वर्तमान समय में जिस प्रकार की निष्क्रिय जीवन शैली आम नागरिक जी रहे हैं, उससे मोटापे तथा मधुमेह की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार भारतवर्ष में 25 से 45 वर्ष की आयु समूह के 15% व्यक्ति इस रोग से पीड़ित है तथा इस संख्या में आश्चर्यजनक रूप में वृद्धि होती जा रही है। यह समस्या केवल भारतवर्ष तक ही सीमित नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व में एक महामारी का रूप लेती जा रही है। इस सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005 तक मधुमेह रोगियों की संख्या 5.7 करोड़ तक पहुँच जाएगी। इस वस्तुस्थिति के फलस्वरूप विभिन्न न्यून कैलोरी स्वीटनर्स जैसे शुगर फ्री, ईकूअल, टोटल आदि हमारे भोजन का आवश्यक अंग बन चुके हैं। दुर्भाग्यवश इन उत्पादों के पूर्णतया सुरक्षित न होने के अकारण डॉक्टर तथा वैज्ञानिक किसी ऐसे उत्पाद की खोज में थे जो न्यून कैलोरी था शुगर फ्री होने के साथ-साथ प्राकृतिक श्रोत से भी प्राप्त किया गया हो। डॉक्टरों तथा वैज्ञानिक की इसी खोज का परिणाम है- स्टीविया रोबाउदिआना।
स्टीविया रोबाउदिआना मूलतः मध्य पेरूग्वे का पौधा है जहाँ यह तालाबों अथवा नालों के किनारों पर प्राकृतिक रूप से उगता है। चीनी तुलसी, मधुपत्र अथवा मीठे पौधे के रूप में जाना वाले यह पौधा अपनी समान्य अवस्था में आम शक्कर से लगभग 25 से 30 गुणा ज्यादा मीठा होता है जबकि इससे निकाला जाने वाला एक्सट्रैक्ट शक्कर से लगभग 300 गुणा ज्यादा मीठा होता है। भारतवर्ष के विभिन्न भागों में भी इसकी खेती प्रारंभ हो चुकी है।
स्टीविया का पौधा लगभग 60 से 70 सेंटीमीटर ऊँचा एक बहुवर्षीय तथा बहुशाखीय झाड़ीनुमा पौधा होता है। प्राकृतिक अवस्था से यह पौधा 11 से 41 अंश तक के तापक्रम में सफलतापूर्वक पनपता देखा जा सकता है जबकि एक सी कुछ प्रजातियाँ (विशेषतया इसकी नवीन तथा उन्नत प्रजातियाँ) 45 अंश तक के तापमान में भी अच्छी प्रकार पनप जाती हैं।
स्टीविया के पत्ते का स्वाद मीठा होता है। इसके पत्तों में पाए जाने वाले प्रमुख घटक हैं- स्टीवियासाइड, रोबाउदिस, रोबाउदिसाइड-सी, डुलकोसाइड, तथा छः अन्य यौगिक। इस यौगिकों से इंसुलिन को बैलेंस करने के गुण पाए जाते हैं। जिसके कारण इसे मधुमेह रोगियों के लिए उपयोगी माना गया है। वैसे इसका सर्वाधिक उपयोगी तक हो सकती है। प्रायः 9% तथा इससे अधिक स्टीवियासाईड वाले स्टीविया के पत्तों को अच्छी गुणवत्ता का माना जाता है।
हाल ही के वर्षों में व्यवसायिक एवं औषधीय जगत में अत्याधिक महत्व अर्जित करने वाले पौधे स्टीविया की उपयोगिता इसमें पाए जाने वाले मिठास के गुण के कारण हैं। समान्य शक्कर से 25 से 30 गुणा अधिक मीठा होने के साथ-साथ स्टीविया की विशेषतया यह भी है कि यह पूर्णतया कैलोरी रहित है जिसकी वजह से मधुमेह के रोगियों के लिए शक्कर के रूप में इसका उपयोग पूर्णतया सुरक्षित है। इसके साथ-साथ ऐसे व्यक्ति जो कैलोरी कांशियस हैं तथा जो अपना वजन बढ़ने के प्रति काफी सचेत रहते हैं, उनके लिए भी इसका उपयोग सुरक्षित है, क्योंकि वर्तमान में प्रयुक्त हो रहे विभिन्न स्वीटनर्स मानव मात्र के लिए पूर्णतया सुरक्षित नहीं है अतः ऐसे में स्टीविया जो कि एक पूर्णतया हर्बल उत्पाद है तथा सभी प्रकार के साईड इफेक्ट्स से मुक्त है, शक्कर का एक उपयुक्त प्रभावी विकल्प बनता जा रहा है। वर्तमान में विभिन्न पूर्वी देशों जैसे जापान तथा कोरिया आदि में स्वीटनर्स के 40% मार्केट पर स्टीविया एक्सट्रैक्ट का आधिपत्य हो चुका है जिसमें निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही हैं।
यह उच्च रक्त चाप तथा रक्त शर्करा का भी नियमितिकरण करता है, इससे चर्म विकारों से भी मुक्ति मिलती है, यह एंटी वायरल तथा एंटी बैक्टीरियल भी है तथा दांतों एवं मसूड़ों की बीमारियों से भी मुक्ति दिलाता है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि स्टीविया काफी अधिक औषधीय एवं व्यवसायिक महत्व का पौधा है जिसका व्यापक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार हो सकता है।
स्टीविया भारतवर्ष में कृषिकरण के लिए अपेक्षाकृत नया पौधा है तथा इसकी बड़े स्तर पर खेती अभी तक मुख्यतया कर्नाटका तथा महाराष्ट्र राज्यों तक ही सीमित है। इसके साथ-साथ अभी तक यह समझा जाता था कि यह पौधा ज्यादा ठंडी तथा ज्यादा गर्म (10 अंश से नीचे तथा 41 अंश के ऊपर) जलवायु सहन नहीं कर सकता तथा केवल नेट हाउस में नही सफल हो सकता है, परन्तु हाल में ही मे० सनफ्रुट्स प्रा० लि० द्वारा विकसित इसकी कुछ प्रजातियों ने इस अवधारणा को गलत सिद्ध कर दिया है तथा अब इसकी खेती देश के विभिन्न भागों में सफलतापूर्वक की जाने लगी है। मध्यप्रदेश के साथ-साथ कई अन्य राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा तथा उत्तरप्रदेश आदि में भी इसकी खेती प्रारंभ हो चुकी है जिनके परिणामों के आधार पर इसकी कृषि तकनीक को निम्नानुसार देखा जा सकता है।
स्टीविया के पत्तों का उपयोग अत्यधिक आसान है। सर्वप्रथम इसके सूखे पत्तों को मिक्सर में महीन पीस लिया जाना चाहिए। तदुपरान्त इस पिसे हुए पाउडर की 0.5 से एक ग्राम मात्रा (अपनी पसंद एवं रूचि के अनुसार) चाय/कॉफी अथवा दूध आदि को मीठा करने हेतु डाल दी जानी चाहिए। एस मिश्रण को 3-4 मिनट तक उबाल कर छान लिया जाना चाहिए। इस प्रकार मीठी परन्तु शक्कर रहित चाय/कॉफी अथवा दूध तैयार हो जाता है जो कि पूर्णतया कैलोरी शून्य होगा। इसी प्रकार स्टीविया के पत्तों का काढ़ा बनाकर भी फ्रिज में रखा जा सकता है जिसे आवश्यक पड़ने पर चाय/कॉफी/दूध/कोल्डड्रिंक/ मिठाई आदि को मीठा करने हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है।
उन क्षेत्रों को छोड़कर जहाँ का न्यूनतम तापक्रम शीत ऋतु में 5 अंश के नीचे चला जाता है, स्टीविया लगभग सभी क्षेत्रों में अपनाया जा सकता है। ग्रीष्म ऋतु में होने वाला उच्च तापमान(41 अंश के ऊपर) इस पौधे पर प्रभाव तो डाल सकता है तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है परन्तु यदि पहले से ही व्यवस्था कर ली जाए तथा स्टीविया की वही वेराइटी लगाईं जाए जो उच्च तापक्रम में सफलतापूर्वक उगाई जा सके तथा पौधों को तेज गर्मी से बचाने के लिए इनका रोपण मक्की अथवा जैट्रोफा आदि के पौधों के बीच में किया जाए तो ज्यादा तापक्रम का प्रभाव नहीं होगा। कई किसान इस प्रकार का तापमान मेंटेन करने की दृष्टि से पॉलीहॉउस अथवा ग्रीन हाउस/नेट हाउस का उपयोग भी करते हैं। स्टीविया ज्यादा छाया पसंद पौधा नहीं है अतः इसे खुले ही लगाया जाना चाहिए क्योंकि ज्यादा छाया/शेड होने से पौधों का विकास बाधित होता है तथा उनका स्टिवियोसाइड तत्व भी प्रभावित होता है। इसी प्रकार जब सदियों में तापक्रम 7 अंश से नीचे चला जाता है तब पौधे की जड़े ठीक से खाद्य पदार्थों का अवशेषण नहीं कर पाती जिससे उनकी वृद्धि प्रभावित होती है। दोनों ही स्थितियों में (ज्यादा तापक्रम की स्थिति में भी तथा तापक्रम कम होने की स्थिति में भी) सिंचाई के अंतराल घटा दिए जाने चाहिए। इस प्रकार 10 से 41 अंश तक की जलवायु में तो स्टीविया बिना किसी बाँधा के सफलतापूर्वक वृद्धि करता है परन्तु यदि तापक्रम इससे कम या ज्यादा हो तो उसे मेंटेन करने हेतु उचित व्यवस्था करनी आवश्यक होगी।
स्टीविया के पौधे ऐसी मिट्टी में सर्वाधिक सफलतापूर्वक पनपते है जो नर्म हों, ज्यादा चिकनी न हो, जिसमें जीवाश्म की मात्रा काफी अधिक हो तथा जिसमें पानी ज्यादा देर तक रुकता न हो। इस प्रकार ज्यादा चिकनी तथा भारी कपासिया मिट्टियों इसके लिए उपयुक्त नहीं है। प्रायः रेतीली दोमट मिट्टियाँ, हल्की कपासिया तथा लाल मिट्टियाँ जिनका पी० एच० 6 से 8 के बीच हो, इसकी खेती के लिए उपयुक्त होगी।
स्टीविया को वर्ष भर पानी की आवश्यकता होती है। पानी अच्छी गुणवत्ता का होना चाहिए जिसकी इलेक्ट्रिक कंडक्टिविटी निर्धारित मापदंडों के अनुकूल हों।
यथासंभव सिंचाई की व्यवस्था ड्रिप विधि से की जानी चाहिए क्योंकि स्प्रिंकलर पद्धति से पानी देने में फसल पर विभिन्न कीटाणुओं के प्रकोप की संभावना बढ़ सकती है।
विश्व भर में स्टीविया की लगभग 90 प्रजातियाँ विकसित की गिया है जो की संबंधित क्षेत्रों की जलवायु के अनुकूल विकसित की गई है। ऐसा पाया गया है कि विशेष रूप में दक्षिणी भारतवर्ष में ऐसी भी प्रजातियां है जिनमें स्टीवियोसाइड का प्रतिशत मात्र 3.5% ही पाया गया है। क्योंकि स्टिवियोसाइड की मात्रा पर ही स्टीविया का मूल्य निर्धारण होता है अतः ऐसी प्रजाति की कृषि ही की जाना चाहिए जिसमें स्टिवियोसाइड की मात्रा ज्यादा से ज्यादा हो तथा जो अपने क्षेत्र की जलवायु के भी अनुरूप हो। वर्तमान में कृषिकरण की दृष्टि से स्टीविया की मुख्यतया तीन प्रजातियाँ प्रचलन में है।
स्टीविया की इस प्रजाति का उदगम स्थल पेरूग्वे है तथा या भारतवर्ष के दक्षिणी पठारी क्षेत्रों के लिए ज्यादा उपयुक्त है। इस प्रजाति की वर्ष भर में 5 कटाइयाँ ली जा सकती है तथा इस किस्म मे ग्लुकोसाइड की मात्रा 9 से 12% पाई गई है।
यह प्रजाति ऊत्तरी भारत के लिए ज्यादा उपयुक्त है। इस प्रजाति 9 से 12% ग्लुकोसाइड पाए जाए हैं तथा वर्ष भर में 5 कटाइयाँ ली जा सकती है।
कृषिकरण की दृष्टि से स्टीविया की या किस्म सर्वोत्तम मानी जाती है। इसमें 12% तक ग्लुकोसाइड पाए गए हैं। यह प्रजाति भारतवर्ष के उत्तरी क्षेत्रों के लिए भी उतनी ही उपयुक्त है जितनी की दक्षिणी भारतवर्ष के लिए।
स्टीविया के व्यवसायिक कृषिकरण की दृष्टि से यह आवश्यक है कि ऐसी उपयुक्त प्रजाति का ही चयन किया जाए तो संबंधित क्षेत्र की जलवायु के अनुकूल हो।
क्योंकि कौन सी प्रजाति किस क्षेत्र के लिए ज्यादा अनुकूल होगी तथा किसमें कितना ग्लुकोसाइड कंटेंट होगा या इस बात पर निर्भर करेगा कि आपने कौन से प्रजाति लगाई है, अतः प्रजाति का चयन सोच समझ कर किया जाना चाहिए। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित सावधानियां रखी जाना अपेक्षित होगा।
स्टीविया के पौधे खरीदने से पूर्व किसानों द्वारा निम्नलिखित बिन्दुओं पर गौर किया जाना अनिवार्य होगा-
स्टीविया की खेती एक पंचवर्षीय फसल के रूप में की जाती है। क्योंकि एक बार रोपण के पश्चात या फसल पांच वर्ष तक खेत में रहेगी अतः खेत की अच्छी प्रकार तैयारी करना आवश्यक होता है इसके लिए सर्वप्रथम खेत की अच्छी प्रकार गहरी जुताई करके उसमें 3 टन केंचुआ खाद अथवा 6 टन कम्पोस्ट खाद के साथ-साथ 120 किलोग्राम प्रॉम जैविक खाद मिला दी जाती है। खेत भूमि जनित रोगों तथा दीमक आदि से सुरक्षित रहे इस दृष्टि से प्रति एकड़ 150 से 200 किलोग्राम नीम की पिसी हुई खल्ली भी खेत तैयार करते समय खेत में मिला दी जाती है। स्टीविया का रोपण मेड़ो/बेड्स पर किया जाता है। मेढे बनाना विशेष रूप में इसलिए भी आवश्यक होता है ताकि वर्षा की स्थिति में अथवा सिंचाई करते समय पानी नालियों में से होते होते हुए निकल जाए तथा जल भराव की स्थिति न बने। जड़ों के विकास की दृष्टि से भी मेढे/बेड्स बनाना उपयुक्त रहता अहि। इस दृष्टि से खेत में 1 से 1.5 फीइत ऊँची मेढे बनाई जाती है। इन मेढ़ों की चौड़ाई लगभग 2 फीट रखी जाती है।
मेढे बना लेने की उपरान्त इन पर स्टीविया की पौध का रोपण किया जाता है। इस उद्देश्य से स्टीविया की टिश्युकल्चर विधि से तैयार की हुई पौध प्राप्त करके पौधे से पौधे के मध्य 6 से 9 इंच तथा कतार से कतार के मध्य 40- 40 सेंटीमीटर की दूरी रखते हेतु रोपण कर दिया जाता है। यह रोपण करते समय मेढ़ के दोनों तरफ फैल सकें। इस प्रकार पौधे से पौधे के मध्य की दूरी 6 से 9 इंच तथा कतार से कतार के मध्य 40- 40 इंच रखते हेतु स्टीविया का रोपण कर दिया जाता है इस प्रकार एक एकड़ में स्टीविया के लगभग 30 से 40000 पौधे रोपित किये जाते हैं। जहाँ तक स्टीविया के रोपण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय का प्रश्न है, तो ज्यादा गर्मी तथा ज्यादा सर्दी के समय को छोड़ कर इसकी रोपाई कभी भी की जा सकती है। इस प्रकार उत्तरी भारत के सन्दर्भ में दिसम्बर-जनवरी एवं अप्रैल-मई को छोड़ कर इसकी रोपाई कभी भी की जा सकती है। वैसे इसकी रोपाई के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माह है सितम्बर से नवम्बर तथा फरवरी से अप्रैल।
स्टीविया की फसल को वर्ष भर निरंतर सिंचाई की आवश्यकता होती है। यूँ तो सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर्स का उपयोग भी किया जा सकता है परन्तु स्टीविया के ली सिंचाई का सर्वोत्तम माध्यम है-ड्रिप विधि। अतः यथासंभव स्टीविया की सिंचाई हेतु ड्रिप विधि का ही उपयोग किया जाना चाहिए।
स्टीविया की फसल की निरंतर सफाई करते रहना चाहिए तथा जब भी किसी प्रकार के खरपतवार फसल में उन्हें उखाड़ दिया जाना चाहिए। नियमित अंतरालों पर खेत की निकाई-गुड़ाई भी करते रहना चाहिए। जिससे जमीन की नमी बनी रहे। खरपतवार नियंत्रण का कार्य हाथ से ही किया जाना चाहिए तथा इस हेतु किसी प्रकार के रासायनिक खरपतवार नाशी का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
एक निरंतर वृद्धि करनेवाली फसल होने के कारण स्टीविया को काफी अधिक मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती ही। खेत तैयार करते समय डाली जाने वाले खाद के साथ-साथ प्रत्येक कटाई के उपरांत 500 किलोग्राम केंचुआ खाद तथा 30-30 किलोग्राम प्रॉम जैविक खाद पौधों के पास-पास डाल दी जानी चाहिए। क्योंकि स्टीविया साइड ग्रहण की जाने वाली वनस्पति है अतः यथा संभव फसल में किसी भी प्रकार के रासायनिक खादों अथवा टॉनिकों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
यू तो स्टीविया पर अधिकांशता किसी विशेष रोग अथवा कीट का प्रकोप नहीं देखा गया है परन्तु काई बार भूमि में बोरोन तत्व की कमी के कारण लीप स्पॉट का प्रकोप हो सकता है। इसके निदान हेतु 6% बोरेक्स का छिड़काव् किया जा सकता है। वैसे नियमित अंतरालों पर गौमूत्र अथवा नीम के तेल को पानी में मिश्रित करके उसका छिड़काव् करने से फसल पूर्णतया रोगों अथवा कीटों/कृमियों से मुक्त रहती है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि रोग नियंत्रण हेतु किसी प्रकार के रासायनिक कीटनाशक का उपयोग न किया जाए। क्योंकि स्टीविया सीधे मानव उपयोग की वस्तु है अतः यदि रासायनिक कीटनाशकों का प्रभाव इस उत्पाद पर देखा जाता है तो उसका कीट व्याधि आने से पूर्व ही उसे रोकने हेतु प्रभावी कदम उठा लिए जाने चाहिए जिसके लिए एक सावधानीपूर्वक कदम (परिकाशनरी मेजर) के रूप में नियमित अंतरालों पर गौमूत्र का स्प्रे किया जाना एक अच्छा कदम हो सकता है।
रोपण के लगभग चार माह के उपरान्त स्टीविया की फसल प्रथम कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई का कार्य पौधों पर फूल आने के पूर्व ही कर लिया जाना चाहिए क्योंकि फूल आ जाने से पौधे में स्टिवियोसाइड की मात्रा घटने लगती है जिससे इसका उचित मूल्य नहीं मिल पाता। इस प्रकार प्रथम कटाई चार माह के उपरान्त तथा आगे की कटाइयाँ प्रत्येक 3-3 माह में आने लगती है। कटाई चाहे पहली हो अथवा दूसरी अथवा तीसरी, यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि किसी भी स्थिति में कटाई का कार्य पौधे पर फूल आने के पूर्व ही हो जाए। कटाई करने की दृष्टि से पूरे पौधे को भी कटा जा सकता है तथा पत्तों को भी चुना जा सकता है। पूरा पौधा काट लेने के उपरान्त भी उसके पत्ते तोड़े जा सकता है। पत्तों को तोड़ लेने के उपरान्त उन्हें छाया में सुखाया जाना चाहिए। प्रायः 3-4 रोज तक छाया में सुखा लिए जाने पर पत्ते पूर्णतया नमी रहित हो जाते हैं तथा तदुपरान्त इन्हें बोरोन में पैक करके बिक्री हेतु प्रस्तुत कर दिया जाता है। जहां तक इनकी बिक्री का प्रश्न है तो स्टीविया के पत्ते भी बेचे जा सकते हैं, इनको पाउडर बनाकर के भी बेचा जा सकता है तथा इसका एक्सट्रैक्ट भी निकाला जा सकता है। वैसे किसान के स्तर पर इसके सूखे पत्तें बेचे जाना ही उपयुक्त होता है।
एक बहुवर्षीय फसल होने के कारण स्टीविया की उपज में प्रत्येक कटाई के साथ निरंतर बढोत्तरी होती जाती है। हालांकि उपज की मात्रा काई कारकों जैसे लगाई गई प्रजाति, फसल की वृद्धि, कटाई का समय आदि पर निर्भर करता है, परन्तु चार कटाईयों में प्रायः 2 से 4 टन तक सूखे पत्तों का उत्पादन हो सकता है। वैसे एक औसतन फसल से वर्ष भर से लगभग 2.5 टन सूखे पत्ते प्राप्त हो जाते हैं।
स्टीविया के पत्तों की बिक्री दर भी कई कारकों पर निर्भर करती है जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इनमें उपस्थित स्टिवियोसाइडस की मात्रा जिनके अनुसार इनकी बिक्री दर 60 से 120 रूपये प्रति किलोग्राम तक हो सकती है। वैसे यदि औसतन 2.5 टन पत्तों का उत्पादन हो तथा इनकी बिक्री दर 100 रूपये प्रति किलोग्राम मानी जाए तो इस फसल से प्रतिवर्ष किसान को 2.5 लाख रूपये प्रति एकड़ की प्राप्तियां होगी। फसल से होने वाले लाभ एवं हानि की गणना यदि पांच एकड़ की प्राप्तियां होगी। फसल से होने वाले लाभ एवं हानि की गणना यदि पांच वर्षीय फसल के आधार पर की जाए तो इस फसल से किसान को पांच वर्षों में लगभग 8.40 लाख रूपये लाभ होना अनुमानित है।
एक अत्यधिक उपयोगी उत्पाद होने की वजह से स्टीविया का विपणन काफी आसान हो सकता है। क्योंकि यह जन सामान्य के लिए काफी उपयोगी उत्पाद है अतः जन सामान्य को इसके बारे में जानकारी देकर इसका मार्केट स्थानीय रूप से भी बनाया जा सकता है। वैसे देश की कई प्रमुख कंपनियां इसे पुर्नखरीदी आधार पर प्रोत्साहित कर रही हैं जिअसे एस० एच० केलकर एण्ड कंपनी मुंबई, ग्रोमर बायोटेक लि० चैन्नई तथा स्न्फ्रुट्स प्रा० लि० पुणे जिन्हें इसकी बिक्री हेतु सम्पर्क किया जा सकता है।
यूँ तो कई पौध प्रदायकर्त्ता द्वारा स्टीविया की पौध प्रदाय की जाती है परन्तु पौध की खरीदी सतर्कतापूर्ण की जानी चाहिए तथा पौध सामग्री खरीदते समय या ध्यान रखा जाना चाहिए कि पौध टिश्युकल्चर विधि से तैयार हों तथा तथा उसमें काफी अच्छी जड़ें विकसित हों।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 3/13/2023
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