অসমীয়া   বাংলা   बोड़ो   डोगरी   ગુજરાતી   ಕನ್ನಡ   كأشُر   कोंकणी   संथाली   মনিপুরি   नेपाली   ଓରିୟା   ਪੰਜਾਬੀ   संस्कृत   தமிழ்  తెలుగు   ردو

जैविक कीट प्रबंधन से फसल सुरक्षा

परिचय

वनस्पतियों के हरित पदार्थ (क्लोरोफिल) द्वारा सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पानी और कार्बन डाईऑक्साइड से मिलकर खाद्य पदार्थ का निर्माण ‘प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा होता है। यदि जैविक और अजैविक कारकों द्वारा फसलों को क्षति न पहुंचे, तो मनुष्य और पशुओं की खाद्य पदार्थों की आवश्यकता पूरी तो हो ही जाएगी, इसके साथ ही खाद्य पदार्थ प्रचुर मात्रा में शेष भी बच जाएगा। परंतु ऐसा नहीं हो पाता है और इन जैविक और अजैविक कारकों से आंशिक या पूर्ण रूप से क्षति हो ही जाती है।

कीट, रोग, खरपतवार, सूत्रकृमि, विषाणु, फफूंदी, लघु जीवाणु (बैक्टीरिया), सूक्ष्मजीवाणु, ( माइक्रो ऑर्गनिज्म), माइकोप्लाज्मा, इत्यादि जैविक कारकों में आते हैं।

अजैविक कारक

इसमें ऐसे निर्जीव कारक शामिल हैं; जिनसे फसलों को हानि पहुंचती हैं; जैसे तापमान (गर्म व ठंडा), आर्द्रता, बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, और अनावृष्टि, ओला, पाला और अनुपयुक्त भूमि (अम्लीय, क्षारीय, लवणीय) इत्यादि।

कीटों से फसलों को क्षति

फसलों को सबसे अधिक हानि कीटों से पहुंचती है। इनसे फसल उत्पादन में कमी तो आती ही है, बल्कि गुणों में भी ह्रास होता है।

मित्र कीट व उनके गुण

वे कीट जो हानिकारक कीटों को  खाकर फसल सुरक्षा करते हैं, उनको मित्र कीट कहते हैं। इसके अतिरिक्त वे कीट जो विशेष पदार्थ प्रदान करते हैं, उनको भी मित्र कीट कहते हैं। मधुमक्खी जो कि रात-दिन  श्रम करके फूलों से मीठा द्रव्य या मकरन्द (नैक्टर) एकत्रित करके मधु एवं मोम पैदा करती है। इसी तरह से रेशम का कीट विशेष प्रकार की पत्तियों को खाकर रेशम का धागा पैदा करता है। लाख का कीट विशेष वृक्षों से लाख बनाता है। इन कीटों में निम्नांकित गुण पाये जाते हैं:

  • ये हानिकारक कीटों को खोजने में सक्षम होते हैं।
  • किसी जीव विशेष पर पोषण के लिये आश्रित होते हैं।
  • इनमें तीव्र प्रजनन की क्षमता होती है जिससे ये अपनी संख्या को कम समय में वृद्धि करने में सक्षम होते हैं।
  • इनका जीवन चक्र होता है।
  • ये वातावरण के अनुरूप ढल जाते हैं।
  • दुश्मन कीट के विष का इन पर प्रभाव नहीं होता है।

कीट प्रबंधन की विधियां

इस प्रबंधन में निम्नलिखित विधियां प्रयोग में लाई जाती हैं:

अजैविक कीट प्रबंधन

इस विधि में बिना जीव के प्रयोग के कीट प्रबंधन किया जाता है जैसे -

  • कीट रसायनों का प्रयोग।
  • उपयुक्त (संस्तुत) सस्य क्रियाओं का फसल उगाने में प्रयोग।
  • कीट अवरोधी प्रजातियों को उगाना।
  • अंत:/अंतर फसली पद्धति को अपनाना।
  • खेत के चारों तरफ ऐसी फसल को उगाना चाहिये, जिस पर हानिकारक कीट अंडे दें। इस फसल को ट्रैप क्रॉप (विषम परिस्थितियों में दुश्मन कीट का अंदर प्रवेश न कर सकना) भी कहते हैं।
  • सूत्रकृमि के नियंत्रण के लिये खेत के चारों तरफ या अंदर मेड़ों पर गेंदा उगाना। ये अपनी जड़ों द्वारा ऐसा महकदार पदार्थ पैदा करते हैं, जिनसे सूत्रकृमि या तो मर जाते हैं या अन्यत्र चले जाते हैं।
  • पौधों की ऐसी बाह्य बनावट जिससे दुश्मन कीट आक्रमण न कर सके। जैसे मटर की बटरी प्रजातियों की पत्ती छोटी, शुष्क और कड़ी होती है। इनमें पर्णखनक कीट (लीफ माइनर) आसानी से प्रवेश नहीं कर पाता है। इसी  प्रकार से अरहर में टहनियां और पुष्प गुच्छेदार (प्रजाति आईसीपीएल-151) हैं, क्योंकि इससे पौधे की बनावट मरूका और फलीबेधक कीट को छुपकर अंडा देने में सहायता मिलती है। इसके विपरीत यूपीएएस-120 और आईसीपीएल-181 में यह स्वरूप नहीं होता है और उक्त कीटों से मुक्त रहती हैं। कुसुम में कांटेदार और चिकनी दो प्रकार की प्रजातियां होती हैं। कांटेदार प्रजाति में काली माहूं आक्रमण नहीं कर पाती है। अतः इस कीट के आक्रमण की स्थिति के अनुसार प्रजातियों को चुनना चाहिये।

 

समय से सस्य क्रियाओं को अपनाकर

कीट प्रबंधन

  • समय से बुआई न करने से कीटों का आक्रमण बढ़ जाता है। जैसे यदि मटर, राजमा, मसूर और चना की बुआई अगेती में की जाए तो तना मक्खी का प्रकोप बढ़ जाता है। इसी प्रकार चने की बुआई देर से की जाए तो फलीबेधक कीट से अधिक हानि होती है। इसी प्रकार सरसों और सरसों कुल की फसलों का विलब से बुआई करने पर माहूं का आक्रमण बढ़ जाता है। घनी बुआई से भी कीटों की संख्या बढ़ जाती है।

नाइट्रोजन की अधिक मात्रा का प्रयोग करने से पौधों की पत्तियां अधिक रसीली हो जाती हैं, जिसके कारण रस चूसने वाले कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है। इसके विपरीत फॉस्फोरस का अधिक प्रयोग करने से पौधों में कठोरपन बढ़ जाता है और कीटों का आक्रमण भी कम हो जाता है।

अत:/अंतसस्य फसलों को उगाने से भी कीटों का आक्रमण कम हो जाता है। चने की फसल में खेत के चारों तरफ यदि अलसी और धनिया उगाया जाए तो यह ट्रैप फसलों का काम करेगी। फलीबेधक कीट की मादा इन फसलों के फूलों पर अंडा देती है, जिससे फसल कुछ सीमा तक सुरक्षित रहती है। जिन फसलों में, विशेषतौर से सब्जियों के सूत्रकृमि की समस्या हो तो खेत के चारों तरफ गेंदा लगा दें। इससे इस जीव का प्रकोप कम हो जाता है।

कीट प्रबंधन में प्रयोग आने वाले कीट

कीट प्रबंधन के लिए कीट रसायनों का प्रयोग न केवल अधिक खर्चीला होता है, बल्कि नाना प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव जल, भूमि और जीवजंतुओं पर पड़ता है। अतः परजीवी और परभक्षी कीटों का प्रयोग कम खर्च वाला और प्रदूषणरहित होता है। ऐसे जन्तुओं और जीवों का वर्णन नीचे किया जा रहा है।

पृष्ठ दंडधारी शिकारी जीव

इसमें रीढ़दार और स्तनधारी जीव आते हैं, जो कीटों और अन्य जीवों को खाते हैं। इनसे फसलों को क्षति पहुंचती है। इनमें निम्न चार तरह के जीव आते हैं:

  • चिड़िया
  • स्तनधारी जीव
  • रेंगने वाले जंतु
  • उभयचर जंतु

अरीढ़धारी जीव

इनमें रीढ़ की हड्डी नहीं होती है। ये फसलों को हानि पहुंचाने वाले जीवों को ये पकड़कर खा जाते हैं। इनमें निम्न प्रकार के जीव आते हैं:

  • मकड़ी
  • शिकारी कीट
  • परजीवी भक्षी कीट

पृष्ठधारी शिकारी

  • चिड़ियाः चिड़िया हानिकारक कीट/ जंतुओं को खाती है।
  • कौआः यह हानिकारक कीटों के वयस्क और गिडारों को खाता है। यही नहीं यह चूहों और मेंढक को भी खा जाता है।
  • मैना और गोरेयाः ये चिड़िया हानिकारक कीटों के गिडारों को चाव से खाती हैं। चना और मटर की फसल में फलीबेधक कीट की गिडारों को फुदक-फुदककर खाती हैं। यदि खेत में कई स्थानों पर लकड़ी के (टी के आकार के) मचान बना दिये जाएं तो उन पर चिड़िया बैठेगी और जैसे ही गिडार दिखाई पड़ती हैं यह तेजी से दौड़कर उनको खा जाएंगी।

बगुला: यह पक्षी नाली और रुके हुये पानी में कीटों और उनके शिशुओं को खा जाता है। यही नहीं यह पानी में विचरण करने वाले जीवों जैसे मेंढक और मछलियों को भी खा जाता है। इसमें विशेष गुण यह है कि मिट्टी में छिपे कीट और उनके शिशुओं को अपनी नुकीली चोंच द्वारा निकालकर आहार बना लेता है। जब खेत में जुताई हो रही हो या सिंचाई की जा रही हो तो मिट्टी में छिपे कीट बाहर निकल आते हैं और बगुला उनको दौड़कर पकड़कर खा जाता है।

चील

यह बहुत तीव्र गति से उड़ने वाली और दूर से देखने वाली चिड़िया है। यह फसल में छिपे जीवों विशेषतौर से चूहे और खरगोश के बच्चों को तेजी से झपटा मारकर अपने पंजों में दबाकर किसी पेड़ पर बैठकर खा जाती है।

उल्लू

यह पक्षी रात में सक्रिय रहता है और रात में उड़ने वाले कीटों को खा जाता है।

मोर

यह हमारा राष्ट्रीय पक्षी है, यह रेंगने वाले जीव जैसे नेवला और गिरगिट इत्यादि को खा जाता है।

गिद्ध

यह सम्पूर्ण मांसाहारी पक्षी है। इसकी दृष्टि दूरगामी होती है। जहां भी शिकार दिखाई देता है वहां यह तीव्रता से उड़कर पहुंचकर उसको खा जाता है। इस पक्षी की भी संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है।

बटेर व तीतर

इनका दीमक प्रिय भोजन होता है। यह मिट्टी में चोंच के द्वारा दीमक को खोजकर खा जाते हैं। इनसे दीमक को न केवल नियंत्रित किया जा सकता है, बल्कि इन पक्षियों द्वारा दीमक की उपस्थिति का पता लगाया जा सकता है। इसके लिये खेत की अंतिम जुताई करने के बाद खेत में कई स्थानों पर कच्चा गोबर रख दें। यदि भूमि में दीमक हैं तो वह रात में गीली मिट्टी का चोल गोबर के ऊपर बना लेती हैं और चोल के अंदर छिपकर बैठ जाती हैं। यदि ऐसा होता है तो समझना चाहिये कि भूमि में दीमक है। इसलिए दीमक को मारने के लिये उपयुक्त दवा का प्रयोग करना चाहिये। अन्यथा दवा का प्रयोग व्यर्थ होता है और वायुमण्डल प्रदूषित हो सकता है। दीमक नियंत्रण के लिये यह बहुउपयोगी पक्षी है।

स्तनधारी जीव

इनमें चूहा, नेवला और छछंदर जैसे स्तनधारी जीव हैं, जो फसलों को हानि पहुंचाने वाले जीवों व कीटों को खाकर उनकी सुरक्षा  करते है। इनमें चूहा और छुछुंदर, बिल्ली के प्रिय शिकार हैं, जब कि नेवला, सांप का शत्रु होता है। चूहे से अनाज को भंडार में भारी क्षति पहुंचती है। बिल्ली चूहों को खाकर भंडार में अनाजों की होने वाली क्षति को परोक्ष रूप से बचाती है।

रेंगने वाले जीव

इनमें सांप और छिपकली आते हैं, जो फसलों की सुरक्षा में सहयोग करते हैं। सांप चूहों को खाकर परोक्ष रूप से अनाज को क्षति से बचाते हैं। इसके साथ ही साथ वह कीटों के वयस्क, अंडों और बच्चों को भी खाते हैं। छिपकली खेतों की मेड़ों पर बैठकर गंधी कीट को खा जाती है व वयस्क दीमक (परदार) को चाव से खा जाती है। अतः कीट नियंत्रण में इसकी अहम भूमिका होती है। विषखापड़ भी कीटों को खाकर इनके नियंत्रण में अत्यंत भागीदारी है।

उभयचर जन्तु

मेंढक एक ऐसा जन्तु है, जो जल और थल दोनों में वास करता है। यह अपनी चिपकनी जीभ द्वारा कीटों को अंदर ले जाकर खा जाता है।

अपृष्ठधारी शिकारी

इनमें रीढ़ की हड्डी नहीं होती है, दूसरे कीटों को खा जाते हैं। इनमें निम्न जीव आते है:

  • मकड़ीः इसके आठ पैर होते हैं और अपनी लार से धागा बनाकर जाल बनाती है। इसी जाल में कीटों को फंसाकर या तो खा जाती है या जाल में फंसकर कीट मर जाते हैं।
  • परजीवी परभक्षी कीटः ये शिकारी कीट होते हैं, जो दूसरे कीटों को खा जाते हैं। इनके निम्नलिखित उदाहरण हैं:
  • नर कीट, जो पीले रंग का होता है। यह चना फलीबेधक कीट की गिडार को पकड़कर दीवार में कच्ची मिट्टी का घर बना लेता है और उसमें रख लेता है, जिसको यह भविष्य में खा जाता है।
  • गेहूं, जौ और जई में भी माहूं का प्रकोप होता है। यह कीट लेडी बर्ड बीटल जो लाल रंग की होती है और उसके ऊपर काले रंग की बूंदें होती हैं। यह उपरोक्त फसलों में लगने वाली माहूं को खा जाती है। अतः यह भी परभक्षी कीट है। उसी तरह ट्राईकोडर्मा फल मक्खी को मार डालते हैं।
  • परजीवी जीवः ये दूसरे कीटों पर निवास करते हैं और उनको धीरे-धीरे मार डालते हैं। जैसे एनपीवी (न्यूक्लियर पॉली हैड्रोसिस वायरस) चनाबेधक कीट की गिडार पर निवास करके उनको नष्ट कर देती है। यदि मरे हुए गिडार का घोल बनाकर फसल पर छिड़काव किया जाये तो फलीबेधक कीट की गिडार मर जाती है। इससे इस कीट की बढ़ोतरी में गिरावट आ जाती है।

कीट प्रबंधन में कीट रसायनों का प्रयोग

  • कीट प्रबंधन का यह अवयव न केवल बहुत खर्चीला होता है, बल्कि इनके अपनाने के दूरगामी दुष्प्रभाव पाए गए हैं:
  • इनके प्रयोग से वातावरण प्रदूषित होता है।
  • वैज्ञानिक विधि से इनको न अपनाने से मनुष्य और पशुओं को ही नहीं बल्कि फसलों को भी हानि पहुंचती है।
  • इनके प्रयोग करने से मित्रकीटों (जैसे शहद की मक्खी, रेशम का कीट, लाख बनाने वाला कीट) को क्षति पहुंचती है। इससे जैव विविधता में असंतुलन पैदा होता है।
  • परजीवी व परभक्षी जीव, जो कि दुश्मन कीटों को खा जाते हैं, को भी क्षति पहुंचती है।
  • इनके प्रयोग से भूमि भी प्रदूषित हो जाती है, जिसके कारण उसमें वास करने वाले लाभदायक सूक्ष्मजीव (माइक्रो-ऑर्गेनिज्म) जैसे राइजोबियम, एजेटोबैक्टर, वाम, पीएसवी और केंचुओं को भी क्षति पहुंचती है।
  • इनके प्रयोग से पानी भी प्रदूषित हो जाता है, जिसके कारण पानी में वास करने वाले जीव जैसे मछली, सांप, मेंढक, कछुआ आदि को भी हानि पहुंचती है।
  • लगातार किसी विशेष रसायन के प्रयोग से कीटों में इस रसायन के प्रति अवरोधकता उत्पन्न हो जाती है। इसके फलस्वरूप इस रसायन के प्रयोग से इस कीट पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह एक भयावह स्थिति है।
  • कीट रसायनों के प्रयोग से जैव विविधता में असंतुलन पैदा हो जाता है और क्षेत्र विशेष के पर्यावरण में भी असंतुलन पैदा हो जाता है, जो कि फसलों के लिए ठीक नहीं होता है।

लेखन: शंकर लाल' और अरुण कुमार

स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



© C–DAC.All content appearing on the vikaspedia portal is through collaborative effort of vikaspedia and its partners.We encourage you to use and share the content in a respectful and fair manner. Please leave all source links intact and adhere to applicable copyright and intellectual property guidelines and laws.
English to Hindi Transliterate