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भविष्य की खाद्यान्न आपूर्ति के लिए संरक्षण खेती आधारित योजना

भविष्य की खाद्यान्न आपूर्ति के लिए संरक्षण खेती आधारित योजना

धान की फसल

सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में धान-गेहूँ फसल प्रणाली प्रमुख है। यह लगभग 10.3 मिलियन हैक्टेयर में फैली हुई है तथा भारत के धान और गेहूँ के कुल क्षेत्रफल में इसका 23 प्रतिशत और 40 प्रतिशत योगदान है। भारत के कुल खाद्यान्न का लगभग 30 प्रतिशत अनाज इसी क्षेत्र की धान—गेहूँ फसल प्रणाली से आता है इसलिए यह फसल प्रणाली भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह है। पारम्परिक (कद्दू करके प्रतिरोपण) धान की खेती में ज्यादा संसाधनों (पानी, श्रम तथा ऊर्जा) की आवश्यकता होती है। सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में इन सभी संसाधनों की लगातार हो रही कमी के कारण धान का उत्पादन पहले की तुलना में कम लाभप्रद हो रहा है। धान उत्पादन का यह तरीका मिथेन उत्सर्जन को बढ़ाता है जो कि वैश्विक तपन का एक मुख्य कारण है। कद्दू करके प्रतिरोपित धान की फसल से धान की सीधी बिजाई (वैकल्पिक शुष्क व नम) की तुलना में लगभग 75 प्रतिशत अधिक वैश्विक तपन होता है जो मुख्यता मिथेन गैस उत्सर्जन के कारण होता है। धान की पारम्परिक खेती मिट्टी के भौतिक गुणों जैसे मिट्टी कि संरचना, मिट्टी सघनता तथा अंदरूनी सतह में जल की पारगम्यता आदि को खराब कर देती है जिससे भविष्य में मिट्टी की उपजाऊ क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। तप्पड़ भूमि में धान की सीधी बिजाई करने से जहाँ एक ओर इसका मृदा स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर होता है वहीं दूसरी ओर गेहूँ की फसल अगेती लगाने से इसका उत्पादन पर सीधा प्रभाव देखा गया है। इसके साथ ही, पारम्परिक विधि से की गई धान-गेहूँ फसल प्रणाली की तुलना में तप्पड़ मृदा में गेहूँ की उपज में वृद्धि देखी गई है।

जीरो-टिल बुआई

इसी प्रकार परम्परागत तरीके से भूमि की तैयारी के लिए गहन जुताई की जाती है। धान की कटाई के बाद गेहूँ की फसल बोने के लिए पलेवा किया जाता है और खेत को बह्तर (वप्सा कडीशन/ बिजाई योग्य मृदा में नमी का स्तर) में आने में 20–25 दिन लग जाते हैं। वातावरणीय तापमान के नीचे गिरने के कारण धान की कटाई तथा गेहूँ के बीज बोने के बीच की प्रतिवर्धन अवधि लंबी हो जाती है तथा गेहूँ के बुआई में विलंब (20 नवम्बर के बाद) होने के कारण लगभग 25-30 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर प्रति दिन के हिसाब से उपज का नुकसान भी होता है। इस नुकसान से बचने के लिए संरक्षण खेती आधारित गेहूँ की जीरो-टिल बुआई एक अच्छा विकल्प है जिसको सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में धान-गेहूँ फसल प्रणाली में बहुतायत से अपनाया जा रहा है क्योंकि इससे खेत की तैयारी में लगने वाला समय बच जाता है तथा खेत में नमी का स्तर बुआई के योग्य जल्दी आ जाता है। फसल उत्पादकता में गिरावट तथा कुल कारक उत्पादकता में गिरावट के कारण सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में धान-गेहूँ फसल प्रणाली पर खतरा मंडरा रहा है। इसके लिए कई कारकों/समस्याओं को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जिनमें प्रमुख इस प्रकार हैं

  • मानव श्रम की बढ़ती कमी
  • प्राकृतिक संसाधनों में कमी या गिरावट (मिट्टी, पानी और वायु की गुणवत्ता में गिरावट)
  • भू-जलस्तर में गिरावट
  • कृषि निवेश वस्तुओं का अक्षय तथा अप्रभावी उपयोग (उर्वरक, जल, श्रम और कीटनाशकों)
  • बढ़ते कृषि निवेश वस्तुओं की लागत (जैसे मजदूरी, ईंधन, उर्वरक तथा कीटनाशको) के कारण उत्पादन लागत में वृद्धि
  • जलवायु तथा मनुष्य की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में प्रतिकूल परिवर्तन
  • तीव्र गति से जनसंख्या में वृद्धि के कारण भूमि, जल तथा ऊर्जा में गिरावट
  • वातावरण एवं जलवायु सम्बंधी परिवर्तन

संरक्षण खेती आधारित एक सामरिक परियोजना-सीसा

भविष्य में टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन करने के लिए सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में ऐसी संरक्षण खेती आधारित फसल एवं संसाधन प्रबंधन क्रियाओं का विकास करना है जो जलवायु परिवर्तन, जल, श्रम और ऊर्जा को ध्यान में रखते हुए धान-गेहूँ फसल प्रणाली में आ रही कठिनाइयों से निजात दिला सके। सीसा (दक्षिण एशिया के लिए खाद्यान्न प्रणाली उपक्रम) परियोजना, अंतरीष्ट्रीय मक्का एव गेहूँ अनुसंधान केन्द्र एवं भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् का एक सयुंक्त उद्गम/योजना है जिसको वित्तीय सहायता बिल एवं मलिंडा गेट्स फाउंडेशन (बी एम जी एफ) एवं अंतरीष्ट्रीय विकास के लिए संयुक्त राज्य अमेरिकी संस्था (यूएसएआईडी) से मिलती है। सीसा परियोजना का दक्षिण एशिया के कई देशों में अंतरीष्ट्रीय मक्का एव गेहूँ अनुसंधान केन्द्र, अंतरीष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (इंरी), अंतरीष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (इंफरी) एवं अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान (इंलरी) के द्वारा विभिन्न देशों के कृषि विभाग के साथ मिलकर क्रियान्वन किया जा रहा है। सीसा परियोजना के अध्ययन का उद्देश्य ऐसे कृषि संरक्षण और बेहतर प्रबंधन तरीकों का आंकलन करना है जो पारम्परिक अभ्यासों से उत्कृष्ट हो तथा उत्तर पश्चिमी भारत के वर्तमान तथा भविष्य चालकों (जैसे श्रम और पानी की कमी, खेती की बढ़ती लागत, मृदा की दशा में गिरावट, जलवायु परिवर्तन आदि) के भी अनुकूल हो एवं जो सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में उगाई जा रही धान-गेहूँ फसल प्रणाली को नई दिशा दे सके। सीसा परियोजना का आगामी उद्देश्य अगली पीढ़ी के लिए ऐसी खाद्यान्न प्रणाली की रुपरेखा तैयार करना है जो उच्च उत्पादकता, प्राकृतिक संसाधन दक्ष/ निपुण, टिकाऊ एवं आर्थिक-सामाजिक चालकों में परिवर्तन के अनुकूल हो। विभिन्न कृषि प्रणालियों में संकेतकों की एक विस्तृत सीमा का उपयोग करते हुये उनके प्रदर्शनों का आंकलन करने के लिए अनुसंधान प्रयोगात्मक प्लेटफार्म पर उत्पादन के निकट स्तर तथा दीर्घकालिक प्रयोगों की रुपरेखा तैयार की गयी है जिसके लिए केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान, करनाल में चार परिदृश्यों को योजनाबद्ध तरीके से लागू किया गया है। प्रयोगात्मक प्लेटफार्म पर लगाये गऐ चारों परिदृश्यों को सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में किसानों के द्वारा अपनायी जा रही धान-गेहूँ फसल प्रणाली एवं उनके पास उपलब्ध संसाधनों के आधार पर डिजाइन किया गया है ताकि किसान को अपनी सुविधा के अनुसार अपनाने में दिक्कत नही आये।

इसके अलावा नई फसल प्रणाली के आकलन और प्रमाणित करने की हमारी क्षमता में सुधार करना होगा। सीसा के व्यापक अनुसंधान कार्यक्रम के हिस्से के रूप में हमने केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान, करनाल में उत्पादन स्तर के बड़े पैमाने पर प्रयोगात्मक अनुसंधान प्लेटफार्म तैयार तथा स्थापित किये हैं। सीसा परियोजना के निष्कर्षों से हमें फसल के व्यापक संकेतकों जैसे उपज, संसाधनों का उपयोग, मृदा एवं पर्यावरण की गुणवत्ता आदि पर, विभिन्न फसल प्रणालियों में अपनायी जा रही नई प्रौद्योगिकी के प्रभाव के प्रदर्शन का आकलन करने का एक अच्छा अवसर प्राप्त होगा ।

स्त्रोत : केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद),करनाल,हरियाणा।

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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