। इन पत्तों से मुसब्बर अथवा एलोवासर बनाकर भी बेचा जा सकता है।
आय
एक वर्ष बाद प्रति एकड़ एक लाख रूपये तक आय हो सकती है।
क. खेती पर होने वाला व्यय |
|||||||
क्रम.स. |
व्यय की मदें |
प्रथम वर्ष |
द्वितीय वर्ष |
तृतीय वर्ष |
चतुर्थ वर्ष |
पंचम वर्ष |
|
1. |
खेत की तैयारी पर व्यय |
2000
|
|
|
|
|
|
2. |
खाद की लागत |
1500 |
1500 |
1500 |
1500 |
1500 |
|
3. |
बीज की लागत (3/- प्रति पौधा) |
15000 |
|
|
|
|
|
4. |
बिजाई पर व्यय |
1000
|
|
|
|
|
|
5. |
निकाई गुड़ाई पर व्यय |
2000 |
1500 |
1500 |
1500 |
1500 |
|
6. |
सिंचाई पर व्यय |
2000 |
2000 |
2000 |
2000 |
2000 |
|
7. |
फसल सुरक्षा तथा टॉनिकों आदि पर व्यय |
1000 |
1000 |
1000 |
1000 |
1000 |
|
8. |
कटाई पर व्यय |
1000 |
1000 |
1000 |
1000 |
|
|
9. |
ढुलाई तथा परिवहन पर व्यय |
10000 |
10000 |
10000 |
10000 |
10000 |
|
कुल योग |
21500 |
17000 |
17000 |
17000 |
17000 |
||
ख. प्राप्तियां |
|||||||
1. |
पत्तों की बिक्री से आय (30 टन पत्तों की 3 रू. प्रति कि.ग्रा. की दर से)
|
|
90000 |
90000 |
90000 |
90000 |
|
2. |
सकर्स की बिक्री से आय |
10000 |
10000 |
10000 |
10000 |
10000 |
|
कुल योग |
10000 |
10000 |
10000 |
10000 |
10000 |
||
ग. शुद्ध लाभ |
11500 |
83000 |
83000 |
83000 |
83000 |
||
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
इस पृष्ठ में अदरक की वैज्ञानिक खेती की विस्तृत जान...
इस भाग में बुंदेलखंड में चना उत्पादन की उन्नत तकनी...
इस पृष्ठ में बिहार राज्य में अदरक की वैज्ञानिक खेत...
इस पृष्ठ में बिहार में किस प्रकार करें घृतकुमारी क...