किसी ने बिलकुल सच ही कहा है कि ‘आविष्कार’, असामान्य या अनूठे ढंग से देखी गयी सबसे सामान्य चीज है जिसकी जननी हमारी मूलभूत जरूरतें हैं और आज के परिप्रेक्ष्य में हम यह कह सकते हैं कि हमारी या यूँ कहें कि पूरी दुनिया के लिए सबसे मौलिक जरूरत बस एकमात्र चीज होती जा रही है – वह है ऊर्जा | पूरी सृष्टि के संचालन में वैसे तो ऊर्जा का अस्तित्व ही सदैव सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवयव रहा है | परन्तु विकास की तथाकथित होड़ में पूरी मानवता ने इसके कई घटकों का ऐसा असंतुलित और अनवरत उपयोग किया है कि प्रकृति द्वारा कई प्रारंभिक स्रोत जैसे जीवाष्म ईंधन, कोयला एवं गैस इत्यादि के रूप में दिए गए ऊर्जा के ये सहज प्राप्य साधन अब अक्षय नहीं रह गए हैं | यदि किसी वैकल्पिक स्रोत की ओर हम प्रवृत नहीं हुए तो वो दिन दूर नहीं जब हम एकाएक इस विभित्सा की अंधी दौड़ में दौड़ते हुए विनाश की ऐसी गहरी खाई में कूद पड़ेगे जहाँ केवल अंधियारे का ही साम्राज्य होगा | ऐसी भयावह कल्पना केवल डरने या सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठने के लिए नहीं है बल्कि उस अनंत अवसर या साधन की तलाश करने के लिए जागृत करती है जो हमे इस आसन्न ऊर्जा संकट के खतरे से छुटकारा दिला सकेगा |
यही वजह है कि दुनिया के सबसे व तथाकथित रूप से विकसित देश जिन्होंने वास्तव में प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराए गए इन पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों का अनवरत रूप से बड़ी निष्ठुरता के साथ उपयोग किया और बाकी दुनिया के लोगों को इस त्रासदी का शिकार बनाया आअज वे भी वैकल्पिक व प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों के तलाश की प्रति गंभीर हो गये हैं और इस दिशा में उन्होंने काफी पहले कार्य करना भी आरंभ कर दिया है |
ऊर्जा स्रोतों की उपलब्धता, इनका दोहन व उपयोग ही आज के समय में किसी राष्ट्र की आर्थिक स्थिति की मजबूती का सबसे बड़ा कारक परिचायक माना जाता है | यही तो अलादीन का चिराग है जो आज किसी देश को विकसित,विकासशील या तीसरी दुनिया के देशों की पंक्ति में खड़ा करता है | इसे सत्यता के आंकड़ो के पुख्ते प्रमाण के साथ भी साबित किया जा सकता है | क्योंकि कुछ ऐसे राष्ट्र है जिनके विकास की गाड़ी पारंपरिक जीवाष्म पेट्रोलियम जैसे ऊर्जा स्रोतों की उपलब्धता की वजह से ही चल रही है और दुर्भाग्यवश कुछ ऐसे राष्ट्र हैं जिनमें भारतवर्ष भी शामिल है जिनकी अथिकांश ऊर्जा विकास के लिए सबसे मूलभूत जरूरत यानि पेट्रोलियम पदार्थों के आयात पर ही खर्च की जा रही है | आयात मद में हम सर्वाधिक खर्च पेट्रोलियम पदार्थों के आयात पर करते हैं | हमारी जरूरत का लगभग 70 प्रतिशत पेट्रोलियम तेल आयातित है जिसके कारण स्वदेशी मुद्रा भंडार का संतुलन केवल पेट्रोलियम पदार्थों के आयात व इनकी उपलब्धता सुनिश्चित कराने की वजह से डगमगाने लगती है जिससे विकास से जुड़ी हमारी अन्य गतिविधियों में एक ठहराव सा आ जाता है | परिणामस्वरूप मूलभूत ढांचे के विकास, कृषि क्षेत्र को मजबूत बनाने एवं औद्योगिकीकरण के हमारे प्रयत्नों के आशाजनक परिणाम नहीं मिल पाते हैं और गरीबी के दुश्चक्र को तोड़ने में हमें परेशानियों का साम्या करना पड़ता है | केवल यही नहीं, पेट्रोलियम पदार्थों के अंधाधुंध उपयोग के कारण प्रदूषण पूरी दुनिया और खासकर विकसित देशों के लिए एक बड़ी समस्या के रूप में उभर चूका है, कई प्रकार की बीमारियाँ फ़ैल रही हैं और प्रकृति का पूरा पारिस्थितिक संतुलन ही बिगड़ता जा रहा है | इसके अलावा हमारे कोयला/पेट्रोलियम पदार्थ की वर्तमान खपत की उच्च दर के कारण ये सभी स्रोत एक दिन समाप्त हो जाएंगे और मशीनीकरण का युग समाप्त भी हो सकता है | इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक, सतत व स्वच्छ स्रोत के लिए पूरी दुनिया भर के अलग-अलग देशों में अपने-अपने ढंग से प्रयत्न किये जा रहे हैं | परमाणु ऊर्जा, सौर-ऊर्जा, पवन ऊर्जा व प्राकृतिक गैस आदि के रूप में कई विकल्प अब उपलब्ध हो चुके हैं परन्तु विकिरण से जुड़े खतरों, अत्यधिक लागत व अन्य सीमाओं की वजह से इन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है | इसीलिए कुछ देशों में तिलहनों व वृक्षों से प्राप्त होने वाले बीज के तेलों को पेट्रोलियम उत्पादों के स्थान पर उपयोग में लाया जा रहा है | अमेरिका व यूरोप के कुछ दशों में वनस्पति से प्राप्त खाद्य तेल जैसे सोयाबीन, सूरजमुखी, मूंगफली तथा मक्का को काफी अधिक मात्रा में डीजल के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा रहा है परन्तु भारतवर्ष में खाद्य तेल की बढ़ती मांग के कारण इनके किसी अन्य उपयोग के बारे में सोचा जाना उचित नहीं लगता है | इसलिए वृक्षमूल वाले तिलहनों जैसे नीम, तुंग, करंज व जेट्रोफा (रतनजोत) इत्यादि से प्राप्त होने वाले तेलों को ऐसे विकल्प के रूप में उपयोग में लाने पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है | इन वृक्षमूल वाले तिलहनों में खासकर रतनजोत व करंज से प्राप्त होने वाले तेल को बायो-डीजल के रूप में उपयोग में लाने की प्रबल व अपार संभावनाएं दिखती हैं | रतनजोत के सुखा सहने की शक्ति, पथरीली, ऊँची-नीची व बंजर भूमियों में भी उगने की क्षमता तथा जंगली जानवरों से कोई हानि न होने की विशेषताओं के कारण इसकी खेती करना बहुत आसान है |
स्रोत: राष्ट्रीय तिलहन एवं वनस्पति तेल विकास बोर्ड,कृषि मंत्रालय, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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