तमिल भाषा में पिप्पली को आदि मारून्दु अर्थात प्रथम दवाई या मौलिक दवाई कहा गया है जो स्वतः ही पिप्पली की औषधीय महत्ता के साथ-साथ पिप्पली एक महत्वपूर्ण मसाला भी है तथा औद्योगिक उत्पादों के निर्माण में भी इसे प्रयुक्त किया जाता है, उदाहरणार्थ राइस बीयर के किन्वण (फर्मेन्टेशन) हेतु इसका बखुबी उपयोग किया जाता है। पिप्पली के फलों के साथ-साथ इसका मूल जिसे पिप्पलामूल कहा जाता है, भी अनेकों औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त किया जाता है। परम्परागत औषधीय उपयोगों में पिप्पली का उपयोग सरदर्द, खांसी, गले से संबंधित बीमारियों, अपच एवं बदहजमी, पेट में गैस की समस्या तथा बवासीर आदि जैसे विकारों के उपचार हेतु प्रयुक्त किया जाता है। पिप्पली के फलों तथा मूल के साथ-साथ इसके पत्तों का उपयोग पान की तरह किया जाता है।
पिप्पली मूलतः मलेशिया तथा इंडोनेशिया का पौधा है। इनके साथ-साथ यह नेपाल, श्रीलंका, सिंगापुर, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, फिलीपीन्स तथा वर्मा में भी पाया जाता है। भारतवर्ष में यह मुख्यतया उष्ण प्रदेशों तथा ज्यादा वर्षा वाले जंगलों में प्राकृतिक रूप से उगता पाया जाता है। हमारे देश में यह अधिकांशतः तमिलनाडु, बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़, असाम, आंध्रप्रदेश, केरल, कर्नाटक, कोंकण से त्रावणकोर तक के पश्चिमी घाट के वनों तथा निकोबार द्वीपसमूहों में प्राकृतिक रूप से उगती है। इन क्षेत्रों में प्राकृतिक (जंगली) रूप से पाए जाने के साथ-साथ व्यवसायिक स्तर पर इसकी खेती देश के कई भागों जैसे महाराष्ट्र, केरल, आंध्रप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, खासी, पहाड़ियों पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि में भी होना प्रारंभ हो गई है।
पिप्पली एक गन्धयुक्त लता होती है जो भुमि पर फैलती अथवा दूसरे वृक्षों के सहारे उपर उठती है। इसके रेंगने वाले काण्डों से उपमूल निकलते है जिनसे इसका आरोहरण तथा प्रसारण होता है। इसकी पत्तियां पान के पत्तों के आकार की होती है जिनकी लंबाई प्रायः 5 से 7 सें.मी. होती है। वर्षा ऋतु में इसके पौधों पर फूल आते हैं जिनमें शरद ऋतु में फल तैयार होते हैं। प्रारंभ में इसके फल हल्के पीले रंग के होते है जो पकने पर हरे तथा अंततः कृष्णाभ धूसरवर्ण के हो जाते है। इसके फलों पर छोटे-छोट गोल उभार पाए जाते है जो देखने में शहतूत के फलों के जैसे प्रतीत होते हैं। औषधीय उपयोग हेतु यही सूखे फल तथा पौधे का मूल प्रयुक्त किया जाता है।
हिन्दी
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पीपल, पिप्पली, लेंडी पीपल |
संस्कृत
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पिप्पली, मागधी (मगध में उत्पन्न होने वाली) कृष्णा (कृष्णाभ होने के कारण), कणा (कण युक्त), चपला (चंचल एवं तीक्ष्ण होने के कारण),तीक्ष्णतण्डुला, उष्णा, उपकुल्या, शौण्डी, कोला। |
पंजाबी |
मघ अथवा मघां |
बंगाली |
पिपुल, जत्या, पिपलामूर (पिप्पली की जड़) |
मराठी |
पिपली, पिम्पली, पान पिपली |
गुजराती |
पीपल, पिपली |
तमिल |
टिपिलि |
मलयालम |
पिप्पली, मगधी, टिप्पली |
तेलगु |
पिपुल, मोडी, पिपलु |
कन्नड़ |
हिपपली, टिप्पली |
अरबी |
दार फिलफिल |
फारसी |
फिलफिल दराज |
यूनानी |
फिलफिल-ए-सुयाह, फिलफिल-ए-सुया, पिपलकलां, फिलफिल सराह |
अंग्रेजी |
इंडियन लौंग पीपर (IndianLong papper) |
वानस्पतिक नाम |
पाइपर लौंगम (PoprtLongum Linn) |
वानस्पतिक कुल (Family) |
पाइपरेसी (Piperaceae) |
राजनिघन्टु में चार प्राकर की पिप्पलियों के विवरण मिलते है। जिनहें क्रमशः पिप्पली, वनपिप्पली, सिंहली तथा गज पिप्पली के रूप में जाना जाता है। इनके संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार हैं
(क)पिप्पली
इस पिप्पली को मगधी अथवा मघई पिप्पली भी कहा जाता है। बिहार के मगध क्षेत्र में होने के कारण इसका नाम मगधी पड़ा है। पंजाबी भाषा में अभी भी पिप्पली को मघ' ही कहा जाता है। वानस्पतिक जगत में इस पिप्पली को पाइपर लौंगम' के नाम से जाना जाता है।
(ख)वनपिप्पली
यह प्रायः वनों में उगती है। यह छोटी, पतली तथा कम तीक्षण होती है। इसे प्रायः पाइपर साइलवेटिकम के रूप में पहचाना जाता है। इसे बंगाली या पहाड़ी पिप्पली भी कहा जाता है। यह उत्तरी–दक्षिणी आसाम, बंगाल तथा वर्मा में अधिकता में पाई जाती है।
(ग)सिंहली पिप्पली
इसे जहाजी पिप्पली भी कहा जाता है क्योंकि यह श्रीलंका तथा सिंगापुर आदि देशों से हमारे यहां आयात होती थी। इसे पाइपर रिट्रोफैक्टम’8 के रूप में जाना जाता है।
(घ)गज पिप्पली
इस पिप्पली के बारे में कई भ्रांतियां हैं तथा कई वैज्ञानिक इसको चब्य का फल मानते हैं। उपरोक्त में से प्रथम तीन प्रकार की पिपपलियों को अलग-अलग द्रव्य नहीं माना जाता तथा इन सभी को पिप्पली अथवा पाइपर लौंगम के रूप में पहचाना जाता है।
पिप्पली के सूखें फलों में 4 से 5 प्रतिशत तक पाइपरीन तथा पिपलार्टिन नामक एल्केलाइड पाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त इनमें सिसेमिन तथा पिपलास्टिरॉल भी पाए जाते हैं। पिप्पली की जड़ों में पाइपरिन (0.15 से 0.18 प्रतिशत) पिपलार्टिन (0.13 से 0.20 प्रतिशत) पाइपरलौंगुमिनिन (0.2 से0 0. 25 प्रतिशत) तथा पाइपर लौंगुमाइन (0.02 प्रतिशत) पाए जाते हैं। इसमें एक सुगंधीय तेल (0.7 प्रतिशत ) भी पाया जाता है। जो कालीमिर्च तथा अदरक के तेल जैसी खुशबू लिए होता है।
परम्परागत चिकित्सा पद्यतियों में जिन प्रमुख औषधीय कार्यों हेतु पिप्पली का उपयोग किया जाता है, वे निम्नानुसार हैं –
पिप्पली की खेती इसके फलों (स्पाइक्स) तथा जड़ों (मूल) की प्राप्ति के लिए की जाती है। प्रायः इसकी खेती तीन से पांच वर्ष के लिए की जाती है। लगाने के चार-पांच माह के उपरान्त पिप्पली के पौधों पर फल आना प्रारंभ हो जाते हैं जो कि प्रतिवर्ष आते हैं। पांच वर्ष तक स्पाइक्स के रूप में पिप्पली की फसल लेने के उपरान्त इसके सम्पूर्ण पौधे को उखाड़ करके इसका मूल (पिप्पलामूल) भी प्राप्त कर लिया जाता है।
अपनी अच्छी बढ़त के लिए पिप्पली को गर्म तथा आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। वे क्षेत्र जहां भारी वर्षा पड़ती हो अथवा जो ज्यादा आर्द्र हों, वहां भी इसकी अच्छी बढ़त होती है। प्रायः 330 से 3300 फीट तक की उंचाई वाले क्षेत्रों में यह अच्छी प्रकार पनपता है जबकि इससे अधिक उंचाई वाले क्षेत्रों में इसकी सही उपज प्राप्त नहीं हो पाती। क्योंकि प्राकृतिक (जंगली) रूप से यह अर्धछांव वाले क्षेत्रों में अच्छी प्रकार पनपता है, अतः कृषिकरण की दृष्टि से भी इसके लिए ऐसे ही क्षेत्र चुने जाने चाहिए जहां कम से कम 25 प्रतिशत छांव की व्यवस्था हो । यदि प्राकृतिक रूप से ऐसे क्षेत्र उपलब्ध न हों तो कृत्रिम रूप से ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। इस प्रकार गर्म, आर्द्र तथा अर्धछांव वाले क्षेत्र पिप्पली की खेती के लिए ज्यादा उपयुक्त पाए जाते हैं।
पिप्पली ऐसी जीवांश युक्त दोमट एवं लाल मिट्टियों में अच्छी प्रकार उगाई जा सकती है जिनमें जलनिकास की पर्याप्त व्यवस्था हो । सामान्य पी.एच. मान वाली ऐसी मिट्टियां जिनमें नमी सोखने की क्षमता हो इसके लिए उपयुक्त पाई जाती है। आसाम के चेरापूंजी क्षेत्रों में तो यह उन मिट्टियों में भी अच्छी प्रकार उगती देखी गई है जो चूना अथवा कैल्शियम युक्त हों। वैसे ऐसे क्षेत्र जहां पान की खेती होती हो वे इसके लिए ज्यादा उपयुक्त होते हैं।
पिप्पली का प्रवर्धन बीजों से भी किया जा सकता है, सकर्स से भी, कलमों से भी तथा इसकी शाखाओं की लेयरिंग करके भी। वैसे व्यवसायिक कृषिकरण की दृष्टि से इसका कलमों द्वारा प्रवर्धन किया जाना ज्यादा उपयुक्त होता है। इसके लिए सर्वप्रथम इन्हें नर्सरी में तैयार किया जाता है।
पिप्पली की नर्सरी बनाने का सर्वाधिक उपयुक्त समय फरवरी-मार्च माह (महाशिवरात्री के समय का) होता है। इस समय पुराने पौधों की ऐसी शाखाएँ जो 8 से 10 से.मी. लम्बी हों, तथा जिनमें से प्रत्येक में 3 से 6 तक आंखें (नोड्स) हों, काट करके पॉलीथीन की थैलियों में रोपित कर दी जाती है। रोपाई से पूर्व इन थैलियों को मिट्टी, रेत तथा गोबर की खाद (प्रत्येक का 33 प्रतिशत) डाल करके तैयार किया जाता है। थैलियों में रोपण से पूर्व इन कलमों को गौमूत्र से ट्रीट कर लिया जाना चाहिए। इन पौलीथीन की थैलियों को किसी छायादार स्थान पर रखा जाना चाहिए तथा इनकी प्रतिदिन हल्की सिंचाई की जानी चाहिए। लगभग डेढ़ से दो महीने में ये कलमें खेत में लगाए जाने के लिए तैयार हो जाती है।
नर्सरी में तैयार किए गए पौधों को अंततः मुख्य खेत में रोपित करना होता है जहां ये पौधे 4-5 साल तक रहेंगे। इस दृष्टि से मुख्य खेत की अच्छी प्रकार तैयारी करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए खेत की 2-3 बार अच्छी प्रकार जुताई करके उसमें प्रति एकड़ 5 से 7 टन तक गोबर की पकी हुई खाद मिला दी जाती है। तदुपरान्त खेत में 2x2 फीट की दूरी पर गड्ढे बना लिए जाते हैं जिनमें अंततः इन कलमों का रोपण करना होता है। इन गड्ढ़ों में से प्रत्येक में कम से कम 100 ग्राम अच्छी प्रकार पकी हुई गोबर की खाद डाल दी जाती है। क्योंकि पिप्पली का आरोहरण के लिए किसी दूसरे सहारे की जरूरत होती है अतः खेत तैयार करते समय भी ऐसे आरोहरण की व्यवस्था की जा सकती है तथा बाद में भी । प्रायः इस दृष्टि से प्रत्येक गड्ढे के पास एक-एक पौधा एरंड, पांगरा अथवा अगस्ती का लगा दिया जाता है जो तेजी से बढ़ता है तथा पिप्पली की लताऐं इन पर चढ़ जाती हैं। आरोहण हेतु सूखी डालियां भी खड़ी की जा सकती हैं। कई क्षेत्रों में इन्हें सूबबूल अथवा नारियल के पौधों पर भी चढ़ाया जाता है।
मानसून के प्रारंभ होते ही नर्सरी में तैयार किए गए पिप्पली के पौधों का मुख्य खेत में गड्ढ़ों में रोपण कर दिया जाता है। प्रायः एक गड्ढे में दो पौधों का रोपण किया जाना उपयुक्त रहता है। जैसा कि उपरोक्तानुसार वर्णित है, मुख्य खेत में इन पौधों की रोपाई 2x2 फीट की दूरी पर की जाती है तथा इस प्रकार एक एकड़ में लगाने के लिए लगभग 20 से 25000 पौधों की आवश्यकता होती है।
पिप्पली की लताओं को चढ़ाने के लिए आरोहण की व्यवस्था किया जाना आवश्यक होता है। इसके लिए या तो उपरोक्तानुसार खेत में अगस्ती, एरंड अथवा पांगरा रोपित किया जा सकता है अथवा सूखे डंठल गाड़ दिए जाते हैं जिन पर ये तलाऐं चढ़ जाती है। यदि अरोहण की उचित व्यवस्था न हो तो उन लताओं पर लगने वाले फल सड़ सकते हैं। इस प्रकार इनकी लताओं के आरोहण की उपयुक्त व्यवस्था किया जाना आवश्यक होगा।
फसल की प्रारंभिक अवस्था में खेत की हाथ से निंदाई-गुड़ाई किया जाना आवश्यक होता है ताकि पौधों के आस-पास खरपतवारों को पनपने न दिया जाए। बाद में जब इन पौधों की लताऐं फैल जाती है तो अतिरिक्त निंदाई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती। वैसे यदि हो भी तो इन्हें हाथ से निकाल दिया जाना चाहिए।
यद्यपि केरल राज्य के किन्हीं क्षेत्रों में पिप्पली को एक असिंचित फसल के रुप में लिया जाता है परन्तु अच्छी फसल प्राप्त करने की दृष्टि से आवश्यक है सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था की जाय। इस दृष्टि से प्रति सप्ताह एक हल्की सिंचाई कर देने से फसल अच्छी वृद्धि प्राप्त कर लेती है। सिंचाई स्प्रिंकलर पद्यति से भी की जा सकती है तथा फ्लड इरीगेशन विधि से भी। वैसे इस फसल के लिए ड्रिप विधि भी काफी उपयोगी सिद्ध हो सकती है। खैर विधि चाहे जो भी हो परन्तु नियमित अंतरालों पर फसल की सिंचाई की जाना फसल की उपयुक्त वृद्धि के लिए आवश्यक होता है। गर्मी के मौसम में जब फसल की सिंचाई नहीं की जाती तो उस समय पौधों के पास सूखी घास अथवा पत्ते आदि बिछा कर इनकी मल्चिंग की जा सकती है।
पिप्पली की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीट मीली बग तथा टिप्पा हैं। इनमें से मीली बग पौधे की जड़ों पर आक्रमण करती है तथा ग्रीष्म ऋतु में इसका प्रभाव ज्यादा होता है। इनके निदान हेतु पौधों की मई माह में एक बार तथा तदुपरान्त 2-3 बार बोर्डो मिक्सचर से ड्रेचिंग अथवा छिड़काव किया जाना चाहिए। इसी प्रकार नीम की खली को पीस करके तथा उसका घोल बना करके पौधों पर छिड़काव करना भी लाभकारी हो सकता है।
रोपण के लगभग पांच-छ: माह के उपरान्त पौधों पर फल (स्पाइक्स) बनकर तैयार हो जाते हैं। जब ये फल हरे-काले रंग के हों तो इनको चुन लिया जाता है। कई स्थानों पर इन फलों की तुड़ाई वर्ष में एक ही बार (प्रायः जनवरी माह में) की जाती है जबकि कई स्थानों पर इन्हें समय-समय पर (तीन चार बार में) तोड़ लिया जाता है। तुड़ाई के उपरान्त इन फलों को धूप में डालकर 4-5 दिन तक अच्छी प्रकार सुखाया जाता है। जब ये अच्छी प्रकार सूख जाएँ तो इन्हे विपणन हेतु भिजवा दिया जाता है।
प्रायः फसल ले लेने के उपरान्त फरवरी-मार्च माह में पिप्पली के पौधों की कटाई-छंटाई कर दी जाती है। कुछ समय के उपरान्त इन पौधों पर पुनः पत्ते आ जाते हैं तथा ये लताएं पुनः फलने फूलने लगती हैं। कटाई-छंटाई के उपरान्त इन पौधों पर गौमूत्र तथा बोर्डो मिक्सचर की डेंचिग/ छिड़काव कर दिया जाना चाहिए। इस प्रकार प्रतिवर्ष इन पौधों की कटाई-छंटाई करते रहने से ये पौधे 4-5 वर्ष तक अच्छी फसल देते रहते है। कटाई-छंटाई से प्राप्त लताओं को आगे प्रवर्धन हेतु कलमों के रुप में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। पांच वर्ष के उपरान्त पौधों को खोद करके उनसे मूल भी प्राप्त किए जा सकते हैं जिन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काट करके पिप्पलामूल प्राप्त किए जा सकते है।
प्रथम वर्ष में पिप्पली की फसल से प्रति एकड़ लगभग 4 क्विंटल सूखे फल (स्पाइक्स) प्राप्त होते हैं। जोकि तीसरे से पांचवें वर्ष में प्रति एकड़ 6 क्विंटल प्रतिवर्ष तक हो सकते हैं। पांचवें वर्ष में प्रति एकड़ लगभग 200 कि०ग्रा० पिप्पलामूल भी प्राप्त हो जाता है। पिप्पली के सूखे फलों की बिक्री दर 100 से 150 रु० प्रति कि०ग्रा० (औसतन 125 रु० प्रति कि०ग्रा० तथा पिप्पलामूल की बिक्री दर लगभग 150 रु० प्रति कि०ग्रा०) होती है।
(पांच वर्षीय फसल के आधार पर) /एकड़
(क) कुल लागत |
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व्यय की मदें
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प्रथम वर्ष |
द्वितीय वर्ष |
तृतीय वर्ष |
चतुर्थ वर्ष |
पंचम वर्ष |
खेत तैयार करने की लागत |
1500/-
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- |
- |
- |
- |
खाद की कीमत |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
बीज अथवा कलमों की लागत |
10000/- |
- |
- |
- |
- |
नर्सरी तैयार करने पर व्यय |
1000/- |
- |
- |
- |
- |
मुख्य खेत में पौधों के रोपण |
1500/- |
- |
- |
- |
- |
खरपतवार नियंत्रण पर व्यय |
1500/- |
1000/ |
1000/- |
1000/ |
1000/- |
कीटनाशकों तथा टॉनिकों पर व्यय |
200/ |
200/- |
200/ |
200/- |
200/ |
आरोहरण व्यवस्था पर व्यय |
2000/- |
- |
1500/- |
- |
- |
सिंचाई व्यवस्था पर व्यय |
1000/ |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
स्पाइक्स की तुड़ाई पर व्यय |
800/- |
800/- |
800/- |
1000/- |
1000/- |
फसल सुखाने आदि पर व्यय |
500/- |
500/- |
500/- |
500/- |
500/- |
कटाई, छटाई तथा अन्य व्यय |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
1000/- |
मूल खोदने पर व्यय |
- |
- |
- |
- |
5000/- |
कुल योग |
22000/- |
5500/- |
7000/- |
5700/- |
10700/- |
ख.) कुल प्राप्तियां |
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फलों की बिक्री से प्राप्तियां(सूखे फल 12500 रू0 प्रति क्विंटल की दर से) |
50000/-(4 क्विंटल) |
50000/-(4 क्विंटल) |
75000/- (6 क्विंटल) |
75000/- (6 क्विंटल) |
75000/-(6 क्विंटल) |
पिप्पलामूल की बिक्री से प्राप्तियां (2 क्विंटल पिप्लामूल 15000 रू. प्रति क्विंटल की दर से)। |
- |
- |
- |
- |
30000/- |
कुल योग
|
50000/- |
50000/- |
75000/- |
75000/- |
105000/- |
लाभ
|
28000/- |
44400/- |
68000/- |
69300/- |
94300/-
|
पिप्पली की फसल से पिप्पली के फलों की बिक्री से प्रथम वर्ष में लगभग 50,000 रू0 तथा तीसरे से पांचवें वर्ष में लगभग 75,000 रू0 प्रति एकड़ की प्राप्तियां होती हैं। पांचवें वर्ष में पिप्पलामूल की बिक्री से लगभग 30000 रू0 की अतिरिक्त प्राप्तियां भी होती हैं। इसमें से फसल पर होने वाले खर्चे को कम करके देखा जाए तो पिप्पली की फसल से प्रथम एवं द्वितीय वर्ष में क्रमशः 28,000 एवं 44,400 रू0, तीसरे तथा चौथे वर्ष में 68,000 एवं 69,300 रू0 तथा पांचवें वर्ष में 94,300 रू0 का शुद्ध लाभ प्रति एकड़ प्राप्त होता है।
उपरोक्तानुसार देखा जा सकता है कि पिप्पली काफी लाभकारी फसल है। विशेष रूप से इसके बहुआयामी उपयोगों-मसालें, औषधीय एवं औद्योगिक उपयोगों को देखते हुए एक व्यवसायिक फसल के रूप में पिप्पली काफी लाभकारी फसल सिद्ध हो सकती है। इसके साथ-साथ क्योंकि यह फसल इंटरक्रापिंग की दृष्टि से भी काफी उपयोगी फसल है, अतः इसके साथ विभिन्न औषधीय फसलें लेकर इसकी व्यवसायिक उपयोगिता और भी अधिक बढ़ाई जा सकती है। राज्य के उत्तरी भाग में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है। गज पिप्पली की अच्छी बढ़वार राज्य के दक्षिणी भाग में भी देखा गया है।
स्रोत- बिहार राज्य बागवानी मिशन, बिहार सरकारअंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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