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कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों के लिए एक भूमिका

कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों के लिए एक भूमिका

भूमिका

पीड़ित बच्चों व सुरक्षा एवं देख रेख की जरूरत वाले बच्चों के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है पर किशोर कानून का उल्लंघन करें वाले, जो कि सचमुच अनदेखा किए गए बच्चे हैं, उनके बारे में बहुत कम बात होती है। प्रशासन व्यवस्था इन्हें संस्थाओं में छुपा देती है। जहाँ बाहर के लोगों का आना मना होता है तथा इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है और इनके अच्छे होने पर पुनर्वास पर न के बराबर ध्यान दिया जाता है। इनकी सजा की मीयाद खत्म होते ही इन्हें निकाल दिया जाता है और संस्था की बाहर ये बच्चे अपना जीवन चला पाने में असमर्थ होते हैं। किशोर अपराधियों के साथ होने वाला यह व्यवहार निंदनीय है, खास तौर पर तब जब किशोर कानून यह मानते हैं कि विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों को भी देख रेख और सुरक्षा की आवश्यकता है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि किशोर न्याय (बाल देख रेख व सुरक्षा) अधिनियम 2000, किशोर न्याय अधिनियम 1986 और उसके पहले सभी बाल कानून देख रेख व सुरक्षा के जरूरत मंद बच्चों व विधि का उल्लंघन करने वाले किशोर दोनों की बात करता है, और 2000 में बने कानून के नाम से ही स्पष्ट है कि दोनों प्रकार के बच्चों को देख रेख व सुरक्षा की आवश्यकता है।

परिचय

18 वर्ष की कम आयु के किसी व्यक्ति के लिए, जिसने अपराध किया हो, विचार व व्यवहार की अलग प्रक्रिया बनाई गई है। उनके साथ वयस्क अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, इसका कारण यह है कि बच्चों को वयस्कों की अपेक्षा कम दोषी माना जाता है। क्योंकि व जल्दबाजी में काम कर सकते हैं, विचार कर पाने में असमर्थ होते हैं, और आसानी से किसी के भी प्रभाव में आ जाते हैं।

“........... अपनी शुरूआत से ही युवा न्याय व्यवस्था इस मान्यता पर बढ़ती रही है कि बच्चे व नौजवानों का, तुलनात्मक अपरिपक्वता के कारण, अपने आवेग पर कम नियंत्रण होता है, अपने अपराध की गंभीरता को कम समझ पाते हैं, और यह सोच नहीं पाते कि उनके किसी क्रिया का परिणाम क्या होगा। इसीके साथ यह मान्यता भी है कि बहुत से नौजवान अपराधियों द्वारा झेली गई गरीबी, अत्यचार और अवहेलना भी उनके दोष को कम करते हैं।”

इसके आगे वयस्कों को दिय गया दंड, युवाओं के लिए बहुत सख्त माना जाता है। किशोर कानूनों का जोर किशोरों के सुधार एवं पुनर्वास पर होता है ताकि उन्हें भी अन्य बच्चों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाने का मौका मिल सके, पर एक और विपरीत विचार धारा भी है जो यह जोर देकर कहती है की किशोर अपराधी हिंसक अपराध करते हैं जिनसे समाज को सुरक्षित किया जाना चाहिए और किशोर न्याय व्यवस्था उन्हें पुचकार रही है। यह आंशका है की यह दूसरी विचारधारा जोर पकड़ेगी और किशोर अपराधियों के साथ वयस्क अपराधियों सा व्यवहार करने या किशोर कानून कठोर बनाने के लिए दबाव बनाया जाएगा, खास तौर पर गंभीर अपराधों के लिए।

बच्चा उस समाज का एक हिस्सा होता हैं जिसमें वह रहता है। अपनी अपरिपक्वता के कारण वह अपने आस पास के माहौल और सामाजिक संदर्भ से प्रेरित हो जाता है, उसके आसपास का माहौल और सामाजिक संदर्भ उसे किसी खास क्रिया के लिए उकसाते हैं।

किशोर कानून किशोरों की बीमारी सिर्फ उनके इलाज से ठीक करने की कोशिश करते हैं बिना रोग के कारणों को ठीक किए। यह मानना बेवकूफी होगी की गरीबी बेरोजगारी, असमानता और बदलते मूल्यों के बीच रहने वाले बच्चे उनसे प्रभावित हुए बिना ही बढ़ते रहेंगे। वर्तमान किशोर न्याय व्यवस्था अपने बेहतरीन स्वरूप में भी सिर्फ असंगत और कुव्यवस्थित समाज का सामना करने में मदद कर सकती है। अगर सरकार सच में बच्चों के हितों के बारे में सोचती है तो उसे सिर्फ बच्चों का ध्यान ही नहीं रखना चाहिए बल्कि उनके परिवारों और सहायक व्यवस्थाओं को बेहतरी के लिए आवश्यक कदम भी उठाने चाहिए।

विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों के साथ कम करना आसान नहीं होता, किशोर न्याय व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले ज्यादातर किशोरों का घर परिवार नहीं होता और वे दुसरे इलाकों में जाकर जीविकोपार्जक करते हैं। वे इस सुरक्षा से नफरत करते हैं क्योंकी वे बहुत सालों से खुद को सम्भालते आए हैं, न तो किसी पर निर्भर रहे हैं और नही किसी की सलाह लेते रहे हैं। ये बाल - वयस्क हैं और अपने फैसले खुद लेते रहे हैं। किशोर न्याय व्यवस्था इन बाल – वयस्कों को बच्चों में परिवर्तित करना चाहती है। क्या ऐसा कर पाना संभव है? डॉ. युग मोहित चौधरी, जिन्होनें अपने कानूनी कार्यकाल के दौरान मुम्बई के केन्द्रीय कारागार और डोंगरी के संपेषण गृह में बच्चों को देखा है, यह कहते हैं कि जेल में रहने वाले किशोर, बड़े कैदियों की नकल करते हुए वयस्कों स व्यवहार करते हैं, पर सुधार गृह में जाने के कुछ दिनों के भीतर ही उनके अंदर बच्चा सतह पर आ जाता है और वे अपने साथियों के साथ चिल्लाते, झगड़ते और खेलते हुए वह सब कुछ करते हैं जिसकी उम्मीद एक बच्चे से की जा सकती है। वे अचानक शरारती हो जाते हैं और उनकी उम्र भी कम दिखने लगती है। डॉ. चौधरी का अध्ययन इस मान्यता की पुष्टि करता है कि किशोर कानून कम से कम कुछ मामलों में बच्चों को अपनी उम्र के हिसाब से सोचने और कार्य करने का मौका देता है।

यह किताब विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों और किशोर न्याय व्यवस्था के तहत उनके साथ होने वाले व्यवहार के तरीकों पर नजर डालने की कोशिश करती है। यह न सिर्फ बीसवीं सदी की शूरूआत से किशोर न्याय के कानून की जाँच करता है, बल्कि हो रही (चुनौतियों) पर बल्कि ऐसे किशोरों की चुनौतियों पर भी नजर डालती है। जो अपने जरूरतों या बचपने के कारण कानून के खिलाफ हो जाते हैं। एक भाग, किशोरों के विभिन्न मुद्दों से जुड़े न्यायालयों के फैसलों के बारे में संक्षेप में बताता है। लेखक ने कुछ तथ्याधारित मामले दिए हैं और ऐसी स्थिति में फंसे किशोरों की कानूनी सहायता के लिए एक क्रमिक निदेशिका भी दी है।

पूरी किताब में विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों के लिए पुरूषों वाचक क्रियाओं का प्रयोग सिर्फ इसलिए नहीं किया गया है की भारतीय दंड संहिता की धारा 8 में यह कहा गया है कि पुरूषवाचक सर्वनाम को स्त्री और पुरूष दोनों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, बल्कि सचते रूप से इसलिए किया जा सकता है, बल्कि सचते रूप से इसलिए भी किया गया है क्योंकि किशोर न्याय व्यवस्था के अंतर्गत विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों में लड़कियों की तुलना में लड़के ज्यादा होते हैं। 2001 में भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध करने वाले किशोरों में लड़कियों और लड़कों का अनुपात लगभग 1:20 था, इस किताब सुझाए गए आदर्श नियम महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा 26 अक्टूबर 2007 को जारी की गई अधिसूचना में दिए किशोर न्याय (देखरेख एवं सुरक्षा) नियम, 2007 से लिए गए हैं।

स्रोत : चाइल्ड लाइन इंडिया फाउंडेशन

किशोर न्याय

अंतिम बार संशोधित : 2/27/2020



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