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मछलियों में रोग और उपचार

मछलियाँ भी अन्य प्राणियों के समान प्रतिकूल वातावारण में रोगग्रस्त हो जाती है। रोग फैलते ही संचित मछलियों के स्वभाव में प्रत्यक्ष अंतर आ जाता है। फिर भी साधारणतः मछलियां रोग-व्याधि से लड़ने में पूर्णत: सक्षम होती हैं।

रोग ग्रस्त मछलियों के लक्षण

(1) बीमार मछली समूह में न रहकर किनारे पर अलग-थलग दिखाई देती है, वे शिथिल हो जाती है।

(2) बेचैनी, अनियंत्रित तैरती हैं।

(3) अपने शरीर को बंधान के किनारे या पानी में गड़े बाँस के ठूँठ से बार-बार रगड़ना।

(4) पानी में बार-बार कूद कर पानी को छलकाना।

(5) मुँह खोलकर बार-बार वायु अन्दर लेने का प्रयास करना।

(6) पानी में बार-बार गोल-गोल घूमना।

(7) भोजन न करना।

(8) पानी में सीधा टंगे रहना। कभी-कभी उल्टी भी हो जाती है।

(9) मछली के शरीर का रंग फीका पड़ जाता है। चमक कम हो जाती है तथा शरीर पर श्लेष्मिक द्रव के स्त्राव से शरीर चिपचिपा चिकना हो जाता है।

(10) कभी-कभी आँख, शरीर तथा गलफड़े फूल जाते है।

(11) शरीर की त्वचा फट जाती है तथा उससे खून लगता है।

(12) गलफड़े (गिल्स) की लाली कम हो जाना, उनमें सफेद धब्बों का बनना।

(13) शरीर में परजीवी का वास हो जाता है।

उपराेक्त कारणों से मछली की बाढ़ रूक जाती है तथा कालान्तर में तालाब में मछली मरने भी लगती है।

रोग के कारण

(अ) रासायनिक परिवर्तनः- पानी की गुणवत्ता, तापमान, पी.एच. आँक्सीजन, कार्बन डाईआक्साइड आदि की असंतुलित मात्रा मछली के लिए घातक होती है।

(ब) मछली के वर्ज्य पदार्थ जल में एकत्रित होते जाते है व मछली के अंगों जैसे गलफड़े, चर्म, मुखगुव्हा के सम्पर्क में आकर उन्हें नुकसान पहुँचाते हैं।

(स) कार्बनिक खाद, उर्वरक या आहार आवद्गयकता से अधिक दिए जाने से विषैली गैसे उत्पन्न होते है जो नुकसान दायक होती है।

(द) बहुत से रोगजनक जीवाणु व विषाणु पानी में रहते है जब मछली प्रतिकूल परीस्थिति में कमजोर हो जाती है तो उस पर जीवाणु/विषाणु आक्रमण करके रोग ग्रसित कर देते हैं।

प्रमुखतः रोगों को चार भागों में बांट सकते हैं-

(1) परजीवी जनित रोग

(2) जीवाणु जनित रोग

(3) विषाणु जनित रोग

(4) कवक (फंगस) जनित रोग

परजीवी जनित रोग

आतंरिक परजीवी, मछली के आतं रिक अंगों जैसे से शरीर गुहा, रक्त नलिका, वृक्क आदि में राेग फैलाते हैं जबकि बाह्‌य परजीवी मछली के चर्म,गलफडों, पंखों आदि के रोग ग्रस्त करते हैं।

1. ट्राइकोडिनोसिस

लक्षण- यह बीमारी ट्राइकोडीना नामक प्रोटोजोआ परजीवी से होती है जो मछली के गलफड़ों व शरीर के बाह्‌य सतह पर रहता है। संक्रमित मछली में शिथिलता भार में कमी तथा मरणासन्न अवस्था आ जाती है गलफड़ों से अधिक श्लेष्म प्रभावित होने से श्वसन में कठिनाई होती है

उपचार-

निम्नर सायनों के घोल में संक्रमित मछली को 1-2 मिनिट डुबाकर रखा जाता है।

1. 1.5 प्रतिशत सामान्य नमक घोल

2. 25 पी.पी.एम. फार्मेलिन

3. 10 पी.पी.एम. काँपरसल्फेट (नीला थोथा) घोल

2. माइक्रो एवं मिक्सोस्पोरीडिएसिस-

लक्षण- माइक्रोस्पारीडिएसिस रोग अंगुलिका अवस्था में अधिक होता है ये कोशिकाओं मे तन्तुमय कृमिकोष बनाकर रहते है तथा उत्तकों को भारी क्षति पहुंचाते हैं मिक्सोस्पोरीडिएसिस रोग मछली के गलफड़ों व चर्म को संक्रमित करता है।

उपचार-

इनकी रोकथाम के लिए कोई औषधि पूर्ण लाभकारी सिद्ध नहीं हुई है. अतः रोगग्रस्त मछली को बाहर निकाल देते हैं मत्स्य बीज संचयन के पूर्व चूना,व्लीचिंग पावडर से पानी को रोगाणुमुक्त करते हैं।

3. सफेद धब्बेदार रोग

लक्षण- यह रोग इक्थियाेि थरिस प्रोटोजोन द्वारा होता है इसमें मछली की त्वचा, पंख व गलफड़ों पर छोटे सफेद धब्बे हो जाते है. ये उत्तकों में रहकर उतको काो नष्ट कर देते हैं।

उपचार-

0.1 पी.पी.एम. मेलाकाइट ग्रीन + 50 पी.पी.एम. फार्मलिन में 1.2 मिनिट तक मछली को डूबाते हैं पोखार में 15 से 25 पी.पी.एम. फार्मेलिन हर दूसरे दिन रागे समाप्त होने तक डालते हैं।

4. डेक्टाइलो गाइरोसिस व गाइरो डेक्टाइलोसिस-

लक्षण- यह कार्प एवं हिंसक मछलियों के लिए घातक हैं. डेक्टाइलोगायरस मछली के गलफड़ों कों संक्रमित करते है इससे ये बदरंग, शरीर की वृद्धि में कमी व भार में कमी जैसे लक्षण दर्शाते हैं।

गाइरोडेक्टाइलस त्वचा पर संक्रमित भाग की कोशिकाओं में घाव बना देता है जिससे शल्कों का गिरना, अधिक श्लेषक एवं त्वचा बदरंग हो सकती है।

उपचार-

1 पी.पी.एम. पोटेशियम परमेगनेट के घोल में 30 मिनिट तक रखते हैं।

1. 1:2000 का ऐसिटिक एसिड केघोल एवं 2 प्रतिद्गात नमकघोल मे बारी-बारी से 2 मिनिट के लिए डूबावें।

2. तालाब में मेलाथियाँन 0.25 पी.पी.एम. सात दिन के अंतर में तीन बार छिड़कें।

5. आरगुलौसिस

लक्षण-यह रोग आरगुलस परजीवी के कारण होता है। यह मछली की त्वचा पर गहरे घाव कर देते हैं जिससे त्वचा पर फफूंद व जीवाणु आक्रमण कर देते हैं व मछलियां मरने लगती है।

उपचार-

1. 500 पी.पी.एम.पोटेशियम परमेगनेट केघोल में 1 मिनिट के लिए डूबाए.

0.25 पी.पी.एम. मेलेथियाँरन को 1-2 सप्ताह के अंतरराल में 3 बार उपयोग करें

जीवाणु जनित रोग

6. काँलमनेरिस रोग

लक्षण- यह फ्लेक्सीबेक्टर काँलमनेरिस नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है, पहले शरीर के बाहरी सतह पर व गलफड़ों मे घाव होने शुरू हो जाते हैं फिर जीवाणु त्वचीय उत्तक में पहुंच कर घाव कर देते है।

उपचार

1. संक्रमित भाग में पोटेशियम परमेगनेट का लेप लगाए।

2. 1-2 पी.पी.एम. काँपर सल्फेट काघोल पोखरों में डालें।

7. बेक्टीरियल हिमारैजिक सेप्टीसिमिया

लक्षण- यह मछलियों में ऐरोमोनाँस हाइड्राेफिला व स्युडोमोनास फ्लुरिसेन्स नामक जीवाणु से हाेते है इसमें शरीर पर फोड़े, तथा फैलाव आता है, शरीर पर फूले हुए घाव हो जाते है जो त्वचा व मांसपेशियो में हुए क्षय को दर्शाता है, पंखों के आधार पर घाव दिखाई देते हैं।

उपचार

1. पोखरों में 2-3 पी.पी.एम. पोटेशियम परमेगनेट का घोल डालना चाहिए।

2. टेरामाइसिन को भोजन के साथ 65-80 मि.ग्राम प्रति किलोग्राम भार से10 दिन तक लगातार दें।

8. ड्राँप्सी

लक्षण- यह उन पोखरों में होता है जहां पर्याप्त भोजन की कमी होती है. इसमें मछली का धड़ उसके सिर के अनुपात में काफी पतला हो जाता है और दुर्बल हो जाती है। मछली जब हाइड्रोफिला नामक जीवाणुं के सम्पर्क में आती है तो यह रोग होता है. प्रमुख लक्षण शल्कों का बहुत अधिक मात्रा में गिरना तथा पेट में पानी भर जाता है।

उपचार

1. मछलियों को पर्याप्त भोजन देना व पानी की गुणवत्ता बनाए रखना।

2. पोखर में 15 दिन के अंतरराल में 100 कि.ग्राम प्रति हेक्टर की दर से चूना डालें।

9. एडवर्डसिलोसिस-

लक्षण- इसे सड़कर गल जाने वाला रोग भी कहते हैं, यह एडवर्डसिला टारडा नामक जीवाणु से होता है।प्राथमिक रूप से मछली दुर्बल हो जाती है,शल्क गिरने लगते है फिर पेशियो मे गैस से फोड़े बन जाते हैं चरम अवस्था में मछली से दुर्गन्ध आने लगती है।

उपचार-

1. सर्वप्रथम पानी की गुणवत्ता की जांच कराना चाहिए।

2. 0.04 पी.पी.एम. के आयोडीन के घोल में दो घंटे के लिए मछली को रखना चाहिए।

10. वाइब्रियोसिस

लक्षण- यह रोग विब्रिया प्रजाति के जीवाणुओं से होता है, इसमें मछली को भोजन के प्रति अरूचि होने के साथ-साथ रंग काला पड़ जाता है, मछली अचानक मरने भी लगती है। यह मछली की आखों को अधिक प्रभावित करता है व सूजन के कारण आंख बाहर निकल आती है व सफेद धब्बे पड़ जाते हैं।

उपचार

आंक्सीटेट्रासाईक्लिन तथा सल्फोनामाइड को 8-12 ग्राम प्रति किलोग्राम भोजन के साथ मिलाकर देना चाहिए।

11. फिनराँट एवं टेलराँट

लक्षण- यह रोग ऐरोमोनाँस फ्लुओरेसेन्स, स्युडोमोनाँस फ्लुओरेसेन्स तथा स्युडोमोनाँस पुटीफेसीन्स नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है, इसमें मछली के पक्ष एव पूंछ सड़कर गिरने लगती हैं। बाद में मछलियां मर जाती है।

उपचार-

1. पानी की स्वच्छता आवश्यक है।

2. एमेक्विल औषधि 10 मि.ली. प्रति सौ लीटर पानी में मिलाकर संक्रमित मछली को 24 घंटे तक घोल में रखना चाहिए।

कवक/फफूंद जनित रोग

आंद्रता के बढ़ने पर विशेषकर वर्षा ऋतु के प्रारंभ होते ही वातावरण में फफूंद के जीवाणु फैलने लगते हैं मछली के अंडे, स्पान तथा नवजात शिशु तथा घायल बड़ी मछलियां फफूंद से जल्दी संक्रमित हो ते हैं। वास्तव में फफूंद द्वितीय रोग जनक है जो अनुकूल मौसम में शरीर के घायल अंगों पर आश्रय पाकर फलते-फूलते हैं।

12.सेप्रोलिग्नीयोसिस

सेप्रोलिग्नीयोसिस पैरालिसिका नामक फफूंद से होता है जाल चलाने तथा परिवहन के दौरान मत्स्य बीज के घायल हो जाने से फफूंद घायल शरीर पर चिपक कर फैलने लगता है तथा त्वचा पर सफेद जालीदार सतह बनाता है। यह सबसे घातक रोग है।

लक्षण-

1. जबड़े फूल जाते हैं अंधापन आने लगता है।

2. पैक्टोरलफिन एवं काँडलफिन के जोड़ पर खून जमा हो जाता है।

3. रोगग्रस्त भाग पर रूई के समान गुच्छे उभर आते है।

4. मछली कमजोर तथा सुस्त हो जाती है।

उपचार-

3 प्रतिशत नमक का घोल या 1:1000 भाग पोटाश के घोल या 1:2000 कैल्शियम सल्फेट के घोल में ५ मिनट तक डुबोने तथा इस रोग के समाप्त होने तक दोहराने से लाभ होता है।

13. ब्रेकियोमाइसिस-

इसका आक्रमण गलफड़ो पर होता है, जिससे गलफड़े रंगहीन हो जाते हैं जो कुछ समय उपरांत सड़-गल कर गिर जाते हैं।

उपचार-

1. 250 पी.पी.एम. का फार्मिलिन घोल बनाकर मछली को स्नान दें।

2. 3 प्रतिशत सामान्य नमक के घोल मछली को विशेषकर गलफड़ों को धोना चाहिए।

3. जल का 1-2 पी.पी.एम. काँपर सल्फेट (नीला थोथा) से उपचार करना चाहिए।

4. पोखर में 15-25 पी.पी.एम. की दर से फार्मिलिन डालें।

विषाणु(वायरस) जनित रोग

 

14.एपीजुएटिक अलसरेटिव सिण्ड्रोम (ई.यू.एस.)

गत 22 वर्षो से यह रागे महामारी के रूपमें भारत में फैल रहा है। सर्वप्रथम यह रागे 1983 से त्रिपुरा राज्य में प्रविष्ट हुआ तथा वहां से सम्पूर्ण भारत वर्ष में फैल गया। वर्षा काल के बाद ठीक ऋतु के प्रारंभ में सर्वप्रथम तल में रहने वाली सँवल, मांगूर ,सिंधी बाँम, सिंधाड़, कटरंग तथा स्थानीय छोटी छिलके वाली मछलियां इस राेग से प्रभावित होती हैं। कुछ ही समय में पालने वाली कार्प मछलियां जैसे- कतला, रोहू तथा मिरगल मछलियां भी इस रोग की चपेट में आ जाती हैं। इस महामारी के प्रारंभ में मछली की त्वचा पर जगह जगह खून के धब्बे उभरते हैं जो बाद मे चोट के गहरे घावों में तबदील हो जाते है तथा उनसे खून निकलने लगता है। चरम अवस्था में हरे लाल धब्बे बढ़ते हुए पूरे शरीर पर यहां वहां कर गहरे अलसर में परिणीत हो जाता है। विशेष रूप से सिर तथा पूंछ के पास वाले भाग पर। पंख तथा पूंछ गल जाती है तथा अततः शीघ्र व्यापक पैमाने पर मछलियां मर कर किनारे दिखाई देने लगती है।

कारण-

यह रोग पोखर ,जलाशय तथा नदी में रहने वाली मछलियों में फैल सकता है, परन्तु इस रोग का प्रकापे खेती की जमीन के समीपवर्ती तालाबों ज्यादा देखा गया है, जहां वर्षा के पानीमें खाद,कीटनाशक इत्यादि घुलकर तालाब में प्रवेश करते है। साधरणतः कीटनाद्गाक के प्रभाव से मछली की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। पानी में प्रदूषण अधिक होने पर अमोनिया का प्रभाव बढ़ जाता है तथा पानीमें आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। यह परिस्थिति इस रोग के बैक्टिरिया के लिए अनुकूल होती है, जिससे ये तेजी से बढ़ते है तथा प्रारंभ में त्वचा पर धब्बें के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं जो कालांतर में गहरे अलसर का रूप धारण कर लेते हैं।

इस रागे के फैलने में अनेक कारक अपना यागे दान देते है, जिसमें वायरस,बैक्टिरिया तथा फँगस (फफूंद) प्रमुख है।

बचाव के उपाय-

1. पूर्व में रोगग्रस्त प्रजनकों जो बाद में भले ही स्वस्थ्य हो जाते हैं ऐसे प्रजनकों से मत्स्य बीज उत्पादित नहीं करना चाहिए।

2. तालाब के किनारे यदि कृषि भूमि है तो तालाब के चारों ओर बाँध बना देना चाहिये, ताकि कृषि भूमि का जल सीधे तालाब में प्रवेश न करें ।

3. वर्षा के बाद जल का पी.एच. देखकर या कम से कम 200 किलो चूने का उपयोग करना चाहिए।

4. शीत ऋतु के प्रारभिक काल में आँक्सीजन कम होने पर पम्प, ब्लोवर से पानीमें आँक्सीजन को प्रवाहित करना चाहिए।

प्रति एकड़ 5 किलो मोटे दाने वाला नमक डालने से कतला व अन्य मछलियों को वर्षा पश्चात्‌ मछली में अन्य होने वाले रोग से सुरक्षा की जा सकती है।

उपचार-

1. अधिक रोगग्रस्त मछली को तालाब से अलग कर देना चाहिए तथा तालाब में कली का चूना (क्विक लाइम) जो कि ठोस टुकड़ों में हो 600 किलो प्रति हेक्टेयर/मीटर की दर से जल में तीन सप्ताहिक किश्तो में डालने से तीन सप्ताह में नियंत्रित हो जाती है।

2. चूने के उपयोग के साथ-साथ व्लीचिंग पाउडर 1 पी.पी.एम. अर्थात्‌ 10 किलो प्रति हेक्टर/मीटर की दर से तालाब में डाला जाना कारगर सिद्ध होता है। कम मात्रा में या छोटे पोखर में मछली ग्रसित होता पोटेशियम परमेगनेट 0.5 से 2.0 पी.पी.एम. केघोल में 2 मिनट तक स्नान लगातार 3-4 दिन तक कराने से लाभ होता है।

3. सिफेक्स- केन्द्रीय स्वच्छ जल संवर्धन संस्थान (सीफा) भुवनेश्वर के वैज्ञानिकों ने अल्सरेटिव सिन्ड्रोम के उन्मूलन हेतु दवा बनाई है जो एक्वावेट लेबारेटरीज राँची द्वारा बेची जाती है। प्रति हेक्टर/ मीटर १ लीटर की दर से पानी का उपचार आवश्यकतानुसार किया जा सकता है। प्रति लीटर इसका मूल्य रू. 950/- के लगभग है।

पी. पी. एम. की गणना कैसे करेंगे

पी. पी. एम. अर्थात्‌ पार्टस पर मिलियन अर्थात्‌ भाग प्रति दस लाख

1 पी. पी. एम. अर्थात्‌ एक घनफुट पानी में 0.283 ग्राम दवाई

कुल मात्रा ग्राम में = जलक्षेत्र की लम्बाई (मीटर में) X जलक्षेत्र की चौड़ाई (मीटर में) X

जलक्षेत्र की गहराई (मीटर में) X डोज पी. पी. एम

नोटः- एक हेक्टेयर मीटर जलक्षेत्र अर्थात्‌ एक मीटर गहरे एक हेक्टेयर जलक्षेत्र में 1 पी. पी एम. हेतु 10 किलो ग्राम दवा लगेगी।

या

1 पी.पी. एम. अर्थात्‌ एक लीटर पानीमें 0.0001 ग्राम दवाई

या

1 पी.पी. एम. अर्थात्‌ एक गैलन पानी में 0.0083 ग्राम दवाई

स्त्रोत: मध्यप्रदेश शासन, मछुआ कल्याण एव मत्स्य विकास।

अंतिम बार संशोधित : 12/20/2019



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