माइरीस्टिका फ्रैगरेन्स (कुल: माइरीस्टिकेसिया) जायफल तथा जावित्री नामक दो अलग-अलग मसाले उत्पन्न करता है। शुष्क बीज का दाना तथा उसके चारों और लिपटी शुष्क वेज चोल, जावित्री होती है। जायफल मौलुकस दीप (इंडोनेशिया) मूल का है। इंडोनेशिया विश्व का 50%जायफल एवं जावित्री का निर्यात करता है। ग्रीनेडा विश्व में द्वितीय नंबर का जायफल एवं जावित्री का निर्यात करने वाला देश है। भारत में यह मुख्यतः केरल के त्रिशोर,एरनाकुलम तथा कोट्टयम जिले तथा तमिलनाडू के कन्याकुमारी तथा तिरुनेलवेल्ली के कुछ भागों में इसका उत्पादन होता है।
जायफल की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्रता तथा 150 से. मी.तथा इससे अधिक वार्षिक वर्षा वाले स्थान आदर्श माने जाते हैं। इसको समुद्र तट से लगभग 1300 मी. ऊंचाई वाले स्थानों पर सफल रूप से उगा सकते हैं। चिकनी मिट्टी, बालुई मिट्टी तथा लाल लैटराइट मिट्टी उसकी वृद्धि के लिए आदर्श मानी जाती है। जायफल की पैदावार के लिए अत्यधिक शुष्क अथवा अत्यधिक जलमग्नता दोनों तरफ की परिस्थिति उपयुक्त नहीं है।
जायफल एक क्रास परागित है तथा इसके पौधों में आपस में कई महत्वपूर्ण विभिन्नताएं देखी गई हैं। इसके पौधे की वृद्धि की सभी अवस्थाओं तथा शक्ति में ही विभिन्नताएं नहीं होतीं बल्कि इसमें लिंग समतुल्य सम्बन्ध, लम्बाई, फल का आकार एवं संख्या तथा जावित्री की उपज एवं गुणवत्ता में भी विभिन्नताएं होती हैं। एक स्वस्थ वृक्ष से लगभग 2000 फल /वृक्ष प्राप्त होते हैं। यह संख्या कुछ सेकड़े से लेकर 10,000 फल/वृक्ष तक हो सकती है। भारतीय मसाला फसल अनुसन्धान संस्थान, कालीकट द्वारा विकसित उच्च उपज वाली प्रजाति आई.आई.एस.आर विश्वश्री में रोपण के आठ वर्ष पश्चात लगभग 1000 फल/वृक्ष की दर से उत्पादन होता है। जब इसके पेड़ों की संख्या 360 प्रति हेक्टर हो तब इसकी अनुमानित उपज लगभग 3122 कि.ग्राम शुष्क जायफल (छिलके युक्त) तथा 480 कि.ग्राम शुष्क जावित्री प्रति हेक्टर प्राप्त होती है। आईआईएस आर विश्वश्री से शुष्क जायफल तथा जावित्री क्रमशः 70 तथा 35%प्राप्त होती है। जायफल में 7.1% इसेंशियल ओयल 9.8% ओलिओरसिन तथा 30.9% मक्खन जबकि जावित्री में 7.1% इसेनशियल ओयल,13.8% ओलिओरसिन की मात्रा होती है। आईआईएसआर ने कुछ अधिक उच्च उपज वाली उच्च स्तरीय पंक्तियों जैसे A9 -20,22,25,69,150, A4 -12,22,52 A11 - 23,70 को चिन्हित किया हैतथा इनकी वितरण हेतु पैदावार की जा रही है ।
जायफल के नवोदभिद पौधों में नर तथा मादा पौधों को पृथक करना एक प्रमुख समस्या है। जिसके कारण लगभग 50% नर वृक्ष अनुत्पादक रह जाते हैं। हलाकि अनेक दावों के अनुसार लिंग को अंकुरित अवस्था में पत्तियों की आकृति एवं वेनोशन रंग,शक्ति तथा पत्तियों की इपीडरमिस पर कैल्शियम ओकजेलेट के कणों के आकार के आधार पर पहचाना जा सकता है। परन्तु इनमें से कोई पूर्णत: विश्वसनीय नहीं है। केवल वानस्पतिक प्रजनन को वैकल्पिक रूप से अपना सकते हैं अथवा इसके अतिरिक्त सर्व सम्पन्न गुण युक्त नर पौधों या क्लिक या कलम का उपयोग उत्पादन में कर सकते हैं।
जायफल को व्यवसायिक रूप हेतु कलम के द्वारा उत्पादन करते हैं। प्राकृतिक रूप से फटे हुए फल की तुड़ाई जून- जुलाई माह में रुट स्टाक के लिए करते हैं। बीज को पेरिकार्प से पृथक करके सुविधानुसार लंबी,1-1.5 मी.चौड़ी तथा 15 से.मी.ऊँची बलुई बेड में तुरंत बुआई करना चाहिए । अच्छे अंकुरण के लिए पानी का मियामित छिड़काव अति आवश्यक है । रोपण के लगभग 30 दिन से लेकर 90 दिन के अन्दर अंकुरण आरम्भ होने लगता है। लगभग 20 दिन पुराने अंकुरित पौधे को मृदा, बालू तथा गोबर खाद के मिश्रण (3:3:1) युक्त पोलीथिन बैग में स्थानान्तरण करते हैं ।
रुट स्टाक के लिए तने की मोटाई (0.5 से.मी. या अधिक व्यास), प्रथम पत्ती अवायत तथा उपयुक्त लम्बाई वाले पौधे का चयन कर सकते हैं। अधिक उपज वाले वृक्ष की 2-3 पत्ती सहित कलम को ग्राफटिंग के लिए उपयोग कर सकते हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि स्कन्द तथा कलम एक ही व्यास की होनी चाहिए । स्कन्द पर ‘V’ आकार का कट लगाते हैं तथा कलम को सावधानीपूर्वक उस पर फिट कर देते हैं। तत्पश्चात ग्राफटिंग वाले क्षेत्र को प्लास्टिक की पट्टी से बाँध कर उसे पोटिंग मिश्रण युक्त 25 से.मी.X15 से.मी.आकार की पोलीथीन बैग में रोपण कर देते हैं। कलम को ऊपर से पोलीथिन बैग से ढक कर ठण्डी छायादर स्थान (जहाँ पर सूर्य प्रकश न आता हो ) पर रखते हैं । एक माह पश्चात ढकी गयी पोलीथीन बैग को हटाकर निरिक्षण करते हैं यदि ग्राफट की गई कलमों में अंकुरण दिखाई दे तो उन्हें तुरंत मृदाबालू तथा गोबर खाद (3:3:1) युक्त पोलीथीन बैग में स्थानान्तरण करके वृद्धि हेतु छायादार स्थान में रख देते हैं। ग्राफट वाले क्षेत्र से पोलीथीन का बांध तीन माह पश्चात हटा सकते हैं। ग्राफटिंग के दौरान कलम को म्लानी रोग से बचाने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए तथा ग्राफट को यथासम्भव जल्दी से जल्दी पूरा कर लेना चाहिए । कलम को 12 माह पश्चात् खेत में रोपण कर सकते हैं।
जायफल को वर्षा ऋतु के आरम्भिक काल में रोपण करते है। 0.75 मी.X 0.75 मी 0.75 मी. आकार के 9 मी X 9 मी. के अन्तराल पर गढ्डे खोद कर उसमें रोपण के 15 दिन पहले जैविक खाद तथा मृदा भर देते हैं। पैलीगीयोंत्रोफिक ग्राफट को रोपण के लिए गढ्डों में 5मी.X5 मी. का अन्तराल रखना चाहिए । खेत में प्रति 20 मादा ग्राफट पर एक नर ग्राफट को आवश्यक रोपण करना चाहिए।
पौधों को रोपण के पश्चात प्रारम्भिक अवस्था में सूर्य के झुलसा देने वाले प्रकाश से बचाने हेतू छाया प्रदान करनी चाहिए । जायफल को जब ढलान युक्त पहाड़ी क्षेत्रों तथा एकल फसल प्रणाली (मोनोक्रोप) के रूप में खेती कर रहे है तब स्थाई छायादार वृक्षों को रोपण करना चाहिए। जायफल की 15 वर्ष पुराने नारियल के बागों में अन्त: फसल सर्वोत्तम होती हैक्योंकि इन बागों की छाया जायफल की पैदावार के लिए आदर्श मानी जाती है। इसकी खेती हेतू नारियल के बाग़ नदी-तट के सहारे अथवा उसके निकटवर्ती क्षेत्र अति उपयुक्त होते हैं । इसमे ग्रीष्मकाल में सिंचाई अति आवश्यक है ।
खाद को पौधे के चारों और कम गहराई वाले गड्ढे खोद कर डालने चाहिए। केरल कृषि विभाग द्वारा संस्तुत 20 ग्राम नाइट्रोजन (40 ग्राम यूरिया ), 18 ग्राम P2 O2 (110 ग्राम सुपर फोस्फेट ) तथा 50 ग्राम K2 O (80 ग्राम पोटाश का म्यूरेट) को रोपण के पश्चात् प्रारम्भिक वर्षों में डालना चाहिए तथा पौधे की प्रगति के अनुसार खाद की मात्रा में वृद्धि करके क्रमशः 500 ग्राम नाइट्रोजन (1090 ग्राम यूरिया), 250 ग्राम P2 O5 (1560 ग्राम सुपर फोस्फेट ) तथा 1000 ग्राम K2O (1670 ग्राम पोटास का म्यूरेट) प्रति वर्ष पुराने या परिपक्व वृक्षों में डालना चाहिए । 7-8 वर्ष पुराने वृक्ष में एफ वाई एम 2-5 कि. ग्राम की दर से तथा 15 वर्ष पुराने या परिपक्क वृक्षों 50 कि. ग्राम की दर डालना चाहिए ।
रोग
पश्चक्षय (डाई बैक)
इस रोग को पूर्ण विकसित तथा अविकसित शाखाओ में अग्रभाग से नीचे की ओर निर्जलकरण के कारण चरित्रचित्रण करते हैं । डीपलोडिया स्पी. तथा अन्य कवकों को इसके वृक्ष से पृथक्कीकरण किया गया है। संक्रमित शाखाओ को वृक्ष से काट कर अलग करना चाहिए तथा कटे हुए अवशेष को 1%बोर्डीयों मिश्रण से उपचारित करना चाहिए ।
धागेनुमा अंगमारी
जायफल में प्रायः दो प्रकार की अंगमारी होती है। प्रथम सफेद धागेनुमा अंगमारी जिससे सफेद महीन हाईफे समूह कवकीय धागे तने तथा पौधे के निचले भाग पर बनाते हैं। माईसीलीयम युक्त सुखी पत्तियां इस रोग के फैलाव की मुख्य स्त्रोत हैं। यह रोग मैरासमिअस पलकीरिमा द्वारा होता है ।
दूसरी प्रकार की अंगमारी को होर्स हेयर ब्लाइट (घोड़े के बाल की तरह अंगमारी) कहते हैं। इसमें कली रेशमी धगेनुमा महीन कवक अनियमित, शिथिल तंतु पत्तियों एवं तने पर बनती है। इन तंतुओ के कारण तने एवं पत्तियों में अंगमारी होती है। हांलाकि इसके तंतु वृक्ष की सुखी पत्तियों पर भी दिखाई देते हैं। इसको दूर से देखने पर यह चिड़िया का घोसले से आकार का दिखाई देती है। यह रोग मैरासमिअस इकयीनस के कारण होती है
नियंत्रण
दोनों तरफ के रोग डाई बैक तथा धगेनुमा अंगमारी का प्रभाव अधिक छायादार स्थान में अधिक होता है। अत: इन रोगों की रोकथाम छाया को नियंत्रण तथा फाईटोसैनिटेशन अपनाकर कर सकते हैं। अत्यधिक संक्रमित बागों में परम्परागत विधियों के अतिरिक्त 1%बोर्डीयों मिश्रण का छिडकाव करके इन रोगों को नियंत्रण किया जा सकता है ।
तल विगलन
केरल में जायफल के अधिकांश बागों में अविकसित फलों का फटना, फल का सड़ना तथा फल का गिरना एक प्रमुख गंभीर समस्या है । कुछ वृक्षों पर बिना किसी स्पष्ट संक्रमण के अविकसित फलों का फटना तथा ओसारी को देखा गया है जिस कारण फल सड़ने लगता है । अग्रवर्ती अवस्था में सडी हुई जावित्री में से भी बदबूदार गंध निकलती है ।
फाईटोफथोरा स्पी. तथा डिपलोडिया नेटालेनसिस को संक्रमित फल से पृथक्कीकरण किया गया है। हांलाकि फल सड़न रोगात्मक तथा दैहिक के करण भी हो सकती है । अर्ध विकसित फलों पर 1% बोर्डियों मिश्रण का छिडकाव करके से इन रोगों का नियंत्रण किया जा सकता है ।
छर्रा छिद्र (शाट होल)
यह रोग कोलिटोट्राइकम गिलाईस्पोरोइडिस के कारण होता है। इसके प्रमुख लक्षणों में उताक्षयी धब्बा पटल पर विकसित होता है जो की हरिमाहीन परिवेष से घिरा रहता है। पूर्णत: विकसित अवस्था में नेकरोटिक धब्बा भुरभुरा हो जाता है तथा छर्रा छिद्र होने के कारण गिर जाता है। रोग निरोधी 1% बोर्डियों मिश्रण का छिडकाव करके से इस रोग को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रण कर सकते हैं ।
काला शल्क (ब्लेड स्कैल)
काला शल्क (सैसिशीय नाईगिरा) विशेषकर पौधशाला में नये तने तथा पत्तियों पर तथा कभी कभी खेत में नये पौधे को हानि पहुंचता है। शल्क आपस में मिलकर गुच्छों के समान, काले, अण्डाकार तथा गुबंध के आकार के होते हैं। यह पौधे का रस चूसते हैं तथा अधिक संक्रमण के कारण शाखाओं पर म्लानी तथा सूखापन आ जाता है ।
सफेद शल्क
सफेद शल्क (प्स्यूडोलाकेसपिस कोकिरीली) भूरी सफेद, सपाट, मछली के शल्क के आकार की होती है तथा विशेषकर पौधशाला में बीज द्वारा उत्पन्न पौधों की पत्तियों के निचले भाग में आपस में गुच्छे बनाकर चिपकी रहती है। इस हानिकारक संक्रमण के कारण पत्तियों पर पीली धारी तथा धब्बा पड़ जाता है तथा अत्यधिक संक्रमण के करण पत्तियां शिथिल तथा सुख जाती है ।
परिरक्षक शल्क (शील्ड स्कैल)
शील्ड स्कैल (प्रोटोपुरलविनेरिया मेनजीफेरी ) हलके भूरे रंग की अंडाकार होती है। यह विशेषकर पौधशाला में नये अंकुरित पौधों की पत्तियों तथा तने पर पाई जाती है। इसके कारण पत्तियों तथा तना सुख जाता है ।
उरोक्त शल्क कीटों तथा इनकी अन्य प्रजातियाँ जो जायफल को हानि पहुंचाती है उनकों 0.05%मोनोक्रोटोफोस का छिड़काव करके नियंत्रित कर सकते हैं।
जायफल के मादा वृक्ष से 6 वर्ष बाद फल आना आरम्भ हो जाता है जबकि 20 वर्ष पश्चात यह अपनी चरम सीमा पर होते हैं। फूल के 9 महीने पश्चात फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। माह जून- अगस्त तुड़ाई के लिए सबसे उत्तम समय है ।
जब फल पक जाये और फलभित्ति फट जाये तब फल तोड़ने के लिए तैयार होता है। तुड़ाई के पश्चात बाहरी आवरण को अलग कर देते हैं तथा जायफल को जावित्री से अलग करते हैं। जायफल तथा जावित्री को अलग-अलग सूर्य के प्रकाश में सुखाते हैं। सुखाने के पश्चात जावित्री का लाल रंग धीरे –धीरे भूरा पीला तथा भुरभुरा रंग का हो जाता है। स्वस्थ्य फलभित्ति को आचार, जैम तथा जैली बनाने में उपयोग कर सकते हैं।
ताजा जावित्री को पानी में 750c पर 2 मिनट तक हल्का उबालने पर लाल रंग यथावत बना रहता है। इसके पश्चात गर्म हवा (55-650 c) में 3-4 घंटे सुखाने पर 8-10% आर्द्रता का स्तर बनाए रखते हैं। जबकि जायफल को गर्म हवा तकनीक द्वारा 14 -16 घंटे तक सुखाते हैं।
स्त्रोत:भारतीय मसाला फसल अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) कोझीकोड,केरल
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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