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शिक्षा के वैक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य

शिक्षा के वैक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य

  1. परिचय
  2. व्यैक्तिक उदेश्य का अर्थ
  3. व्यैक्तिक उद्देश्य
  4. व्यैक्तिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ
  5. व्यैक्तिक उद्देश्य के पक्ष में तर्क
  6. व्यैक्तिक उद्देश्य के विपक्ष में तर्क
    1. समाजिक विघटन
    2. वास्तविक जीवन के लिए अव्यावहारिक
    3. व्यकित्वाद को प्रोत्साहन
    4. समाजवाद का शत्रु
    5. मनुष्य के सामाजिक स्वरुप की उपेक्षा
    6. वातावरण में अनुचित परिवर्तन
    7. नैतिक गुणों की उपेक्षा
    8. वातावरण की उपेक्षा
    9. तर्क शक्ति के विकास में बाधा
  7. शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का अर्थ
  8. सामाजिक उद्देश्य का संकुचित अर्थ
  9. सामाजिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ
  10. सामाजिक उद्देश्य के पक्ष में तर्क
  11. सामाजिक उद्देश्य के विपक्ष में तर्क
  12. शिक्षा के व्यक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों का समन्वय

परिचय

मानव बड़ा है अथवा समाज ? यह प्रश्न  प्राचीन काल से ही विद्वानों के समक्ष विचारणीय रहा है। कुछ विद्वान् समाज की अपेक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व पर बल देते हैं, को कुछ समाज के हित के समक्ष व्यक्ति को बिलकुल महत्वहीन मानते हुए उसे समाज की उन्नति के लिए बलिदान तक कर देने के पक्ष में हैं। इस वाद-विवाद के आधार पर की शिक्षा के व्यैक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों का सर्जन हुआ है। शिक्षा सम्बन्धी सभी उदेश्य प्राय: इन्ही दोनों उद्देश्यों में से किसी एक उदेश्य के पक्ष में बल देते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा के इन दोनों उद्देशों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है अथवा नहीं ? यदि अन्तर केवल बल देने का ही तो इन दोनों उद्देश्यों के बीच समन्वय स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। परन्तु इसके लिए हमें निष्पक्ष रूप से इन दोनों उद्देश्यों के संकुचित तथा व्यापक रूपों का अलग-अलग अध्ययन करके यह देखन होगा कि इन दोनों उद्देश्यों में कोई वास्तविकता विरोध है अथवा केवल बल देने का अन्तर है। निम्नलिखित पक्तियों में हम शिक्षा के इन दोनों उद्देश्यों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाल रहे हैं।

व्यैक्तिक उदेश्य का अर्थ

शिक्षा का व्यैक्तिक उद्देश्य एक प्राचीन उद्देश्य है इस उद्देश्य के सार्थक समाज की अपेक्षा व्यक्ति को बड़ा मानते हैं उसका विश्वास है कि व्यक्तियों के बिना समाज कोरी कल्पना है व्यक्तियों ने ही मिलकर अपने हितों की रक्षा करने के लिए समाज की रचना की है तथा समय-समय पर संस्कृति, सभ्यता एवं विज्ञान के क्षेत्रों में भी अपना-अपना योगदान दिया है इस योगदान के फलस्वरूप ही सामाजिक प्रगति का क्षेत्र बड़ा और बढ़ता चला जा रहा है दुसरे शब्दों में , व्यक्ति के विकास से ही समाज का विकास हुआ तथा दिन-प्रतिदिन हो रहा है अत: शिक्षा को व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं तथा विशेषताओं का विकास करना चाहिये इसीलिए कुछ शिक्षा-शास्त्रियों ने शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य का समर्थन किए है

यदि ध्यान से देखा जाये तो पता चलेगा कि शिक्षा का व्यैक्तिक उद्देश्य नया उद्देश्य नहीं है। प्राचीनकाल में ग्रीस, भारत तथा अन्य पाश्चात्य देशों में भी शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य को प्रमुख स्थान दिया जाता था। मध्यकाल में अवश्य सामूहिक शिक्षा के ढंग को अपनाया गया जिसके कारण व्यक्तितत्व के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया।  इस उद्देश्य को पूरी तरह समझने के लिए इसके संकुचित तथा व्यापक अर्थों का समझना आवश्यक है। 

व्यैक्तिक उद्देश्य

व्यैक्तिक उद्देश्य का संकुचित अर्थ – संकुचित अर्थ में शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य को आत्माभिव्यक्ति बालक की शक्तियों का सर्वांगीण विकास तथा प्राकृतिक विकास आदि नामों से पुकारा जाता है। इस अर्थ में यह उद्देश्य प्रकृतिवादी दर्शन पर आधारित है। इसके प्रतिपादकों का अटल विश्वास है कि समाज की अपेक्षा व्यक्ति बड़ा है। अत: उनकी धारणा है कि परिवार, समाज, राज्य तथा स्कूलों को बालक की व्यक्तिगत शक्तियों को विकसित करने के लिए ही स्थापित किया गया है। इस दृष्टि से प्रत्येक राज्य तथा सामाजिक संस्था का कर्त्तव्य है कि वह व्यक्ति के जीवन को अधिक से अधिक अच्छा, सम्पन्न तथा सुखी एवं पूर्ण बनाये।

इस उद्देश्य का प्रचार सबसे पहले प्रकृतिवादी दार्शनिक रूसो ने अपनी प्राकृतिक शिक्षा के द्वारा किया। उसने लिखा है – “ प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्ट स्वाभाव को लेकर जन्म लेता है। हम बिना सोचे-समझे भिन्न-भिन्न रुचियों वाले बालकों को एक ही प्रकार के कार्यों में जुटा देते हैं। ऐसी शिक्षा उनकी विशेषताओं को नष्ट करके एक निर्जीव सामान्यता की छाप लगा देती है। अत: रूसो ने कृत्रिम समाज का खण्डन करते हुए इस बात पर बल दिया कि बालक की सम्पूर्ण शिक्षा का प्रबन्ध प्रकृति के अनुसार होना चाहिये। उसने यह भी बताया कि बालक का प्राकृतिक विकास उसी समय हो सकता है जब उसकी शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था उसकी रुचियों, रुझानों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जायेगी। ऐसी दशा में सामूहिक शिक्षण तथा निश्चित पाठ्यक्रम का बहिष्कार करके व्यैक्तिक शिक्षा तथा लचीले पाठ्यक्रम का निर्माण करके समस्त शिक्षण-पद्धतियों को क्रिया के सिधान्तों पर आधारित करना चाहिये।

रूसो की भांति अन्य शिक्षा शास्त्रियों ने भी व्यैक्तिक उद्देश्य के इसी अर्थ पर बल दिया परन्तु उन सब में टी०पी० नन का प्रमुख स्थान है। नन ने अपनी पुस्तक एजुकेशन; इट्स डेटा एंड दी फर्स्ट प्रिन्सिपिल्स में व्यक्ति की व्यक्तिगत शक्तियों के विकास पर विशेष बल देते हुए लिखा है – “मानव जगत में यदि कुछ भी अच्छाई आ सकती है तो वह व्यक्तिगत पुरुषों तथा स्त्रियों के स्वतंत्र प्रयासों के द्वारा ही आ सकती है। अत: शिक्षा का संगठन इस सत्य के आधार पर ही होना चाहिये “|

नन ने अपनी पुस्तक के दुसरे अध्याय में अपने विचार की पुष्टि करने के लिए प्राणी शास्त्र की सहायता लेते हुए लिखा है कि चूँकि प्रत्येक प्राणी अपने उच्चतम विकास के लिए प्रयास कर रहा है, इसलिए शिक्षा का व्यैक्तिक उद्देश्य प्रकृति के नियम के अनुकूल है। अत: नन के मतानुसार “शिक्षा के प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी अवस्थायें प्राप्त होनी चाहिये जिनमें उसकी व्यैक्तिक का पूर्ण विकास हो सके”।

नन के विचार से विशेष प्रकार के व्यक्तित्व से ही संसार की उन्नति हो सकती है। अत: बालक को उसकी मूल प्रवृतियों के अनुसार विकसित होने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिये। किसी भी बालक को ऐसा कार्य करने के लये विवश करना उचित नहीं है जिसको करने के लिए वह बना ही नहीं है। यदि बालक की रुचियों तथा मूल प्रवृतियों की अवहेलना करके उस पर सामाजिक नियमों को बल-पूर्वक थोपा जायेगा तो उसका विशेष व्यक्तित्त्व कुण्ठित हो जायेगा। अत: प्रत्येक माता-पिता, शिक्षक, समाज तथा राज्य का कर्त्तव्य है कि वह प्रत्येक बालक की शिक्षा की व्यवस्था उसके विशेष व्यक्तित्व के विकास को दृष्टि में रखते हुए करे जिससे वह अपनी इच्छानुसार विकसित हो सके। इस प्रकार संकुचित अर्थ में शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य का आशय आत्माभिव्यक्ति अथवा प्राकृतिक विकास है।

व्यैक्तिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ

व्यापक अर्थ में शिक्षा व्यैक्तिक उद्देश्य हमारे सामने आत्मानुभूति के रूप में प्रकट होता है। मनोविज्ञान भी व्यक्तित्व के विकास के व्यापक अर्थ का समर्थन करता है। आधुनिक मनोविज्ञानिक प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक बालक एक दुसरे से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक दृष्टी से भिन्न होता है। यह भिन्नता रुचियों, शक्तियों, विचारों तथा कार्य करने की क्षमता में भी होती है। यही नहीं, प्रत्येक बालक की सामान्य बुद्धि, जीवन के आदर्श तथा कार्य करने की गति करने की गति से भी महान अन्तर होता है। किसी बालक की बुद्धि मन्द होती है, तो किसी की प्रखर। ऐसे ही एक बालक शारीरिक कार्य करने में रूचि लेता है तो दूसरा मानसिक कार्य को करना अधिक पसन्द करता है। इसी प्रकार कोई बालक किसी अमुक कार्य को जल्दी समाप्त कर लेता है तो उसी कार्य को दूसरा बालक देरी से कर पाता है। इस प्रकार हम देखते हैं की कोई से दो बालक प्रत्येक दृष्टि से एक से नहीं हो सकते।

बुद्धि तथा योग्यताओं के इन भेदों को दृष्टि में रखते हुए प्रत्येक बालक के लिए एकसा कठोर पाठ्यक्रम बनाकर सबको एक ही प्रकार की शिक्षा प्रदान करना अपनोवैज्ञानिक है। ऐसा करने से बालकों का समुचित विकास नहीं हो सकता। यदि प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का उतम विकास करना है तो व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धांत को दृष्टि में रखना होगा। अत: प्रत्येक स्कूल का कर्त्तव्य है कि वह बालक की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं को दृष्टि में रखते हुए उसके समक्ष ऐसे अवसर प्रदान करे जिनके आधार पर उसकी मूल-प्रवृतियों निखर जायें तथा उसकी समस्त शक्तियों एवं गुणों का समुचित विकास हो कर वह एक उत्तम व्यक्ति बन जाये। दुसरे शब्दों में, शिक्षा की व्यवस्था बालकों की आवश्यकताओं तथा समाज के कल्याण को ध्यान में रख कर होनी चाहिये। माता-पिता भी अपने बालकों को स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने इसीलिए भेजते हैं कि उनके बालक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात जब बड़े होकर समाज में प्रवेश करें तो ये उपयोगी नागरिकों के रूप में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय रूप से भाग लेकर अपना-अपना भार स्वयं वहन कर सकें। इससे व्यक्ति तथा समाज दोनों का कल्याण सम्भव है। नन ने इसी विचार की पुष्टि करते हुए लिखा है – “ शिक्षा बालक को इस प्रकार से सहायता प्रदान करे कि वह समाज में अथवा मानवीय जीवन को अपनी योग्यतानुसार मौलिक योगदान दे सके। “

उपर्युक्त आशय की पूर्ति के लिए नन के मतानुसार समाज, राज्य तथा शिक्षा संस्थाओं को बालक की रुचियों तथा प्रवृतियों को सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार विकसित करना चाहिये जिससे उसके व्यक्तित्व का उच्चतम विकास हो जाये तथा वह बड़ा हो कर आनन्दमय जीवन व्यतीत कर सके।

नन का अपनी पुस्तक के द्वितीय अध्याय में शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य की पुष्टि करने के लिए जिवविज्ञान का सहारा लेना तथा यह कहना कि प्रत्येक वस्तु अपनी प्रकृति के अनुसार पूर्णता प्राप्त करती है, उसके प्रकृतिवादी होने का संकेत करती है। ध्यान देने की बात है कि नन ने व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग इस प्रकार से किया है कि लोग भ्रम में पड़ जाते हैं। वास्तविकता यह है कि कोई भी व्यक्ति स्वयं में पूर्ण नहीं होता। वह समाज में रहता है, समाज का प्रतिनिधित्व करता है तथा समाज का ही अभिन्न अंग है। यदि व्यक्ति को समाज से प्रथक कर दिया जाये तो वह किसी भी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता है। 

नन के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्तित्त्व के विकास से उसका तात्पर्य आत्माभिव्यक्ति न होकर आत्म-बोध अथवा आत्माभिव्यक्ति है। आत्माभिव्यक्ति में आत्म-प्रकाशन की भावना प्रधान होती है। इससे व्यक्ति अपनी मूल-प्रवृतियों के वशीभूत होकर बिना किसी रोक-टोक के स्वछंद रूप से कार्य करता है। वह यह नहीं देखता की उसकी क्रियाओं में समाज का क्या तथा कितनी हानि हो सकती है। इसके विपरीत आत्म-अनुभूति में आत्म वह आदर्श आत्म है जिसकी हम कल्पना करते हैं तथा जिसकी अनुभूति केवल दूसरों की रुचियों को ध्यान में रखते हुए ही की जा सकती है। आत्म-अनुभूति में व्यक्ति समाज की सेवा करना अपना परम कर्त्तव्य समझता है। उसकी आत्मा को ऐसे कार्यों के करने में सुख और शान्ति प्राप्त होती है जिनसे समाज का लाभ होता है।

इस प्रकार व्यापक अर्थ में शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य का आशय अतम-अनुभूति है। चूँकि आत्म-अनुभूति से आत्मा का ज्ञान केवल समाज के ही माध्यम से हो सकता  है इएसिलिये व्यक्ति से आशा की जाती है कि यह समाजिक हितों को ध्यान में रखते हुए अपना अधिक से अधिक विकास करे तथा समाज को यथाशक्ति मौलिक योगदान दे। जे० एम० रौस ने भी इसी विचार की पुष्टि करते हुए लिखा है – “ नन के व्यक्तित्व शब्द का अर्थ उस आदर्श से है जिसको अभी प्राप्त करने के लिए व्यक्ति प्रयत्न कर रहा है। जिसको अभी प्राप्त नहीं किया गया है अपितु प्रयत्न करके प्राप्त किया जा सकता है।

नन के विचारधारा के सामान यूकेन ने भी लिखा है शिक्षा में व्यक्तिवाद का समर्थन किया है। परन्तु उसने व्यैक्तिकता को जैविकीय अर्थ से मुक्त करते हुए आध्यात्मिक अर्थ दिया है। यूकेन का कथन है – “ हमरे जीवन का मुख्य कार्य अपने सच्चे स्वरुप को विकसित करना और व्यक्तित्व तथा अध्यात्मिक व्यक्तित्व के परिवर्तन से इस स्वरुप को निखारना होता है। प्रत्येक व्यक्ति के सामने सत्य पूर्ण व्यक्तित्व तथा अध्यात्मिक व्यक्तित्व के निर्माण का काग्य जीवन भर होता रहता है।”

यूकेन का अटल विश्वास था कि अध्यात्मिक व्यैक्तिकता तथा व्यैक्तिकता जन्मजात नहीं होती। हम में केवल व्यक्तित्व का निर्माण करने की शक्ति होती है। जे० एम० रौस ने भी यूकेन के इस मत का समर्थन करते हुए लिखा है – “ यूकेन के विश्वास से हम भी सहमत हैं कि जीवन की भांति शिक्षा का उद्देश्य व्यतित्त्व का उन्नयन है।”

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है की व्यापक अर्थ में व्यक्तित्व के विकास का अर्थ यह है कि हमारे व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हमारे द्वारा दिया गये कर्मों पर निर्भर होता है। शिक्षा के द्वारा हम अपने व्यक्तित्व का इतना ऊँचा उठायें कि हम विश्व की सर्वोच्च सत्ता से साथ एक रूप हो सकें। व्यक्ति के विकास की इस अवस्था को आत्म-साक्षात्कार, आत्मबोध, आत्म-अनुभूति की संज्ञा दी जाती है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए शिक्षा का उद्देश्य भी व्यैक्तिकता का विकास होना चाहिये।

व्यैक्तिक उद्देश्य के पक्ष में तर्क

संसार में समस्त अच्छी बातों की उत्पति व्यक्ति के स्वतंत्र प्रयासों द्वारा होती है। इस सत्य को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति का हित तथा उसका विकास ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये।

जब व्यक्ति को उसकी मूल-प्रवृतियों के अनुसार व्यवहार करने से रोक कर उसके उपर सामाजिक आदर्शों को बल पूर्वक थोपा जाता है तो वह नाना प्रकार के मानसिक रोगों का शिकार बन जाता है। यह अमनोवैज्ञानिक है। अत: व्यक्ति की मूल-प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए उसके सामने ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करना चाहिये जिससे उसका स्वाभाविक विकास होता रहे।

व्यक्ति अपने हितों के लिए समाज का निर्माण करता है। अत: शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास होना चाहिये।समाज की संस्कृति तथा सभ्यता व्यक्तियों के द्वारा ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परिभार्जित रूप से आगे बढ़ती है ऐसी दशा में व्यैक्तिक विकास शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है

इतिहास बताता है कि जब-जब व्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन किया गया तब-तब उसके अनके दुष्परिणाम हुए। प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध इसी स्वतंत्रता का दमन करने वाले दर्शन के दुष्परिणाम थे।प्रत्येक जनतांत्रिक राष्ट्र व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल देता है अत: शिक्षा का उद्देश्य भी व्यक्ति का स्वाभाविक विकास होना चाहियेव्यक्ति समाज की इकाई है यदि व्यक्ति का उत्थान कर दिया गया तो समाज का उत्थान अपने ही आप हो जायेगा इस दृष्टि से व्यैक्तिक उद्देश्य अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्देश्य है

टी० पी० नन  के अनुसार –“ व्यैक्तिक जीवन का आदर्श है –शिक्षा की किसी भी योजना का महत्व उसकी उच्चतम व्यैक्तिक श्रेष्ठता का विकास करने की सफलता से आँका जाना चाहिये।”

व्यैक्तिक उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य को आत्मनुभूति के रूप में उचित माना जा सकता है। परन्तु आत्माभिव्यक्ति के रूप में इसके निम्नलिखित दोष हैं –

समाजिक विघटन

यह उद्देश्य हर प्रकार के व्यक्तित्व को उसकी मूल-प्रवृतियों के अनुसार विकसित करने के लिए अनियंत्रित स्वतंत्रता प्रदान करता है। ध्यान रहे कि प्रत्येक व्यक्ति को अनियंत्रित स्वतंत्रता मिलने से समाज में संघर्ष, तनाव एवं अव्यवस्था अथवा विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हो जायेगी। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की लगाम को ढीला करना उचित नहीं है।

वास्तविक जीवन के लिए अव्यावहारिक

इस उद्देश्य के अनुसार प्रत्येक बालक की शिक्षा उसकी जन्मजात शक्तियों तथा रुचियों के अनुसार होनी चाहिये। परन्तु, प्रत्येक बालक की रुचियाँ तथा प्रवृतियाँ अगल-अलग होती है, इसलिए प्रत्येक बालक के लिए शिक्षा के अलग-अलग उद्देश्य निर्धारित करने होंगे। तथा सबके लिए अलग-अलग पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करनी होगी। यह सम्भव नहीं है।

व्यकित्वाद को प्रोत्साहन

इस उद्देश्य के विरोधियों का दवा है कि यदि शिक्षा के इस उद्देश्य को स्वीकार कर लिया गया तो अनैतिकता का प्रसार होने लगेगा। इससे व्यक्ति में अहम् तथा अहंकार की भावनायें जागृत हो जायेंगी जिस से हिटलर तथा मुसोलिनी जसी व्यक्ति बनाने लगेंगे और समाज को व्यतिवाद भयंकर दुष्परिणामों का सामना करना पड़ेगा।

समाजवाद का शत्रु

इस उद्देश्य के सार्थक व्यक्ति को अनियंत्रित स्वतंत्रता देने के पक्ष में है। पर ध्यान रहे कि अनियंत्रित स्वतंत्रता पाते ही प्रत्येक व्यक्ति अपने विकास के बहाने से समाज की अवहेलना करने लगेगा। अत: शिक्षा के इस उद्देश्य को समाजवादी समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

मनुष्य के सामाजिक स्वरुप की उपेक्षा

प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। उसके व्यक्तित्व का विकास समाज के सहयोग से ही होता है। अत: समाज के इस त्रण को चुकाना उसका परम कर्त्तव्य है। यदि व्यक्ति के आचरण से समाज को कोई लाभ नहीं पहुंचता तो उसका जीवन व्यर्थ है। ऐसी स्थिति में व्यैक्तिक उद्देश्य का ढोल पीटना उचित नहीं है।

वातावरण में अनुचित परिवर्तन

इस उद्देश्य के अनुसार व्यक्ति को अपने वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कनरे के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ होनी चाहिये। यह कोई संतोषजनक आदर्श नहीं है। मनुष्य का आदर्श वातावरण पर विजय प्राप्त करके उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने की चेष्टा करना भी है।

नैतिक गुणों की उपेक्षा

व्यैक्तिक उद्देश्य बालकों की स्वाभाविक विभिन्नता पर बल देता है। यदि सदैव बालकों की भिन्नता को ही ध्यान में रक्खा गया तो उसमें प्रेम, सहानभूति, दया तथा बलिदान एवं सहयोग आदि नैतिक गुणों का विकास नहीं किया जा सकेगा।

वातावरण की उपेक्षा

यह उद्देश्य बालकों की वंशानुक्रम से प्राप्त की हुई पाशविक प्रवृतियों का विकास करना चाहता है। परन्तु मनोविज्ञान ने यह शिद्ध कर दिया है कि बालक के विकास में वातावरण का महत्व इससे भी कहीं अधिक है।

तर्क शक्ति के विकास में बाधा

शिक्षा का व्यैक्तिक उद्देश्य व्यक्ति को निरंकुश स्वतंत्रता प्रदान करना है, जिससे तर्क-शक्ति का उचित दिशा में विकास नहीं हो सकता।

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का अर्थ

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का जन्म शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हुआ है। इस उद्देश्य के समर्थक व्यक्ति की अपेक्षा समाज को ऊँचा मानते हैं। उनका अटल विश्वास है कि व्यक्ति स्वाभाव से सामाजिक प्राणी है। यदि उसे समाज से प्रथक कर दिया जाये। उसका जीवन रहना कठिन हो जायेगा। प्रत्येक बालक समाज में ही जन्म लेता है तथा समाज में ही उसका पालन-पोषण होता है। समाज में ही रहते हुए वह बोलना-चलना, पढना-लिखना तथा दुसरे व्यक्तियों से व्यवहार करना सीखता है। समाज में ही रहते हुए उसकी विभिन्न आवश्यकतायें पूरी होती हैं तथा विभिन्न विचारों के आदान-प्रदान द्वारा उसके व्यक्तित्व का विकास होता है समाज की उन्नति से वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करता है तथा समाज की हानि से उसे भी क्षति पहुँचती है। इस प्रकार अपने सम्पूर्ण विकास के लिए वह समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाना उसका कर्त्तव्य है। अत: शिक्षा की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये जिसके द्वारा समाज दिन-प्रतिदिन उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहे। दुसरे शब्दों में, शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण समाज की तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिये। इसीलिए कुछ शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य पर बल दिया है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री रेमांट के अनुसार – “ जो विद्वान् व्यक्ति को समाज के उपर स्थान देते हैं, उनको स्मरण रखना चाहिये कि नि:समाज व्यक्ति कोरी कल्पना है। अत: शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिगत चरित्रगठन के साथ-साथ बालक को सच्चा सामाजिक प्राणी तथा नागरिक बनाना है। “

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य से समाजवाद का जन्म हुआ। साधारणतया समाज के दो रूप माने जाते है – (1) राष्ट्र-समाजवाद, तथा (2) जन्तात्रत्मक समाजवाद। अग्रलिखित पंक्तियों में हम समाजवाद के इन दोनों रूपों पर प्रकाश डालते हुए सामाजिक उद्देश्य के संकुचती तथा व्यापक अर्थों पर प्रकाश डाल रहे हैं –

सामाजिक उद्देश्य का संकुचित अर्थ

समाजवाद के उग्र रूप में सामाजिक उद्देश्य के संकुचित अर्थ पर बल दिया जाता है। ध्यान देने की बात है कि समाजवाद के उग्र रूप में राज्य एक आदर्श रूपी भौतिक सत्ता है, जो व्यक्ति से कहीं ऊँचा तथा हर प्रकार से उत्कृष्ट है एवं उसकी सब आकांक्षाओं और इच्छाओं से ऊपर है। दुसरे शब्दों में, व्यक्ति की अपेक्षा समाज अथवा राष्ट्र हर हालत में बड़ा है। इस दृष्टि से व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की भलाई के लिए हैं, न कि राष्ट्र व्यक्ति के लिए है। अत: राष्ट्र का अधिकार है कि वह अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं तथा आदर्शों की पूर्ति के लिए व्यक्ति को जैसा चाहे बनाये तथा शिक्षा के द्वारा बालकों को जिस सांचे में ढालना चाहे, ढाले। प्रत्येक व्यक्ति का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्र की सत्ता को बढ़ाने के लिए अपनी सत्ता को मिटा दे तथा तन और मन से उसकी सेवा करके उसे सबल तथा सुदृढ़ बनाये। जिस व्यक्ति से राष्ट्र का कोई लाभ नहीं होता, वह राष्ट्र के लिए केवल भार सामान है। अत: उसका जीवन बिलकुल व्यर्थ है। इस प्रकार सामान्य रूप से जीवन का तथा विशिष्ट रूप से शिक्षा का लक्ष्य राष्ट्र का कल्याण करना है।

राष्ट्र के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण साधन है। अत: सामाजिक उद्देश्य के संकुचित अर्थ में राष्ट्र स्वयं की शिक्षा की एक सुनिश्चित प्रणाली बनाकर लागू करता है। यही नहीं, पाठ्यक्रम, शिक्षण-पद्धतियों एवं अनुशासन को भी इसी प्रकार से आयोजित करता है कि व्यक्ति की इच्छाओं तथा आकांक्षाओं का संकुचन भी हो जाये और उसमे आज्ञा-पालन, अनुशासन, संगठन तथा अपार भक्ति के ऐसे भाव भी विकसित हो जायें कि वह राष्ट्र कल्याण हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दे। कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य अपने संकुचित अर्थ में राज्य अथवा राष्ट्र को ही सबसे ऊँची सत्ता मानता है। इसके अनुसार मानव की स्वतंत्रता का दमन करके मानवीय जीवन के प्रत्येक अंग का पूर्णरूपेण समाजीकरण कर दिया जाता है। चूँकि समस्त सत्ता राष्ट्र के हाथों में आ जाती है इसलिए व्यक्ति अपने निजित्व के विकास हेतु स्वप्न भी नहीं देख सकता है। उससे केवल यही आशा की जाती है कि वह राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा कनरे के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दे।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि विभिन्न राष्ट्रों ने अपनी-अपनी आवश्यकताओं तथा आदर्शों को दृष्टि में रखते हुए सामाजिक उद्देश्य के सकुचति रूप को ही स्वीकार किया। प्राचीन स्पार्टा राज्य इस सम्बन्ध में सबसे ज्वलंत उदाहरण है। स्पार्टा एक छोटा सा नगर थ जो चारों ओर से शत्रु राज्यों से घिरा हुआ था। उस राज्य को यह भय था कि कोई शत्रु-राज्य उस पर टूट कर उसका अस्तित्व ही नष्ट न कर दे। अत: स्पार्टा में सामाजिक उद्देश्य के इसी संकुचित अर्थ को अपनाया गया। फलस्वरूप वहाँ के व्यक्तियों को ऐसे सांचे में ढाला गया, जिससे वे स्वतंत्रता पूर्वक चिन्तन तथा मनन न कर सकें अपितु बहादुर और साहसी सैनिक बनकर राज्य की रक्षा के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दें। इसीलिए स्पार्टा राज्य में शारीरिक दृष्टि से शक्तिहीन बालकों का कोई स्थान नहीं था। स्कूलों में ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता था जिसका लक्ष्य उन्हें सैनिक आदेशों का पालन करना, परिश्रमी बनाना, लड़ना तथा विजय प्राप्त करना सिखलाता था। दुसरे शब्दों में, बालकों को इतनी ही शिक्षा दी जाती थी, जितनी राज्य उसके लिए आवश्यक समझता था। साहित्य सम्बन्धी शिक्षा केवल कानून को याद करने तक ही सीमित थी। ऐसे ही संगीत में केवल होमर के देश भक्ति वाले गीत गवाये जाते थे। बालिकाओं को भी बालकों के समान शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर दिए जाते थे।

जर्मनी ने भी गत वर्षों में राज्य की सर्वोच्चता के सिधान्त को स्वीकार किया था। जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फिस्ते ने अपने राज्य के निवासियों को दिये गये भाषणों में इसी बात की पुष्टि की कि शिक्षा के द्वारा ही राज्य अपने आपको पुनर्जीवित कर सकता है। उसने इस बात पर भी बल दिया की केवल शिक्षा ही हमें उन बुराईयों से बचा सकती है, जो हमें आज तंग कर रही है। अत: फिस्ते ने अपने भाषणों द्वारा प्रत्येक जर्मनी-निवासी के मस्तिष्क में यह बात कूट-कूट कर भर दी कि व्यक्ति राष्ट्र सेवा के लिए ही पैदा हुआ है। अत: शिक्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में अपने राष्ट्र के प्रति अपर भक्ति की भावना का विकास किया जाना परमावश्यक है। फिस्ते की इस विचारधारा के परिणामस्वरूप जर्मनी में व्यक्ति की अपेक्षा राष्ट्र का मुख्य स्थान हो गया तथा व्यक्ति का पूर्ण रूप से दमन किया जाने लगा। उसी समय हीगल नमक महान दार्शनिक के लेखों ने भी सामाजिक उद्देश्य के संकुचित रूप का ही बलपूर्वक समर्थन किया। परिणामस्वरूप यह उद्देश्य अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया। हम देखते हैं कि जर्मनी में नाजी शासन के अन्तर्गत व्यक्ति को हर प्रकार से दबाया गया। समाचार-पत्रों का गला घोंट कर केवल नाजी पार्टी के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं आज्ञा-पालन को ही प्रत्येक व्यक्ति का एकमात्र कर्तव्य बना दिया गया था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जर्मनी में शिक्षा का केन्द्रीकरण कर दिया गया, जिससे राज्य की आवश्यकताओं पूरी होती रहें। संक्षेप में शिक्षा का का सामाजिक उद्देश्य अपने संकुचित अर्थ में इस बात पर बल देता है कि मानवीय जीवन के प्रत्येक अंग का पूर्णरूपेण समाजीकरण हो जाये।

सामाजिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ

समाजवाद के उदार रूप (जनतंत्रवाद समाजवाद) में सामाजिक उद्देश्य के व्यापक अर्थ पर बल दिया जाता है। जनतंत्रात्मक समाजवाद में समाज के महत्व को तो स्वीकार किया जाता है, परन्तु व्यक्ति समाज के सम्मुख नगण्य नहीं माना जाता। उसे इस उद्देश्य के उग्र रूप की भांति आँख मींचकर बिना सोचे-समझे राष्ट्रहित के लिए प्राणों की बाजी लगाने के लिए बाध्य नहीं किया जाता, अपितु वह स्वतंत्रतापूर्वक अपने अधिकार तथा कर्तव्यों का पालन करके राष्ट्र की तन, मन और धन से सेवा करता है। समाजवाद का यह उदार रूप वांछनीय है। इस प्रकार का समाजवाद अमरीका, इंग्लैंड, तथा भारतवर्ष जैसे जन्तान्त्रमक राष्ट्रों में पाया जाता है। चूँकि जनतंत्रवादीयों का अटल विश्वास है कि राष्ट्र को उन्नति के शिखर पर ले जाने के लये व्यक्तियों को सच्चा नागरिक बनाना परमावश्यक है इसलिए उक्त जनतंत्रात्मक राष्ट्रों ने सामाजिक उद्देश्य के व्यापक अर्थ को अलग-अलग रूप से स्वीकार करके अपने अपने यहां शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से की है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज-सेवा की भावना से ओत-प्रोत होकर सच्चा नागरिक बन जायें।

जनतंत्र में सच्ची नागरिकता एक चुनौती है। इसका कारण यह है कि नागरिकता के लिये अनके बौद्धिक,सामाजिक तथा नैतिक गुणों की आवश्यकता होती है। इन सभी गुणों को बालकों की रुचियों, योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार विकसित करना परम आवश्यक है। अत: बालक को सच्चा नागरिक बनने के लिए उसकी समस्त शक्तियों को पूर्णरूपेण विकसित करने के लिए उसे ऐसे अवसर प्रदान करने पड़ते हैं जिनके आधार पर वह अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों को समझ कर अपने राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनितिक समस्याओं के विषय में स्पष्ट तथा स्वतंत्र रूप से चिन्तन कर सके एवं उन्हें सरलतापूर्वक सुलझा सके। ध्यान देने की बात है कि व्यक्ति समाज की सेवा उसी समय पर सकता है जब उसकी समस्त शक्तियाँ विकसित हो चुकी हों तथा वह किसी पर भार न हो। ऐसा व्यक्ति अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर अन्य व्यक्तियों को कष्ट नहीं देना चाहता अपितु वह अपनी प्रत्येक क्रिया के द्वारा समाज का भला करना चाहता है। बालक की शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जिसे वह अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को विकसित करते हुए अपनी योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार स्वतंत्र नागरिक के रूप में राष्ट्र की सेवा कर सके। चूँकि भारतवर्ष अब एक जन्तान्त्रमक समाजवादी राष्ट्र है, इसलिए अब हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सच्चे, इमानदार तथा कर्मठ नागरिक उत्पन्न करना है। इस उद्देश्य के अनुसार हमारे स्कूलों ने अब स्वयं एक आदर्श समाज का रूप धारण कर लिया है। उनमें प्रेम तथा आत्म-त्याग की भावना का सुन्दर एवं उत्तम वातावरण दिखाई देता है। पाठ्यक्रम का अर्थ अब संकुचित न होकर व्यापक लिया जाता है तथा बालकों को विभिन्न विषयों एवं सामाजिक क्रियाओं द्वारा नागरिकता की शिक्षा दी जाती है। उन्हें उनके अधिकारों तथा राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों से भी अवगत कराया जाता है एवं उनमें प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र सेवा की भावना जागृत की जाती है। इस प्रकार से भारतीय स्कूलों में बालकों के सम्मुख ऐसा वातावरण प्रस्तुत किया जाता है जिससे वे व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर अपने-अपने व्यक्तित्व का विकास भी कर सकें तथा अपने राष्ट्र की तन, मन और धन से सेवा भी करते रहें।

बागले तथा डीवी आदि शिक्षाशास्त्रियों ने भी सामाजिक उद्देश्यों के व्यापक अर्थ को ही स्वीकार किया है। परन्तु उन्होंने इस उद्देश्य को समाज सेवा तथा सामाजिक कुशलता की संज्ञा दी है। बागले को मत है कि सामाजिक कुशलता वह मापदण्ड है जिसके द्वारा शिक्षा सम्बन्धी प्रत्येक कार्य का मुल्यांकन किया जा सकता है। अत: उसने अपनी पुस्तक एजुकेशन वैल्यूज में सामाजिक दृष्टी से कुशल व्यक्ति की निम्नलिखित तीन प्रमुख विशेषताएं बताई है –

आर्थिक कुशलता- आर्थिक कुशलता का अर्थ है व्यक्ति की उस योग्यता से है जिसके आधार पैर वह दसरों पर भार न बनकर अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करता है।

निषेधात्मक नैतिकता - निषेधात्मक नैतिकता का तात्पर्य यह है की जब व्यक्ति की अपनी इच्छाओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति दुसरे की आर्थिक कुशलता में बाधा डाले, तो वह अपने त्यागने के लिए तात्पर्य हो।

विधायक कुशलता - विधायक कुशलता का अर्थ यह है कि जब व्यक्ति की आकांक्षायें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में समाज की उन्नति के लिए सहायक न हों तो वह उन्हें त्यागने के लिए तैयार हो।

जॉन डीवी के अनुसार “सामाजिक कुशलता “ का अर्थ है व्यक्ति द्वारा सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने की क्षमता। अत: बालकों के सम्मुख इस प्रकार का शैक्षिक वातावरण परुतु करना चाहिये जिसमें रहते हुए वे अपने पूर्व तथा भावी अनुभवों को समझ सकें तथा अपनी जन्मजात शक्तियों को विकसित करके अपने जीवन में आने वाली परिस्थितियों का सामना करके योग्य बन सके। अत: स्कूल का स्वरुप एक छोटे समाज के सामान होना चाहिये अर्थात उसे समाजिक जीवन का अधिकाधिक प्रतिनिधित्त्व करना चाहिये। इसके लिए पाठ्यक्रम में उन्ही विषयों को सम्मलित करना चाहिये जो सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी हों। इससे सामाजिक क्रियाओं तथा स्कूल सम्बन्धी क्रियाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जायेगा। जॉन डीवीने सामाजिक कुशलता का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्वयं लिखा है – “ सबसे व्यापक रूप में सामाजिक कुशलता व्यक्ति में सामाजिक हित ही भावना का संचार करने एवं अपने व दूसरों के हितों को अलग-अलग रखने की भावना को नष्ट करने की प्रवृति है। “

संक्षेप में सामाजिक उद्देश्य के व्यापक अर्थ में “शिक्षा समाज कसे के लिए “ “शिक्षा नागरिकता के लिए “ तथा “शिक्षा सामाजिक कुशलता के लिए” होनी चाहिये। इस उद्देश्य के द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा बालकों को अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति जागरूक सामाजिक दोनों प्रकार की उन्नति सम्भव हैं।

सामाजिक उद्देश्य के पक्ष में तर्क

(1) समाज एक महान शरीर के समान है। जिस प्रकार से शारीर की आवश्यकताओं के पूरा होने से उसके सभ अंग लाभ उठाते हैं, उसी प्रकार समाज की आवश्यकताओं के पूरा होने पर प्रत्येक व्यक्ति का जीवन निर्भर करता है। ऐसी दशा में शिक्षा के द्वारा समाज हित को महत्व दिया जाना चाहिये।

(2) संसार के प्रत्येक व्यक्ति वंशानुक्रम से केवल पाशविक प्रवृतियों को ही लेकर जन्म लेता है। यह समाजी वातावरण का ही तो चमत्कार है जो उसे दानव से मानव बना देता है। अत: शिक्षा में सामाजिक हित पर विशेष बल दिया जाना चाहिये।

(3) व्यक्ति का जन्म समाज में होता है तथा समाज में ही रहते हुए उसका सम्पूर्ण विकास होता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को समाज की उन्नति के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना चाहिये।

(4) समाज के अन्दर संस्कृति तथा सभ्यता का जन्म एवं पोषण होता है। अत: सामाजिक हितों की रक्षा करना व्यक्ति का परम कर्त्तव्य है।

(5) राज्य एक अनिवार्य आवश्यकता है। इसके बिना सुरक्षा न्याय तथा शान्ति स्थापित नहीं हो सकती, अत: व्यक्ति को राज्य के लिए तैयार करना उचित है।

(6) रेमान्ट के अनुसार “ नि:समाज व्यक्ति की कोरी कल्पना है। अत: समाज को सबल बनाना न्यायसंगत है।”

(7) समाज व्यक्ति को सामूहिक जीवन व्यतीत करने के अवसर प्रदान करता है जिससे वह नई-नई खोजें करके अपने जीवन को अधिक सुखी तथा सम्पन्न बनाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को समाज के कल्याण की भावना से ओत-प्रोत रहना चाहिये।

सामाजिक उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य अपने व्यापक अर्थ में तो ठीक-सा लगता है, परन्तु संकुचित अर्थ में इस उद्देश्य के निम्नलिखित दोष हैं –

(1) अमनोवैज्ञानिक – यह उद्देश्य अपने संकुचित अर्थ में अमनोवैज्ञानिक है। इसका कारण यह है कि यह उद्देश्य बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की अवहेलना करके उन्हें केवल राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरण करने के लिए एक ही सांचे में ढलने पर बल देता है।

(2) मनुष्य साध्य के लिए केवल एक ही साधन- इस उद्देश्य के अनुसार व्यक्ति को समाज अथवा राज्य की उन्नति के लिए केवल एक साधन मात्र ही समझा जाता है। ध्यान रहे कि समाज रुपी साध्य व्यक्ति रुपी साधन के द्वारा प्राप्त करने से व्यक्ति बिल्कुल महत्वहीन हो जाता है।

(3) कला व साहित्य का दुरूपयोग – इस उद्देश्य के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई स्थान नहीं है। अत: इस उद्देश्य के अनुसार किसी भी कला तथा साहित्य की उन्नति होना असम्भव से ही है।

(4) शिक्षा के साधनों का दुरूपयोग- यह उद्देश्य अपने संकुचित रूप में व्यक्ति की अपेक्षा समाज राज्य के हितों को ही सब कुछ समझता है। अत: इस उद्देश्य के अनुसार समाज के हितों को दृष्टि में रखते हुए शिक्षा के साधनों का अनुचित प्रयोग करना भी उचित ही समझा जाता है।

(5) ऐतिहासिक दोष – सामाजिक उद्देश्य के संकुचती अर्थ में समस्त सत्ता राष्ट्र के हाथों में आ जाती है जिससे व्यक्ति अपने नेता की आज्ञा का पालन आंख मींच कर करने लगता है। प्राय: देखा गया है कि एक्तान्त्रावादी समाज के हिटलर तथा मुसोलिनी जैसे कर्णधारों ने अपनी शक्ति का दुरूपयोग करके अपने-अपने देशों को चौपट ही कर दिया।

(6) संकुचित राष्ट्रीयता का विकास- यह उद्देश्य व्यक्ति में संकुचित राष्ट्रीयता की भावना का विकास करता है। इस भावना से प्रेरित होकर वह अपने राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वशक्तिमान समझते हुए अन्य राष्ट्रों के महत्व को स्वीकार नहीं करता। परिणामस्वरूप युद्ध की लपटें दहक उठती हैं।

(7) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दमन- सामाजिक उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अपेक्षा करके व्यक्ति को राष्ट्र रुपी मशीन का ऐसा पुर्जा बनाना चाहता है जो सदैव अपने राष्ट्र के नेता के संकेतों पर नाचता रहे। ध्यान रहे कि जब व्यक्ति की स्वतंत्र रूप से चिन्तन करने की शक्ति का दमन कर दिया जायेगा तो उसकी कोई प्रगति नहीं हो सकित।

(8) समाज मानव से उपर नहीं – यह उद्देश्य व्यक्ति की अपेक्षा समाज के महत्व पर बल देता है। यह ठीक नहीं है। वास्तविकता यह है कि व्यक्तिगत शक्तिओं का पूर्ण विकास होना चाहिये। जब व्यक्ति का विकास हो जायेगा तो समाज का विकास अपने ही आप हो जायेगा।

(9) विज्ञान का दुरूपयोग- यदि राज्य के हाथ में शिक्षा रहेगी तो वह अपनी सुरक्षा के लिए वैज्ञानिक खोजों का दुरूपयोग एवं दमन करने में भी नहीं हिचकिचायेगा। स्मरण रहे कि जिस विज्ञान का प्रयोग आज समाज को सबल तथा सुद्रढ़ बनाने के लिए जा रहा है, उसके जन्मदाता गैलीलियो तथा ब्रूनो को उनके समाज में क्या-क्या कष्ट नहीं दिये।

(10) एकांगी शिक्षा- यह उद्देश्य केवल नागरिकता की शिक्षा पर बल देता है। इससे उस मानसिक, चारित्रिक, कलात्मक तथा अध्यात्मिक विकास नहीं हो सकेगा। व्यक्ति को केवल एक ही क्षेत्र के लिए तैयार करना उसके विकास को कुंठित करना है।

शिक्षा के व्यक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों का समन्वय

शिक्षा के वैक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों के संकुचित तथा व्यापक रूपों पर अलग-अलग प्रकाश डालने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अपने-अपने चर्म रूपों में ये दोनों उद्देश्य वांछनीय नहीं है। कारण यह है कि जहाँ एक ओर वैयक्तिक उद्देश्य के समर्थ व्यक्ति को उसके विशेष व्यक्तित्व के विकास हेतु अनियंत्रित स्वतंत्रता प्रदान करने का विचार प्रस्तुत करते हैं, वहां दूसरी ओर सामाजिक उद्देश्य के दावेदार इस विचार के पक्ष में हैं कि समाज की भलाई के लिए व्यक्ति को अपने प्राणों की बाजी लगाने में भी नहीं हिचकिचाना चाहिये। व्यक्ति को इतना उछंकल बना देना कि वह व्यक्ति का शोषण करने लगे तथा उसे अपना दास बना ले, अच्छा आदर्श नहीं है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब और जहाँ-जहाँ इन दोनों उद्देश्यों के संकुचित रूपों को स्वीकार करके शिक्षा का संगठन किया गया, तब-तब व्यक्ति और समाज दोनों को अनके दुष्परिणामों का सामना करना पड़ा है। व्यक्ति को समाज की तुलना में बड़ा समझना अथवा समाज को व्यक्ति की तुलना में अधिक महत्व देना उचित नहीं है। दोनों उद्देश्यों के चर्म रूपों में इतना अधिक विरोध है कि इन दोनों में समन्वय स्थापित करना असंभव-सा दिखाई पड़ता है। परन्तु हाँ, यदि इन दोनों उद्देश्यों के संकुचित रूपों को छोडकर इनके व्यापक रूपों को स्वीकार किया जा सकता है। वास्तव में व्यक्ति और समाज में कोई आपसी विरोध नहीं है। ये दोनों एक-दुसरे पर निर्भर हैं।

व्यकित स्वाभाव से सामाजिक होता है। उसका सम्पूर्ण जीवन समाज का ही दिया हुआ है। उसने लिखना-पढना, बोलना-चलना तथा अन्य व्यक्तियों के साथ व्यवहार कानर सभी कुछ समाज में ही रहते हुए सिखा है। अत: अपने सम्पूर्ण विकास के लिए वह समाज का ऋणी है। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी व्यक्तिगत वस्तु नहीं है अपितु वह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा विश्व का वास्तविक कल्याण किया जा सकता है। यदि व्यक्ति को समाज से अलग कर दिया जाए तो उसका जीवित रहना नितान्त असम्भव है। ऐसी दशा में उससे यह आशा नहीं की जा सकती है कि वह समाज के विरुद्ध कोई आचरण करेगा।

जिस प्रकार बिना समाज के व्यक्ति की कल्पना करना भ्रमात्मक है ठीक उसी प्रकार बिना व्यक्तियों के समाज की कल्पना करना भी भारी भूल है। समाज व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसकी रचना व्यक्तियों ने अपने हित के लिए ही की है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति में कुछ जन्मजात शक्तियाँ तथा विशेषतायें होती है। इन विशेषताओं के विकसित होने पर ही विभिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न समयों में संस्कृति तथा सभ्यता एवं विज्ञान के क्षेत्रों में अपना-अपना योगदान दिया है। इसी से सामाजिक प्रगति का क्षेत्र बढ़ा तथा बढ़ता चला जा रहा है। ऐसी दशा में यह कहना अनुचित न होगा कि व्यक्ति के विकास का ही अर्थ है – सामाजिक विकास। जब समाज की रचना तथा प्रगति व्यक्तियों के द्वारा ही हुई है तो व्यक्ति उसकी अवहेलना कभी भी नहीं कर सकता।

उपर्युक्त विवरण में स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति को अपने विकास के लिए समाज की तथा समाज को अपनी प्रगति के लिए व्यक्तियों की आवश्यकता है। यदि समाज में अच्छे तथा वांछनीय गुणों से युक्त व्यक्तियों का विकास होगा तो समाज दिन-प्रतिदिन उन्नति की ओर अग्रसर होता रहेगा अन्यथा उसे एक दिन रसातल में जाना ही होगा। अत: समाज को चाहिये कि वह व्यक्ति के व्यक्तित्व  को पूर्ण रूप से विकसित करने के लिए समाज उचित परिस्थितियों को उपलब्ध करे तथा व्यक्ति को चाहिये कि वह अपनी यथाशक्ति समाज की सेवा करे तथा उसे शक्तिशाली बनाये। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति और समाज की प्रगति साथ-साथ चलती है। अत: दोनों मं किसी एक को प्रधानता देना अन्याय है। दोनों ही अपनी-अपनी उन्नति अथवा विकास के लिए एक-दुसरे पर पर निर्भर है। इन दोनों में किसी प्रकार का कोई भी विरोध नहीं है अपितु दोनों ही एक-दुसरे के पूरक तथा सहायक हैं। शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक दोनों उद्देश्यों भी एक-दुसरे के पूरक तथा सहायक है दोनों उद्देश्य का प्रतिपादन दर्शन की दो महत्वपूर्ण विचारधाराओं ने किया है। व्यक्तिगत उद्देश्य का प्रतिपादन प्रकृतिवाद विचारधारा के द्वारा किया गया है तथा सामाजिक उद्देश्य का समर्थन आदर्शवादीयों ने किया है। यही नहीं, दोनों ही उद्देश्य शिक्षा की दो महत्वपूर्ण प्रवृतियों का भी परतिनिधित्व करते हैं। वैयक्तिक उद्देश्य, वैज्ञानिक प्रवृति पर आधारित है तथा सामाजिक उद्देश्य सामाजिक उद्देश्य प्रवृति पर। इन दोनों की प्रवृतियों ने आधुनिक शिक्षा को प्रभावित किया है। ऐसी दशा में ये दोनों ही उद्देश्य शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य है तथा एक दुसरे के पूरक और सहायक है। अब तो आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के द्वारा न तो व्यक्ति को इतना उछंखल बना दिया जाये कि वह समाज की अवहेलना कनरे लगे और न ही समाज को इतना सबल बना दिया जाये कि वह व्यक्ति का दमन और संकुचन करके उसे अपना दास ही बना ले। अत: व्यक्ति और समाज दोनों के विकास तथा प्रगति हेतु शिक्षा के दोनों वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों के मध्य का रास्ता निकाल लिया जाये जिससे व्यक्ति अपनी यथाशक्ति समाज को सबल बना सके तथा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से विकसित करने के लिए वांछनीय परिस्थितियों को उपलब्ध कर सके। इस दृष्टि से यदि हम वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ आत्माभूति तथा सामाजिक उद्देश्य का अर्थ समाज सेवा स्वीकार कर लें तो दोनों उद्देश्यों में समन्वय सरलतापूर्वक स्थापित हो सकता है। दोनों उद्देश्यों के व्यापक रूपों में समन्वय से शिक्षा की ऐसी योजना बनाई जा सकेगी जिसके द्वारा दोनों बातें सम्भव हो सकेंगी – (1) बालक के व्यक्तित्व का विकास, तथा (2) सामाजिक उन्नति।

रास का भी यह मत है – “ वास्तव में जीवन और शिक्षा के उद्देश्यों के रूप में आत्म-विकास तथा समाज सेवा में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों एक ही है।”

शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों के बीच दार्शनिक ढंग से भी समन्वय किया जा सकता है। रास तथा नन दोनों शिक्षा दार्शनिकों ने इन उद्देश्यों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए दार्शनिक प्रणाली को ही अपनाया है। रास ने वैयक्तिकता ने निम्न दो रूप माने हैं –

(1) आत्माभिव्यक्ति

(2) आत्मानुभूति

आत्म-अभिव्यक्ति में आत्म का तात्पर्य है “ जैसा में उसे चाहता हूँ “| इसके अन्तर्गत व्यक्ति की मूर्तिमान आत्मा होती है। यही नहीं, इसमें आत्म-प्रकाशन की भावना प्रधान होती है। इस भावना के वशीभूत कोकर व्यक्ति अपने मूल-प्रवृतियों के अनुसार बिना किसी प्रतिबन्ध के स्वछन्द रूप से कार्य करता है ; चाहे समाज को लाभ हो अथवा हानि। इस दृष्टि में आत्माभिव्यक्ति व्यक्ति के मस्तिष्क की वह दशा है जिसमें व्यक्ति अनियंत्रित रहते हुए स्वछन्द रूप से कार्य करता है। इस दशा में समाज कल्याण अथवा विनाश का कोई ध्यान नहीं होता। परिणामस्वरूप समाज में एक प्रकार की अवस्था का उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। परन्तु व्यक्ति के मस्तिष्क में आत्म-प्रकाशन की भावना सदैव ही नहीं रहती है। विकास तो निरन्तर ही होता रहता है। अत: इस अवस्था के पश्चात व्यक्ति शैने-शैने आत्मानुभूति की अवस्था को भी प्राप्त कर लेता है। दुसरे शब्दों में, उसे अपनी आत्मा का बोध अथवा ज्ञान हो जाता है। आत्मानुभूति में ‘आत्म’ का अभिप्राय: है – “जैसा में उसका होना चाहता हूँ “। इसमें आत्म वह आदर्श आत्म है जिसको प्राप्त करने के लये व्यक्ति सदैव प्रयत्नशील रहता है। वास्तव में आत्मानुभूति व्यक्ति के मस्तिष्क की वह दशा है जसमें व्यक्ति अपने आपको नियंत्रित रखते हुए समाज की सेवा करना अपना परम कर्त्तव्य समझता है तथा उसकी आत्मा को ऐसे कार्यों को करने में सुख और शान्ति प्राप्त होती हैं, जिससे समाज का लाभ अथवा कल्याण होता हो। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मानुभूति में व्यक्ति की आत्मा का परिष्कार हो जाता है जिससे व्यक्ति अपने उपर आवश्यकतानुसार नियंत्रण रखकर समाज को किसी भी प्रकार की क्षति पहुंचाने का स्वप्न भी देखता है अपितु वह सदैव इस बात का प्रयत्न करता है कि उसके शारीर अथवा आचरण से अन्य व्यक्तियों का भला ही होता रहे तथा समाज उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहे।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है की आत्मानुभूति एक महान और उच्च आदर्श है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति तथा समाज दोनों का ही हित सम्भव है। चूँकि सभी की भलाई प्रत्येक की भलाई है, इसलिए शिक्षा के दोनों उद्देश्यों के व्यापक रूपों को समन्वित करके शिक्षा का एक ही उद्देश्य होना चाहिये और वह है – बालक में आत्मानुभूति को उत्पन्न करना। इस उद्देश्य द्वार बालक के व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ सामाजिक प्रगति भी सम्भव है। रास ने इस बात का समर्थन करते हुए बड़े सुन्दर ढंग से लिखा है – “जिस सामाजिक वातावरण में रहकर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास करता है उससे अलग होने पर उसकी वैयक्तिकता का कोई मूल्य की नहीं रह जाता तथा उसका व्यक्तित्व निरथर्क हो जाता है। आत्मबोध केवल सामाजिक सेवा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है तथा ऐसे व्यक्तियों के द्वारा ही समाज के लिए सामाजिक आदर्शों को उपस्थित किया जा सकता है, जिनके व्यक्तित्व का समुचित विकास हो गया हो। यह चक्र तोडा नहीं जा सकता है।“

प्रो० टी० पी० नन के अनुसार व्यक्ति समक जा ऋणी है। उसके विकास में समाज सदा से ही सहायक रहा है तथा भविष्य में भी रहेगा। ऐसी दशा में यदि बालक को समाज का रचनात्मक सदस्य बनना है तो उसे केवल अपना ही विकास नहीं करना अपितु समाज की उन्नति में भी यथाशक्ति पूरा-पूरा योग देना है। नन का अटल विश्वास था की व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी व्यक्तिगत वस्तु नहीं है अपितु यह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा समाज का वास्तविक हित हो सकता है, क्योंकि सभी की भलाई से ही प्रत्येक की भलाई सम्भव है, इसलिए व्यक्ति के विकास से नन का तात्पर्य आदर्श आत्मानुभूति को प्राप्त करना था। नन ने लिखा है, “ व्यक्तित्व का विकास सामाजिक वातावरण में ही होता है जहाँ कि सामाजिक रुचियों और क्रियाओं का उसे भोजन मिलता है। “

इस प्रकार शिक्षण की योजना ऐसी होने चाहिये कि व्यक्ति और समाज दोनों के बीच में समन्वय स्थापित किया जा सके। इससे व्यक्ति और समाज दोनों की प्रगति सम्भव है। अत: जहाँ एक ओर बालक को उसके विकास हेतु पूर्ण अवसर प्रदान किये जाने चाहिये वहाँ दूसरी ओर शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात बालक को भी नागरिक के रूप में समाज की उन्नति में यथाशक्ति योगदान देना चाहिये। ऐसी दशा में में जहाँ एक ओर प्रत्येक माता-पिता, गुरुजन तथा राज्य का कर्त्तव्य है कि वे बालकों को सर्वांगीण विकास करने के लिए उन्हें पूर्ण अवसर प्रदान करें वहाँ दूसरी ओर बालकों का भी यह कर्त्तव्य है की वे जब नागरिक जीवन में प्रवेश करें तो वे भी समाज की यथाशक्ति सेवा करें।

स्त्रोत: पोर्टल विषय सामग्री टीम

अंतिम बार संशोधित : 3/13/2023



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