शुष्क क्षेत्र बागवानी में बेर का प्रमुख स्थान है। वर्षा आधारित उद्यानिकी में बेर एक ऐसा फलदार पेड़ है जो कि एक बार पूरक सिंचाई से स्थापित होने के पश्चात वर्षा के पानी पर निर्भर रहकर भी फलोत्पादन कर सकता है। शुष्क क्षेत्रों में बार-बार अकाल की स्थिति से निपटने के लिए भी बेर की बागवानी अति उपयोगी सिद्ध हो सकती है। यह एक बहुवर्षीय व बहुउपयोगी फलदार पेड़ है जिसमें फलों के अतिरिक्त पेड़ के अन्य भागों का भी आर्थिक महत्व है। इसकी पत्तियाँ पशुओं के लिए पौष्टिक चारा प्रदान करती है जबकि इसमें प्रतिवर्ष अनिवार्य रूप से की जाने वाली कटाई-छंटाई से प्राप्त कांटेदार झाड़ियां खेतों व ढ़ाणियों की रक्षात्मक बाड़ बनाने व भण्डारित चारे की सुरक्षा के लिए उपयोगी है। शुष्क क्षेत्रों में अल्प, अनियमित व अनिश्चित वर्षा को देखते हुए बेर की खेती बहुत उपयोगी है क्योंकि पौधे एक बार स्थापित होने के बाद वर्ष के किसी भी समय होने वाली वर्षा का समुचित उपयोग कर सकते है।
बेर खेती ऊष्ण व उपोष्ण जलवायु में आसानी से की जा सकती है क्योकि इसमें कम पानी व सूखे से लड़ने की विशेष क्षमता होती है बेर में वानस्पतिक बढ़वार वर्षा ऋतु के दौरान व फूल वर्षा ऋतु के आखिर में आते है तथा फल वर्षा की भूमिगत नमी के कम होने तथा तापमान बढ़ने से पहले ही पक जाते है। गर्मियों में पौधे सुषुप्तावस्था में प्रवेश कर जाते है व उस समय पत्तियाँ अपने आप ही झड़ जाती है तब पानी की आवश्यकता नहीं के बराबर होती है। इस तरह बेर अधिक तापमान तो सहन कर लेता है लेकिन शीत ऋतु में पड़ने वाले पाले के प्रति अति संवेदनशील होता है। अतः ऐसे क्षेत्रों में जहां नियमित रूप से पाला पड़ने की सम्भावना रहती है, इसकी खेती नहीं करनी चाहिए। जहां तक मिट्टी का सवाल है, बलुई दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश की मात्रा अधिक हो इसके लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, हालाकि बलुई मिट्टी में भी समुचित मात्रा में देशी खाद का उपयोग करके इसकी खेती की जा सकती है। हल्की क्षारीय व हल्की लवणीय भूमि में भी इसको लगा सकते है।
बेर में 300 से भी अधिक किस्में विकसित की जा चुकी है परन्तु सभी किस्में बारानी क्षेत्रों में विशेषकर कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त नहीं है। ऐसे क्षेत्रों के लिए अगेती व मध्यम अवधि में पकने वाली किस्में ज्यादा उपयुक्त पाई गई है। काजरी में पिछले तीस वर्षों के अनुसंधान के आधार पर किस्मों के पकने के समय के अनुसार इनका वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः-
अगेती किस्में
गोला, काजरी गोला-इनके फल दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में पकना शुरू होते है तथा पूरे जनवरी तक उपलब्ध रहते है।
मध्यम किस्में
सेव, कैथली, छुहारा, दण्डन, सेन्यूर-5, मुण्डिया, गोमा कीर्ति इत्यादि-जिनके फल मध्य जनवरी से मध्य फरवरी तक उपलब्ध रहते है।
पछेती किस्में
उमरान, काठा, टीकड़ी, इलायची-इन किस्मों के फल फरवरी-मार्च तक उपलब्ध रहते है।
सबसे पहले बगीचे के लिए चयनित खेत में से जंगली झाड़ियों इत्यादि हटाकर उसके चारो ओर कांटेदार झाड़ियों या कटीली तार से बाड़ बनाये ताकि रोजड़े व अन्य जानवरों से पौधों को बचाया जा सकें। खेत की तैयारी मई-जून महीने में 6-7 मीटर की दूरी पर वर्गाकार विधि से रेखांकन करके 2' ग 2' ग 2' आकार के गढ़्ढ़े खोदने के साथ शुरू करें, इनको कुछ दिन धूप में खुला छोड़ने के बाद ऊपरी मिट्टी में 20-25 किलो देशी खाद व 10 ग्राम फिपरोनिल (0.03 प्रतिशत ग्रेन्यूल) प्रति गड्ढा मिला कर भराई करके मध्य बिन्दु पर एक खूटी गाड दें। इसके उपरान्त पहली वर्षा से जुलाई माह में जब गड्ढ़ो की मिट्टी जम जाए तो इसमें पहले से कलिकायन किए पौधों को प्रतिरोपित करें। प्रत्यारोपण करने के लिए पौलीथीन की थैली को एक तरफ से ब्लेड से काटकर जड़ों वाली मिट्टी को यथावत रखते हुए पोलीथीन को अलग करें तथा पौधों को मिट्टी के साथ गड्ढ़ो के मध्य बिन्दु पर स्थापित करके पौधों के चारो तरफ की मिट्टी अच्छी तरह दबाकर तुरन्त सिंचाई करे। अगले दिन करीब दस लीटर पानी प्रति पौधा फिर देवे। इसके बाद वर्षा की स्थिति को देखते हुए जरूरत के अनुसार 5-7 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहें। सर्दी के मौसम तक पौधे यथावत स्थापित हो जाते है तब 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई कर सकते है। जबकि गर्मी के मौसम में रोपाई के पहले वर्ष में एक सप्ताह के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए।
शुरू में तीन वर्ष तक पौधों की कतारों के बीच में कुष्माण्ड कुल की सब्जियों के अलावा मटर, मिर्च, चौला, बैंगन इत्यादि लगा सकते है। बारानी क्षेत्रों में मोठ, मूंग व ग्वार की खेती काफी लाभदायक रहती है।
बेर में कटाई-छँटाई का कार्य बहुत महत्वपूर्ण होता है। प्रारम्भिक वर्षो में मूलवृन्त से निकलने वाली शाखाओं को समय-समय पर काटते रहे ताकि कलिकायन किए हुए ऊपरी भाग की उचित बढ़ोत्तरी हो सके। शुरू के 2-3 वर्ष में पौधों को सशक्त रूप व सही आकार देने के लिए इनके मुखय तने पर 3-4 प्राथमिक शाखाऍ यथोचित दूरी पर सभी दिशाओं में चुनते है। इसके बाद इसमें प्रति वर्ष कृन्तन करना अति आवश्यक होता है क्योंकि बेर में फूल व फल नयी शाखाओं पर ही बनते है। कटाई-छँटाई करने का सर्वोत्तम समय मई का महीना होता है। जब पौधे सुषुप्तावस्था में होते है। मुखय अक्ष की शाखाओं के चौथी से षष्टम् द्वितीयक शाखाओं के स्तर (17-23 नोड) तक काटना चाहिए साथ ही सभी द्वितीयक शाखाओं को उनके निकलने के पोइन्ट से नजदीक से ही काटना चाहिए। इसके अतिरिक्त अनचाही, रोग ग्रस्त, सूखी तथा एक दूसरे के ऊपर से गुजरने वाली शाखाओं को उनके निकलने के स्थान से ही हर वर्ष काट देना चाहिए।
खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता क्षेत्र विशेष की मिट्टी की उर्वरता शक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकती है तथा पौधों की आयु पर भी निर्भर करती है फिर भी एक सामान्य जानकारी के लिए खाद एवं उर्वरकों की मात्रा पौधों की उम्र के अनुसार तालिका-1 में दर्शाई गई हैः-
तालिका 1. बेर के पौधों में खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता
देशी खाद, सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश की पूरी मात्रा व नत्रजन युक्त उर्वरक यूरिया की आधी मात्रा जुलाई माह में पेड़ों के फैलाव के हिसाब से अच्छी तरह मिलाकर सिंचाई करे। शेष बची नत्रजन की आधी मात्रा नवम्बर माह में फल लगने के पश्चात देनी चाहिए।
बेर में एक बार अच्छी तरह स्थापित हो जाने के बाद बहुत ही कम सिंचाई की जरूरत पड़ती है। एक पूर्ण विकसित पेड़ में पानी की आवश्यकता को परम्परागत एवं बूंद-बूंद सिचाई विधि से तालिका संखया 2 में दर्शाया गया है। गर्मी की सुषुप्तावस्था के बाद 15 जून तक अगर वर्षा नहीं हो तो सिंचाई आरम्भ करें ताकि नई बढ़वार समय पर शुरू हो सके। इसके बाद अगर मानसून की वर्षा का वितरण ठीक हो तो सितम्बर तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती हैें, अन्यथा तालिका संखया 2 में बताए गए तरीके से सिंचाई करें। सितम्बर में फूल आना शुरू होते हैं और 15 अक्टूबर तक फल लग जाते है इस दौरान हल्की सिंचाई करें। इसके बाद अगर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई कर सकते है। किस्म विशेष के सम्भावित पकने के समय से 15 दिन पहले सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए ताकि फलों में मिठास व अन्य गुणों का विकास अच्छा हो सकें।
तालिका 2. बेर में सिंचाई की आवश्यकता
फल मक्खी : यह कीट बेर को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाता है। इस मक्खी की वयस्क मादा फलों के लगने के तुरन्त बार उनमें अण्डे देती है। ये अण्डे लार्वा में बदल कर फल को अन्दर से नुकसान पहुँचाते है। इसके आक्रमण से फलों की गुठली के चारों ओर एक खाली स्थान हो जाता है तथा लटे अन्दर से
फल खाने के बाद बाहर आ जाती है। इसके बाद में मिट्टी में प्यूपा के रूप में छिपी रहती है तथा कुछ दिन बाद व्यस्क बनकर पुनः फलों पर अण्डे देती है। इसकी रोकथाम एवं नियंत्रण के लिए मई-जून में बाग की मिट्टी पलटे। फल लगने के बाद जब अधिकांश फल मटर के दाने के साइज के हो जाए उस समय क्यूनालफास 25 ईसी 1 मिलीलीटर प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। दूसरा छिड़काव पहले छिड़काव के 20-25 दिन बाद करें।
छालभक्षी कीट : यह कीट नई शाखाओं के जोड़ पर छाल के अन्दर घुस कर जोड़ को कमजोर कर देता है फलस्वरूप वह शाखा टूट जाती है, जिससे उस शाखा पर लगे फलों का सीधा नुकसान होता है। इसकी रोकथाम के लिए खेत को साफ सुथरा रखे, गर्मी में पेड़ों के बीच में गहरी जुताई करें। जुलाई-अगस्त में डाइक्लोरवास 76 ईसी 2 मिलीलीटर प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर नई शाखाओं के जोड़ों पर दो-तीन बार छिड़काव करना चाहिए।
चेफर बीटल : इसका प्रकोप जून-जुलाई में अधिक होता है यह पेड़ों की नई पतियों एवं प्ररोहो को नुकसान पहुँचाता है इससे पत्तियों में छिद्र हो जाते है। इसके नियंत्रण के लिए पहली वर्षा के तुरन्त बाद क्यूनालफास 25 ईसी 2 मिली या कार्बेरिल 50 डब्लूपी 4 ग्राम प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
छाछया (पाउडरी मिल्डयू या चूर्णी फफूँद): इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु के बाद अक्टूबर-नवम्बर में दिखाई पड़ता है। इससे बेर की पत्तियों, टहनियों व फूलों पर सफेद पाउडर सा जमा हो जाता है तथा प्रभावित भागों की बढ़वार रूक जाती है और फल व पत्तियाँ गिर जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए केराथेन एल.सी. 1 मिलीलीटर या घुलनशील गंधक 2 ग्राम प्रतिलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। 15 दिन के अन्तर पर दो-तीन छिड़काव पूर्ण सुरक्षा के लिए आवश्यक होते है।
सूटीमोल्ड : इस रोग से ग्रसित पत्तियों के नीचे की सतह पर काले धब्बे दिखाई देने लगते है जो कि बाद में पूरी सतह पर फैल जाते है और रोगी पत्तियाँ गिर भी जाती है। नियंत्रण के लिए रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैन्कोजेब 3 ग्राम या कापर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
पत्ती धब्बा/झुलसा रोग : इस रोग के लक्षण नवम्बर माह में शुरू होते है यह आल्टरनेरिया नामक फॅफूद के आक्रमण से होता है। रोग ग्रस्त पत्तियों पर छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे बनते है तथा बाद में यह धब्बे गहरे भूरे रंग के तथा आकार में बढ़कर पूरी पत्ती पर फैल जाते है। जिससे पत्तियाँ सूख कर गिरने लगती है। नियंत्रण हेतु रोग दिखाई देते ही मेन्कोजेब 3 ग्राम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तर पर 2-3 छिड़काव करें।
शुष्क क्षेत्रों में बार-बार पड़ने वाले सूखे (अकाल) से मुकाबले के लिए बेर की बागवानी एक बहुआयामी सुरक्षा कवच साबित हुई है इसी वजह से बेर की खेती अकाल के विरूद्ध एक बीमा की तरह है क्योंकि कम व अनियमित वर्षा में यहॉ खरीफ फसले अक्सर असफल हो जाती है। एसी स्थिति में भी बेर से कुछ न कुछ आमदनी जरूर मिलती है। पिछले कई वर्षों से बारानी परिस्थितियों व सीमित सिंचाई से प्राप्त औसत फल व अन्य उत्पादों से अर्जित आय व व्यय का विवरण नीचे तालिका में दिया जा रहा है
तालिका 3. बेर (किस्म गोला) से औसत फल व अन्य उत्पाद व आय-व्यय का विवरण (277 पौधे प्रति हेक्टर)
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि बेर की बागवानी न केवल सिंचित अवस्था में फायदे का सौदा है बल्कि बारानी अवस्था में भी बहुत अच्छी आय देती है। स्वादिष्ट फलों के अलावा सूखी जलाऊ लकड़ी, पत्तियों का चारा तथा कांटेदार शाखाएँ अतिरिक्त आमदनी का जरिया है। लागत व्यय में एक बड़ा हिस्सा श्रम के रूप में है जो कि लगभग 60 प्रतिशत तक आता है क्योंकि इसमें वर्ष के अधिकांश समय में कुछ न कुछ कृषि क्रियाएं चलती रहने के कारण रोजगार के ज्यादा अवसर उपलब्ध रहते है। इस प्रकार बेर की बागवानी अपना कर लगभग 197876 रूपये (सिंचित अवस्था) तथा 934757 रूपये (बारानी अवस्था) प्रति हेक्टर प्रति वर्ष आमदनी कर सकते है।
स्त्रोत
पी.आर. मेघवाल एवं अकथ सिंह,2014,केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) जोधपुर-342003
अंतिम बार संशोधित : 3/4/2020
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