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जैविक विधि द्वारा कीट नियंत्रण विधि

जैविक विधि द्वारा कीट नियंत्रण विधि

परिचय

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि फसलों पर लगने वाले हानिकारक कीटों से मुक्ति का एकमात्र उपाय कीटनाशी रसायनों का उपयोग ही है। हमारी इस सोच के पीछे इन रसायनों का इतिहास छुपा हुआ है। 1940 डी.डी.टी. के आविष्कार और उसकी सफलता के सारे विश्व को अपनी चपेट  में ले लिया था।  चालीस पचास के दशकों में विस्तृत मारक क्षमता वाले कृत्रिम, कार्बनिक कीटनाशकों ने अन्य सभी नियंत्रण उपायों को धूमिल कर दिया।  अंधाधुंध कीटनाशी के प्रयोग से अनेक समस्याएँ पैदा हो गई जैसे-

  • नाशीजीवों के प्राकृतिक शत्रु यथा परभक्षी व परजीवी भी मारे गये। ये परजीवी शत्रु-कीटों अन्य नाशीजीवों का प्राकृतिक रूप से नियंत्रण का हमें अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाते हैं।
  • जहरीले रसायनों के मिट्टी में जमाव से फसलों की उत्पादकता पहले से घट गई व पर्यावरण भी दूषित हो रहा है।  हानिकारक कीटों में इन रसायनों के प्रति रोधक क्षमता विकसित होने लगी।
  • नये नाशीजीवों जो पहले हानिरहित थे, हानि पहुँचाने लगे।

इन समस्याओं पर काबू पाने के लिए समेकित नाशीजीव प्रबन्धन को अपनाने की आवश्यकता है।  जैविक नियंत्रण एंव जैविक कीटनाशक का प्रयोग प्रबन्धन के प्रमुख अंग है।

जैविक नियंत्रण

यह नाशीजीव को नियंत्रित करने वाली या विधि है जिस्स्से कीटों, फुफुदियों, खरपतवारों आदि के प्राकृतिक शत्रुओं का प्रयोग किया जाता है।  पहले प्राकृतिक शत्रु को पहचान कर उसे पालकर संख्या बढ़ाया जाता है।  तत्पश्चात  उन्हें उचित रूप और माध्यम की सहायता से फसलों पर तब छोड़ा जाता है जब नाशीजीव आर्थिक क्षति स्तर से अधिक आबादी में फसलों पर लगे हो।

प्राकृतिक शत्रुओं को बायो-एजेंट कहते हैं जो अपने लक्ष्य पर ही प्रहार करते है, अन्य कहीं नहीं।  इनसे पर्यावरण मनुष्य व पशु-पक्षियों पर कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता।

बायों-एजेंट जीवित प्राकृतिक शत्रु (मुख्यतः कीट वर्ग के ) होते है जो जीवित भी हैं यतः बैक्ट्रिया, फफूंद विषाणु आदि और पादप जनित कीटनाशी।

बायो एजेंट

ट्राईकोग्राम

ट्राईकोग्राम एक अत्यंत सूक्ष्म कीट (ततैया) है जो अनेक प्रकार के शत्रु कीटों पर आक्रमण करता  है।  यह एक अंडा-परजीवी हो जो शत्रु कीट के अण्डों में अपना अंडा देकर उन्हें नष्ट कर देता है।  इस प्रकार यह एक जीवित कीटनाशक का काम करता है  जो सिर्फ अपने लक्षित शत्रु कीट को मारता और मनुष्य व पशुओं के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव छोड़े बिना, पर्यावरण को भी सुरक्षित रखता है।

ट्राईकोग्रामा के बहोत्पादन के लिए कोरसाईरा नामक पतंगों का पाला जाता है पतंगों के अण्डों को इकट्ठा का पोस्टकार्ड के आकार के कागज पर गोंद की सहायता से चिपका देते हैं इसे ट्राईकोकार्ड कहते हैं।  ट्राईकोग्राम कोरसाईरा के अण्डों में अंडे देती है।  चार दिनों बाद सारे अंडे काले पड़ जाते हैं।  आठवें दिन ये खेत में छोड़ने योग्य हो जाते हैं।  एक ट्राईकोकार्ड में लगभग 20,000 परजीवित अंडे होते हैं।

खेत में छोड़ने की विधि

इसके लिए ट्राईकोकार्ड को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर पत्तियों की निचली सतह पर स्टेपलर द्वारा लगा देते हैं। इस विधि से ट्राईकोकार्ड का समान वितरण पूरे खेत में हो जाता है। ट्राईको ग्रामा को शाम के समय छोड़ना चाहिए क्योंकि दिन का उच्च तापमान इन कीटों के प्रतिकूल होता है। लगाने के कुछ ही घंटों में ट्राईको कार्ड स्थित परजीवित अण्डों से ट्राईको गरमा के वयस्क निकलने शुरू हो जाते हैं।

शत्रु कीटों का परजीवन

अण्डों से निकलते ही वयस्क ट्राईको गरमा प्रजनन के लिए मिलते हैं तत्पश्चात ट्राईको गरमा अंडे देने के लिए अपने शत्रु के अण्डों को खोजना शुरू करती है।  जैसे-जैसे अंडे मिलते जाते हैं वह इनमें एक-एक अंडे देती रहती है। एक मादा ट्राईकोग्रामा 30 से लेकर 40 अण्डों को परजीवित करती है।

प्रयोग विधि

फसल शत्रु कीट

शत्रु कीट

मात्र

धान

तना छेदक

1 लाख ट्राईको ग्रामा जैपोनिकम (5 ट्राईकार्ड/हे./सप्ताह) (तीन सप्ताह लगातार)

 

पत्र लपेटक

1.5 लाख ट्राईकोग्रामा  जैपोनिकम (8  कार्ड/हे./सप्ताह) (तीन सप्ताह लगातार)

मक्का

तना छेदक

1.5  लाख ट्राईकोग्रामा किलोनिस, अंकुरण एक 12वें तथा 22 वें दिन पर (8 कार्ड/हे.)

टमाटर

तंबाकू सुंडी

 

गोभी

गोभी का पतंगा

50 हजार ट्राईकोग्रामा बैक्टी (३ कार्ड/हे. लगाने के  45 दिनों से प्रति सप्ताह 6 बार लगातार।

फफूंद कीटरोगाणु

 

मेटाजियम एनीसोप्ली

यह विस्तृत रूप से मिट्टी में पाया जाने वाला फुफुन्दी है जो भृंग, तितली व पतंगे, बग, चींटी व ततैये तथा टिड्डे वर्ग के कीटों पर आक्रमण करता है। इसके द्वारा नियंत्रित महत्वपूर्ण हानिकारक कीट है- स्पिटल बग (गन्ना), धान का भूरा मधुआ, गोभी का पतंग, सेमीलूपर, किटुआ कीट, मीली बग, लाही आदि।

इसके पानी में तैयार घोल को मिट्टी में या फसल के ऊपर फैलाया जाता है।  मिट्टी में मिलने के लिए इस घोल का एक किलोग्राम 50 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में छिड़काव् किया जाता है।

इसके पानी में तैयार घोल को मिट्टी में या फसल  के ऊपर फैलाया जाता है।  मिट्टी में मिलाने के लिए इस घोल का एक किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर प्रति एकड़ कीई दर से मिट्टी में छिड़काव् किया जाता है।

आलू व गन्ना लगाने के पहले ही खेत में डालकर जुताई द्वारा अच्छी तरह से मिट्टी में मिला देते हैं।  पाइरिल्ला के लिए छिड़काव् के साथ-साथ जीवित वयस्क कीड़ों को कीटशाला में लाकर इस फुफुन्दी से रोगग्रसित करवाया जाता है।  इस रोग ग्रसित पाइरिल्ला  कीटों को नमी की अवस्था में गन्ने की फसल में छोड़ा जाता है जहाँ ये अन्य कीड़ों में रोग फैला कर मार देते हैं।  मेटारिजियम के प्रयोग के समय रसायनिक फफूंदनाशक का व्यवहार नहीं करना चाहिए।

आक्रमण के लक्षण

  1. शरीर सिकुड़ जाता है और सुख कर कड़ा हो जाता है।
  2. शरीर हरे रंग के पाउडर से घिरे जाता है।

जैविक कीटनाशक का प्रयोग तीन तरह से कर सकते हैं

छिड़काव् विधि

4 ग्राम कीटनाशी 1 लीटर पानी में चिपकने वाला  पदार्थ 0.5 मि. प्रति लीटर पानी घोल बनाकर पौधों पर छिड़काव् 7 दिन के अंतराल पर 3 बार करें।

मिट्टी में प्रयोग

1 किलोग्राम कीटनाशी को 50 किलोग्राम गोबर मिलाकर 7 दिन के लिए गाँव में रखें एवं बीच-बीच में उसमें पानी का फव्वारा करें ताकि नमी बनी रहे।  तत्पश्चात इसे 1 एकड़ मिट्टी में प्रयोग करें अथवा 10 ग्राम मिक्सचर को प्रत्येक पौधे के मिट्टी में मिलाएं।

बिचड़ा का उपचार

500 ग्राम दवा को 2 लीटर पानी में घोल करके बिचड़ों के जड़ को 30 मिनट डुबोकर रखें तत्पश्चात रोपाई करें।

बैक्टीरिया कीटरोगाणु

बैसिलस युथिजियेंसिस (बी.टी.)

यह मिट्टी में पाया जाने वाला बैक्टीरिया है जो अनेक प्रकार के कीटों के अलावा कृमियों (नीमटोड) को भी मारता है।  इसके आक्रमण से कीट की आहार नली व मुख निष्क्रिय हो जाते हैं तथा कीट तुरंत मर जाता है।  चूँकि या बाहरी स्पर्श से प्रभावित नहीं करता है, इसे उस स्थान पर छोड़ा जाता है जहाँ कीट, खा रहें हो।  यह पाउडर व तरल रूप में उपलब्ध है।  टमाटर, मिर्च, भिन्डी, धान, कपास, नींबू के पिल्लुओं के लिए इसे 1 से 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव् करते हैं।

कीट विषाणु (वायरस)

ये बैकुलो वाइरस होते हैं जो अपने विशेष शत्रु कीट में ही पलते बढ़ते हैं अरु उन्हें रोगग्रसित कर मार डालते हैं।  ये अपने शत्रु-कीट को छोड़कर पौधों, मनुष्यों व अन्य किसी भी प्रकार के जीव जन्तुओं पर कोई प्रभाव नहीं डालते ।  इनके दो प्रकार प्रमुख है- ग्रेनुलोवायरस (जी.वी.) और न्यूक्लियर पौलीहेडोसिस वायरस (एन.पी. वी.)

ग्रेनुलोवायरस

लक्ष्य- गन्ने का शीर्ष छेदक

लक्षण- लक्षण 5-8 दिन बाद प्रकट होते है, प्रभावित लार्वा खाना छोड़ देते हैं, शिथिल पड़ जाते हैं, पेट दुधिया सफेद पड़ जाता है व 8-22 दिनों में मर जाते हैं।

उपयोग विधि- 250 एल.इ. (750 ग्रसित लार्वा) 200 लीटर पानी में 100 मि.ली. टिपॉल मिलाकर प्रति एकड़ की दर से दो बार गन्ना लगाने के 35 वें व 50 वें दिन पर छिड़काव् करें।

न्यूक्लियर पौलीहेडोसिस वायरस (एन.पी. वी.)

 

तंबाकू सुंडी मारक एन.पी.वी.

लक्ष्य – तम्बाकू सुंडी (सोयाबीन, मूंगफली व गोभी पर लगने वाला)

लक्षण – भोजन न करना, शिथिल हो जाना, फुलाना, त्वचा फटना, सफेद स्राव निकलना व उल्टा लटकर मरना।

प्रयोग विधि- 250 एल.ई. (500 मि.ली.) को 125 लीटर पानी, 0.5% गुड़ और 0.01% साबुन घोल मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से शाम के समय छिड़काव् करते हैं।  यह छिड़काव् तब करना चाहिए जब फसल में एक लार्वा प्रति पौधा पर नजर आने लगे।  आवश्यकतानुसार दो बार छिड़काव् करना चाहिए।

फली छेदक मारक एन.पी.वी.

लक्ष्य- फली छेदक ( चना, टमाटर व मूंगफली के लिए)

लक्षण- प्रभावित लार्वा चमकदार पीला हो जाता है, शरीर के अंदर सब कुछ घुल जाता है, स्राव निकलने के साथ लटक कर मर जाता है।

प्रयोग विधि- 100 एल.इ. (200 मि.ली.) को 200-400 लीटर पानी, 5% गुड़ और 0.01% टिपॉल के साथ मिलाकर शाम मिलाकर शाम को छिड़काव् तब करना चाहिए जब 7 लार्वा प्रति 20 पौधों पर नजर आने लगे।

 

स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार

 

 

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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