विगत कुछ वर्षों से देशी व विदेशी मंडियों में फसल के ऊँचे दाम मिलने के कारण पुष्प उत्पादन व्यवसायिक तौर पर निरंतर लोकप्रिय हो रहा है| फसल की पैदवार बढ़ाने तथा गुणवत्ता सुधारने हेतु विशेष सिंचाई पद्धतियों द्वारा जलापूर्ति अति आवश्यक है| हिमाचल प्रदेश जैसे अन्य पहाड़ी राज्यों में व्याप्त अनुकूल जलवायु परिस्थितियों में कई तरह के व्यवसायिक फूलों की खेती की जा रही है| लेकिन इन क्षेत्रों में एक समान तथा संतुलित वर्षा न होने के कर्ण पर्याप्त सिंचाई हेतु जल की कमी बनी रहती है| ऊपर से परम्परागत सिंचाई पद्धतियों जैसे सतही सिंचाई के इस्तेमाल के दौरान पहले भूमि की ऊपरी सतह तथा फिर अंदर ज्यादा गहराई तक होने वाले बहाव से पानी काफी मात्रा में व्यर्थ ही बह जाता है| इस सन्दर्भ में सूक्ष्म सिंचाई पद्धति, विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत ही उपयुक्त है|
सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली में पानी को धीरे-धीरे तथा विशेष बहाव नियंत्रित निकासी द्वारा पौधे की जड़ों में या आसपास डाला जाता है| एक सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली में ड्रिपर/माईक्रोस्प्रिंकलर/स्प्रेयर वितरण नालियाँ, कंट्रोल हैड सिस्टम, उर्वरक टैंक तथा इनके साथ फिट होने वाली बाकी सामग्री होती है|
सूक्ष्म सिंचाई पद्धति की विभिन्न किस्मों में टपक सिंचाई पद्धति को तुलनात्मक रूप से बेहतर पाया गया है| विभिन्न व्यवसायिक फूलों की फसलों के उपज-पैमानों, पैदावार तथा गुणवत्ता पर टपक सिंचाई पद्धति का प्रभाव:
उपर्युक्त लिखित सारणी के अनुसार सुनियोजित कृषि विकास केंद्र, नवसारी, गुजरात में किये गये प्रयोगों ने टपक सिंचाई को सतही सिंचाई की तुलना में श्रेष्ठ साबित किया है क्योंकि ज्यादा स्टॉक लम्बाई (31.78 सेंटीमीटर) तथा पैदावार (6.65 लाख फूल/हैक्टेयर) टपक सिंचाई में आंके गये हैं| ऊपर से टपक सिंचाई में सतही के मुकाबले 17% पानी की बचत हुई|
सारणी १: टपक ततः सतही सिंचाई में गुलाब की पैदावार तथा गुणवत्ता
क्रम सं. |
विवरण |
टपक सिंचाई |
सतही सिंचाई |
1 |
स्टॉक लम्बाई (सेंटीमीटर) |
31.78 |
28.69 |
2 |
पैदावार (फूल लाख/हैक्टेयर) |
6.65 |
4.91 |
सुनियोजित कृषि विकास केंद्र, डॉ यशवंत सिंह परमार औद्योनिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय में किये गये अध्ययन में सतही सिंचाई के मुकाबले टपक सिंचाई में बेहतर पौध ऊंचाई (41.25 सेंटीमीटर) तथा पुष्प संख्या/पौधा (47० पाया गया| टपक सिंचाई एवं सतही सिंचाई की तुलना एन 40.70% ज्यादा फूलों की पैदावार हुई| गुणवत्तास्वरुप, टपक सिंचाई में ज्यादा चमकीले तथा बेहतर रंग गर्द (0) के फूल पैदा हुए| टपक सिंचाई में पानी प्रयोग योग्यता सतही सिंचाई से 2.26 गुना ज्यादा थी (सारणी 2) जबकि ग्लेडियोलस फूल में सतही सिंचाई के मुकाबले ज्यादा पैदावार (1,43,518 स्पाईक/हैक्टेयर) पाई गई और टपक सिंचाई में 49.10% पानी की बचत हुई|
सारणी 2: टपक तथा सतही सिंचाई में गुलदाउदी के फूल उपज पैमाने, पैदावार तथा जल उपयोग क्षमता
क्र.सं. |
विवरण |
टपक सिंचाई(0.8 ‘वी’ |
सतही सिंचाई |
1 |
पौध-ऊंचाई (सेंटीमीटर) |
41.25 |
35.69 |
2 |
पुष्प संख्या /पौधा |
47 |
42 |
3 |
पुष्प पैदावार (किलोग्राम/वर्गमीटर) |
1.13 |
0.67 |
4 |
रंग ग्रेड |
‘O’ (100) |
‘S’ (50) |
5 |
जल उपयोग क्षमता (किलोग्राम/हैक्टेयर-सेंटीमीटर) |
2.5.80 |
11.36 |
पौधों में विकास एवं वृद्धि के लिए अनेक पोषक तत्व आवश्यक होते हैं| पौधे वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड, सूर्य से प्रकाश तथा भूमि से पानी से पानी एवं खनिज पदार्थ ग्रहण करके जैविक पदार्थ का निर्माण करते हैं| वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर 17 पोषक तत्वों को पौधों की उचित वृद्धि एवं पैदावार के लिए आवश्यक माना गया है| इनमें से मुख्य तत्व पौधे वायुमंडल से तथा शेष तीन तत्व मृदा, खाद एवं उर्वरकों द्वारा ग्रहण करते हैं| नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश को पौधे अधिक मात्रा में ग्रहण करते हैं| अतः उनकी पूर्ति खाद एवं उर्वरकों के रूप में करना आवश्यक होता है| अन्य प्रमुख पोषक तत्वों जैसे कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा सल्फर की भी आवश्यकता होती है| इन्हें गौण पोषक तत्व के रूप में भी जाना जाता है| इसके अलावा सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे लोहा, तम्बा, जस्ता, मैगनीज, बोरोन, मोलीबिडनम, क्लोरीन व निक्कल की भी पौधों की उचित वृद्धि एवं स्वास्थ्य के लिए आवश्यकता होती है|
आधुनिक खेती में सघन कृषि तकनीक के कारण भूमि में पोषक तत्वों के लगातार दोहन से प्रमुख पोषक तत्वों के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों की भी कमी होती जा रही है| किसान प्रमुख पोषक तत्वों का प्रयोग तो फसलों को उतना महत्व नहीं देते हैं जिसकी वजह से कुछ ही वर्षों में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होने लगी और उनकी कमी के स्पष्ट रूप से लक्षण पौधों पर दिखाई देने लगे हैं| इन सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को केवल तत्व विशेष की पूर्ति करके ही दूर किया जा सकता है|
सूक्ष्म पोषक तत्वों के कार्य, कमी के लक्षण एवं निदान
कार्य: यह एंजाइमज का मुख्य अवयव होने के कारण क्लोरोफिल निर्माण में उत्प्रेरक का कार्य करता साथ ही प्रकाश संश्लेषण एवं नाइट्रोजन के पाचन में सहायक होता है| जिंक तत्व अनेक एंजाइमज का अंग स्वरुप होने के कारण विभिन्न एंजाइम की संरचना एंव सक्रियता के लिए अति आवश्यक होता है| एंजाइम पौधों में होने वाली विभिन्न क्रियाओं में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभाते हैं जिसके कारण पौधों में प्रकाश संश्लेषण, शर्करा एवं स्टार्च निर्माण, प्रोटीन उपापचय, वृद्धि कारक हारमोन (इंडोल एसिटिक एसिड) का जैव संश्लेषण, पुष्प विकास एवं बीज निर्माण इत्यादि क्रियाएं सम्पन्न होती है|
जिंक की कमी से पौधों की बढ़ोतरी रुक जाती है, पतियाँ मुड़ जाती हैं एवं तने की लम्बाई घट जाती है| जिंक की कमी से धन में खैरा नामक बीमारी होती है| जिंक की कमी से आम, नीबू एंव लीची में लिटल लीफ (छोटे पत्ते) तथा सेब एवं आडू में रोजेट (पत्तों के गुच्छे) की समस्या होती है| सेब के पौधों में आँख का विकसित न होना, पत्ते छोटे तथा संकीर्ण मुड़े हुए, शाखाओं के सिरे के पत्ते बिलकुल छोटे-छोटे दिखाई देना, फूल और फलद में कमी, फलों का छोटा, नुकीला और विकृत आकार में होना इत्यादि मुख्य लक्षण होते हैं| इसके अतिरिक्त जिंक की कमी के कारण सभी फसलों में सामान्यतः कुछ प्रमुख लक्षण होते हैं| इसके अतिरिक्त जिंक की कमी के कारण सभी फसलों में सामान्यतः कुछ प्रमुख लक्षणों में पौधों की वृद्धि में अवरोध से बौनापन, पत्तियों का हरिम हीनता से पीला पड़ना (क्लोरोसिस), पत्तियों का मोटा, गाढ़ा हरा या विकृत होना (मोटल लीफ), पत्तियों पर हरिमा हीनता वाले क्षेत्र में उत्तकों का मरना (नेक्रोसिस), तना छोटा व पत्तियों में सिकुडन व झाड़नुमा होना (रोजेट), पत्तियों का आकार छोटा, असमान्य, व मुड़ा होना (लिटल लीफ), पत्तियों का जल्दी झड़ना, पौध अंगों में वृद्धि का रुक जाना व विकृत होना, फूल व फल में विकृति (हाईट्रोफी), बीज निर्माण पर प्रतिकूल असर एवं उत्पादन का अत्यधिक कम हो जाना इत्यादि प्रमुख लक्षण होते हैं|
निदान: भूमि एवं जिंक की कमी को दूर करने के लिए जिंक सल्फेट को 15 से 30 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से डालें| फसलों/फलदार वृक्षों में जिंक की कमी को जिंक सल्फेट (0.5%) के साथ चूना (0.2%) अर्थात 5 ग्राम जिंक सल्फेट त्तथा 2.5 ग्राम चूने को एक लीटर पानी में घोल बनाकर पत्तियों पर छिड़काव से तुरंत दूर किया जा सकता है|
कार्य: यह क्लोरोफिल के निर्माण में सहायक होता है| पौधों को सहनशीलता प्रदान करता है एवं उपाचय की क्रिया में सहायक होता है| पौधों में विटामिन ‘ए’ के निर्माण में वृद्धि करता है| तम्बा अनेक एंजाइम का घटक भी है|
कमी के लक्षण: इसकी कमी से पौधों की नई पत्तियों में सिरा सड़न हो जाता है| बढ़ोतरी का कम होना तथा पत्तियों का रंग हरा होना इसके प्रमुख लक्षण हैं| इसकी कमी से नींबूवर्गीय फल वृक्षों में डाई बैक एवं सेब में सफेद सिरा, छाल खुरदरा एवं फटने की समस्या उत्पन्न होती है| गेंहूँ की ऊपरी या सबसे नई पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और पत्तियों का अग्रभाग मुड़ जाता है| नई पत्तियां पीली हो जाती है| पत्तियों के किनारे कट-फट जाते हैं तथा तने की गांठों के बीच का भाग छोटा हो जाता है| नींबू के नये वर्धनशील अंग मर जाते हैं जिन्हें ‘एकजैनथीमा’ कहते हैं| छाल और लकड़ी के मध्य गोंद की थैली सी बन जाती है और फलों से भूरे रंग का स्राव/रस निकलता रहता है|
सेब के पौधों में टहनियों के अग्रभाग सुख जाना और सूखे भाग का नीचे की ओर झुकना, नये पत्तों पर पहले असर दिखाई देना, पत्तों का किनारों से झुलसना और मुड़ना, शाखाओं पर दो कलियों के बीच दूरी का कम होना, पत्तों का शाखाओं की चोटी से नीचे की ओर मुड़ जाना आदि मुख्य लक्षण हैं|
निदान: ताम्बे की कमी को दूर करने के लिए kकॉपर सल्फेट की 10-20 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में जुताई के समय इस्तेमाल करें kकॉपर सल्फेट (0.3%) का घोल 15 दिन के अन्तराल पर दो बार जून-जुलाई के महीने में पत्तों पर छिड़काव करने में लाभदायक परिणाम प्राप्त होते हैं|
कार्य: पौधों में क्लोरोफिल निर्माण के लिए लोहा एक आवश्यक तत्व है| लोहा ऑक्सीकरण एवं अवकरण की क्रिया में उत्प्रेरक का कार्य करता है| पौधों में क्लोरोफिल के संश्लेषण और रख-रखाव के लिए भी लोहा आवश्यक होता है| यह न्यूक्लिक अम्ल के उपापचय में आवश्यक भूमिका निभाते हुए अनेक एंजाइम के घटक के रूप में भी कार्य करता है|
कमी के लक्षण: लोहे की कमी से नई पत्तियों में हरिमा-हीनता हो जाती है| पौधे कमजोर हो जाते हैं तथा पत्तियों की शिराओं के बीच का स्थान पीला होने लगता है| इस तत्व की कमी से सबसे पहले नई पत्तियाँ प्रभावित होती हैं और पत्तियों के अग्रभाग और किनारे काफी समय तक आधा हरा रंग बनाये रखते हैं| अधिक कमी की दशा में पूरी पत्ती शिराएँ और शिराओं के बीच का भाग पीला पड़ जाता हैं| सेब के पौधों में शाखाओं के अगले भाग का सुखना व मुरझाना, नये पत्तों पर पीले रंग पर हरी शिराएँ दिखाई देना, अत्यधिक प्रभावित फलों का रंग तुड़ी जैसा पत्ते किनारों या सिरे से जले हुए इत्यादि इस तत्व की कमी के मुख्य लक्षण होते हैं|
निदान: लोहे की कमी को दूर करने के लिए 20 से 40 किलोग्राम फेरस सल्फेट मिट्टी में डालना चाहए या फेरस सल्फेट (0.4%) को चूने (02%) के साथ घोल के रूप में पत्तों पर छिड़काव करने से इस तत्व की कमी दूर हो जाती है|
कार्य: मैगनीज भी पौधों में क्लोरोफिल निर्माण में सहायक होता है| विभिन्न क्रियाओं में यह उत्प्रेरक का कार्य करता है| प्रकाश और अंधेरे की अवस्था में पादप कोशिकाओं में होने वाली क्रियाओं को नियंत्रित करता है| नाइट्रोजन के उपाचय और क्लोरोफिल के संश्लेषण में भाग लेने वाले एंजाइम की क्रियाशीलता बढ़ा देता है| पौधों में होने वाली अनेक महत्वपूर्ण एंजाइमयुक्त और कोशिकीय प्रतिक्रियाओं के संचालन में सहायता प्रदान करता है| कार्बोहाइड्रेट के ऑक्सीकरण के फलस्वरूप कार्बनडाईऑक्साइड और जल का निर्माण करता है|
कमी के लक्षण: मैगनीज की कमी से पत्तियों में छोटे-छोटे क्लोसिस के धब्बे बन जाते हैं| नई पत्तियों के शिराओं के बीच का भाग पीला पड़ने लगता है जो बाद में सूख जाता है| नई पत्तियों के आधार के निकट का भाग धूसर रंग का हो जाता है जो धीरे-धीरे पीला और बाद में पीला नारंगी रंग का हो जाता है| इसकी कमी से अनाज वली फसलों में ‘ग्रे स्पैक’, मीटर में ‘मार्श स्पॉट’ इत्यादि समस्याएं आ जाती है| टहनियों व शाखाओं के अग्रभाग के सूखने के साथ-साथ पत्तों के बाहरी भाग से शुरू होकर शिराओं के मध्य भाग तक का हरा रंग समाप्त हो जाता है| इसकी कमी के लक्षण सर्वप्रथम पुराने पत्तों से शुरुआत करते हुए नये पत्तों पर भी परिलक्षित होने लगते हैं| पौधे के ऊपरी भाग के पत्तों का गिरना, फ्लो में रंग की कमी इत्यादि मुख्य लक्षण हैं|
निदान: मैंगनीज सल्फेट 10 से 20 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर भूमि करना चाहिए या मैगनीज सल्फेट (0.4%) के साथ चूना (03%) का घोल बनाकर पर्णीय छिड़काव करने से भी लाभदायक परिणाम मिलते हैं|
कार्य: बोरोन दलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली ग्रथियों के निर्माण में सहायक होता अहि| पौधों के द्वारा जल शोषण को भी नियंत्रित करता है| प्रोटीन संश्लेषण के लिए आवश्यक है| कोशिका-विभाजन को प्रभावित करता है| कैल्शियम के अवशोषण और पौधों द्वारा उसके उपयोग को प्रभावित करता है| कोशिका झिल्ली की पारगम्यता बढ़ाता है जिसके फलस्वरूप कार्बोहाइड्रेट के स्थानान्तरण में मदद मिलती है| बोरोन एंजाइम की क्रियाशीलता में भी परिवर्तन लाता है|
कमी के लक्षण: बोरोन की कमी से पत्तियां मोटी होकर मुड़ जाती हैं| इसकी कमी से आम में आंतरिक सड़न, आवंला में फल सड़न, अंगूर में हेन एन चिकन, शलगम , मुली एवं गाजर में ब्राउन हार्ट, फुल्गोगोभी में भूरापन एंव आलू की पत्तियों में स्थूलन इत्यादि बीमारियों का प्रकोप हो जाता है| पौधों के वर्धनशील अग्र भाग सूखने लगते हैं| फूलों में कमी के साथ-साथ जड़ों का विकास भी रुक जाता है| जड़ वाली फसलों मने जड़ के सबसे मोटे हिस्से में गहरे रंग के धब्बे बन जाते हैं| कभी-कभी जड़ें मध्य से फट जाती हैं तथा इस विकार को ‘ब्राउन हार्ट’ कहते हैं| सेब व अन्य फलों में आंतरिक व बाह्य कॉर्क के लक्षण दिखाई देते हैं| सेब के फलों में शाखाओं पर अधिक आँखें और पत्तियों का झुण्ड बनना, टहनियों का ऊपर से सुखना, पत्तों का पीला पड़ना और मुड़ना, छाल का खुरदरा होना, पत्तियां फटी हुई एवं गड्ढेदार होना, पत्तों का मोटा होना, पत्तियों की शिराओं या पूरे पत्ते का पीला पड़ना, झड़ना, फल छोटे तथा टेढ़े मेढ़े, गुदा कठोर और फलों का फटना इत्यादि बोरोन की कमी के मुख्य लक्षण दूर हो जाते हैं|
कार्य: दलहनी फसलों की ग्रंथियों द्वारा स्थिरीकृत नाइट्रोजन के अव्शोषण हेतु मोलिबडेनम की आवश्यकता होती है| यह फास्फोरस के उपाचय को भी नियंत्रित करता है|
निदान: मोलिबिडनम कीकमी को दूर करने के लिए सोडियम मोलिबिडेट को 200 से 600 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में जुताई के समय डालकर अच्छी तरह मिला दिया जाता है|
स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; सोलन
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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