भारत में निरंतर बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण बढ़ती हुई मांग के अनुरूप पूर्ति ना कर पाना भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए चिंता का विषय है। हल्दी की फसल के उत्पादन में गिरावट के प्रमुख कारणों में से एक कारण यह भी है कि कृषकों को हानी पहुँचाने वाले सूत्रकृमी की समस्याओं का उचित समाधान करने की जानकारी नहीं है। अत: प्रस्तुत लेख में धान और गेहूं के उत्पादन में बाधा पहुँचाने वाले जड़ – गांठ रोग के कारक, मेलेड़ोगाइन ग्रेमिनिकोला एवं उनका प्रबंधन हेतु उचित नियंत्रण विधियों का उल्लेख किया गया है।
धान और गेहूं में जड़ – गांठ सूत्रकृमी, मेलेड़ोगाइन ग्रेमिनिकोला की व्यापक समस्या है। यह समस्या, पूर्व, उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और बिहार कुछ हिस्सों में इतनी गंभीर है जिससे फसल की पैदावार पर असर पड़ता है।
यह सूत्रकृमी गतिहीन अंत: परजीवी है। विश्व में इस सूत्रकृमी की 90 से अधिक प्रजातियाँ ही भारत में प्रचलित हैं। मेलेड़ोगाइन ग्रेमिनिकोला भारत सहित दुनिया भर में धान की फसल को अत्यधिक हानि पहुँचाने वाला प्रमुख हानिकारक सूत्रकृमी है। यह सूत्रकृमी धान पौधशाला में धान की रोपण सामग्री को गंभीर नुकसान पहुँचाता है। ये सूत्रकृमी धान की फसलों के साथ गेहूं की फसल को भी हानि पहुंचाने में सक्षम होते हैं, इनके लिए 20 से 35 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान अनुकूल होता है। इसलिए, इनकी जनसंख्या चावल- गेहूं फसल प्रणाली में तेजी से बढ़ती है।
पौधशाला और खेत में धान की फसल का पीला पड़ना, पौधों की असमान वृद्धि एवं पत्तियों का आकार कम होना। सूत्रकृमी ग्रसित फसल जल्दी सूख जाती है। एम. ग्रेमिनिकोला अक्सर जड़ ऊतकों के कार्यों में बाधा पहुंचाता है। उनके द्वारा संक्रमित पौधों की जड़ें मिट्टी से उचित पोषण एवं पानी नहीं ले पाती हैं। जिसके कारण पौधे के ऊपरी भागों में लक्षण उत्पन्न होते हैं। जिसके कारण पौधे के ऊपरी भागों में लक्षण उत्पन्न होते हैं जैसे, पोषण की कमी, शुष्कता, लवण की अधिकता, व अन्य तनाव की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। पौधों की वृद्धि रूक जाती है, पत्तियां पीली पड़ जाती है तथा शाखाएं कम निकलती है। एम. ग्रेमिनिकोला संक्रमित जड़ों में गांठे बन जाती हैं। प्राय: इन गांठों को अलग नहीं किया जा सकता। मिट्टी में रहकर यह नई जड़ों को भेद कर उनके अंदर घुस जाते हैं तथा पानी और खाना ले जाने वाली कोशिकाओं पर आक्रमण करते हैं। तत्पश्चात यह सूत्रकृमी गोलाकार होकर जड़ों में गांठे पैदा करते हैं। इन गांठों के कारण पौधे मृदा में पोषक तत्व तथा पानी की उपलब्धता होते हुए भी पर्याप्त मात्रा में उसे ग्रहण नहीं कर पाते
एम. ग्रेमिनिकोला ग्रसित धान में जड़ – गांठ रोग भारत के अधिकांश राज्यों जैसे, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, छत्तीसगढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तर – पूर्वी राज्यों सहित दुनिया के सभी धान की खेती करने वाले क्षेत्रों में प्रचलित है। जहाँ चावल एक वर्ष में एक से अधिक फसल के रूप में उगाया जाता है वहां इस सूत्रकृमी की समस्या विशेष रूप से गंभीर हैं। जम्मू, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश सहित उत्तर भारत में धान पौधशाला में संक्रमित पौधों को खेतों में रोपण के बाद अंकित किया गया।
गेहूं और धान को हानि पहुँचाने वाले एम. ग्रेमिनिकोला निम्न तरीकों से एक स्थान से दुसरे अन्य स्थानों पर जाकर फसल को संक्रमित करते हैं।
एम. ग्रेमिनिकोला को एम्फिमिक्सस और अर्धसूत्री विभाजनिक अनिषक जनन द्वारा प्रजनन करने में सक्षम हैं। लगभग 200 से 500 आंशिक रूप से भ्रूणित अंडे जैलेटीनस डिंब मैट्रिक्स में जमा रहते हैं। भ्रूण जनन के 4 – 6 दिनों के बाद एक पहला जूवनाइल (जे1) तथा 2 – 3 दिनों में दुसरे जूवनाइल (जे2) में परिवर्तित होता है संक्रामक जूवनाइल (जे2) अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थतियों, 20 – 20 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान तथा उपयुक्त नमी में अंडे से बाहर निकलते हैं। अंडे से बाहर निकलने के दर धीमी होती है यानी कई हफ्तों तक चलती है।
अन्हैचट जूवनाइल (जे2) अंडे के अंदर कई हफ्तों तक शुष्क अवस्था तथा भोजन के अभाव में रह सकता है। जूवनाइल (जे2) पौधे की जड़ों में प्रवेश करके सियांशुम और गांठे बनता है। जे2 में फुलाव संक्रमित एवं निमोचन के 3 – 4 दिनों बाद आता है और यह जे3 तत्पश्चात जे4, वयस्क मादा तथा नर में परिवर्तित हो जाता है। जे3 और जे4, वयस्क मादा तथा नर में परिवर्तित हो जाता है। जे3 और जे4 में स्टाईलिट न होने के कर्ण यह अवस्था संक्रमणकारी नहीं होती। एम. ग्रेमिनिकोला धान और गेहूं की फसल में अपना अंडे से अंडे का जीवन चक्र 27 – 30 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान पर लगभग 25 – 28 दिनों में पूरा कर लेते हैं। सर्दियों के दौरान कम तापमान पर गेहूं की फसल में इनका लंबा जीवन चक्र 65 दिनों तक रहता है। वयस्क नर 13 – 16 दिनों तक देखा जा सकता है और इसके बाद यह 3 – 4 दिन के बाद नये अंडे देती है।
दिल्ली की परिस्थितियों के अंतर्गत एक विशिष्ट धान – गेहूं फसल पद्धति में इस सूत्रकृमी की धान नर्सरी में एक पीढ़ी,छोटी अवधि के मोटे धान में दो पीढ़ी, बासमती धान में तीन पीढ़ियों और नवंबर में बोये गये गेहूं में दो पीढ़ी और दिसंबर में बोये गये गेहूं में एक पीढ़ी जीवन चक्र पूरा करती है। इस प्रकार एक वर्ष में इस सूत्रकृमी की 4 – 6 पीढियां जीवन चक्र पूरा कर सकती है।
जे2 की मिट्टी में जनसंख्या वृद्धि दर तापमान, नमी, वायु संचारण और और पोषक पौधे पर आधारित होती है। मिट्टी में जनसंख्या मई – अगस्त और दिसंबर – फरवरी माह के दौरान बहुत कम, सितंबर के अंत तक मध्य अक्टूबर (चावल की फसल के दो हफ्ते पहले ) और मध्य मार्च – अप्रैल (गेहूं की फसल की कटाई से 2 – 3 सप्ताह पहले) के बीच अधिक होती है। बुवाई का समय, फसल की अवधि, मिट्टी की नमी और तापमान का असर जनसंख्या वृद्धि पर पड़ता है।
फसल की हानि सूत्रकृमी जनसंख्या घनत्व और अन्य फसल विकास की स्थिति पर निर्भर करती है। किसी भी देश या पूरे राज्य में हानि की गणना करने के लिए विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है। हालाँकि, एक परिक्षण के अनुसार गेहूं की फसल में सूत्रकृमिनाशक उपचार के बाद 17 प्रतिशत हानि, सीधे सीड धान में 71 प्रतिशत उपचारित पौधशाला – बेड से लिए गये प्रत्यारोपित धान में 29 प्रतिशत अनुपाचारित पौधशाला – बेड से लिए गये प्रत्यारोपित धान में 38 प्रतिशत हानि अंकित की गयी है।
सूत्रकृमियों की समस्या का निम्नलिखित नियंत्रण विधियों द्वारा समाधान किया जा सकता है। इन नियंत्रण विधियों को रोगों की प्रारंभिक अवस्था में अपनाने से पौधों को सूत्रकृमियों द्वारा अत्यधिक हानि से बचाया जा सकता है।
ग्रीष्म काल में गेहूं की फसल की कटाई के बाद खेत की 15 दिनों के अंतराल पर दो बार गहराई से जुताई करने से सूत्रकृमी जनसंख्या में 70 प्रतिशत से अधिक की कमी तथा आगामी धान की फसल को हानि पहुँचाने वाले सूत्रकर्मियों के प्रबंधन में भी प्रभावी होती है।
फसल अवशेषों के उपयोग से मृदा की कार्बनिक स्थिति में सुधार आता है। इनके उपयोग से सूत्रकृमियों की जनसंख्या में कमी तथा सूक्ष्मजीवों की जनसंख्या में वृद्धि होती है। मृदा में गेहूं और धान की पुआल मिलाने से सूत्रकृमियों की जनसंख्या में कमी तथा गेहूं और धान की फसल की पैदावार में बढ़ोतरी होती है। गेहूं और चावल के बीच मूंग की फसल की बु आई करने तथा फली की तुड़ाई के बाद गहराई से जुताई करने से चावल की फसल में सूत्रकृमी जनसंख्या में काफी कमी आती है। सेसबानिया अकुलेटा या सेसबनिया रोस्टराता की बुआई करने तथा तुड़ाई के बाद गहराई से जुताई करने से गेहूं की फसल में जड़ – गांठ सूत्रकृमी जनसंख्या में कमी आती है।
धान की फसल में निरंतर बाढ़, अनिरंतर बाढ़ और बाढ़ का न आना जड़ – गांठ सूत्रकृमी जनसंख्या में कमी जबकि अनिरंतर बाढ़ और बिना बाढ़ में जड़ – गांठ सूत्रकृमी जनसंख्या में वृद्धि होती है। रोपण 45 दिनों के बाढ़ के कारण सूत्रकृमी जनसंख्या में कमी अंकित की गई है।
मृदा सौरीकरण के तहत गर्मी में पतली पॉलिथीन शीट (25 – 60 µm) की 3 – 4 सप्ताह ढकने से 15 सेंमी ऊपरी परत में सूत्रकृमी जनसंख्या को कम करने से अत्यधिक प्रभावी पाया गया। जब मृदा का तापमान 40 – 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचता है तब खेतों में 10 सेंमी तत्पश्चात 15 सेंमी ऊपरी परत में सूत्रकृमी जनसंख्या कम हो जाती है परंतु सूत्रकृमी गहराई में मौजूद रहते हैं। मृदा सौरीकरण बहुत महंगा होता है। अत: नर्सरी – बेड के लिए यह नियंत्रण विधि उपयोगी है।
इन नियंत्रण विधियों का उपयोग करके काफी स्तर तक सूत्रकृमी जनसंख्या पर नियंत्रण कर कर सकते हैं, परंतु इनमें से कोई भी नियंत्रण विधि जो सूत्रकृमी प्रबंधन में शतप्रतिशत प्रभावी, सुरक्षित और किफायती हो। फसल चक्र, मृदा सौरीकरण तथा कम मात्रा में सूत्रकृमिनाशक के संयूक्त संयोजन को तैयार करके उपयोग करने से न केवल सूत्रकृमियों को नियंत्रण कर सकते हैं बल्कि मिट्टी से उत्पन्न अन्य रोगजनकों और घासपात को प्रति भी प्रभावी होते हैं।
उपरोक्त नियंत्रण विधियों को किसानों के खेतों में सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया गया है। धान- गेहूं फसल प्रणाली में औसतन लागत लाभ अनुपात, 1:3.8 और धान की लगभग 17 प्रतिशत अधिक पैदावार अंकित की गई है।
यदि हम समय पर उनका, उचित नियंत्रण विधियाँ अपनाकर प्रबंधन कर दें तो उपरोक्त उल्लेखित सूत्रकृमियों द्वारा धान और गेहूं की दोनों फसलों को पहुँचने वाली हानि से बचा जा सकता है जिससे न सिर्फ फसल को सुरक्षित किया जा सकता है, बल्कि उपज भी बढ़ाई जा सकती है। जब उपज बढ़ेगी तब निश्चित ही लाभ का अनुपात भी बढ़ेगा, जिससे कृषक खुशहाल होने के साथ – साथ हमें धान और गेहूं के लिए अन्य देशों पर भी निर्भर नहीं होना पड़ेगा।
लेखन: राशिद परवेज और उमा राव
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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