खेजड़ी (प्रोसोपिस साइनेरेरिया) शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला बहुउपयोगी एवं बहुवर्षीय वृक्ष हैl यह लेग्यूमेंनेसी कुल के संबधित फलीदार पेड़ है जिनकी पत्तियां उच्च कोटि के पोषक चारे के लिए प्रख्यात हैं। खेजड़ी की पत्तियों का चारा (लूंग) बकरिया,ऊंट तथा अन्य पशु बड़े चाव से खाते हैंl खेजड़ी की कच्ची फलियों से बनने वाली सब्जी की लोकप्रियता से मारवाड़ के लोग भली भांति परिचित हैंl इतना ही नहीं हर वर्ष की जाने वालीछंगाई से जलाऊ लकड़ी तथा मोटे तने वाले पेड़ों की कटाई से इमारती लकड़ी भी प्राप्त होती है।लेग्यूमेंनेसी कुल पेड़ होने कारण यह वायुमंडल से नत्रजन स्थिरीकरण भी करता हैl खेजड़ी के पेड़ों में सुखा रोधी गुणों के अलावा सर्दियों में पड़ने वाले पाले तथा गर्मियों में उच्च तापमान को आसानी से सहन कर लेने के कारण यह इनके दुष्प्रभाव से बचा रहता हैl खेजड़ी के पेड़ मरू क्षेत्रों में पाई जाने वाली वाली बालू रेत,रेत के टीबों,तथा जरा सी क्षारीय में पनप जाता है l
खेजड़ी की इन्ही विशेषतायों के कारण यहाँ के किसान वर्षा आधारित फसलों में एक विशेष घटक के रूप में बढ़ावा व सरंक्षण देते रहते हैंl इसकी निरंतर गिरने वाली छोटी पत्तियां जमीन में आसानी से मिलकर तथा सड़-गल कर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाती हैं।तथा इनके पेड़ों के नीचे उगने वाली अन्य फसल भी अच्छी होती हैl
राजस्थान के आलावा खेजड़ी पंजाब,गुजरात,कर्नाटक तथा महाराष्ट्र राज्यों के शुष्क तथा अर्धशुष्क क्षेत्रों में भी पाई जाती हैl भारत के अतिरिक्त यह प्रजाति अफगानिस्तान,अरब तथा पाकिस्तान में भी प्राकृतिक तौर पर पाई जाती हैl वर्षा की मात्रा के अनुसार इसका घनत्व पश्चिम राजस्थान (100-200मि.ली.मीटर) उत्तर पश्चिम राजस्थान (200-500मि.मी.)की ओर बढ़ता हुआ पाया जाता हैl
वर्तमान में जितने भी खेजड़ी के वृक्ष लगे हुए दिखते हैं इनमें से ज्यादातर प्राकृतिक तरीके से बीजों द्वारा बिना किसी योजना के लगे हुए हैं। जब ये पौधे छोटे होते हैं तब किसान हर वर्ष उनकी सधाई करके एक दो मीटर की ऊंचाई तक एकल तने के रूप में उत्प्रेरित करते हैं बाद में तीन चार मुख्य शाखाओं को बढ़ावा देकर इसको चारों दिशाओं में फैलने देते हैंl जब पेड़ बड़े हो जाते हैं तो हर वर्ष नवंबर-दिसम्बर में इनकी छंगाई करते हैं छंगाई से पत्तियों को सुखाने के बाद के बाद झाड़ कर अलग करके भंडारण कर लेते हैं बाद में चारे के लिए उपयोग करते हैं। पश्चिमी राजस्थान के कुछ जिलों जैसे जोधपुर,बाड़मेर तथा जैसलमेर में पेड़ों की छंगाई न करके हाथ में हरा लूंग इकट्ठा करके हरी अवस्था में ही पशुओं को विशेषकर बकरियो को खिलाते हैं जिससे बकरियों के दुग्ध उत्पादन में काफी इजाफा होता है। इसकी विधि में लूंग लेने में सिर्फ पत्तियां व छोटी शाखाएँ साथ में टूटती हैं,जिससे सांगरी उत्पादन प्रभावित नहीं होता; जबकि छंगाई करने से अगली ऋतु में अर्थात मार्च-अप्रैल में उनकी पेड़ों पर सांगरी नहीं आती। यानी केवल लूंग उत्पादन से संतुष्ट होना पड़ता है l
प्राकृतिक तरीके से बीज द्वारा उगने वाले के कारण खेजड़ी में स्वतः प्रकृतिक चयन होता जाता है। बीज से पनपे होने के कारण इनमें काफी विविधता पाई जाती हैं।एक अनुमान के अनुसार अच्छे किस्म की सांगरी केवल 15-20 प्रतिशत पेड़ों में ही पाई जाती है।अन्य 80 प्रतिशत खेजड़ी लूंग, लकड़ी आदि की दृष्टि से उपयोग होती है। उत्तम तथा एक सामान सांगरी उत्पादन के लिए खेजड़ी में कलिकायन एक सफल तथा सार्थक तकनीकी है। कलिकायन के लिए सर्वप्रथम प्राकृतिक तरीके से लगे पेड़ों की सांगरी का परीक्षण कर उत्तम सांगरी वाले पेड़ों को चयनित कर लिया जाता है तथा इन्हीं चुने हुए पेड़ों से ही कलिका ली जाती है। मूलवृंत के लिए वर्ष के बीजू पौधे ही उपयोग में लाए जाते हैं। कलिकायन किये पौधों का उचित रखरखाव करने से उनमें तीसरे वर्ष ही सांगरी उत्पादन शुरू हो जाता है जबकि बीजू पौधे में यह 8-10 साल बाद शुरु हो जाता। साथ ही सांगरी की गुणवत्ता भी सुनिश्चित नहीं रहती है। कलिकायन विधि एक कायिक प्रवर्धन विधि है जिससे मात्र पौधों के समस्त गुण हूबहू शिशु पौधों में हस्तांतरित हो जाते हैं। कलिकायन विधि से तैयार पौधों का उचित उत्पादन प्रबंधन कर हर वर्ष उत्तम गुण की सांगरी के साथ-साथ लूंग लिया जा सकता है। ऐसे पौधे कम ऊंचाई होने के कारण इनकी कटाई छंगाई तथा सांगरी की तुलाई भी आसानी से की जा सकती हे l
कलिकायन विधि से चयनित उत्तम सांगरी व लूंग खेजड़ी के पेड़ों का बगीचा निम्न तीन विधियों से विकसित किया जा सकता है।
उन्नत किस्म की खेजड़ी विकसित करने की यह सबसे यह सबसे सरल विधि है। सर्वप्रथम उत्तम सांगरी वाली खेजड़ी का चयन कर लेंl अब खेतों में प्राकृतिक तरीके से लगे खेजड़ी के छोटे (1-5)बीजू पौधों का चयन 6-8मीटर दूरी पर कर लेंl इन पौधों को दिसम्बर-जनवरी में जमीन की सतह से इस प्रकार कांटे की जमीन के अंदर तना तथा जड़ों को नुकसान न पहुंचेl मार्च-अप्रैल में इस प्रकार कटे हुए पौधे से नई शाखाएं निकलना शुरू होती हैं। इनमें से दो तीन सीधी बढ़ती हुए शाखाओं को कलिकायन के लिए रख कर शेष को हटा दें। मई माह तक ये शाखाएँ 5-8 मि.मी. व्यास की हो जाती हैं तब ये कलिकायन करने योग्य हो जाती हैं। अब इनके शीर्ष भाग को करीब एक फुट कर काट दें तथा साइड से कांटें व छोटी शाखाओं को भी हटा देंl अब लगभग 6 इंच की ऊंचाई पर पेंच या ढाल विधि से मात्र वृक्ष से एकत्रित कलिका को इस पर चढ़ाकर प्लास्टिक की टेप से बांध देंl पेच विधि से कलिकायन के लिए मूल वृन्त से 2.5 x1 से.मी. की छाल का टुकड़ा सावधानीपूर्वक अलग करते हैं तथा इसी आकर का छाल का टुकड़ा चयनित मात्रवृक्ष की शाखा से लेकर मूलवृन्त में फिट कर बांध देते हैं। लगभग एक माह बाद लगाई गई कलिका से स्फुटन शुरू होकर कलिका से नई शाखाएँ निकलती हैंl इस दौरान मूलवृन्त से निकलने वाली शाखाओं को हटाते रहें जिससे कि कलिकायन किये गये गये भाग कि तीव्र वृद्धि हो सके l
इस विधि से मूलवृन्त के बीजू पौधे सीधे खेत में लगाये जाते हैंल फसल पद्धति के आवश्यकतानुसार 6x 8 मीटर या 8x8 मीटर या 8x16 मीटर की दूरी पर 2x2x2 फुट आकर के गढ्ढे में मई माह में खोदकर इन्हे कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ देते हैंl इसके बाद इससे 10 किलो गोबर की सड़ी खाद को गढ्ढे की ऊपरी मिटटी में मिलकर भर देंl मई-जून में खेजड़ी की पूर्ण पकी फलियों से बीज निकालकर बुवाई के लिए रख लेंl जुलाई में प्रथम वर्षा होने के बाद प्रत्येक गढ्ढे में 3-4 बीज लगभग एक इंच की गहराई पर मध्य में बुआई करेंl इस दौरान वर्षा का लम्बा अंतराल होने पर गढ्ढे में हल्की सिंचाई करें ताकि अंकुर के बाद पौधे की बढ़वार हो सकेl प्रति गढ्ढे एक-दो बीजू पौधों की छोड़कर शेष को निकाल दें l खेत में गढ्ढे में बीज की सीधी बुवाई का फायदा यह होता हे की उनकी जड़ें सीधी व अधिक गहरे में शुरू होकर विकसित हो जाती हैं,जिससे आगे जाकर इनमें अधिक सूखा सहन करने की क्षमता विकसित हो जाती हे अगले वर्ष की वर्षा ऋतु तक इन पौधों की निराई-गुड़ाई तथा अन्य कृषि क्रियाएँ करते हैंl जुलाई माह में प्रत्येक गढ्डे में एक तने वाला पौधा छोड़कर बाकी को निकाल लेंl अब इनमें चयनित मातृ वृक्ष से कलिका लेकर कलिकायन कर लेंlजिस पौधे पर कलिकायन सफल नहीं हो,उनके नीचे जमीनसे निकल रही नवोदित कल्लों को बढ़ने दें ताकि उनकी उचित मोटाई होने पर फिर से कलिकायन किया जा सकेl इस तरह दो वर्ष में स्वस्थानिक कलिकायन विधि से पूरा बगीचा तैयार हो जाता है l
8 मीटर या 8 मीटर 8 मीटर या 6 मीटर 16 मीटर की दूरी पर 2x2x2 फुट आकर के गढ्ढे मई माह में खोदकर इन्हें कुछ दिनों के लिए खोलकर छोड़ देते हैं। इसके बाद इनमें 10 किलो गोबर की सड़ी खाद को गढ्ढे की ऊपर मिट्टी में मिलाकर भर देंl मई-जून में खेजड़ी की पूर्ण पकी फलियों से बीज निकालकर बुवाई के लिए रख लेंl जुलाई में प्रथम वर्षा होने के बाद प्रत्येक गढ्ढे में 3x4 बीज लगभग एक इंच की गहराई पर मध्य में बुवाई करेंl इस दौरान वर्षा का लम्बा अंतराल होने पर गढ्ढे में हल्की सिंचाई करें ताकि अंकुरण के बाद बढ़वार हो सकेl प्रति एक दो बीज पौधों को छोड़कर शेष को निकाल दें l खेत में गढ्ढे में बीजों की सीधी बुवाई का फायदा यह होता हे कि उनकी जड़ें सीधी व अधिक गहराई में शुरू से ही विकसित हो जाती है जिससे आगे जाकर इनमें अधिक सूखा सहन करने की क्षमता विकसित हो जाती हैl अगले वर्ष की वर्षा ऋतु तक इन पौधों की निराई-गिराई अन्य कृषि क्रियाएँ करते हैंl जुलाई माह में प्रत्येक गढ्ढे में एक सीधे तने वाला पौधा छोड़कर बाकि निकाल लें l अब इनमें चयनित मातृ वृक्ष से कलिका लेकर कलिकायन कर लें l जिस पौधे पर कलिकायन सफल नहीं हो, उनके नीचे जमीन से निकल रही नवोदित कल्लों को बढ़ने दें ताकि उनकी मोटाई होने पर से कलिकायन किया जा सके l इस तरह दो वर्ष में स्वस्थानिक कलिकायन विधि से पूरा बगीचा तैयार हो जाता है l
कलिकायन किये हुए पौधों को दूरस्थ स्थानों पर भेजने अथवा ऐसे पौधों को बेचने के लिए यह विधि अपनाई जाती हैl इस विधि में सबसे पहले पौधशाला में खेजड़ी के बीजू(मूलवृंत)पौधे तैयार किये जाते हैंl इसके लिए खेजड़ी की पूर्ण पकी तथा सूखी फलियों से बीज निकल लेते हैंl इन बीजों को 30x15 से. मी. आकार की पोलिथिन की थैलियों में गोबर की खाद,बालू मिटटी तथा चिकनी मिटटी के मिश्रण से भरकर बेड में लाइन से जमाकर बीजों की बुवाई जुलाई माह में कर दी जाती हैl प्रति थेली 3-4 बीज बोवें ताकि कम अंकुरण की स्थिति में भी कम-से-कम एक दो पौधे मिल सकें l बुवाई के पश्चात सिंचाई तथा अन्य कृषि क्रियाएँ करते रहेंल अगले वर्ष जून माह में जब पौधों के तने की मोटाई लगभग 5-8 मि.मी. हो जाये तब इन पर चयनित मातृ वृक्ष से कलिका लेकर कलिकायन कर दिया जाता हैं l कलिकायन के एक माह के बाद इससे कलिका फूटने लगती हैं तथा तेजी से बढ़ना आरम्भ कर देती हैंl लगभग दो महीने बाद नई द्वितीयक नर्सरी क्यारी में स्थनांतरित किया जाता हैl जिसके 10-15 दिन बाद इन पौधों को खेतों में वांछित दूरी पर प्रतिरोपित किया जा सकता है अथवा इनकी मांग के अनुसार अन्यत्र भी भेजा जा सकता हैl
कलिकायन करने के पश्चात इन्हें यह मजबूत पेड़ के रूप में विकसित करने के रूप में ही कंटाई-छंटाई द्वारा संतुलित बढ़वार नियंत्रित करना अति आवश्यक होता है। शुरुआत में कलिकायन किये हुए स्थान के नीचे मूलवृन्त से निकलने वाली अन्य शाखाओं को निकालना जरुरी होता हैl कलिकायन के स्थान से मजबूत उर्ध्वगामी शाखा से 2-3 शाखाओं को सभी दिशा बढ़ने दें l आगे जाकर यहीं शाखाओं का रूप लेंगी l इसके बाद चार वर्ष तक इन शाखाओं से यह यथासम्भव दूरी पर वांछित शाखाओं को रख कर शेष को निकालते रहेंl
पेबंदी पेड़ों की परम्परात पर उनमें छंगाई नवंबर-दिसंबर में की जा सकती है। लेकिन ऐसा करने पर उनमे अगले साल लूंग तो मिलेगा लेकिन मार्च-अप्रैल में फूल और सांगरी नहीं आयेंगे l आर्थिक द्रष्टि से लूंग व सांगरी दोनों मिलने पर खेजड़ी की बागवानी ज्यादा सार्थक होगीl केंद्रीय शुष्क बागबानी संस्थान,बीकानेर में किये गए प्रयोग से सिद्ध होता है खेजड़ी की प्रति छगाई नवंबर-दिसंबर की बजाय मई-जून के अंतिम सप्ताह में किये जाने से जून के प्रथम सप्ताह तक करने से लूंग से साथ साथ सांगरी भी ली जा सकती हैl मई-जून में छगाई करने के बाद जून जुलाई में इन पेड़ों पर पुनः नई फूटन आ जाती तथा नवंबर-दिसंबर तक शाखाएँ पक जाती हैं जिससे उनमें अप्रैल में कच्ची सांगरी की फसल ले सकते हैंl छंगाई करने का यह समय कलिकायन किये गए पौधों से अधिक व्यवसायिक लाभ के साथ खेजड़ी की उपयोगिता में चार चाँद लगा सकता हैंl क्योंकि इस तरह इनमें फलन तीसरे साल से ही शुरू हो जाता है साथ ही लूंग तथा सांगरी दोनों उत्पाद लेना संभव हो जाता है इस प्रकार खेजड़ी में वानस्पतिक विधि से प्रवर्धन तथा छंगाई के समय में बदलाव करने से आर्थिक लाभ के साथ इसे मरु क्षेत्रों में आजीविका के साधन के रूप में अपना सकते हैंl
स्त्रोत: पीआरमेघवाल,अकथ सिंह,सुरेश कुमार,एम.एम.राय एवं प्रदीप कुमार,केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान,जोधपुर,राजस्थान
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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