बैंगन की खेती अधिक ऊंचाई वाले स्थानों को छोड़कर भारत में लगभग सभी क्षेत्रों में प्रमुख सब्जी की फसल के रूप में की जाती है। झारखण्ड राज्य में इसकी खेती सब्जियों के अंतर्गत कुल क्षेत्रफल के लगभग 10.1% भाग में होती है। पौष्टिकता की दृष्टि से इसे टमाटर के समकक्ष समझा जाता है। बैंगन की हरी पत्तियों में विटामिन ‘सी’ पाया गया है। इसके बीज क्षुधावर्द्धक होते हैं तथा पत्तियां मन्दाग्नि व कब्ज में फायदा पहुंचाती हैं। बैंगन के प्रति 100 ग्राम खाने योग्य भाग में पाए जाने वाले विभिन्न तत्वों को निम्न सारणी में दर्शया गया है-
नमी |
92.70 ग्रा. |
सोडियम |
3.00 मि.ग्रा. |
प्रोटीन |
1.40 ग्रा |
पोटेशियम |
2.00 मि.ग्रा. |
वसा |
0.30 ग्रा |
लोहा |
0.90 मि.ग्रा. |
खनिज तत्व |
0.30 ग्रा |
सल्फर |
44.00 मि.ग्रा. |
रेशा |
1.30 ग्रा |
क्लोरिन |
52.00 मि.ग्रा. |
कार्बोहाइड्रेट |
4.00 ग्रा |
विटामिन ‘ए’ |
124.00 |
कैल्शियम |
18.00 मि.ग्रा. |
विटामिन ‘बी’-1 |
0.04 मि.ग्रा. |
मैग्नीशियम |
16.00 मि.ग्रा. |
विटामिन ‘बी’-2 |
0.11 मि.ग्रा. |
आक्जेलिक अम्ल |
18.00 मि.ग्रा. |
निकोटनिक अम्ल |
0.09 मि.ग्रा. |
फास्फोरस |
47.00 मि.ग्रा. |
विटामिन ‘सी’ |
31.00 |
इसकी खेती अच्छे जल निकास युक्त सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। बैंगन की अच्छी उपज के के लिए, बलुई दोमट से लेकर भारी मिट्टी जिसमें कार्बिनक पदार्थ की पर्याप्त मात्रा हो, उपयुक्त होती है। भूमि का पी.एच मान 5.5-6.0 की बीच होना चाहिए तथा इसमें सिंचाई का उचित प्रबंध होना आवश्यक है। झारखण्ड की उपरवार जमीन बैंगन की खेती के लिए उपयुक्त पायी गई है।
बैंगन में फलों के रंग तथा पौधों के आकार में बहुत विविधता पायी जाती है। मुख्यतः इसका फल बैंगनी, सफेद, हरे, गुलाबी एवं धारीदार रंग के होते हैं। आकार में भिन्नता के कारण इसके फल गोल, अंडाकार, लंबे एवं नाशपाती के आकार के होते हैं। स्थान के अनुसार बैंगन के रंग एवं आकार का महत्व अलग-अलग देखा गया है। जैसे-उत्तरी भारत में बैंगनी या गुलाबी रंग गोल से अंडाकार बैंगन का अधिक महत्व है जबकि गुजरात में हरे अंडाकार बैंगन की अधिक मांग है। गुलाबी रंग के धारियुक्त अंडाकार बैंगन देश में मध्य भागों में पसंद किए जाते हैं। झारखण्ड में गोल से अंडाकार एवं गहरे बैगनी तथा धारीदार हरे रंग के बैगन अधिक पसंद किए जाते हैं।
बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, रांची में किये गये अनुसन्धान कायों के फलस्वरूप निम्नलिखित किस्में इस क्षेत्र के लिए विकसित की गई है :-
पैदावार की दृष्टि से उत्तम यह एक संकर किस्म है। इसके पौधों कि लंबाई लगभग 70-80 सेंटीमीटर होती है। फल लंबे चमकदार बैंगनी रंग के होते हैं। फल का औसतन भार 150-200 ग्रा. के बीच होता है। इस किस्म से 700-750 क्वि./हे. के मध्य औसत उपज प्राप्त होती है।
इस किस्म के पौधे 60-70 सेंटीमीटर लम्बे, अधिक शाखाओंयुक्त, चौड़ी पत्ती बाले होते हैं। फल अंडाकार मखनिया-सफेद रंग के मुलायम होते हैं। यह भुरता बनाने के लिए उपयुक्त किस्में है। भू-जनित जीवाणु मुरझा रोग के लिए सहिष्णु इस किस्म की पैदावार 550-600 क्वि./हे. तक होती है।
इसके पौधे 70-80 सेंटीमीटर लंबे एवं पत्तियां बैगनी रंग की होती है। फल 200-300 ग्राम वजन के गोल एवं गहरे बैंगनी रंग के होते हैं। यह भूमि से उत्पन्न जीवाणु मुरझा रोग के लिए सहिष्णु किस्म है। इसकी औसत उपज 600-650 क्वि./हे. तक होती है।
भू-जनित जीवाणु मुरझा रोग प्रतिरोधी इस अगेती किस्म के फल बड़े आकार के गोल, हरे रंग के होते हैं। फलों के ऊपर सफेद रंग के धारियां होती है। इसकी पत्तियां एवं फलवृंतों पर कांटे होते हैं। रोपाई के 35-40 दिन बाद फलों की तुड़ाई प्रारंभ हो जाती है। इसके व्यजंन बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं। इसकी लोकप्रियता छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों में अधिक है। इसकी उपज क्षमता 600-650 क्वि./हे. तक होती है।
क्षेत्र में उग्र रूप में पाए जाने वाले जीवाणु मुरझा रोग के लिए यह के प्रतिरोधी किस्म है। इसके फल बड़े आकार के लंबे चमकदार बैंगनी रंग के होते है। इसके फलों की बाजार में बहुत मांग है। किस्मं की उपज क्षमता 600-650 क्वि./हे. के बीच होती है।
पौधशाला में लगने वाली बीमारियों एवं कीटों के नियंत्रण हेतु पौधशाला की मिट्टी को सूर्य के प्रकाश से उपचारित करते हैं। इसके लिए 5-15 अप्रैल के बीच 3x1 मी. आकार की 20-30 सेंटीमीटर ऊँची क्यारियां बनाते हैं। प्रति क्यारी 20-25 कि. ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 1.200 कि.ग्रा. करंज कि खली क्यारी में डालकर अच्छी तरह मिलाते हैं। तत्पश्चात क्यारियों की अच्छी तरह सिंचाई करके इन्हें पारदर्शी प्लास्टिक कि चादर से ढंक कर मिट्टी से दबा दिया जाता है। इस क्रिया से क्यारी से हवा एवं भाप बाहर नहीं निकलती और 40-50 दिन में मिट्टी में रोगजनक कवकों एवं हानिकारक कीटों कि उग्रता कम हो जाती है। एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई के लिए ऐसी 20-25 क्यारियों की आवश्यकता होती है।
बैगन कि शरदकालीन फसल के लिए जुलाई-अगस्त में, ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी-फरवरी में एवं वर्षाकालीन फसल के लिए अप्रैल में बीजों की बुआई की जानी चाहिए। एक हेक्टेयर खेत में बैगन की रोपाई के लिए समान्य किस्मों का 250-300 ग्रा. एवं संकर किस्मों का 200-250 ग्रा, बीज पर्याप्त होता है। पौधशाला में बुआई से पहले को ट्राईकोडर्मा 2 ग्रा./कि. ग्रा. अथवा बाविस्टिन 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। बुआई 5 सेंटीमीटर की दूरी पर बनी लाइनों में की जानी चाहिए। बीज से बीज की दुरी एवं बीज की गहराई 0.5-1.0 सेंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए। बीज को बुआई के बाद सौरीकृत मिट्टी से ढकना उचित रहता है। पौधशाला को अधिक वर्षा एवं कीटों के प्रभाव से बचाने के लिए नाइलोन की जाली (मच्छरदानी का कपड़ा) लगभग 1.0-1.5 फुट ऊंचाई पर लगाकर ढकना चाहिए एवं जाली को चारों ओर से मिट्टी से दबा देना चाहिए जिससे बाहर से कीट प्रवेश न कर सकें।
अच्छी पैदावार के लिए 200-250 क्वि./हे. की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए । इसके अतिरिक्त फसल में 120-150 कि.ग्रा. नत्रजन (260-325 कि.ग्रा. यूरिया), 60-75 कि.ग्रा. फास्फोरस (375-469 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट) तथा 50-60 कि.ग्रा. पोटाश (83-100 कि. ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) की प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है। नत्रजन कि एक तिहाई एवं फास्फोरस और पाराश की पूरी मात्रा मिलकर अंतिम जुताई के समय खेत में डालनी चाहिए शेष नत्रजन की मात्रा को दो बराबर भागों में बाँट का रोपाई के समय क्रमशः 20-25 दिन एवं 45-5- दिन बाद खड़ी फसल में देना उचित रहता है। बैगन की संकर किस्मों के लिए अपेक्षाकृत अधिक पोषण कि आवश्यकता होती है। इनके लिए 200-250 कि.ग्रा. नत्रजन (435-543 कि. ग्रा. यूरिया) 100-125 कि. ग्रा. फास्फोरस (625-781 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 80-100 कि. ग्रा. पाराश (134-167 कि. ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से देना उचित होगा।
बुआई के 21 से 25 दिन पश्चात पौधे लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं। बैगन की शरदकालीन फसल के लिए जुलाई-अगस्त में ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी-फरवरी में एवं वर्षाकालीन फसल के लिए अप्रैल-मई में रोपाई की जानी चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए फसल को उचित दूरी पर लगाना आवश्यक होता है। शरदकालीन एवं ग्रीष्मकालीन फसल को कतार से कतार के बीइच 60 सेंटीमीटर एवं पौधे से पौधे के बीच 50 सेंटीमीटर का अंतराल रखते हुए लगाना उचित रहता है। संकर किस्मों के लिए कतारों के बीच 75 सेंटीमीटर एवं पौधों के बीच 60 सेंटीमीटर दूरी रखना पर्याप्त होगा। रोपाई शाम के समय की जानी चाहिए एवं इसके बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए। इस क्रिया से पौधों की जड़ों का मिट्टी के साथ सम्पर्क स्थापति हो जाता है। बाद में मौसम के अनुसार 3-5 दिन के पश्चात आवश्यकतानुसार सिंचाई की जा सकती है। फसल की समय-समय पर निकाई-गुड़ाई करनी आवश्यक होती है। प्रथम निकाई-गुड़ाई रोपाई के 20-24 दिन पश्चात एवं द्वितीय 40-50 दिन के बाद करें। इस क्रिया से भूमि में वायु का संचार होगा।
बैंगन के फलों कि मुलायम व् चमकदार अवस्था में तुड़ाई करनी चाहिए। तुड़ाई में देरी करने से फल सख्त व बदरंग हो जाते हैं साथ ही उनमें बीज का विकास हो जाता है, जिससे बाजार में उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिलता। तुड़ाई के बाद फलों कि छंटाई करके विपणन के लिए उचित आकार की टोकरी में भर कर भेजना चाहिए।
यह कीट फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है। इसके पिल्लू (लार्वा) शीर्ष पर पत्ती के जुड़े होने के स्थान पर छेद बनाकर घुस जाते हैं तथा उसे अंदर से खाते हैं जिससे टहनी का विकास रुक जाता है बाद में आगे का भाग मुरझा कर सुख जाता है। फल आने पर पिल्लू इनमें छेद का गुदे व बीज को खाते हैं। इसकी रोकथाम हेतु समेकित कीट प्रबन्धन उपाय कारगर पाए गये हैं इनमें प्रभावित शाखाओं को कीट सहित तोड़कर नष्ट करते है। फसल में फेरोमोन पाश लगाकर इस कीट के प्रभाव को कम किया जा सकत है। फलों पर कीट पर प्रकोप दिखाई देने पर नीम के बीच के रस का 4% की दर से घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर फसल पे छिडकें। पूर्ण नियंत्रण न होने की दशा में कीटनाशी दवा जैसे-इंडोसल्फान 700 ग्रा.स.त./हे. हेक्टेयर अथवा साइपरमेथ्रिन 50 ग्रा. स. त./हे, की दर से उप्रोक नीम के बीज के घोल में मिलाकर प्रयोग करें।
ये हरे रंग के कीट पत्तियोंकी निचली सतह से लगकर रस चूसते हैं। जिसके फलस्वरूप पत्तियां पीली पद जाती हैं और पौधे कमजोर हो जाते हैं। इनके नियंत्रण हेतु रोपाई से पूर्व पौधों की जड़ों को काँनफीडर दवा के 1.25 मि.ली./ली. की दर से बने घोल में 2 घंटे तक डूबोयें ।
ये कीट पौधों की प्रारंभिक अवस्था में बहतु हानि पहुंचाते हैं। ये पत्तियों को खार छलनी सदृश बना देते हैं। अधिक प्रकोप की दशा में पूरी फसल बर्बाद हो जाती है। इनकी रोकतम के लिए कार्बराइल (2.0 ग्रा./ली.) अथवा पडान (1.0 ग्रा. ली.) का 10 दिन के अंतर पर प्रयोग करें।
यह पौधशाला का प्रमुख फुफुदं जनित रोग है इसका प्रकोप दो अवस्थाओं में देखा गया है। प्रथम अवस्था में, पौधे जमीन की सतह से बाहर निकलने के पहले ही मर जाते हैं एवं द्वितीय अवस्था में, अंकुरण के बाद पौधे जमीन की सतह के पास गल कर मर जाए हैं। इसकी रोकथाम के लिए बाविस्टिन (2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज) नामक फफुन्दनाशी दवा से बीजों का उपचार करें। साथ ही अंकुरण के बाद ब्लूकॉपर-50 (३ ग्रा./ली.) या रिडोमिल एम् जेड अथवा इंडोफिल एम्-45(2 ग्रा./ली.) से क्यारी की मिट्टी को भिगो दें।
यह फफून्द के कारण होने वाला एक बीज जनित रोग है। प्रभावित पत्तियों पर प्रारंभ में छोटे-छोटे गोल भूरे धब्बे बन जाते हैं तथा बाद में अनियमित आकार के काले धब्बे पत्तियों के किनारों पर दिखाई देते हैं। रोगी पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती है। फलों पर धूल कणों के समान भूरी रचनाएं दिखाई पड़ती हैं जो बाद में बढ़कर काले धब्बों के रूप में दिखाई देने लगती है। इस रोग के नियंत्रण के लिए बाविस्टिन (2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज) से बीजोपचार के बाद बुआई करें तथा फसल पर 0.1% बाविस्टिन का घोल बनाकर 10 दिनों के अंतर पर पौधों की प्रारंभिक अवस्था में 2-3 बार छिड़कें।
यह सोलेनेसी परिवार की सब्जियों की प्रमुख बीमारी है। इसके प्रकोप से पौधे मर जाते हैं। इसके बचाव हेतु प्रतिरोधी किस्में जैसे-स्वर्ण प्रतिभा, स्वर्ण श्यामली लगाएं। लगातार बैंगन, टमाटर, मिर्च एक स्थान पर न लगा कर अन्य सब्जियों का फसल चक्र में समावेश करें। खेत में 10 क्वि./हे. की दर से करंज की खली का प्रयोग रोपाई से 15 दिन पूर्व करने से रोग के प्रभाव में कमी आती है। रोपाई के पूर्व पौधों की जड़ों को स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (500 मि.ग्रा./ली.) के घोल में आधे घंटे तक डुबोएं।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 6/19/2023
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