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नींबू वर्गीय फलों की खेती

नींबू वर्गीय फलों की खेती

परिचय

झारखंड राज्य के कुछ जिले नींबू वर्गीय फलों की खेती के लिए उपयुक्त है। अर्ध शुष्क क्षेत्र मेंअवस्थित भूभाग जिनमें गढ़वा, चतरा, डाल्टनगंज, लातेहार जिले मुख्य रूप से आते हैं, में नींबू वर्गीय फलों की अच्छी खेती की जा सकती है। यहाँ पर संतरा मौसमी, किन्नों, नींबू आदि के बागवानी की अपार सम्भावना है। परन्तु जैसा कि देखा गया है यदि इन बगीचों की समुचित देख-रेख न की जय तो इनके पौधे उम्र से पहले ही उत्पादन देना बंद कर देते हैं और सूखने लगते हैं। जिसे ‘सिट्रस डिक्लाइन’ कहते हैं, अत: नींबू वर्गीय फल फसलों की भरपूर पैदावार के लिए उनके उचित बाग प्रबंधन की आवश्यकता है। इसके बारे में यहाँ पर विस्तार से चर्चा की जा रही है।

भूमि एवं जलवायु

हल्की एवं मध्यम उपज वाली बलुई दोमट मिट्टी नींबू वर्गीय फलों के लिए उपयुक्त होती है। झारखंड राज्य की लाल लेटराईट मिट्टी जिसमें जल निकास की अच्छी व्यवस्था होती है तथा पी.एच.मान भी अम्लीय है नींबू वर्गीय फलों के लिए उपयुक्त है। इसके लिए उपोष्ण कटिबन्धीय अर्धशुष्क जलवायु अत्यंत उपयुक्त है। जिन क्षेत्रों में सर्दी लम्बे समय तक होती है और पाला पड़ने की सम्भावना रहती है इसके लिए उपयुक्त नहीं है। फल परिपक्व होते समय कम तापमान तथा शुष्क वातावरण में संतरा मौसमी, डोव आदि में अच्छी मिठास विकसित होती है। रात एवं दिन के तापमान का सामंजस्य फलों में अच्छे रंग, मिठास एवं गुणवत्ता के विकास में मददगार साबित होते हैं।

उन्नत किस्में

नींबू वर्गीय फलों में दो प्रकार के फल प्रमुख हैं। एक तो वे जो खट्टे फल देते हैं और दूसरे जो मीठे फलों के लिए उगाए जाते हैं। खट्टे फलों में मुख्य रूप से लाइम और लेमन है जबकि मीठे फलों में संतरा, मौसमी, मीठा नींबू, ग्रेपफ्रूट, डाब आदि प्रमुख हैं। झारखंड राज्य में विभिन्न फलों की निम्नलिखित किस्में उगाई जा सकती हैं।

खट्टा नींबू (लाइम) – कागजी कलान, सीडलेस, रंगपुर लाइन, विक्रम, प्रोमालिनी

नींबू (लेमन) – नेपाली ओवलांग, पंत लेमन-1, आसाम लेमन (गंधराज), सीडलेस, बारामासी

संतरा – किन्नो, नागपुर, संतरा, कुर्ग संतरा, खासी संतरा

मौसमी – माल्टा, मुसम्बी, सथगुड़ी, पाइनएप्पल, ब्लड रेड, जाफा

ग्रेपफ्रूट – मार्स सीडलेस,गंगानगर रेड, डंकन, रूबी रेड

डाब – चकोतरा, गागर, स्थानीय डाव

उपरोक्त किस्मों में से मीठे वर्ग में किन्नों और नागपुर संतरा, माल्टा, ब्लड रेड, सथगुड़ी, मुसम्बी, चकोतरा और स्थानीय डाव तथा खट्टे वर्ग में कागजी कलान, सीडलेस, नेपाली ओवलंग, पंत लेमन -1 और गंधराज की व्यवसायिक खेती झारखंड में की जा सकती है।

पौध प्रसारण

नींबू वर्गीय फलों को मुख्यत: बडिंग एवं कुछ हद तक ग्राफ्टिंग विधि द्वारा प्रसारित किया जाता है। कागजी नींबू को मुख्य रूप से बीज अथवा गूटी द्वारा प्रसारित किया जाता है। लेमन के पौधे गूटी, दाबा या कलम द्वारा तैयार किये जाते है। नींबू वर्गीय फलों में डिक्लाइन की समस्या गंभीर होती है अत: इनमें उपयुक्त मूलवृंत का प्रयोग भी किया जाता है जिनपर बडिंग या ग्राफ्टिंग (संतरा, मौसमी) द्वारा अच्छी गुणवत्ता के पौधे तैयार किये जा सकते हैं।

बगीचा लगाने का तरीका

बगीचा लगाने के लिए 5x 5 मी. की दूरी पर वर्गाकार विधि में रेखांकन करके 60 सें.मी.x  60 सें.मी.x 60 सें.मी. आकार के गड्ढे तैयार करने चाहिए। लातेहार, डाल्टनगंज एवं चतरा जैसे जिलों में जहाँ की मिट्टी में मुरम या पत्थर के टुकड़ों की अधिकता है वहाँ गड्ढों की गहराई 1-1.5 मी. तक रखनी चाहिए। गड्ढों की खुदाई मई-जून में तथा भराई जून-जुलाई में करनी चाहिए। यदि मिट्टी अत्यंत खराब है तो तालाब की अच्छी मिट्टी में 20-25 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद, 1 कि.ग्रा. करंज/नीम/महुआ की खली, 50-60 ग्राम दीमकनाशी रसायन, 100 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट/डीएपी प्रति गड्ढे के दर से देने से बाग़ स्थापना अच्छी होती है एंड पौधों की बढ़वार भी उचित रहती है। पौधों को जुलाई-अगस्त में गड्ढों के बीचो-बीच उनके पिण्डी के आकार की जगह बनाकर लगाना चाहिए तथा उनके चारों तरफ थाला बनाकर पानी देना चाहिए। पौधा लगाते समय यह ध्यान रखें कि उनका ग्राफ्टिंग/बांडिग का जोड़ जमीन से 10-15 सें.मी. ऊपर रहे।

पौधों की देख-रेख

नींबू वर्गीय फलों के नवजात पौधों को उचित देख-रेख की आवश्यकता होती है। नये पौधों को गर्मी के मौसम में तेज धूप एवं लू तथा सर्दी के मौसम में ठंड एवं पाले के बचाव का समुचित प्रबंध करना चाहिए। पौधों के जड़ों के पास पर्याप्त नमी बनाये रखने के लिए समय-समय पर सिंचाई की व्यवस्था करनी चाहिए एवं पलवार बिछानी चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु भी थालों की समय पर गुड़ाई एवं पतवार का प्रयोग लाभकर पाया गया है।

वानस्पतिक अवस्था में पौधों में उचित ढांचा निर्माण अत्यंत जरूरी होता है, अत: उनकी उचित काट-छांट भी करनी चाहिए। पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व भी देना जरूरी होता है। अत: संतरा और मौसमी के प्रत्येक पौधे को 20-30 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद, 1-1.5 कि.ग्रा. यूरिया 1-1.5 कि.ग्रा. सि.सु.फा. तथा 0.5-0.6 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष देने चाहिए। इसके साथ ही साथ फल देने वाले पौधों को जिंक सल्फेट (200 ग्रा./पौधा) तथा बोरान (100 ग्रा./पौधा) भी दिया जाना चाहिए। उर्वरक की अच्छी मात्रा नये कल्ले निकलने के समय तथा हल्की मात्रा फल लगने के बाद देने से अच्छी उपज मिलती है। पौधों की वानस्पतिक अवस्था में खाद एवं उर्वरक का संतुलित प्रयोग से उनकी बढ़वार अच्छी होती है। नींबू में भी इसी प्रकार से उर्वरक का व्यवहार किया जाता है।

फल एवं उपज

नींबू वर्गीय फलों में मुख्यत: फरवरी-मार्च में फूल आते हैं, परन्तु नींबू में सितम्बर-अक्टूबर में भी फूल आते हैं संतरा, मौसमी, ग्रेपफ्रूट के फल 7-8 महीनों में तैयार होते हैं जबकि नींबू के फल 3-4 महीनों में उपयोग के लायक हो जाते हैं। अत: फलों की तोड़ाई उनकी उपयोगिता, गुणवत्ता, बाजार मांग आदि के आधार पर सुनिश्चित करना चाहिए। किन्नों तथा कागजी नींबू के पौधे अधिक उपज देने वाले माने गये हैं। किन्नों के पूर्ण विकसित पौधे से 2000-2500 फल/वर्ष तथा कागजी नींबू के पौधे से 2000-3000 फल/वर्ष प्राप्त किया जा सकता है।

अच्छी पैदावार के गुर

नींबू वर्गीय फलों की सबसे विराट समस्या है फलों का झड़ना। फूल और फलों का गिरना मुख्या रूप से अंडाशय के निष्क्रिय होने, निषेचन क्रिया न होने तथा पोषक तत्वों की कमी एवं नमी की कमी अथवा उतार-चढ़ाव के कारण होता है। परिणाम स्वरूप मात्र 8-10 प्रतिशत फूल ही फल के रूप में विकसित हो पाते हैं। अत: अच्छी फसल के लिए पौधों पर फल लगने के बाद प्लैनोफिक्स (2 मि.ली./5 ली.) एवं जिंक सल्फेट (5 ग्रा./ली.) का 2-3 छिड़काव करना चाहिए साथ ही साथ पौधों को पर्याप्त पोषण, नमी तथा कीड़ों एवं बीमारियों का रोकथाम भी करना चाहिए। इसके अतिरिक्त नींबू में फलों का फटना तथा संतरा एवं मौसमी में जूस का ना बनना आदि भी समस्या है। जिसे पर्याप्त पोषण से ठीक किया जा सकता है।

रोग एवं कीट नियंत्रण

नींबू वर्गीय फलों में कैंकर, एन्थ्रेकनोज, गोंद रिसाव जैसे रोगों के साथ-साथ अनेक प्रकार के विषाणु जनित रोग लगते हैं। कैंकर के नियंत्रण हेतु स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट (500-1000 जीबीएम) का 2-3 छिड़काव 15 दिनों पर करें। एन्थ्रेकनोज के लिए बोर्डो मिश्रण (5:5:50) या बाविस्टीन/ब्लूकापर (3 ग्रा./ली.) का छिड़काव करें एवं विषाणु जनित रोग के नियंत्रण हेतु विषाणु मुक्त पौधों की ही बाग़ लगायें, पौधों को पर्याप्त पोषण एवं देख-रेख की व्यवस्था करें तथा डिक्लाइन नियंत्रण सिड्यूल का अनुपालन करें।

इसी प्रकार सिट्रस सैला, नींबू की तितली, लीफ माइनर, सफेद मक्खी, छाल खाने वाले कीट, थ्रिप्स माइटस, नेमैटोड, मिली बग, जैसे कीट भी नींबू वर्गीय फलों के उपज को प्रभावित करते हैं। तितली के गिडार नई पत्तियों को काट कर कहा जाते हैं, जबकि सैला के नवजात पत्तियों के रस चूसकर पौधों को नुकसान पहुँचाते हैं। कीड़ों को चुन कर मारने तथा पौधों पर मोनोक्रोटोफास/मेथाईल पैराथियान (0.2%) के छिड़काव से इनका नियंत्रण किया जा सकता है। इसी प्रकार से अन्य कीड़ों तथा बीमारियों का समय पर समुचित इलाज करके नींबू वर्गीय फलों से अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।

पौधों की सूखने की समस्या (सिट्रस डिक्लाइन) एवं निदान

नींबू वर्गीय फलों के पौधे जब 15-20 वर्ष के हो जाते हैं तब उनमें सूखने की समस्या पैदा हो जाती है। जिसे सिट्रस डिक्लाइन कहते हैं। झारखंड की अम्लीय मिट्टी में यह समस्या ज्यादा देखी गयी है अत: उसका उचित निदान एवं पोषण प्रबंध अत्यंत आवश्यक हो जाता है। इसके नियंत्रण के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया (डिक्लाइन नियंत्रण सिड्यूल) अपनानी चाहिए।

काट-छांट एवं सफाई

  • सूखी एवं रोग ग्रसित डालियों को काट कर हटा दें।
  • मुख्य तने पर लगे बोरर के छिद्रों को साफ़ कर उसमें किरोसिन तेल से भींगी रुई ठूंस कर बंद करे दें।
  • मकड़ी के जालों तथा कैंकर से ग्रसित पत्तियों को साफ़ कर दें।
  • डालियों के कटे भागों पर ब्लू कापर + अरण्डी तेल का पेंट बनाकर लगायें।
  • रोगग्रसित पत्तियों, डालियों को इक्ट्ठा करके जला दें तथा बागीचे की जमीन की गुड़ाई करें। उपरोक्त प्रक्रिया मार्च-अप्रैल में करें और गर्मी में जमीन खुला रखें।

पोषण एवं रोग प्रबंध

  • रोगग्रसित पौधों में 40 किग्रा गोबर की खाद + 4.5 किलो नीम/करंज खली + 150 ग्रा. ट्राइकोडर्मा (मोनीटर) + 1 कि.ग्रा. यूरिया + 800 ग्रा. सि.सु.फा. + 500 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश + 1 कि.ग्रा. चूना प्रति वृक्ष के हिसाब से दो भागों में बांटकर जून-जुलाई और अक्टूबर में दें। यह प्रक्रिया लगातार 2 वर्षो तक अवश्य करें।
  • जब पौधों पर पत्तियाँ आ जायं तब उन पर 200 ग्रा. नाइट्रोजन, 75 ग्रा. फास्फेट, 125 ग्रा. पोटाश का घोल बनाकर 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 छिड़काव करें। इसी के साथ जिंक सल्फेट (2 ग्रा./ली.) तथा कैल्सियम क्लोराइड/कैल्सियम नाइट्रेट (5 ग्रा./ली.) का 2 छिड़काव भी करें।
  • वायरस को फैलाने वाले कीड़ों के नियंत्रण का समुचित प्रबंध करें। इसके लिए नये कल्ले निकलते समय एमिडाक्लोरप्रिड (3 मिली/ 10 ली.) या क्वीनालफास (20 मि.ली./10 ली.) तथा डाइमेथोएट (15 मि.ली./10 ली.) या कार्बोरिल (20 ग्रा./10 ली.) का घोल बनाकर दो-दो छिड़काव एकान्तर विधि से करें।
  • मृदाजनित एवं पत्तियों पर लगने वाले रोगों के नियंत्रण का प्रबंध करें। फाइटोफ्थोरा के नियंत्रण के लिए 1 प्रतिशत बोडो मिक्चर में 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का घोल बनाकर वर्षा ऋतु में छिड़काव करें। कैंकर के निदान हेतु स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या पाउसामाइसिन (500 पीपीएम) का 2-3 छिड़काव नये कल्ले आते समय करें।

इस प्रकार से यदि सूचीबद्ध तरीके से प्रयास किये जाय तो नींबूवर्गीय फलों में सूखने की समस्या तथा कम पैदावार की समस्या से निजात मिल सकती है।

संतरा की खेती के लिए मासिक कार्य का विवरण

जनवरी-फरवरी

  • नये पौधों की काट-छांट करें।
  • गोद रिसाव के नियंत्रण के लिए पौधों के तनों पर लेप लगायें।
  • कीड़े मकोड़ों का नियंत्रण का प्रबंध करें।
  • नये पौधों के थालों की सफाई तथा उनकी समस्याओं का समुचित निदान करें।
  • पौधों की उम्र के अनुसार डोलोमाइट का प्रयोग करें।

मार्च-अप्रैल

  • खाद एवं उर्वरक प्रयोग का कार्य पूरा करें।
  • नये पौधों का गर्मी में बचाव करें एवं नियमित पानी दें।
  • मूलवृंत से निकलने वाले जंगली कल्लों को हटायें।
  • अगर नया बगीचा लगाना है तो रेखांकन, गड्ढा की खुदाई, भराई इत्यादि का काम करें।
  • पुराने पौधों में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करें।

जुलाई-अगस्त

  • नये बाग़ में पौधे लगायें।
  • बाग़ में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करें तथा अंतर फसल लगायें।
  • जल निकास का समुचित प्रबंध करें।
  • रोग एवं कीड़े-मकोड़ों का नियंत्रण करें।
  • थालों से खरपतवार निकालें तथा नये पौधों की देख-रेख करें।
  • गोद निकलने पर पौधों के तनों पर पेस्ट लगायें।

सितम्बर-अक्टूबर

  • नये पौधों की देख रेख करें।
  • खरपतवार नियंत्रण करें।
  • कीड़े एवं बीमारियों का नियंत्रण करें।
  • सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिड़काव करें।
  • फलों से लदी डालियों को सहारा प्रदान करें।

नवम्बर-दिसम्बर

  • सूखी डालियों को हटायें।
  • नये पौधों को ठंडी से बचाने का इंतजाम करें।
  • फलों पर लगने वाले कीड़ों तथा बीमारियों का नियंत्रण करें।
  • पके फलों की तोड़ाई करें।

इसी प्रकार के नींबू वर्गीय अन्य फसलों में भी माह दर माह किये जाने वाले कार्यो को सूचीबद्ध करके उनका समय पर अनुपालन करना चाहिए। यदि बताये गये विधियों एवं क्रियाओं का समय पर एवं सही ढंग से पालन किया जाय तो झारखंड में भी नींबू वर्गीय फसलों विशेषकर किन्नों तथा कागजी नींबू से भरपूर पैदावार ली जा सकती है।

 

स्त्रोत: समेति, कृषि विभाग , झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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