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डॉ. यदुगोपाल मुखर्जी - इतिहास के पन्नों में खोया हुआ एक अमूल्य स्वतंत्रता सेनानी

परिचय

भारत के ब्रिटिश शासन के उत्थान और पतन के युग को सहज ही दो भागों में बांटा जा सकता है – 1857 के पूर्व और 1858 तक। सन 1857 के पहले का समय ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रसार तथा उनकी प्रभुसत्ता के अधीन छोटे – बड़े भारतीय शासकों की सत्ता की आपसी लड़ाईयों का समय है। ब्रिटिश सेना में कार्यरत भारतीय सिपाही भी भारतीय शासकों की अपेक्षा ब्रिटिश अफसरों के प्रति ज्यादा वफादार थे, जिससे अंग्रेजों को भारतीय  भूमि पर पाँव ज़माने में काफी मदद मिली।

सन 1857 में पहली बार कुछ भारतीय देश भक्तों ने ब्रिटिश सतत को गिराने और उसके दमनकारी शासन से मुक्ति पाने के लिए संगठित होने का निर्णय लिया था, भारतीयों के लिए यह आजादी की लड़ाई थी जबकि अंग्रेजों ने इसे बगावत या गदर का नाम दिया था। नाम कुछ भी हो, विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने का यह पहला व्यवस्थित. सचेत और शक्तिशाली प्रयास था। हालाँकि भारत तब तक प्रभुत्व सम्पन्न देश कहलाता था, किन्तु वास्तविकता यह थी कि बहादूर शाह जफर, सम्राट कहलाने के बावजूद, अंग्रेजों से पेंशन पाते थे और दिल्ली के लाल किले के चहारदीवारी में कैद थे।

सन 1857 से 1947 के बीच के वर्षों में अनेक नेता सामने आये और कई राजनीतिक दलों का उत्कर्ष हुआ, कुछ ने संवैधानिक सुधारों के रास्ते स्वराज्य तक पहुँचने के लिए आन्दोलन किया तो कुछ ने डोमिनियन स्टेट (स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा दिए जाने) की मांग की, लेकिन ऐसे भी थे जो प्रतीक्षा के लिए तैयार न थे, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने के साथ - साथ हथियार भी उठा लिया, उनमें से कुछ को अंग्रेजों के द्वारा मार दिया गया तो कुछ को बिना मुकदमा चलाये ही निर्वासित कर दिया गया। भारतवासियों की आवाज दबाने के लिए अंग्रेजों द्वारा राजद्रोह के कानून को पूरी शक्ति से लागू की किया गया।

यद्यपि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का दमन शस्त्र शक्ति से कर दिया गया, किन्तु क्षणिक था। स्वतंत्रता संग्राम एक बार शुरू होकर कभी खत्म नहीं होता, यह एक ऐतिहासिक सत्य है। आतंक और दमन मुक्ति दिवस को निकट तथा सुनिश्चित कर देते हैं। भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन प्रकट रूप  से 1897 में प्रकाश में आया, युवकों को अग्रसर होने के लिए सर्वप्रथम शंख ध्वनि महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपनी उद्घोषणा स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है के साथ की।

भारतीय क्रांतिकारियों की जीवन गाथा जहाँ रोमांचकारी है, वहां वह बहुधा अज्ञात के गर्त में पड़ी मिलती है। इसी कारण किसी भी भारतीय क्रन्तिकारी देश भक्त की लिपिबद्ध सम्पूर्ण जीवन कथा प्राय: अपर्याप्त है। इसी कारण के एक क्रन्तिकारी डॉ. मुखर्जी थे।

डॉ. यदुगोपाल मुखर्जी की जीवनी

डॉ. यदुगोपाल मुखर्जी का जन्म 18 सितम्बर 1886 ई. को मेदिनीपुर, जिला तूमलुक (प. बंगाल) नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री किशोरी लाल मुखर्जी और माता का नाम श्रीमती भुवन मोहिनी देवी था। इनके पिताजी एक प्रख्यात वकील थे। बाल्य काल से इनकी प्रकृति सामान्य बालकों से भिन्न थी, कहावत भी है होनहार विरवान के होत चिकने पात या पूत के पाँव पालने में ही दीखते हैं। जब ये मात्र आठ वर्ष के बालक थे तब इन्होंनें गुलाब की टहनी से ही एक बिषैले नाग को मार दिया था।

इनके बाल्यकाल के जीवन की ओर यदि हम दृष्टिपात करते है तो पाते हैं की इनमें अधिक सहनशीलता, दृढ़ता, संगठन क्षमता, अद्भूत मेधा, प्रतिनिधित्व का विकास अपनी माता की प्रेरणा एवं योगदान के कारण ही हुआ। इस महामानव ने देश भक्ति का पहला सबक अपनी माता जी से ही सीखा, माँ से ही इन्होंने विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, बंकिमचन्द्र आदि के बारे में सुना था। नेपोलियन को इन्होंने अपना महान आदर्श माना। जबकि इन्होंने विषैले नाग को गुलाब की टहनी से मारा तब से इनकी माता इनकी वीरता – धीरता रुपी क्षमता को पहचानकर इनके अंदर गीता के श्लोकों के गूढ़ अर्थों को शिशु मस्तिष्क में ठूस – ठूस कर भरती रही और इन्हें यह प्रेरणा देती रही कि तूम कल्पना करो की अपने इन नंगे अर्थात बिना शस्त्र वालो हाथों से सैकड़ों नागों का उसी तरह वध कर रहे हो, जिस तरह की महाभारत काल में पांच पांडवों ने मिलकर सौ कौरवों का विनाश किया, तुम्हें भी अन्याय का प्रतिकार करना है, अन्यायी को समुचित दंड देना है, इन उपदेशों के कारण ही जब यह 18 – 19  वर्ष के थे, छात्रवास के बीच ही प्रसिद्ध क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति से जुड़ गये थे और युगांतर के घनिष्ठ सम्पर्क में आये।

बंगाल साहित्य के महान अमर कथा शिल्पी स्व. शरत चन्द्र चटर्जी ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास पथेर दाबी में मुख्य पात्र सव्यसाची के रूप में डा. मुखर्जी के चरित्र तथा कृतित्व की महत्वपूर्ण अभिब्यंजना है। उपन्यास में डा. सव्यसाची भी मुखर्जी की तरह ही कहीं मौलवी बने, कहीं पंजाबी, कहीं मद्रासी, कहीं उड़िया बोलते और कैसी – कैसी पोषक पहन कर अंग्रेज अफसर को धोखा देकर चले जाते, यह देवो: न जानाति, कुत: संशय:।

आन्दोलन में सक्रियता

विप्लव का बीज किस स्थल पर और जब जड़ पकड़ कर प्रस्फूटित होगा यह एक गहन अध्ययन का विषय है, संपन्न और सूखी परिवार में जन्म लेकर और जीवन के अनान्दोपभोग सरलता से प्राप्त करते हुए भी कोई व्यक्ति क्यों और कैसे विप्लव का पथिक बनता है, यह एक पहेली है, परंतु ऐसा होता आया है, और यही वास्तविकता है। यह ऐसे ही एक दीवाने, मतवाले और संघर्षों से खिलवाड़ करने वाले वीर देश भक्त की जीवन कहानी है।

महान क्रांतिकारी अरविन्द घोष के छोटे भाई बारीन्द्र कुमार घोष भारत के गुप्त क्रांतिकारी संस्था के सर्वप्रथम संस्थापक और संचालक थे। इन्होंने ही विश्वप्रसिद्ध अनुशीलन समिति को जन्म दिया इस समिति के दो मुख्य कार्यालय थे- एक कलकत्ता और दूसरा ढाका में। बंगाल के गांव में इसके शाखा स्थापित थी।

मई 1905 ई. में छात्रवास से ही ये कलकत्ता अनुशीलन के सदस्य हुए। 1913 – 14 ई. में जब वह क्रांतिकारी दल के गठन में व्यस्त थे तभी वे अपने चतुरंग क्रांति के कार्यक्रमों के बारे में अपने बन्धुओं को समझाते थे। छात्र, किसान, मजदूरों तथा सैनिकों के चतुरंग दल को लेकर क्रांति करना ही उनकी साधना थी। युगांतर के सर्वेसर्वा यतीन्द्र नाथ मुखर्जी इनके आदर्श थे। कलकत्ता के बेनियाटोला स्थित यदु दा के मकान में एकाएक यतीन्द्र नाथ उस दिन आये जिस दिन इनके मेडिकल के पैथोलॉजी विषय की अंतिम परीक्षा थी, उस परीक्षा को छोड़ कर वह जो घर से निकले तो उनकी घर वापसी छ वर्षों के पश्चात् हुई। उड़ीसा के बालेश्वर संग्राम (खंड युद्ध) वाघा यतीन (यतीन्द्रनाथ मुखर्जी) के शहीद होने के पश्चात् युगांतर दल के सर्वे सर्वा थे। वे युगांतर के मस्तिष्क थी। चिकित्सा महाविद्यालय के अंतिम वर्ष के छात्र यदुगोपाल भूमिगत जीवन बिताने के लिए मजबूर हुए। सर्वशक्तिमान  अंग्रेज सरकार इनसे भयभीत थी कि इनकी गिरफ्तारी के लिए हर रेलवे स्टेशन में लिखा रहता था। - जीवित या मृत अवस्था में पकड़ने वाले के लिए, इनके संबंध में सूचना देने के लिए 20,000/- रूपये का नकद पुरस्कार ओ आज के करोड़ों रूपयों के समतुल्य है। किन्तु यदुगोपाल जो सितंबर 1921 ई. से पूरे छ: वर्षों तक पुलिस की आँखों ने धुल झोंकते रहे और भूमिगत जीवन व्यतीत करने में सफल रहे। इनके छ: वर्षों का जीवन बहुत ही रोमांचकारी रहा, हम देखते हैं छ: साल में ये मजदूर राजमिस्त्री, डॉक्टर, मौलवी आदि के वेश में बंगाल,आसाम, बिहार अता चीन सीमांत में सभी जगहों में भ्रमण करते हुए स्वतंत्रता में सक्रिय रहे।

सामाजिक योगदान

केवल मेडिकल के छात्र होते हुए भी इन्हें चिकित्सा सबंधी अगाध ज्ञान था। इन्होंने अपनी चिकित्सा क्षमता से अनेक व्यक्तियों को मृत्यु के पंजे से मुक्त करवाया: जैसे भूमिगत जीवन में डॉ. ईसानचन्द्र चौधरी बनकर अनेकानेक लोगों को रोगमुक्त किया और मिर्जापुर (उत्तरप्रदेश) में डॉ. पतितपावन राय के नाम से भी रोगियों की सेवा की। पुरूलिया के बलरामपुर में डॉ. समसूद्दीन बनकर लोगों की सेवा करते रहे। यहीं उन्होंने यमुना साव के बेटे को ठीक किया।

मुसलमान बनने के कारण यदु दा की रमजान के महीने में रोजा रखना पड़ा, नमाज पढ़ना पड़ा, और हिदिश (मुसलमान धर्म ग्रन्थ के अनुसार) के अनुसार विवाहित व्यक्ति को हर छः माह पर अपने परिवार में जाना पड़ता है, इसलिए इन्हें भी परिवार से मिलने का नाटक करने के लिए एक – आध सप्ताह अपना समय रेल में ही व्यतीत करना पड़ता था।

कैसी विषम परिस्थिति उस युग में इन महान क्रांतिकारी के साथ रही होगी। कुलीन ब्राहमण के घर में जन्म लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् यह महामानव अपनी तत्कालीन संस्कृति के प्रतिकूल मुसलमान बनकर अंग्रेजी शासन की आँखों में धुल झोंकते रहे। इन्होंने केवल चिकित्सक का कार्य ही नहीं किया अपितु मेदिनीपुर के दायजुड़ी गांव में 30/32 मील तक पैदल चलकर अपने कंधे पर धागे का बंडल लेकर फेरीवाले के सदृश्य उसे बेचा। लेकिन कभी ये गिरफ्तार नहीं हुए। इस समय इनका जीवन अत्यंत कठिनाई से व्यतीत हुआ, विपन्नता की पराकाष्ठा थी, अनेकों बार चूड़ा फांककर या केवल पानी पीकर इन्हें रात को सो जाना पड़ता था।

प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् समस्त राजनैतिक बंदी रिहा होंगे, यहाँ तक ही नहीं, कालापानी की सजा पानेवाले बंदी भी रिहा होंगे – बारिन बाबू ने ऐसी विज्ञप्ति समाचार पात्र के माध्यम से निकाली, जिसके कारण डॉ. मुखर्जी को भी यह विश्वास हो गया कि अंग्रेजी सरकार इन्हें भी छोड़ देगी। इसी विश्वास के साथ मोती बाबू के साथ आई. वी. के प्रधान से इलिसियन रो नामक स्थान में मिलाने की व्यवस्था हुई। मिलने के एक सप्ताह के पश्चात् के इन्हें ब्रिटिश राज्य में स्वाधीन नागरिक के रूप में रहने की किसी प्रकार की बाधा नहीं होने का पात्र मिला।

तब इन्होंने अपने अधूरी डॉक्टरी की पढ़ाई को पूरा करने हेतु प्रयास किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर. आशुतोष मुखर्जी थे, वे इन्हें परीक्षा देने हेतु अनुमति देना चाहते थे किंतु डॉक्टर विधान चन्द्र राय इसके विरूद्ध थे और डॉक्टर राय का कथन था की जो व्यक्ति छः वर्षों तक जगंलों में भटका है वह किस ढंग से डॉक्टरी की परीक्षा दे सकता है इसके विपरीत इनके पक्ष में सर आशुतोष मुखर्जी का यह तर्क था कि यदि छ: साल जंगल में घुम कर भी परीक्षा में कोई सफलता प्राप्त करता है तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है और यदि वह असफलता को प्राप्त करता है तो उसकी ही हानि होगी। इस तर्क के आधार पर इन्हें डॉक्टरी परीक्षा में बैठने की अनुमति मिली और अत्यधिक अच्छे अंक से इन्होंने परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की, साथ ही साथ मेडिसिन में इन्हें सर्वोच्च स्थान मिला।

1921 – 22 में ये अखिल भारतीय संगठन कांग्रेस के सदस्य बने। यहाँ उन्होंने सभी कार्यों में सलाह तथा निर्देश से अपनी कार्यकुशलता का परिचय दिया। यदु गोपाल बाबू पहली बार सितंबर 1923 ई. में जेल गये। 1927 ई. में ये मुक्त किये गये किन्तु बंगाल से इन्हें निष्कासित किया गया। जब इन्हें अपने राज्य से निष्कासित किया गया तभी से ये रांची शहर में स्थायी रूप से रहने लगे तथा चिकित्सक कार्य में अपने को लगा दिया। केवल रांची ही नहीं वरन पूरे बिहार में इन्हें सर्वोच्च चिकित्सक माना गया।

अपने से बड़ों  को भी अपनी ओर मिलाने कि इनकी अद्भुद क्षमता थी। लगता है शैशवा काल में ही माता द्वारा प्रदत्त शिक्षा ही इनकी इस अद्भूत क्षमता का आधार है। इटली के महान विचारक मत्सनी का यह कथन इनके जीवन के उस सत्य को उद्घोषित करता है कि बच्चा नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुम्बन और पिता के प्यार से सीखता है। स्वायत्तता का जो बीज इनकी माँ ने शैशव काल में इनके अंदर बोया था, यह जैसे – जैसे इनकी अवस्था व्यतीत होती गई वेसे वैसे इनके हृदय में विशाल वट वृक्ष के रूप मै यह घर करती गयी।

राजनैतिक योगदान

जीवन के अंतिम प्राय: 50 वर्षो तक प्राय: ये रांची में ही रहे। रांची निवासकाल में दुर्दशा पीड़ित और गरीब आदिवासियों के पूरूत्थान के लिए इन्होंने अनेक कार्यकलाप किए। 1938 में रांची शहर में एक छोटा सा पहाड़ी शहर था, लोक संख्या 40 हजार तक थी, उस समय स्थानीय लोगों को दूर ही रखा जाता था, उन्हें कभी अपना नहीं माना गया। दोनों विपरीत सभ्यता में स्नघ्र्श्रत थे। एक प्रकार की उदासीनता सभी को घेरी हुई थी। इसी वातावरण में डॉ. मुखर्जी का गरीब आदिवासियों तथा अन्य लोगों को उनकी काफी जरूरत थी इसलिए वे बंगाल लौटे नहीं और यहीं जनसेवा में लीन हो गये। राजनीति में गंदगी और स्वार्थपरता का आगमन देखकर ये राजनीति से धीरे - धीरे दूर होते चले गये।

किसी को भी अपनी बुद्धिमता तर्क से सहमत करने की क्षमता इनकी विशेषता रही है। इसका परिचय सर्वप्रथम 1926 में जब ये अलीपुर सेंट्रल जेल में बंदी थे, तब इनके साथ बंदी थे चटगाँव शस्त्रागार कांड के नायक मास्टर सूर्यसेन डा, जिन्होंने जेल अधिकारी के दुर्व्यवहार के कारण अनशन प्रारंभ कर दिया था। उनके पांच दिनों तक चले अनशन को इन्होंने ही तोड़वाया और यह कहते हुए तोड़वाया  -You have a fullfill a great role इस प्रकार आप मर नहीं सकते।

इनका कथन था कि बलिदान बढ़ी चीज नहीं है परन्तु किस प्रकार कब और कैसे आत्मबलिदान करना है, इसे धीरता के साथ बिना उत्तेजित हुए सोचो। देश में करोड़ों व्यक्ति हैं, पर अपनी बलि देने की बात मुट्ठी भर लोग ही सोचते हैं, इसलिए धीरता के साथ सोचो और संयम के साथ चिन्तन करो, ताकि बलिदान व्यर्थ न जाये और आत्माहुति आत्महत्या होकर न रह जाय। डॉ. यदुगोपाल मुखर्जी की इस भविष्वाणी ने सारी भारत को आश्चर्यचकित कर दिया था।

प्रथम जेल यात्रा

सर्वप्रथम इनकी जेल यात्रा 1923 में शुरू होती है जहाँ से इन्हें 1927 ई. में शुरू होती है जहाँ से इन्हें 1927 ई. से मुक्त किया गया। लेकिन जेल में मुक्त करते समय इनके साथ यह भी शर्त थी – Not enter, reside or in habit in any part of Bangal.  इसलिए इन्होंने अपने जीवन का शेष भाग रांची शहर में व्यतीत किया। यहाँ आते ही इन्होंने अनेक प्रकार के रचनात्मक कार्यों को किया, जैसे इनके नेतृत्व में कांग्रेस सरकार छोटानागपुर के गाँव के दरिद्र आदिवासियों को शिक्षा दान करने के लिए अनेक अर्थ व्यय किये। उस समय जब किसी गृहस्थ के घर के बच्चों को थोड़ी बहुत ही पढ़ाई हो पाती थी, डॉ. मुखर्जी के अथक प्रयास और निरंतर परिश्रम से 30 – 35 से भी ज्यादा स्कूल खोले गये। रांची शहर के दो कॉलेज या अभी इस जिले के भीतर चार कॉलेज खोले गये। लड़कियों की पढ़ाई के लिए इन्होंने अपने स्कूलों की संख्या 50 बढ़ा दी। यदु गोपाल मुखर्जी ने शहर के स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं में भी काफी सुधार किया। साथ ही चिकित्सा संबंधी अनेक नयी योजनाएं भी इन्होंने बनाई। खाने की चीजें और खास कर दूध बिना के मिलावट के और सस्ता, इस ओर ध्यान दिया गया, जल व्यवस्था में सुधार हुआ बस्तियों में सफाई की व्यवस्था पहले से अच्छी हुई और इन दोनों में एक नीति शुरू की गई। इन्हीं के नेतृत्व में युवकों ने भी सार्वजनिक सेवा की जबर्दस्त भावना का परिचय दिया और अधिक से अधिक संख्या में सामने आकर  शहर की उन्नति, सफाई का काम शुरू कर दिया।

चिकित्सा के क्षेत्र में इनका ज्ञान समुद्र से भी अगाध था। उस समय (जब ये रांची आये थे) टी. वी. असाध्य रोग के रूप में जाना जाता था। ये टी.वी. के सफल चिकित्सक माने जाते थे। टी. वी. पर इन्होंने एक पुस्तक लिखी (टुबरकुलोसिस एंड इट्स अरली डगोनेसिस एंड ट्रीटमेंट) जिसे देश विदेश में काफी प्रसिद्धि मिली।

इन्होंने और दो पुस्तक लिखी, जेल में इन्होंने भारतेर समर संकट और विप्लवी जीवनेर स्मृति (अपनी आत्मा कथा) बंगला में लिखी। इन पुस्तकों के माध्यम से इनके अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषण, ऐतिहासिक समृधि, समदृष्टि एवं राजनीतिक दूरदृष्टि का व्यापक परिचय मिलता है। इन पुस्तकों में द्वितीय विश्व युद्ध का संकेत मिलता है। इनकी भविष्यवाणी में जो सत्य प्रमाणित हुआ है जो वह है द्वितीय  विश्वयुद्ध, जापानियों का कलकत्ता आक्रमण, चीन की तिब्बत पर विजय तथा भारत के उत्तर में सीमा विरूद्ध। इसमें एक जगह उल्लेखित है प्राच्चेर जातिर आलस्य ओ अबसादे डूबे छीलो। शतो शतो बछरेर जड़ता भेगे चीन जेगे डुबोचे। भारतेर हाजार माइल तार सीमानर संगे मिलसे आछे। शतिते जौदे  ऐई समस्या समाधान न होये। ताहोले भारतेर, गाय, आचोर लागले किना ता के बोलते पारे? चीन एकटू सुस्थिर होए बोसते पारलेई जे तिब्बत समस्या जटिल होये उठये एई बिषय आर संदेह नेई।

द्वितीय जेल यात्रा

द्वितीय जेल यात्रा इनकी 1 अगस्त, 1942 से शुरू और 18 मई 1945 ई. को समाप्त हुई। हजारीबाग जेल में भी ये स्थिर नहीं रहे। 1 नवंबर 1942 को श्री जयप्रकाश नारायण को जेल से भगा देने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। सन 1942 की दिवाली कि रात 8 नवंबर को रात साढ़े नौ बजे जय प्रकाश नारायण, योगेन्द्र शुक्ल , शालिग्राम सिंह आदि के साथ हमारे डॉ. यदुगोपाल भी थे इस भीषण अंधकार में आजादी का रास्ता पकड़े,हजारीबाग सेंट्रल जेल की दिवार को  फांदने में उन लोगों को कुछ छह मिनट लगे। इस योजना को सफलता पूर्वक कार्यान्वित करने में डॉ. मुखर्जी साहब का हाथ था।

तत्कालीन सभी राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय नेताओं से इनका अत्यधिक घनिष्ठ संबंध रहा है। इनके अन्यतम मित्रों में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. श्री कृष्णा सिंह, डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह, बाबू जगजीवन राम, डॉ. विधान चन्द्र राय आदि थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इनके घनिष्ठतम मित्रों में से एक थे।

अमर सेनारी सुभास चन्द्र बोस भी इनसे प्राय: मार्ग दर्शन प्राप्त किया करते थे और सुभाष बाबू को जब – जब इनकी आवश्यकता होती थी तब ये उनकी सहायता के लिए तुरंत ही दौड़ पड़ते थे।

सामाजिक योगदान

इनके परिवार के प्राय: सभी सदस्य क्रन्तिकारी आन्दोलन से घनिष्ठ रूप से संबद्ध थे। देश सेवा के ख्याल से इन्होंने अपने भाईयों, श्री खरीद गोपाल तथा धनगोपाल को क्रमशः वर्मा तथा अमेरिका भेजा था। स्वर्गीय धनगोपाल मुखर्जी जापान से अमेरिका के स्थायी रूप से बस गये। इन्होंने पाश्चात्य देशों में अंग्रेजों साहित्य में विशिष्ट साहित्यकार तथा लेख के रूप में नाम कमाया। धनगोपाल मुखर्जी अपने बड़े भाई यदुगोपाल के जीवन के आधार पर ही My brother’s face  नामक ग्रन्थ की रचना की थी। 1947 ई. में डॉ. विधानचन्द्र राय को बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में चुनने में भी इन्हीं का समर्थन प्रमुख था। किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात पश्चिम बंगाल सरकार ने जब भी उन्हें कोई सम्मान या महत्वपूर्ण पद देने के विचार किया तब उनहोंने ऐसे प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। प्रचार या दिखावा से ये सर्वथा परहेज करते थे। इसलिए जब जब  इन्हें सम्मान, ताम्रपत्र पुरस्कार आदि लेने के लिए अनुरोध किया गया इन्होंने इन प्रस्तावों को सदा ही अस्वीकृत कर दिया और अपनी अस्वीकृति के कारणों पर लिखित रूप से तर्क दिया। वे सम्मान ग्रहण करने से इंकार करते रहे। इन्होंने एक बार राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण पद को भी ठुकरा दिया था।

जब मौलाना आजाद साहब कांग्रेस के सभापति थे तब इन्होंने ही रांची मेमेक समिति (नागरिक रक्षा समिति) बनाई थी जिसमें सभापतित्व का कार्य स्वयं किया और सचिव का कार्य श्याम किशोर साहु ने किया। 1947 ई. में कांग्रेस के सभापति बन कर जब कूपलानी जी बिहार भ्रमण के क्रम में सबसे पहले रांची आये तब इन्होंने ही इनकी सभा की व्यवस्था बड़े ही अच्छे ढंग से की और सभा स्थल पर ही 15 हजार रूपये की थैली भी उन्हें भेंट की।

15 दिसंबर, 1947 के अमृतबाजार पत्रिका के एक लेख के आलोक में यदुगोपाल बाबू त्यागी और देश भक्ति ही नहीं थे अपितु इनका सम्पुर्ण परिवार ही त्यागी और देशभक्ति का रहा है। रांची निवासकाल में इनकी प्रतिष्ठा केवल इनके रोगी, इनके ही बीच नहीं थी अपितु सरकारी पदाधिकारियों के बीच में भी इनकी अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। 24 मई 1942  को इन्होंने तत्कालीन रांची के उपायुक्त  को बुलाया था और श्री आर. एन. लाईन, आई. सी. एस. के द्वारा जो आमंत्रण पत्र इनको मिला था उसका मेमो न. 1101 – 1112 है (तत्कालीन Secretary and P.R.P Office, Ranchi)  और कार्यमंत्रणा सूची)  जिसके आधार पर बैठक 26. 5. 1942 को 10 बजे दिन में हुई, उसमें इनका भी नाम था।

इसका Memorandum निम्निखित है।

बिहार के इतिहास की किताबों में डॉ, यदुगोपाल मुखर्जी की जीवनी और शौर्य कथा भले ही अंकित नहीं है पर उनकी कष्ट भरी जिन्दगी को बताने वाले उनके वंशज (उनकी पत्नी अमिया रानी मुखर्जी) और उनके दोनों पुत्र डॉ. सिद्धार्थ मुखर्जी (रांची) और दूसरे पुत्र श्री नीलू मुखर्जी कलकत्ता में आज भी जीवित हैं।

अंग्रेज सरकार की नजर में डॉ. मुखर्जी अत्यंत ही खतरनाक क्रांतिकारी थी क्योंकि खुफिया विभाग जाँच लिस्ट में उनका नाम ए लिस्ट में था। इन्होंने प्रासाद का कंगुरा बनना कभी स्वीकार नहीं किया अपितु सदा नींव के पत्थर ही रहे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का आग्रह था कि उन्हें राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहिए इस पर इन्होंने डॉ. राजेन्द्र बाबू को कहा था कि मैं तो एक खुदाई खिदमतगार हूँ, मैं केवल सेवा कार्य की करूँगा।

भारत का यह महान विप्लवी केवल मात्र क्रन्तिकारी और चिकित्सक ही नहीं था अपितु संगीत, साहित्य तथा विभिन्न धर्मों के बारे में इनका ज्ञान अपार था। फुटबाल, तैराकी, क्रिकेट में उनकी खास रूचि थी। सभी प्रकार के अस्त्र में भी ये निपुण थे, यथा लाठी, भाला, तलवार, बम, पिस्तौल, बन्दुक आदि। (डा. मुखर्जी एक कुशल वक्ता थे और समयानुसार भाषण करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी। वे निर्भीक व्यक्ति थे। जेल में उन्होंने ही कहा था – सरकार हमारे शरीर को चाहे बंदी बना ले पर हमारी आत्मा पर नियंत्रण नहीं कर सकती।) आज यदुगोपाल मुखर्जी की धर्म पत्नी, पुत्र (रांची के प्रख्यात चिकित्सक डा. सिद्धार्थ मुखर्जी) से मिलें तो कई अज्ञात लेकिन दिलचस्प एवं महत्वपूर्ण जानकारियां मिल सकती है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इनके पास अपने पिता अमर योद्धा डा. मुखर्जी से सम्बद्ध इतिहास ही नहीं, बल्कि अपने पूर्व के इतिहास से सम्बद्ध कई ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। उन दस्तावेज के अनुसार इनके वंशजों ने देश के बाहर अपनी मातृभूमि की पराधीनताकी बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए अथक परिश्रम किया। बचपन की भूलती यादों के सहारे उनके पौत्र कहते हैं कि उनके दादा के निवास पर डा. राजेन्द्र प्रसाद, बाबु जगजीवन राम, बिहार के अनेक गणमान्य नेता, जैसे श्रीकृष्ण सिंह, जय प्रकाश बाबु एवं अनुग्रह नारायण सिंह आदि जैसे नेतागण आते थे। लेकिन आज देश की बात तो दूर, बिहार भी डा. यदुगोपाल मुखर्जी की शहादत को न याद करता है और न उनके वंशजों की खोज खबर लेता है, उनकी स्मृतियों को सहेजने की चिंता न रांची के निवासियों को है और न सरकार को।

भारत का यह महान राजनैतिक क्रन्तिकारी चीनी युद्ध के 30 वर्ष ही पूर्व ही यह भविष्यवाणी कर चुका था कि समय रहते यदि यह नहीं चेत सके तो चीन केवल तिब्बत ही नहीं लेगा अपितु अपने देश के (भारत) के भूभाग पर आक्रमण करेगा जो 1962 में सत्य हुआ। भारत के राजनैतिक इतिहास (भारतेर समर संकट) में इनका योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है। डॉ. मुखर्जी सुसंस्कृत, विनयी और विनम्र थे। भारत की यह प्राचीन युक्ति विद्या ददाति विनयम इनके उपर सटीक उभरती है। वे शील की प्रतिमा और सज्जनता के प्रतिमूर्ति थे। इन्हें कोटिश: नमन है।

इनके दूसरे विप्लवी जीवनेर स्मृति के बारे में ऐतिहासिक आचार्य रमेश चन्द्र मजूमदार लिखते हैं।

इस उदारचेता महामानव की नजर में हिन्दू - मुसलमान, अमीर - गरीब सभी एक सामान थे, इसलिए इनके लिए सबकी नजर में विशेष श्रद्धा थी और इन्हें सर्वश्रेष्ठ हृदयासन पर बैठाया। यदु दा अत्यंत प्रगतिशील एवं उदार विचारों से संपन्न व्यक्ति थे। राजनैतिक दर्शन में ये कभी भी इन्होंने अपनी सहयोगी से हिंदी सिखने के लिए उत्सुक थे। राहुल सांस्कृत्यायन से इनका पहला परिचय एक हिंदी सम्मेलन में ही हुआ था।

यहाँ पर यह बताना ही आवश्यक प्रतीत होता है कि उनके जीवन में चाहे कितने ही कठिनाइयाँ क्यों न आई हो, इन्होंने अपनी अंतरात्मा के खिलाफ कोई काम नहीं किया अन्याय के साथ इन्होंने कभी समझौता नहीं किया। इनके लिए तो आगे बढ़ने का एक ही सीधा संकरा रास्ता था, कभी – कभी अकेले ही इन्हें अकेले ही उस पर चलना पड़ा। बड़ी कठिनाइयों और संकटों के बीच इन्हें अपनी जिन्दगी बितानी पड़ी पर अंततोगत्वा ये एक ईमानदार और सच्चे सत्याग्रही साबित हुए। उनहोंने सामान्य रूप से देश की सेवा की वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। इन्होंने अपने जीवन से यही सिद्ध किया कि वह न केवल महान सैनिक थे बल्कि महान सेनानायक भी थे। संकट के समय भी खुश रहकर उसका समाधान निकालने की उनमें अद्भुद क्षमता थी।

30 अगस्त 1976 ई. को रांची में यदुगोपाल नामक महामानव की मृत्यु के साथ हमारे देवह की क्रन्तिकारी इतिहास के एक गौरवमय अध्याय का समापन हुआ। इतिहास में इनका नाम अमर रहेगा। देशभक्त, क्रांतिकारी नेता डॉ. यदुगोपाल मुखर्जी की अमर कहानी ऐसी गाथा है जो न कभी भुलाई जा सकती है और न कभी पुरानी पड़ सकती है। किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि रांची के लोग भी इन्हें भूल गये हैं। आज इनके जन्म दिवस पर कोई फूलमाला नहीं, कोई श्रद्धांजलि नहीं अर्पण होती है।

पंडित मदन मोहन मालवीय ने तो एक बार कहा था कि राजनीतिज्ञ से परे वह कहीं अधिक सज्जन व्यक्ति थे, इनका जीवन महान स्वतंत्रता सेनानी, योद्धा, समाज सुधारक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक नेता का जीवन है जिससे एकता के माध्यम से अंग्रेजी राज्य से मुक्ति दिलाने तथा देश की अखंडता को बनाए रखने का संदेश निहित है।

इनमें एक महान युगपुरूष के अद्भूत त्याग एवं उच्च कोटि की राष्ट्रीय भावना कूट – कूट भरी हुई थी। वे विन्रमता के प्रतिमूर्ति थे। मानवता के प्रणाय के अधिकारी हो होते है जिन्होंने साधना की बड़ी से बड़ी कीमतें चुकाने में आनाकानी नहीं की हो। हमारी डॉ. मुखर्जी इस युग वाले अध्याय में महान ज्योतियों की भांति चमकते रहेंगे।

जो लोग अपने देश की रक्षा करने में समर्थ है, वे ही विश्व शांति की भी रक्षा कर सकते हैं। यदुगोपाल की धन्य थे कि उनके हाथों की आरती महारूद्र और महालक्ष्मी दोनों ने स्वीकार कि, यही कृष्ण चेतना का असली स्वरुप हैं, यही राम और परशुराम की शिक्षा है। यही गूरूगोविन्द की साधना और इस्लाम के उपदेशों के सार है, मरने वालों में फिर से जन्म किसका होता है किसका नहीं यह हम नहीं जानते किन्तु जन्म लेने वाले को मरना जरूर पड़ता है, लेकिन तब भी ऐसे लोग होते हैं, जो मरने पर भी बिलकूल नि:शेष नहीं होते, अपनी कृत्यों के भीतर से मित्रों की स्मृति निकुंज से अथवा पराधम पर स्थापित अपनी कृति के द्वारा अपनी मरणोतर की आयु सूचना देते रहते हैं

वे महान युग पुरूष थे। उनका यह दृढ विश्वास था कि एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित करेंगे जिनमें उनकी जनता, स्वतंत्रता का खुल कर उपयोग करेगी। अनुपम त्याग, बलिदान, देश के लिए समर्पण भावना था। युद्ध कौशल से प्रभावित होकर बिहार, बंगाल के हर शहर, हर कस्बे, हर गाँव तथा हर झोपड़ी में समादर के साथ लोग उनकी प्रतिमा के समक्ष झुककर उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

30 अगस्त 1975 ई. को इस महाप्राण व्यक्ति का जीवनदीप निर्वासित हुआ। देश के प्रत्येक राजनितिक दल के नेता तथा समाज के भिन्न भिन्न स्तर के व्यक्तियों ने इनकी मृत्यु पर शोक प्रकट किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी ने उनके पुत्र (डॉ. सिद्धार्थ मुखर्जी)  को एक पत्र लिखकर अपनी संवेदना (शोक) व्यक्त की थी।

स्त्रोत: जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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