অসমীয়া   বাংলা   बोड़ो   डोगरी   ગુજરાતી   ಕನ್ನಡ   كأشُر   कोंकणी   संथाली   মনিপুরি   नेपाली   ଓରିୟା   ਪੰਜਾਬੀ   संस्कृत   தமிழ்  తెలుగు   ردو

मृगल

परिचय

  • सिरहिनस मृगाला
  • सामान्य नाम :- मृगल, नैनी, नरेन आदि

भौगोलिक निवास एवं वितरण

सर्व प्रथम वैज्ञानिकों ने इस मछली को सीप्रीनस मृगाला नाम दिया इसके पश्चात् नाम बदलकर सिरहीना मृगाला नाम दिया गया। यह भारतीय मेजर कार्प की तीसरी महत्वपूर्ण मीठे पानी में पाली जाने वाली मछली है, इस मछली को पंजाब में मोरी, उतर प्रदेश व बिहार में नैनी, बंगाल, आसाम में मृगल, उड़ीसा में मिरिकली तथा आन्घ्रप्रदेष में मेरिमीन के नाम से जानतें हैं, मध्य प्रदेष एवं छत्तीसगढ़ एवं शहडोल में इसे नरेन कहते हैं।

मृगल गंगा नदी सिस्टम की नदियों व बंगाल, पंजाब, मध्यप्रदेष, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेष, आन्ध्र प्रदेष आदि की नदियों में पाई जाती है, अब यह भारत के लगभग सभी नदियो व प्रदेषो में जलाशयों एवं तालाबों में पाली जाने के कारण पाई जाती है।

पहचान के लक्षण

तुलनात्मक रूप से अन्य भारतीय कार्प मछलियों की अपेक्षा लंबा शरीर, सिर छोटा, बोथा थुंथान, मूहं गोल, अंतिम छोर पर ओंठ पतले झालरहीन रंग चमकदार चांदी सा तथा कुछ लाली लिए हुए, एक जोड़ा रोस्ट्रल बर्वेल ,(मूँछ) छोटे बच्चों की पछूं पर डायमण्ड (हीरा) आकार का गहरा धब्बा, पेक्ट्रोरल, वेंट्रल एवं एवं एनल पंखों का रंग नारंगी जिसमे काले रंग की झलक, आखों सुनहरी।

भोजन की आदत

यह एक तलवासी मछली है, तालाब की तली पर उपलब्ध जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों के मलवे, शैवाल तथा कीचड़ इसका प्रमुख भोजन है। वैज्ञानिक मुखर्जी तथा घोष ने (1945) में इन मछलियों के भोजन की आदतों का अध्ययन किया और पाया कि यह मिश्रित भोजी है। मृगल तथा इनके बच्चों के भोजन की आदतों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जून से अक्टूबर माह में इन मछलियों के खाने में कमी आती देखी गई है।

अधिकतम साईज

लंबाई 99 से.मी. तथा वजन 12.7 कि.ग्राम, सामान्यतः एक वर्ष में 500-800 ग्राम तक वजन की हो जाती है।

परिपक्वता एवं प्रजनन

मृगल एक वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। इसका प्रजनन काल जुलाई से अगस्त तक रहता है। मादा की अपेक्षा नर अधिक समय तक परिपक्व बना रहता है यह प्रकृतिक नदीय वातावरण में वर्षा ऋतु में प्रजनन करती है। प्रेरित प्रजनन विधि से शीध्र प्रजनन कराया जा सकता है।

अंडा जनन क्षमता

वैज्ञानिक झीगं रन एवं अलीकुन्ही के अनुसार यह मछली प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.25 से 1. 50 लाख अण्डे देती है, जबकि चक्रवर्ती सिंग के अनुसार 2.5 किलो की मछली 4.63 लाख अण्डे देती है, सामान्य गणना के अनुसार प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.00 लाख अण्डे का आंकलन किया गया है। मृगल के अण्डे 1.5 मिली मीटर ब्यास के तथा निषेचित होने पर पानी मे फूलकर 4 मिलीमीटर ब्यास के पारदर्षी तथा भूरे रंग के होते हैं, हेचिंग अवधि 16 से 22 धंटे होती है।

आर्थिक महत्व

मृगल मछली भोजन की आदतों में विदेषी मेजर कार्प कामं न कार्प से कुछ मात्रा में प्रतियोगिता करती है, किन्तु साथ रहने के गुण होने से सधन पालन में अपना स्थान रखती है जिले के लगभग सभी जलाषयों व तालाबों में इसका पालन किया जाता है। एक वर्ष की पालन अवधि में यह 500 से 800 ग्राम वजन प्राप्त कर लेती है अन्य प्रमुख कार्प मछलियों की तरह यह भी बाज़ारों में अच्छे मूल्य पर विक्रय की जाती है। रोहू मछली की तुलना में मृगल की खाद्य रूपान्तर क्षमता तथा मूल्य कम होने के कारन आंध्र प्रदेश में सघन मत्स्य पालन में मृगल का उपयागे न कर केवल कतला प्रजाति 20 से 25 प्रतिषत तथा रोहू 75 से 80 प्रतिषत का उपयोग किया जा रहा है।

स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



© C–DAC.All content appearing on the vikaspedia portal is through collaborative effort of vikaspedia and its partners.We encourage you to use and share the content in a respectful and fair manner. Please leave all source links intact and adhere to applicable copyright and intellectual property guidelines and laws.
English to Hindi Transliterate