प्राकृतिक वैनिलिन वैनिला (वैनिला प्लैनिफोलिया) (कुल: ओरकीदेसियी) के पौधे की फली से प्राप्त होती है। वैनिला एक बहुवर्षीय, आरोही ओरचिड है जिसकी सेसाइल पत्तियां तथा गदुदार हरा तना होता है । इसके तने में गांठे होती है जिसमें से जड़ें निकलने लगती है । इन जड़ों को वेलामेंन जड़े कहते हैं । वेनीला का उत्पादन करने वाले मदागास्कर ,इंडोनेशिया,मेक्सिको,कोमोरो तथा सियुनियम प्रमुख देश हैं ।विश्व में इंडोनेशिया वैनिला का प्रचुर मात्रा में उत्पादन करने वाला प्रमुख देश हैं । वैनिला मेक्सिको मूल का है तथा भारत में यह 1835 ई. में आस्तित्व में आया । भारत में वैनिला की खेती करीब 2,545 हेक्टर में की जाती है । जिसमें इस का अनुमानित उत्पादन 92 टन (2002-03) हेक्टर में की जाती है । देश में अन्य राज्यों की अपेक्षा कर्नाटक में वैनिला की खेती अधिक होती है ।
वैनिला की प्रमुखत: तीन उपजातियां वैनिला प्लैनिफोलिया (मेक्सिकन वैनिला) वैनिला पोमपोना तथा वी. टैहीतीनसिस भी वैलिनिल का उत्पादन करतें है । परन्तु इनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं होती ।
वैनिला की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा जिसमें प्राकृतिक खाद का समावेश तथा जल निकासी जैसी अनुकूल परिस्थितियों में कर सकते हैं । पौधे के लिए चिकनी मिट्टी तथा पानी का जमावड़ा उपयुक्त नहीं है । यह आर्द्र उष्णकटिबंधीय जलवायु में जहाँ वार्षिक वर्षा 200-300 से.मी. तथा समुद्री तट से 1500 मी. उचाई उसकी खेती के लिए आदर्श माने जाते हैं । गरम आर्द्र जलवायु के साथ साथ 21-320 c तापमान इसकी पैदावार के लिए अति उत्तम है । वर्ष के 9 महीने वर्षा तथा पुष्पण के लिए 3 महीने शुष्क वातावरण होना चाहिए । भारत में केरल, करनाटक, तमिलनाडु, उत्तर पूर्वी क्षेत था अंडमान निलोबार द्वीपसमूह इसकी खेती के लिए उपयुक्त स्थान है ।
वैनिला की खेती किसी नए स्थान पर करते है तब उस भूमि पर लगे पेड़ो और झाड़ियो को काट कर भूमि को अच्छी तरह साफ़ कर लेते है । इसकी खेती खुले क्षेत्र में भी कर सकते है । परन्तु इसके पौधे को पर्याप्त छाया प्रदान करना चाहिए । भूमि को दो वार जोत कर तत्पश्चात समतल करके तैयार करते है । हरी पत्तियों तथा वन मृदा को खेती की मृदा में समावेश करना अति लाभदायक होता है । भूमि में एक हल्का ढाल वैनिला की खेती के लिए आदर्श माना जाता है ।
वैनिला की खेती के लिय सामान्यत: तने की कटिंग को रोपण सामग्री के रूप में उपयोग करते है । खेतों में सीधे रोपण के लिए 60-120 से.मी. लंबी रोपण सामग्री का चुनाव कर सकतें हैं । 60 से.मी.से छोटी कटिंग खेतों में सीधे रोपण के लिए उपयुक्त नहीं है । इस प्रकार के कटिंग को रोपण से पूर्व पौधशाला में जडवत तथा उत्पादित करते हैं । तने की कटिंग को अच्छी तरह पानी से धोकर 1% बोर्डियों मिश्रण अथवा 0.2%कोपर ओक्सिक्लोराइड में डूबाते है । जिससे रोगजनक कवकों की रोकथाम हो जाती है । इन उपचारिक रोपण सामग्री को 2-3 दिन के लिए छायादार स्थान पर रखते हैं । जिससे इसकी नमी में आंशिक कमी हो जाती है । इस कारण पौधे में जडवत को बढ़ावा मिलता है । अगर आवश्यकता हो तो कटिंग को 10 दिनों तक पौधशाला में रख सकते है । वयस्क वडी कटिंग को रोपण करने से पौधे की अधिक वृद्धि होती है तथा पुष्पण जल्दी प्रारम्भ होता है । टिशु कल्चर द्वारा उत्पन्न पौधे को भी रोपण के लिए उपयोग कर सकते है ।
वैनिला को एकल अथवा नारियल तथा छाल के साथ अंत: फसल के रूप में उत्पादित कर सकते है । यह सामान्यत: कम उचाई वाली शाखाओ, छाल पेड़ों जैसे गलाइरिसिडिया मैक्यूलेटा फयुसेरिया अल्बा,अरटोर्पस हैटरोफाइलस (कटहल) तथा इरीथ्रिना स्पी. ईत्यादी अथवा निर्जीव सहायकों पर इसकी बेल ऊपर चढ़ने में प्रशिक्षित होती है । कुछ स्थानों पर छाली को भी इसके सहायक वृक्ष के रूप में उपयोग करते है । इसके लिए सहायक वृक्षों को 1.2-1.5 मी के अन्तराल पर तथा 2.5-3.0 मी.का अन्तराल पंक्तियों में होना चाहिए । सहायक वृक्षों को वैनिला की खेती से पहले उगाना चाहिए जिससे सहायक वृक्ष भलभांति जम जाए । लगभग 1600-2000 वृक्ष प्रति हेक्टर लगा सकते है । वनिला का पौधा जब 1.5-2.0 मी.ऊँचा या उसकी शाखाये चारो ओर से बढ़ने लगे तब उसे सहायक वृक्ष से बांध कर क्षैतिज के समान्तर दिशा में फैलाते है । ताकि उसमे सरलता पूर्वक परागण तथा तुडाई हो सके । अगर पौधे की वृद्धि ऊपर की तरफ हो रही है तब पुष्प ज्यादा लम्बे समय तक प्रकट नहीं होते है । सहायक वृक्षों की समय समय पर काट छांट करते रहना चाहिए। ताकि वैनिला की बेल को हलकी छाया मिल सके । काटी गयी पत्तियों और शाखाओ को झपनी के उपयोग कर सकते हैं ।
कटनी को यथा संभव सितम्बर – नवम्बर के बिच कम गहरे गढ़डो में रोपण करना चाहिए । तत्पश्चात गड्ढों में मिट्टी खाद तथा सड़ी हुई घास भर देना चाहिए । तने की कटिंग की दो गांठों को मृदा के उपरो सतह से जमीं के अन्दर रोपण करना चाहिए तथा 2 कटिंग प्रति सहायक रोपण कर सकते हैं ।
रोपण के समय अत्यंत सावधानी बरतना चाहिए तथा यह सुनिश्चित कर ले की कटिंग का अधरिय निचला सिरा मृदा के उपरी सतह से ऊपर है । नये रोपित पौधें को पर्याप्त छाया प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है । रोपण के पश्चात तुरन्त ज्यादा पत्तियों से झपनी कारन चाहिए । रोपण के 4-8 सप्ताह बाद कटिंग में अंकुर फूटने लगते है ।
सामान्यत:वैनिला के साथ अन्त: खेती नहीं करना चिहिए । परन्तु कभी कभी कटी हुई घासपात इसके लिए लाभदायक होती है । मृदा की उपरी सतह का अनुरक्षण करते समय यह सावधानी बरतनी चाहिए की पौधे की जड़ों को कोई बाधा या हानि होना चाहिए । पौधे की वृद्धि तथा उपज बढ़ाने के लिए ग्रीष्मकाल में झापनी के साथ साथ निरंतर सिंचाई करना चाहिए।
मृदा के उपजाऊपन के आधार पर उर्वरकों की मात्रा निर्भर करती है । सामान्य स्थिति में 40-60 ग्राम नाइट्रोजन, 20-30 ग्राम p2o5 तथा 60 - 100 ग्राम k2o प्रति बेल डालना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त जैविक खाद जैसे केचुआ खाद,राख, ओयल केक तथा मुर्गी की लीद आदि का भी उपयोग करना चाहिए। मृदा की उपरी सतह पर जब उपयुक्त नमी हो तब जैविक खाद को मई –जून की अवधि में तथा एन पी के को पत्तियों की झपनी के साथ साथ 2-3 बार जून – सितम्बर की अवधि में डालना चाहिए । अन्य बागों की तरह वैनिला की वृद्धि एवं उत्पादन को बढ़ाने के लिए एन पी के मिश्रण (7:17:17) का 1%घोल का छिड़काव महीने में एक बार करना चाहिए । पौधे के निचले आधारीय भाग में सूक्ष्म पोषक तत्वों के मिश्रण को भी डालना अति आवश्यक है ।
वैनिला में रोपण के तीन वर्ष पश्चात् आरम्भ होता है । परन्तु यह रोपण की गई कटिंग के आकर पर भी निर्भर करता है । रोपण के 7-8 वीं वर्ष के पुष्पों का सबसे अधिक उत्पादन होता है । वैनिला का फुल दिसम्बर – फरवरी की अवधि में आते है । तथा प्रत्येक फुल केवल एक दिन तक ही कायम रहता है । पुष्प उत्पादन में वृद्धि करने के लिए पुष्पण अवधि से 6-8 महीने पहले बेल के 7.5 से 10.0 से.मी.उपरी सिरे को काटना चाहिए । ईसी प्रकार पुरानी शाखाओ (जिन पर गत वर्ष पुष्प भेदक का आक्रमण हुआ था ) को काट कर पुष्पों के उत्पादन में वृद्धि कर सकते है । फुल एकसिलेरी रिसेमस में पैदा होता है तथा प्रत्येक इनफ्लोरिसेंस में 15-20 फुल होते है । फल के निर्धारण के लिए कृतिम परागण (हस्त परागण ) कराते है । क्योंकि फुल की अवधि केवल एक दिन की होती है अत: परागण भी उसी दिन करना चाहिए । बाकी बची हुई फूलों की कलियों को काट देना चाहिए । लगभग 10-12 इनफ्लोरिसेंस प्रति बेल परागन कर सकते है । हस्त परागन विधि में , एक पिन या सुई अथवा लकड़ी का छोटा सा नुकीला टुकड़ा या दांत कुरदेनी (हस्त खुदनी) को पुष्प के परागण में उपयोग के लिए आदर्श है । वैनिला फुल में अधिकतम उत्पन्न हुए पराग को पौलीनिया कहते है । यह एन्थर कैप या हुड से ढका रहता है । फुल के गर्भवाले हिस्सो को रोस्टीलम या लैविलम सुरक्षा प्रदान करता है । परागण के लिए सुई की सहायता से स्टेमन केप को अलग करके पौलिनिया को प्रकट करते है । तत्पश्चात लहराती हुई रोस्टीलम को धक्का देते है तथा पौलिनिया को स्टिग्मा के साथ संपर्क कराते है । परागण का उपयुक्त समय सुबह 6 बजे से 1 बजे तक होता है । एक कुशल कर्मी 1500 -2000 फुल/दिन परागण कर सकता है ।
वैनिला विभिन्न प्रकार के कवकों तथा विषाणुओ के प्रति अतिसंवेदनशील हैं । विभिन्न रोगों एवं उनके लक्षणों तथा उनकी प्रबन्धन रीतियों का विवरण निम्नलिखित है ।
वैनिला में दो प्रकार की अंगमारी दो अलग प्रकार की कवक उपजातियों के कारण होती है । फाइटोफथोरा फली के उपरी सिरे पर गलन पैदा करता है । यह गलन धीरे धीरे पुष्प वृन्त तक फ़ैल जाती है तथा संक्रमित फली पर गहरे हरे रंग की जल सिक्त चित्ति सिखाई देती है जो फली में गलन पैदा कर देती है । यह गलन पूरी फलियों के गुच्छों पर फ़ैल जाती है तत्पश्चात तना,जड़े तथा पूर्णत: पौधे पर इसका प्रभाव पड़ता है ।
स्कलीरोटियम फली के उपरी भाग पर गलन पैदा करती है । इसके लक्षणों में संक्रमित हिस्से पर कवकीय मैसिलियम, सफेद मोटी चटाई की तरह दिखाई देता है जो पत्तियों तथा फलियों के गुच्छों के चरों और आवरण बना लेता है । अत्यधिक छाया, लगातार वर्षा, बेलों की अधिकसंख्या, पानी का जमा होना तथा खेत में पहले से ही मौजूद रोगजनक फली अंगमारी के प्रमुख कारक है ।
यह रोग मुख्यतः केरल तथा कर्नाटक राज्यों के वैनिला खेतों/बागो में विशेषकर ग्रीष्मकाल में अंकित किया गया है । इस रोग के कारण अविकसित फली से केरोला सुखकर गिर जाता है जिससे फली पिली पद जाती है तत्पश्चात भूरें रंग में बदल जाती है । उच्च तापमान(320 c या अधिक ) तथा कम आर्द्रता (70%से कम) विशेषकर फरवरी-मई की अवधि में यह रोग उत्पन्न होता है । फलियों की अत्यधिक संख्या भी अविकसित फलियों में ओसारी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । अधिक उचाई वाले क्षेत्रों में जहा तापमान तथा आर्द्रता का वनों के साए में अनुरक्षण होता है इस रोग की समस्या कम होती है । पुष्प के अन्दर कोल्टोट्राईकम वैनिली तथा कीटों के लार्वों को अंकित किया गया है ।
यह रोग मुख्यत: मानसून काल के बाद नवम्बर –फरवरी के मध्य होता है । इस रोग में तने में उपस्थित ग्रंथियों में पीलापन तथा सुकड़ापन आ जाता है जो धीरे धीरे पुरे तने पर फ़ैल जाता है । जब बेल मध्य या निचले हिस्से ओअर सुकड़न तथा सडन होती है तब बेल के अन्य हिस्सों में म्लानी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं । तना गलन तथा सूखापन मुख्यतः बेल के आधारीय हिस्से (जो की जमीनी सतह पर उपर ) पर दिखाई देता है । यह रोग फ्युसेरियम ओक्सीस्पोरियम एफ. एस पी. वैनीली के कारण होता है ।
रोग ग्रसित पौधे पर गहरे भूरे रंग का लक्षण प्रकट होता है तथा इसके करण भूमिगत तथ बाह्य जड़े मर जाती है । तने की सकुडन तथा फिलेसिडटी के कारण बाह्य जड़े जमीन के अन्दर घुसने से पहले ही मर जाती है जिस से पौधा गिर जाता है । यह रोग फ्युसेरियम बटाटिस वुलन बेर वैनिली के कारण होता है ।
इस रोग के पौधे पर दिखाई देने वाले लक्षणों में बेल का उपरी हिस्सा गहरे भूरे रंग का दिखाई देता है । यह लक्षण उपरी सिरे की नाली के कालर क्षेत्र से प्रारम्भ होता है । जो बाद में तने की ग्रन्थियों तक फ़ैल जाता है जिससे शिखर पर विगलन होने लगता है । यह रोग फाइटोफथोरा मिडिई अथवा फ्युसेरियम आक्सीस्पोरियम के कारण हो सकता है । अगर रोग फाइटोफथोरा के कारण होता है तब काली जलीय सिक्त चित्ती पर सफ़ेद मोटे कवकीय माईसिलिया का आवरण होता है । परन्तु जब यह संक्रमण फ्युसेरियम के कारण होता है तब स्लेटी रंग की चित्ती पर सुई के आकार की माईसिलिया की पपड़ी एकत्रित हो जाती है । इन मामलो में अधिक मात्रा में कोनिडिया होती है ।
विभिन्न प्रकार के मोसाइक जैसे माइलड मोरील ,माईलड मोसाइक तथा माइलड क्लोरोटिक स्ट्रीक को अंकित किया गया है (जब पत्ती को प्रकाश के विपरीत देखते है तब यह लक्षण दिखाई देता है ) कुछ मामलों में, इस तरह के मोसाईकों को पत्तियों का विरूपण, तरंगित उपांत के साथ भी सहयोगी होते है । जिससे पत्तियों का आकार घटने लगता है तथा प्रगतिशील अवस्था में पत्ती पर भुरभुरापन तथा अत्यधिक सिल्बेट पड़ जाती है ।
इस रोग को तने को पर भूरे रंग का उतक्षीय धब्बा तथा झुरिपन के कारण चित्रण कर सकते हैं । संक्रमित तने पर विभिन्न प्रकार की लम्बाई का पृथक उतक्षीय धब्बा (जो की मि मी. से लेकर से. मी.तक हो सकता है ) दिखाई देता है । यह रोग कवक द्वारा ग्रसित तना विगलन रोग से भिन्न होता हैं । इस रोग के तना विगलन रोग से निन्मलिखित अंतर है
कुछ मामलों में,पत्ती के निचले भाग में पपड़ी के आकार की नेक्रोसिस दिखाई देती है । यह प्राय: सूर्य के तेज झुलसा देने वाले प्रकाश में प्रकट होती है इस रोग के प्रारम्भ उतक्षीय धब्बा तने पर पड़ता है जो बाद में बड़ा होकर तने को चारों ओर से घेर लेता हैं । संक्रमित पौधे में उतक्षीय केवल एक स्थान पर या कुछ स्थानों पर दिखाई देती है । बांकी तने का भाग स्वस्थ तथा बिना किसी लक्षणों के दिखाई देता है । कुछ नेकरोसिस संक्रमित पौधों की पत्तियों पर मोसाइक के लक्षण भी दिखाई देते हैं । यह रोग संक्रमित कटिंग का उपयोग करने के कारण फैलता है । इस रोग को फ़ैलाने तथा स्थानान्तरण करने में कीटों की भी महत्वपूर्ण भूमिका हैं ।
भारत में वैनिला को हानि पहुंचने वाले बहुत कम कीट है । पत्ती पोषक भृंग अथवा कैटरपिलर की कुछ उपजातियां पत्तियों तथा नए तनो को खाती है । इन कीटो को 0.05% क्वानिलफोस का छिड़काव करके नियंत्रण किया जा सकता है ।
सकिंग बग (हेलियोमोरफा स्पी.) के व्यस्क तथा निम्फा नए तनों के उपरी सिरे इन्फ्लोरिसेन्स को हानि पहुंचाते है जिस कारण पौधों में सूखापन आ जाता है । इस कीट की रोकथाम के लिए 0.05% इण्डोसल्फान अथवा क्वानालफोस का छिड़काव करना चाहिए ।
शल्क कीट छायादार विशेष नमी युक्त क्षेत्रो में रोपण किये गुए पौधों की पत्तियों तथा नये तनो के उपरी भाग को हनी पहुंचाते हैं । हाथ से संक्रमित भाग को तोडना तथा विशाक्त चारा इन कीटों को रोकने में सहायक होते है ।
पुष्पण के 6-9 माह पश्चात फली तुडाई के लिए तैयार हो जाती है । जब फली हरे रंग से हलकी पीले रंग की हो जाये तब यह विकसित अर्थात पकी हुई मानी जाती है । तुडाई के समय फली की लम्बाई 12 -25 से.मी. होनी चाहिए । यह अति आवश्यक है की फली की सही समय पर तुडाई करना चाहिए । अगर अविकसित फली की तुडाई की तो उसके अन्दर की उपज घटित होगी तथा अत्यधिक विकसित फली संसाधन के समय फट जाएगी । जब फली का सिरा पिला पड़ जाये तथा महीन पिली घरिया फली पर पड़ जाए तब फली को तोड़ने का उपयुक्त समय है । फली को चाकू से कट कर भी तुडाई कर सकते है । एक वर्ष में 300-600 कि. ग्राम उच्च गुणवत्ता युक्त वैनिलिरी फली प्रति हेक्टर प्राप्त होती है । लगभग 6 कि.ग्राम हरी फलियों से 1 कि.ग्राम कार्ड बीन प्राप्त होती है ।
वैनिला की हरी फलियों में वैनिलिन की मात्रा बहुत कम, गंधहीन तथा बेस्वाद पाई जाती है । संसाधन के समय एन्जाईमो की प्रतिक्रियाये एवं प्रभाव ही वैनिला की मीठी सुगंध तथा स्वाद जैसे गुणों के जिम्मेदार है । संसाधन प्रकिया तुडाई के तुरन्त बाद करनी चाहिए । परन्तु फलियों को 3-5 दिन तक भण्डारण कर सकते है । संसाधन विभिन्न प्रकार की विधियों से कर सकते है । परन्तु इन सभी में लगभग चार चरण होते है ।
वैनिलिन के विषाक्त के कारण वैनिलिजम एक जोखिम भरा व्यवसाय है । वैनिलिजिम के कारण सर दर्द, गैस तथा पुरे वदन पर ददौरे फुंसी हो जाती है । वैनिला पौधे का रस/सार भी गंभीर एलर्जिक,गैस ,खुजली,जलन तथा वदन पर ददौडे कर सकता है ।
स्त्रोत:भारतीय मसाला फसल अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) कोझीकोड,केरल
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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