नींबू वर्गीय फल वाली फसलें बहुवर्षीय एवं वृक्ष नुमा होती हैं। इनका उत्पादन विश्व में कई ऊष्ण एवं शीतोष्ण कटिबंधीय देशों में किया जाता है। भारत में फल उत्पादन की दृष्टि से नीबूं वर्गीय फल तीसरे स्थान पर है। इस वर्ग में लगभग 162 जातियों आती है। इस वर्ग में मैंडरिन नारंगी (किन्नों, नागपुर, खासी दार्जिलिंग) को एक बड़े क्षेत्रफ़ल में उगाया जाता है जबकि तुलनात्मक तौर पर मीठी नारंगी (मूसंबी एवं जाफा आदि) का उत्पादन कम क्षेत्र में होता है। इनमें से किन्नों का स्थान उत्पादन, उत्पदकता, रसीलेपन एवं फल की गुणवत्ता की दृष्टि से सर्वोच्च है। हमारे देश में किन्नों एवं नारंगी की खेती व्यवसायिक तौर पर कई राज्यों जैसे कि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान का उत्तर – पश्चिमी भाग और उत्तर प्रदेश में होती है। उत्तरी भारत में अन्य नरंगी की खेती सीमित क्षेत्र में होती है। इस फसल के लिए कम आर्द्रता, गर्मी और अपेक्षाकृत सुहानी सर्दी अनुकूल होती है। उत्तर – भारत में जहाँ पर तापमान गिर कर 1 – 660 से 4 – 400 सेल्सियस तक पहुँच जाता है। वह किन्नों के फल अच्छे रंग, स्वाद और अत्यधिक रसदार होते हैं। भारतवर्ष में किन्नों का क्षेत्रफल लगभग 56910 हेक्टेयर है जिससे लगभग 1222-66 मैट्रिक टन वार्षिक उत्पादन होता है। किन्नों के लिए बलूई या बलूई दोमट मृदा अच्छे उत्पादन के लिए सर्वोत्तम होती है। नींबू वर्गीय फसल की दो किस्मों राजा (सिट्रस नोबिलिस) व विलो लिफ़ के संकरण से किन्न्न मैंडरिन तैयार किया गया है। उत्तरी – पश्चिमी भारत में किन्नों के प्रवर्धन की सबसे सफल विधि टी बंडिंग है जिसको जट्टी – खट्टी या जैम्भेरी रूट स्टोक से तैयार किया जाता है तथा अन्य भागों में खरना – खट्टा से वानस्पितिक प्रवर्धन किया जाता है।
किन्नों जनवरी – फरवरी माह में परिपक्व हो जाते हैं फलों में बारह से पच्चीस बड़े बादाम की आकृति के बीज पाए जाते हैं। इनके फल के छिलके के विशेष आर्थिक महत्व है तथा फल बड़ी मात्रा में निर्यात किये जाते है। फल की अम्लता, फुलाव, विशिष्ट स्वाद के साथ ही विटामिन सी का पर्याप्त स्रोत होने के कारण किन्नों नारंगी के स्थान पर अधिक लोकप्रिय साबित हुआ है। इसमें विशेष प्रकार की सस्य कृषि जलवायु की परिस्थितियों के अनुकूल सहन करने की क्षमता पाई जाती है। यह कीट व व्याधियों, आंधियों एवं तेज हवाओं के प्रति तुलनात्मक रूप से प्रतिरोधी होता है। किन्नों को पक्षियों के द्वारा भी कम ही क्षति होती है। किन्नों को पक्षियों के द्वारा भी कम ही क्षति होती हैं। किन्नो की खेती के लिए उत्तरी – भारत मुख्य रूप से प्रसिद्ध है क्योंकि बगीचों के मालिक किन्नों में लगने वाले प्रमुख कीट व व्याधियों द्वारा उनकी फल क्षति, क्षति की प्राकृतिक और वातावरणीय अनुकूल प्रबंधन के प्रति जागरूक हो गए हैं।
किन्नों में कई प्रकार के नाशीजीवों व बीमारियाँ व्यापक रूप से क्षति पहुँचाते हैं जोकि पत्तों, फूलों व फलों आदि को क्षतिग्रस्त करके उत्पादन एवं फलों की गुणवत्ता में भारी कमी पहुंचाते हैं। कुछ कीट फलों पर आक्रमण करके उनको बाजार के लिए अनुपयोगी बना देते हैं। इनमें से कुछ हानिकारक कीटों एवं व्याधियों का पंजाब क्षेत्र में किन्नों की फसल पर अत्यधिक क्षति पायी गयी है। जिनमें से सिट्रस पर्ण सुरंगक, सिट्रस सिल्ला, सिट्रस कैम्कर (नासूर), सिट्रस ग्मोसिस, हरितक्रांति रोग और सिट्रस स्कैब आदि हैं।
पर्ण सुरंगक कीट पौधों को नर्सरी अवस्था में मुख्य रूप से नुकसान पहुंचाते हैं तथा यह स्वस्थ नर्सरी उत्पादन में प्रमुख बाधक है। यह मुख्य रूप से नर्सरी रोपण के बाद अत्यधिक क्षति पहुँचाती हैं। यह सामान्यत: बसंत ऋतु (मार्च – अप्रैल) और शरद ऋतु (सितंबर – अक्टूबर) के दौरान आक्रामक होती है। पर्ण सुरंगक का व्यस्क बहुत छोटा, चमकीला – सफेद 2 मिमी लम्बा साथ ही पट्टियाँ और किनारे पर एक गहरा काला धब्बा होता है। जबकि पीछे वाले पंख शुद्ध सफेद एवं पंख फ़ैलाने पर 4 - 5 मिमी होते हैं। वयस्क नई कोमल पत्तियों पर दिखाई देता है। इसकी मादा अंडे समूह में न देकर अकेले पत्तियों के मध्यशिरा के पास देती है। अंडे छोटे पानी की बूंदों की तरह दिखाई देते हैं और अंडे से लार्वा 3 – 5 दिन में निकलते हैं। हल्के पीले रंग की सूंडियां तुरंत पत्ती की एपिडर्मल परतों के बीच खाना शुरू कर देती है। क्षतिग्रस्त पत्ती के किनारे के पास बड़े लार्वा कोषस्थ कीट में बदल जाते हैं। यह अपना जीवन चक्र 2 – 3 सप्ताह में पूरा कर लेते हैं। पर्ण सुरंगक के क्षति पहुँचाने के विशेष लक्षण आमतौर पर पत्ती की सतह पर सफेद टेढ़ी – मेढ़ी सुरंग के रूप में दिखाई देते है। आमतौर पर प्रत्येक पत्ती पर केवल एक ही सुरंग दिखाई देती है। लेकिन भारी क्षति के कारण एक पत्ती पर कई सुरंग हो सकती है। पत्तियों पर इस सुरंग के कारण पत्तियों ऊपर की ओर मुड़कर विकृत हो जाती है जिससे नई पत्तियों में प्रकाश संश्लेषण क्षेत्र भी कमहो जाता है। सुरंग के कारण पत्तियों के ऊपरी सतह पर भी गंभीर क्षति देखी जा सकती है। इस कीट के कारण हुआ घाव कैंकर रोग के विकास के लिए पूर्वधार प्रदान करता है।
यह कीट शरद ऋतु एवं वसंत के दौरान नई कोमल पत्तियों पर सक्रिय रहता है लेकिन यह अधिक क्षति मार्च – अप्रैल में फूल और फल बनने के दौरान करता है। यह कीट छोटा, 3 – 4 मिमी लंबा, भूरे या हल्के कत्थई रंग का तथा पारदर्शी पंख युक्त होता है। सिल्ला अंडो को खुली पत्तियों की कलियों पर देता है जो चमकीले पीले रंग के होते हैं। निम्फ प्रांरभिक अवस्था में हल्का हरा या नारंगी और अंतिम अवस्था में चकतेदार भूरे पीले नारंगी रंग के होता है। निम्फ व प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों कोमल तनों और फूलों से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते हैं। जिससे पत्तियां मुड़कर सूखना, पतझड़ होना और अंतत: टहनियां भी सूखने लगित हैं। निम्फ क्रिस्टलीय शहद जैसे द्रव को श्रावित करते हैं जो की कवक के विकास को आकर्षित करती हैं फलस्वरूप प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है। गंभीर नुकसान के कारण पत्तियां, कलिकाएँ व फूल मुरझा जाते हैं।
सफेद मक्खी, नींबू उगाने वाले सभी क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इसका प्रौढ़ 1 – 5 मिमी लंबा, सफेद या भूरे पंख वाला, हल्के पीले नारंगी रंग का शरीर और लाल संकीर्ण आँखों वाला होता है। निम्फ आकार ने अंडाकार स्केल के समान कालेपन के साथ सीमान्तर रोम खड़े और स्थिर होते हैं। ये बड़ी संख्या में पीले रंग के अंडे (150 – 200) पत्तियों की नीचली सतह पर देती है। जिससे 10 दिन बाद अंडे से निम्फ बन जाते हैं। निम्फ बन जाते हैं निम्फ पत्तियों की अंदर की सतह पर एकत्रित होकर रस चूसते रहते हैं। निम्फ और प्रौढ़ दोनों ही पेड़ से रस चूसते हैं और मधु जैसा पदार्थ श्रावित करते है। जिससे काली कवक पत्तियों पर विकसित हो जाती है। जिसके कारण फल सहित पूरे भाग काले रंग की परत से ढक जाते हैं। जो कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करते हैं।
प्रौढ़ काली मक्खी का उदर भाग गहरे कत्थई रंग का होता हैं। तथा उदर के ऊपरी भाग पर दो समान एवं पारदर्शी पंख होते हैं। प्रौढ़ मादा 1 – 2 मिमी लंबी और नर 0 – 8 मिमी लंबा होता है। इसके निम्फ स्केल कीट के समान चमकदार काले अंडाकार तथा इनके किनारों पर नुकीले हुक पाए जाते हैं। प्रौढ़ मार्च – अप्रैल में निकलते हैं और लैंगिक संयोजन के उपरांत मादा पीले भूरे रंग के अंडाकार 15 से 22 अंडे एक समूह में पत्तियों की निचली सतह पर एक सर्पिलाकार ढंग से देती है। अण्डों से 7 से 14 दिनों में निम्फ बन जाते हैं और निम्फ प्रांरभिक अवस्था में ही पत्ती की कोशिकाओं से रस चूसना प्रारंभ कर देते हैं तथा पत्ती के निचली सतह से ही रहते हैं। काली मक्खियाँ एक वर्ष में अलग – अलग दो जीवन चक्र पूरे कर लेती हैं। प्रथम चक्र में प्रौढ़ मार्च – अप्रैल में तथा द्वितीय चक्र में जूलाई – अक्टूबर में निकलते हैं। प्रौढ़ एवं निम्फ दोनों पत्तियों से रस चूसते हैं जिसके परिणामस्वरुप पत्तियां मुड़ने लगती हैं। इसके साथ – साथ फूलों की कलियाँ एवं विकसित हो रहे फल पकने से पूर्व गिर जाते हैं जिससे पेड़ की आयु कम हो जाती हैं। काली मक्खी के अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों तथा पौधों पर शहद जैसा तरल पदार्थ एकत्रित होता है। जिससे काली मोल्ड (कवक) को पौधे तथा पत्तियों पर विकसित होने के लिए पर्याप्त भोज्य पदार्थ उपलब्ध हो जाता है और कवक विकसित होकर पत्तियों की ऊपरी सतह को काला कर देता है। जिससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया प्रभावित होती है। जिसके परिणामस्वरूप पौधों की वृद्धि रूक जाती है एवं फूलों की सघनता भी कम हो जाती है जिससे फलोत्पदना भी कम होता है।
एफिड एक रस चूसक कीट हैं और इसका शरीर मुलायम होता है जो की नासपाती के आकार का दिखाई पड़ता है। इनकी लंबाई कम से कम 2 मिमी – और रंग में पीले – हरे रंग के होते हैं। इनके पांचवे उदर खंड से उत्पन्न होने वाली एक जोड़ी कोर्निक्लस पाई जाती है। एफिड में अनिशेचक जनन होता है। प्रत्येक एफिड एक से तीन सप्ताह में पांच नए निम्फ उत्पन्न करता है एक जीवन चक्र पूरा करने में सामान्यत: छ: से आठ दिन का समय लगता है। एफिड के तीन प्रजातियाँ (टोक्सोप्टेरा एयूरांटी (बोयर दे फोन्सकोलोम्बे) एफिस गोसिपाई ग्लोवर और माइजस परसिकी (सूल्जर) सामान्य रूप से किन्नों के आकस्मिक नाशीजीव बनते जा रह हैं। - एयूरौंटी और एपीस गोसिपाई मुख्य रूप से सिट्रस ट्रिसटीजा वायरस के प्रमुख वाहक के रूप में पाए गये हैं। निम्फ एवं प्रौढ़ द्वारा मुलायम पत्तियों और प्ररोह का रस चूसने के कारण पत्तियां पीली होकर मुड़ने लगती हैं और कार्यिक विकृति के कारण सूखने लगती है। जिससे नये प्ररोह की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और पौधों की वृद्धि रूक जाती है। एफिड के द्वारा उत्सर्जित शर्करा युक्त द्रव पदार्थ पर सूटी मोल्ड (कवक) हो है। फूल आने के समय एफिड का आक्रमण होने से फल लगने में कमी देखी गयी है।
हाल ही में पंजाब के होशियार और गुरूदासपूर जिलों में जूलाई – अक्टूबर के दौरान किन्नों के परिपक्व फलों पर नियमित नुकसान करने वाला यह नाशीजीव कीट पाया गया है इसके पतंगे रात के समय सक्रिय हो जाते हैं और अपनी लंबी प्रोवोसिस के द्वारा फलों से रस चूसते हैं जिससे फल छिद्र युक्त हो जाते हैं और फलों पर प्राय: रोगजनक कवकों का प्रकोप हो जाता है। इसके कारण फलों में दुर्गंध आने लगती हैं और फल परिपक्व होने से पहले ही गिर जाते हैं। केवल प्रौढ़ पतंगे ही किन्नों फलों को नुकसान पहुँचाते हैं। इन कीटों में विशेष प्रकार की सुविकसित दांतेदार नुकीले प्ररोवोसिस होने से ये पतंगे पके हुए फलों को बेधने के लिए सक्षम होते हैं। यूं – फूलोनिका के प्रौढ़ पीले नारंगी भूरे शरीर वाले होते हैं इ के आगे वाले पंख गहरे भूरे एवं पीछे के पंख नारंगी लाल रंग के साथ इनमें दो काली घुमावदार पट्टियाँ होती हैं। मादा पतंगे प्राय: अंडे अन्य पौधों जैसे टीनोस्पोरा कार्डिफ़ोलियोएरवे सिन्स आदि पर देती है और आठ से दस दिनों में अंडे से लार्वा निकल आती हैं। सून्दियं पर, गहरे भूरे साथ में पीले और लाल रंग के धब्बे पाए जाते हैं और इनका आकर अर्द्ध कुंडलक होता है। पूर्ण विकसित सूंडियाँ 50 – 60 मिमी लंबी होती हैं तथा ये पृष्ठीय और पर्श्वीय भागों पर गहरे नीले रंग के साथ पीले रंग के धब्बे होते हैं। इसा कोकून (प्यूपा) पारदर्शी पीला – सफेद पत्तियों के आवरण में पाया जाता है। सूंडियों की 28 – 35 दिनों की अवस्था होती है और 14 – 18 दिनों में सूंडियों कोकून अवस्था में परिवर्तित हो जाती है।
ये कीट पुराने एवं अप्रबंधित बागानों में मुख्य रूप से दिखाई देते हैं। प्रौढ़ पतंगे मई – जून के दौरान सक्रिय रहते हैं। ये आकार में 35 – 40 मिमी तथा पीले – भूरे या भूरे रंग के होते हैं। इनके प्रकोप के कारण अक्टूबर – अप्रैल के दौरान सूखी लकड़ी का बुरादा या इसके मल पदार्थ तथा जले की बनी लटें लटकती हुई दिखाई पड़ती हैं और कभी – कभी दो शाखाएं आपस में सुरंग के रूप में जुड़ी रहती है। प्रौढ़ मादा पौधों की छाल में अंडे देती है। अंडे 8 – 10 दिन में स्फूटित हो जाते हैं जिनसे से 50 - 60 मिमी लंबी सूंडियाँ निकल आती हैं इनका रंग प्राय: पीला - भूरा होता है। सूंडियाँ पेड़ के छाल को को खाती है और पेड़ के के अंदर छेदकर देती हैं। सूंडियों दिन के समय इन सुरंगों में छिपी रहती हैं और रात के समय सक्रिय हो जाती हैं। कई सारी सूंडियाँ एक ही पेड़ पर अलग – अलग स्थानों पर हमला करती हैं जिससे छाल की गंभीर क्षति हो जाती है और छोटी शाखाएं सूख भी जाती हैं। इस प्रकार तने पर बने छिद्र अन्य कीटों या पादप रोगों के संक्रमण के आश्रय सिद्ध हो सकती है। प्रभावित शाखाएं प्रकोपित स्थान से टूट जाती है। इनके गंभीर संक्रमण से पेड़ों का विकास एवं फल – फूलने की क्षमता निम्न स्तर की हो सकती है।
माइट नींबू के बगीचों में विशेष रूप से मई – जून में पायी जाती है और शुष्क वातावरण में इसका गंभीर प्रकोप देखा गया है। पंजाब में इसका प्रकोप किन्नों, नारंगी, नींबू, अंगूर और खट्टे नींबू में पाया गया है। निम्फ एवं प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों पर धब्बे बना देते हैं जिसके परिणामस्वरुप पत्तियां फटकर क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। भारी नुकसान विशेष रूप से युवा पौध अवस्था में होता हैं जिससे पौधों में पूर्ण रूप से पतझड़ हो जाता है तथा प्रभावित पौधों में फलझड़ होने लगता है और फल पीले पड़ जाते हैं। प्रौढ़ 0 – 33 मिमी लंबे होते हैं एवं इनके शरीर पृष्ठीय पक्ष में मोटे गहरे भूरे रंग के धब्बे पाए जाते हैं और इनका शरीर कटीले रोम युक्त रेशों से ढका रहता है तथा प्रत्येक रेशा एक छिद्र युक्त रचना से निकलते हैं। माइमई जून में सबसे व्यवस्थित रहते हैं। अंडे बहुत छोटे, गोल और नारंगी रंग के होते हैं जो की पत्ती के ऊतकों में, धंसे रहते हैं जिनसे एक सप्ताह में निम्फ बन जाते हैं। नये निकले हुए निम्फ हल्के पीले भूरे रंग के होते है और इनमें केवल तीन जोड़ी टांगे होती हैं। ये तीन – चार दिन तक पत्तियों से रस चूसते रहते हैं। इसके बाद त्वचा में विमोचन करके प्रोटोनिम्फ में बदल जाते हैं। अब इनमें चार – जोड़ी टांगे बन जाती हैं। यह 3 – 4 दिनों तक वृद्धि करके प्रोटोनिम्फ से ड्यूटोनिम्फ में बदल जाते हैं। यह 4 – 5 दिन तक पत्तियों के खाने के बाद त्वचा विमोचन करके प्रौढ़ माइट में परिवर्तित हो जाते हैं। मादा माइट लगभग 10 दिनों तक ही जीवित रहती हैं। गर्मियों में यं अपना जीवन चक्र 17 से 20 देनों में पूरा कर लेती हैं। वयस्क माइट वर्ष भर में कई अतिरिक्त पीढ़ियों के माध्यम से गुजरती हैं।
वयस्क सिट्रस थ्रिप्स का शरीर पीले रंग का होता हा, इसकी मादा 0-6 से 0 – 9 मिमी लंबी होती है। सामान्यत: नर मादा के समान ही दिखाई देता है। लेकिन कभी – कभी छोटा होता है। इनका सर लंबाई की तुलना में चौड़ा होता और एंटीना आठ खंडयुक्त गहरे एवं हल्के कत्थई होते हैं। नर व मादा दोनों के उदर के ऊपरी भाग पर चार झालर अथवा झाड़ू युक्तपंख होते हैं। थ्रिप्स का जीवन चक्र छ: अवस्थाओं से होकर गुजरता है। अंडे एवं सुंडी अवस्था पूर्व एवं पश्च कोकून अवस्था। अंडे 0 – 2 मिमी लंबे और केले के आकार के होते हैं यह अपने अंडे नई व वृद्धि करती हुई पत्तियों, तनों व फल पर देती हैं, मादा 250 की संख्या तक अंडे दे सकती है। इसकी एक पीढ़ी पूरी होने में लगभग एक महीने का समय लगता है जो की वातावरण के तापमान पर निर्भर करता है। सूंडियों की द्वितीय अवस्था में ये अवस्था में ये पौधों से गिर कर जमीन में प्रवेश कर जाती हैं जहाँ ये कोकून अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं। परंतु इसकी कुछ जातियां कोकून अवस्था पौधों पर ही प्राप्त कर लेती हैं इनकी यह अवस्था विभिन्न कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता प्राप्त कर लेती है। लार्वा पंख रहित तथा वयस्क के समान प्रतीत होता है। प्रथम और द्वितीय आस्था पत्तियां एवं ताजे गल को खाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप पत्तियों एवं फलों की ऊपरी सतह क्षतिग्रस्त हो जाती है।पत्ती की सतह हरितलवक रहित चांदी के समानदिखाई देती है तथा फलों पर इनकी क्षति से भूरे रंग रिंग बन जाती हैं। कोकून अवस्था में ये निष्क्रिय या सुप्तावस्था में जमीन के अदंर या पत्तियों पर पड़े हैं। इस अवस्था में पौधों को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचती हैं।
इस बीमारी से ग्रसित पौधोंको इनकी छाल से अधिक मात्रा में गोंद जैसा चिपचिपा पदार्थ निकलने से पहचाना जा सकता है। इससे प्रभावित तने की छाल पर गहरे, कत्थई अथवाकाले रंग की अनुधैर्य दरारे विकसित हो जाती हैं। इस रोग की अधिकता से छाल सड़ने लगती है। इससे लकड़ी के ऊतक पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है और पौधे सुखने लगते हैं। इसको बीमारी का गर्डलिंग प्रभाव भी कहते हैं। अधिक वर्षा, जल निकासी न होना, अत्यधिक और सिंचाई की पुरानी प्रचलित (फ्लड) विधि, अत्यधिक पानी के साथ तना और क्राउन के लंबे समय तक नम रहने, गहरी जुताई, नीची बड़िग और ग्रसित जड़े या तने का स्तंभ सिट्रस का गूमोसीस बीमारी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पौध अवस्था में फाईटोप्थोरा निकोटीआना कवक से संक्रमित पौधे (स्टाक) लगाने से नींबू जातीय बगीचों में यह रोग फैलता है। प्राथमिक अवस्था में रोगजनक मिट्टी या संक्रमित जड़ों में मौजूद हो सकते हैं। तथा रोग के लक्षण तत्काल स्पष्ट दिखाई नहीं देते हैं। रोग कवक किसी रोग वाहक के द्वारा ही गैर पीड़ित पौधे तक गमन करके पौधों या नर्सरी को संक्रमित कर देते हैं। अनियंत्रित विधि से सिंचाई करने के कारण रोगजनक एक ऊतक तक आसानी से फ़ैल जाते हैं तथा भारी वर्ष के कारण भी सतह का पानी रोगजनक पौधों से स्वस्थ पौधों तक आसानी से पहुँच सकता है। जिससे रोग कारक कवक स्वस्थ पौधों को भी अपनी चपेट में ले लेते हैं और रोग फैलता चला जाता है।
यह भारत में स्थानीय रोग है। यह उन सभी क्षेत्रों में पाया जाता है जहाँ नींबू जातीय फसलें उगाई जाती हैं। यह एक जीवाणु जनित रोग है यह नींबू के पर्ण सुरंगक कीट के द्वारा फैलता है। नासूर सूक्ष्म घाव अथवा धब्बे के रूप में शुरू होता है और 2 – 10 मिमी व्यास तक पहुँच जाता है इसका अंतिम आकार तथा संक्रमण मुख्य रूप से फसल की आयु एवं पौधों के ऊतकों पर निर्भर करता है घाव शूरू में गोल लेकिन बाद में अनियमित हो जाते हैं। पत्तियों पर घाव के संक्रमण जल्द ही लगभग सात दिनों में अंदर की तरफ ऊपरी व निचली सतहों पर भी दिखाई देने लगते हैं।इसका प्रभाव प्राय: पत्ती के अग्रभागों या पत्ती को एक सीमित क्षेत्र में हो सकता है। घाव बाद में पिचके हुए और कटोरेनुमा आकार में बदल जाते हैं और साथ में उठा हुआ मध्यशिरा और धंसा हुआ केंद्र बन जाता है। फल व तने पर विस्तारित घाव 1 – 3 मिमी गहरे और पत्तियों की पृष्ठीय सतह पर एक समान दिखाई देते हैं।
नींबू स्कैब का आक्रमण होने पर फल, पत्तियों एवं टहनियों पर हल्का अनियमित उभार युक्त बाह्य वृद्धि होने लगती है। यह स्कैब भूरे/धूसर या गुलाबी रंग के होते हैं और कालान्तर में गहरे रंग के हो जाते हैं। ये पत्तियों की तुलना में फलों पर अधिक होते हैं। स्कैब रोग से ग्रासित उठी हुई गांठ नींबू के कैंकर और स्कैब के रोगों के लक्षणों में भ्रमित करती है। कवक के बीजाणु आसानी से साल भर में नये फल और पत्तियों पर स्कैब घाव उत्पन्न करते रहते हैं। कवक के बीजाणु बगीचों में वर्ष तथा अतिरिक्त सिंचाई द्वारा और कभी –कभी छिड़काव प्रक्रिया के दौरान फ़ैल जाते हैं। अधिक ओस पड़ने से भी कवक के बीजाणुओं का सीमित मात्रा में बिखराव के कारण इनका संक्रमण केवल स्थानीय ही होता है।
इस रोग का संक्रमण एवं प्रकोप की दक्षता प्राय: ऋतु, संक्रमण का प्रकार पौधें की आयु और पोषक तत्वों की उपलब्धता के साथ बदलती रहती है। हरितकारी रोग से संक्रमित पौधों की पत्तियां सामान्यत: छोटी एवं सीधी हो जाती है। यह लक्षण अक्सर हरी शिराओं और आन्तरिक शिराओं वाले क्षेत्रों में क्लोरोफिल की कमी के कारण हल्का पीला छोटा सा घेरा बन जाता है। रोग से ग्रसित विभिन्न प्रकार की पत्तियां चित्तीदार हो जाती हैं इस प्रकार के संक्रमण को बदरंग या चित्तीदार हरितकारी रोग कहते हैं। इस रोग के अत्यधिक प्रकोप से पत्तियां पीले व हल्के सफेद रंग में परिवर्तित हो जाती है जिससे प्रभावित पौधा कमजोर पद जाता है और इसके फल छोटे एवं कई परिपक्व होने से पूर्व ही गिर जाते हैं और कभी – कभी फल टहनियों पर लगे रहते हैं लेकिन इनका रंग परिपक्व फल भिन्न अर्थात समान रूप से पकने जैसा नहीं दिखाई देता अपितु कहीं पीला कहीं हरा प्रतीत होता है। इस कारण इस रोग को हरितकारी रोग कहते हैं। यह रोग प्राय: सिट्रस सिल्ला कीट की माध्यम से फैलाता है।
उल्टा सूखा रोग से ऊपरी भाग से नीचे की तरफ सूखना शुरू हो जाता है। नींबू का उल्टा सूखा रोग का विशिष्ट कारण ज्ञात नहीं है परंतु यह माना जाता जैसे ट्रिस्टेजा वाइरस का संक्रमण, जिंक तत्व की कमी होना एवं रोग जनक कवकों के संक्रमण, जिंक तत्व की कमी होना एवं रोग जनक कवकों के संक्रमण को इस रोग कारण माना जाता है। इसके साथ – साथ पोषक तत्वों से सबंधित विकार, प्रतिकूल वातावरण, दोष पूर्ण व्यवासायिक प्रक्रियाएं, कमजोर चयनित पौध सामग्री आदि कारण भी हो सकते हैं। प्रभवित पेड़ों की जड़ों के गलने से तने में घेरा/खाई, फलों का गिरना, पत्तियों में झुलसा तथा पत्तियों की प्रारंभिक अवस्था में प्ररोह के अंतिम भागों पर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के रूप में धब्बे दिखाई देने लगते हैं। अनुकूल जलवायु परिस्थितियों में यह रोग तेजी से फैलता हुआ प्ररोह के अग्र भाग से प्ररोह के नीचे आधार तक पहुँच जाता है। जिससे प्ररोह के मुरझाने के लक्षण प्रतीत होते हैं और प्ररोह अंत में मर जता है। संक्रमित पेड़ों पर सामान्यत: भारी मात्रा में फूलन – फलन होता है, छोटे आकार के फोल आते हैं और जड़ गलन के कारण भारी मात्रा में फल गिर जाते हैं व रोग की अधिकता में पेड़ों की छाल भी काली हो जाती हैं।
भारत के ऊतर पश्चिमी और उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में नारंगी की कीट – रोगों के समेकित प्रबंधन के लिए नेट्वर्क परियोजना को 2013 – 14 से 2016 – 17 तक चार साल के लिए क्रियान्वित किया गया। परियोजना का प्रमुख उद्देश्य किसान और सहकारी मंडियों के लिए किन्नों और खासी नारंगी के लिए प्रभावी एवं उपयुक्त समेकित नाशीजीव प्रबंधन मॉड्यूल तैयार करना तथा उनका वैधीकरण व प्रसार करना था। किसान की सहभागिता से खेत में प्रदर्शनों के माध्यम से किन्नों की हरित बीमारी की जाँच और इसका प्रबंधन एवं किसानों के खेतों पर ट्राईकोडर्मा प्रजातियाँ और स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस से स्थानीय उत्पादन एवं प्रमुख रोगों जैसे की फाइटोपथोरा के प्रबंधन के लिए परिक्षण किये गये। समेकित नाशीजीव प्रबंधन मॉड्यूल का सहयोगी केंद्र द्वारा प्रदान की गई जानकारी के आधार पर संश्लेषण किया गया जिनका किसानों की सहभागी से वैधीकरण किया गया।
इस परियोजना का क्रियान्वयन अर्ध शुष्क क्षेत्र के अंतर्गत कृषि अनुसंधान केंद्र श्रीगंगानगर (राजस्थान) तथा पंजकोसी, फजिलका (पंजाब) के किया गया।
पंजकोसी गाँव जिला और तहसील मुख्यालय के साथ अच्छे से जुड़ा हुआ है और इस गावं में अधिकांश बुनियादी सुविधायें उपलब्ध हैं और साक्षरता दर बहुत अधिक है। लगभग 90 प्रतिशत क्षेत्र में खेती की जाती है और नहर के पानी को स्तर ऊंचा होने से सिंचाई हो जाती है परंतु कई बार जल भराव की समस्या भी पैदा हो जाती है। पहले खरीफ में कपास और रबी मौसम में गेंहू इस क्षेत्र की प्रमुख फसल होती थी लेकिन अब किसान आदानों के उपयोग, कीटनाशक और लाभप्रदता को देखते हुए अन्य फसलों की तुलना में अधिक लाभ मिलने के कारण किन्नों के बगीचों के विकास कर रहे हैं। इसके अलावा किसान अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता के लिए सब्जियों और सरसों की बी खेती कर रहे हैं। 25 प्रतिशत से अधिक किसान अब किन्नों की खेती में लगे हुए हैं। 150 कृषि परिवार मुख्य से किन्नों की खेती में लगे हुए हैं, इस क्षेत्र में औसत फसल क्षेत्र 150 हेक्टर है जो लगभग नहर सिंचाई क्षेत्र के पास है। फसलों के आर्थिक विश्लेषण के संबंध में यह पाया गया है कि अन्य कृषि अन्य कृषि योग्य फसलों की अपेक्षा किन्नों के बागों से किसानों को उच्च लाभ मिल रहा है। क्योंकि किन्नों से शुद्ध रिटर्न 15000 रूपये/एकड़ से ज्यादा है जबकि गेंहू की खेती से केवल 500 रूपये से 700 रूपये प्रति एकड़ और कपास में आदानों के अधिक मात्रा में उपयोग के कारण कोई रिटर्न नहीं मिल रहा है। औसतन किसान 43000 – 45000 हजार रूपये किन्नों की खेती में खर्च कर रहे थे और 70 क्विंटल/हेक्टेयर की उपज प्राप्त कर रहे थे जो की बाजार में 8 – 10 रूपये प्रति किलोग्राम में बेचा जाता है इस प्रकार 25,000/- एकड़ का लाभ किसान को मिलता है। कीटनाशकों में मुख्य रूप से कवकनाशकों और कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है और इनके छिड़काव की आवृत्ति फरवरी से दिसंबर माह तक की अवधि के दौरान 15 – 20 हो जाता है।
किसानों द्वारा सामना की जाने वाली प्रमुख समस्याएं पानी का बढ़ता स्तर और ख़राब गुणवत्ता है जो किन्नों बागानों को नुकसान पहुंचाइ है, इसके अतिरिक्त रोजगार के साधन में और परिवहन सुविधाओं में कमी भी ग्रामीणों की मुख्य समस्याएं हैं। किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाले बीज, इंडेक्स रोपण सामग्री और अन्य निविष्टियों की उपलब्धता भी नहीं है जिसके कारण कृषि अर्थव्यवस्था प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रही है।
किन्नों के हानिकारक कीटों बीमारियों के प्रबंधन हेतु वर्षभर के क्रियाकलाप
क्रियाकलाप का समय |
नियंत्रणकारी अवयव एवं तकनीक |
लक्षित नाशीजीव |
फरवरी – मार्च |
|
नींबू का सिल्ला, एफिड एवं पूर्ण सुरंगक |
अप्रैल (फल लगने के बाद |
लगभग एक फुट लंबी एवं आधा फुट चौड़ी लोगे की पतली पर्त काट कर उस पर पीले रंग की पालिस (पेंट) करके इस पर सरसों के तेल या ग्रीस का पतला लेप करके बागानों में इन ट्रैप्स को 10/ हे. की दर से लगाते हैं चिपकने वाले कीटों में यदि सफेद मक्खी सप्ताहिक रू से 5 – 10/ ट्रेप या अधिक हो या लगभग 5 प्रतिशत पौधे प्रकोप से प्रभावित हों तो ट्राइजोफास (40 ई. सी.) 25 मिली/10 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। इस माह के दौरान प्राय: इनके अण्डों से नवजात या तो निकल चुके होते हैं या निकलने वाले होते हैं। इस छिड़काव से नींबू का सील्ला एवं पर्ण सुरंगक की वृद्धि को भी रोकता है। ट्राईजोफोस के छिड़काव के 8 – 10 दिन बाद यदि सफेद मक्खी का प्रकोप दिखाई दे तो इथियोन (50 ई. सी.) का 20 मिली/10 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। |
सफेद मक्खी, माइट एवं फल गिरना |
|
फल गिरने की दशा में ओरियोफन्जिन/कार्बेन्डाजिम (0 – 4 ग्रा./10 ली.) + 2, 4 - डी (0 – 1 ग्रा) के मिश्रण को पानी में मिलाकर छिड़काव करें इससे फल गिरना रूक जायेगा। यदि बागन में या बाहर कपास या अन्य चौड़ी पत्ती वाली फसलें हों तो 2, 4 – डी की बजाय जीए – 3 का प्रयोग करना चाहिए। यदि फाइटोपथोरा के प्रकोप दिखाई दे तो फॉसीटायल एल. एल. (80 डब्ल्यूपी.) 25 ग्रा/ 10 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। |
|
मई – जून |
|
|
जुलाई – अगस्त |
इस दौरान नींबू का सिल्ला, पर्ण सुरंगक एव सफेद मक्खी आदि नाशीजीवों का प्रकोप दुबारा हो सकता है। इनके नियंत्रण हेतु थियामेथाक्जेम (25 डब्ल्यू जी.) 3 ग्रा. तथा ट्राइजोफ़ॉस |
नींबू का सिल्ला, सफेद मक्खी, पर्णसुरंगक, फल गिरना |
सितबंर |
|
सफेद मक्खी, छाल भक्षक कीट, सूटी मोल्ड स्कैब, फाटोपथोरा |
अक्टूबर |
|
सिट्रस सायला, फलों का रस चूसने वाला वयस्क एवं कैंकर, स्कैब |
जरूरत के आधार पर आईपीएम हस्तक्षेप (इसका विवरण भारत में आईपीएम की सफलता की कहानियां में इस लिंक पर उपलब्ध है (http://www-ncipm-org-in/NCIPMDFs/folders/success%20stories-pdf) के उपयोग द्वारा नाशीजीवों की व्यापकता में कमी आई तथा आईपीएम के बगीचों में काक्सिनोलिड, मकड़ियों की संख्या में वृद्धि हुई व रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल में कमी आई ।
|
समेकित नाशीजीव प्रबंधन |
किसानों के क्रिया कलाप |
सिट्रस सिल्ला (सं./10 सेमी शाखा) |
1.0 |
2.94 |
पत्ती सुरंगक (सुरंगक/पत्ती) |
0.9 |
1.51 |
सफेद मक्खी (संख्या/पत्ती) |
0.38 |
0.8 |
फाइटोपथोरा तोग (प्रतिशत संक्रमित पौधे) |
8.74 |
15.36 |
चूर्डा (थ्रिप्स) (प्रतिशत फल) |
6.80 |
8.40 |
मकड़ियों की संख्या/पेड़ |
1.78 |
0.41 |
कोक्सीनोलिड बीटल की संख्या/पेड़ |
1.39 |
0.56 |
किये गये छिड़काव की संख्या |
9.32 |
16.7 |
कीटनाशकों की मात्रा सक्रिय तत्व (/हे.) |
8.72 |
1527 |
फसल संरक्षण में लगी लागत (रू./हेक्टेयर) |
24231 |
35272 |
फल उपज (टन/हेक्टेयर) |
31.58 |
29.30 |
लेखन: डी. बी. सक्सेना, नावेद साबिर, जितेन्द्र सिंह, पुरषोतम अरोरा, जितेन्द्र अरोरा, सी. एन. राव, ए. के. दास, एम्.एस. लदानिया,वी. एस. वैरवा, शिखा डेका और उषा रानी आहूजा
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
इस पृष्ठ में अगस्त माह के कृषि कार्य की जानकारी दी...
इस पृष्ठ में 20वीं पशुधन गणना जिसमें देश के सभी रा...
इस पृष्ठ में केंद्रीय सरकार की उस योजना का उल्लेख ...
इस भाग में जनवरी-फरवरी के बागों के कार्य की जानकार...