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शिक्षा के साधनों का अर्थ

शिक्षा के साधनों का अर्थ

परिचय

प्राय: यह विश्वास किया जाता है की बालकों को शिक्षा केवल स्कूलों तहत कॉलेजों में ही दी जाती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि स्कूलों तथा कॉलेजों के अतिरिक्त बालक अनके साधनों के द्वारा शिक्षा प्राप्त करता है। प्रशिद्ध शिक्षा शास्त्री जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा का अर्थ है – जीवन अथवा विकास। उसका मत है कि जीवन अथवा विकास का अच्छा या बुरा होना वंशानुक्रम तथा वातावरण पर निर्भर करता है। वंशानुक्रम निश्चित होता है , परन्तु वातावरण को परिवर्तन द्वारा अच्छा या बुरा बनाया जा सकता है। अत: जीवन अथवा विकास का अच्छा या बुरा होना वातावरण पर निर्भर करता है इस दृष्टि से बालक के जीवन तथा विकास के लिए उपयुक्त वातावरण प्रस्तुत करना ही शिक्षा है। परिवार समुदाय, धर्म, राज्य, स्कूल, पुस्तकालय, पुस्तक रेडियो, सिनेमा, टेलिविज़न, प्रदर्शनी तथा समाचार-पत्र आदि सब ऐसे तत्व है जो बालक को हर प्रकास का वातावरण प्रस्तुत करते हैं। शिक्षा में इन सभी तत्वों को शिक्षा के साधनों की संज्ञा दी जाती है। साधन क अंग्रेजी में एजेंसी कहते हैं एजेंसी का अभिप्राय है एजेंट उस व्यक्ति को कहते हैं जो किसी कार्य को करे अथवा किसी प्रभावित करे। इस दृष्टि से भी ये सभी तत्व अथवा संस्थायें शिक्षा के साधन है क्योंकि ये बालक पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तथा चेतन अथवा अचेतन रूप से शैक्षणिक प्रभाव डालते रहते हैं।

शिक्षा के साधनों का वर्गीकरण

शिक्षा के साधनों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण वर्गीकरण निम्नलिखित पक्तियों में दिये जा रहे हैं –

शिक्षा के साधनों के पहले वर्गीकरण के अन्तर्गत शिक्षा के विभिन्न अर्थों की भांति शिक्षा के साधन भी अनेक हैं। शिक्षा के इन साधनों को प्राय: दो भागों में विभाजित किया जाता है – (1) सविधिक अथवा औपचारिक एवं (2) अविधिक अथवा अनौपचारिक। औपचारिक साधनों के उधाहरण है – स्कूल, व्यवस्थित मनोरंजन केन्द्र तथा पुस्तकालय आदि एवं अनौपचारिक साधनों के उदहारण है – परिवार, समुदाय, धर्म(चर्च), तथा खेल के समूह आदि। औपचारिक साधनों द्वारा बालक को प्रत्यक्ष रूप से नियिमित शिक्षा प्रदान की जाती है। इसके विपरीत अनौचारिक साधनों द्वारा बालक अप्रत्यक्ष रूप से अनियमित शिक्षा ग्रहण करता है।

शिक्षा के साधनों के दुसरे वर्गीकरण के अनुसार भी शिक्षा के सभी साधनों को दो भागों में विभाजित किया जाता है – (1) सक्रिय साधन तथा निष्क्रिय साधन। सक्रिय साधनों के अन्तर्गत परिवार, स्कूल, समुदाय, चर्च (धर्म), राज्य, सामाजिक क्लब तथा सामाजिक कल्याण केन्द्र आदि गिने जाते हैं और निष्क्रिय साधनों के अन्तर्गत सिनेमा, टेलीविजन, रेडियो, समाचार-पत्र तथा प्रेस आदि को सम्मिलित किया जाता है। सक्रिय साधनों के द्वारा शिक्षा देने वाले तथा शिक्षा प्राप्त करने वाले दोनों एक-दुसरे क्रिया तथा प्रतिक्रिया करके एक-दुसरे प्रभावित करके आचरण के बदलने में सहयोग प्रदान करते हैं। इसके विपरीत निष्क्रिय साधनों का प्रभाव एकतरफा होता है। ये साधन सुनाने तथा देखने वाले को तो प्रभावित करते हैं परन्तु इन पर देखने वाले या सुनाने वाले का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए, सिनेमा अथवा टेलिविज़न को देखने वालों पर तो इन साधनों का प्रभाव अवश्य पड़ता है परन्तु इनको देखने वाले का इन पर कोइ प्रभाव नहीं पड़ता। इस प्रकार निष्क्रिय साधनों में केवल एक ही पक्ष सक्रिय रहता है तथा दूसरा निष्क्रिय।

ब्राउन ने शिक्षा का तीसरा वर्गीकरण प्रस्तुत करते हुए शिक्षा के सभी साधनों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया है –

(1) औपचारिक साधन – ब्राउन ने औपचारिक साधनों के अन्तर्गत स्कूल, धार्मिक संस्थायें, वैचित्र संग्रहालय, पुस्तकालय तथा आर्ट गेलरीज को सम्मिलित किया है। ब्राउन का मत है की स्कूल में बालक को जान-बुझ कर नियमित रूप से योग्य शिक्षकों द्वार शिक्षा दी जाती है। धार्मिक संस्थानों जैसे – मन्दिरों, मस्जिदों तथा गिर्जाओं में बालक को चरित्र विकास एवं ज्ञानार्जन की शिक्षा दी जाती है। विचित्र संग्रहालय बालक का विभिन्न प्रकार की वस्तुओं, जीव-जंतुओं तथा ऐतिहासिक लेखों द्वारा ज्ञानात्मक, भावानात्मक, एवं सामाजिक विकास करते है। पुस्तकालय बालक का विभिन्न की प्रकार की पुस्तकों, समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं द्वारा बौधिक विकास करते हैं तथा आर्ट गेलरीज बालक के कलात्मक चित्रों को दिखाकर साहित्य तथा कला के प्रति रूचि उत्पन्न करती है।

(2) अनौचारिक – ब्राउन के अनुसार अनौचारिक साधनों के उदाहरण – परिवार, खेल, समूह, तथा समाज अथवा राज्य है। उसका अखण्ड विश्वास है कि परिवार में बालकों को प्रेम, दया, सहानभूति, सहयोग, त्याग, परोपकार , सहिष्णुता, कर्त्तव्य-पालन तथा आर्थिक सिद्धान्तों की शिक्षा मिलती है। खेल-समूह, वाद-विवाद तथा विचार-विदिमय द्वारा बालक के ज्ञान में वृधि करते है तथा सामाजिक प्राणी होने के नाते वह समाज अथवा राज्य से सामाजिक शिक्षा ग्रहण करता है।

(3) व्यवसायिक साधन- व्यवसायिक साधनों के अन्तर्गत रेडिओ, टेलीविजन, चलचित्र, नृत्य, गृह , नाट्यशाला, समाचार-पत्र तथा प्रेस आदि को सम्मिलित किया जाता है। उसका मत है कि रेडियो के द्वारा बालक विभिन्न प्रकार की सूचनाओं, वैज्ञानिक अन्वेषणों, कविताओं तथा भाषणों को सुनता है। इससे उसके ज्ञान में वृधि होती है। टेलीविजन, चलचित्र तथा नाट्यशाला के द्वारा बालक अपनी संस्कृति एवं सभ्यता से परिचित होता है तथा समाचार-पत्रों एवं प्रेस के द्वारा बालक समाजिक शिक्षा ग्रहण करता है।

(4) अव्यवसायिक साधन – अव्यवसायिक साधनों से ब्राउन का तात्पर्य उन साधनों से है जिसका निर्माण केवल समाज के भलाई के लिए किया जाता है। इसका सम्बन्ध किसी व्यवसाय से नहीं होता। अव्यवसायिक साधनों के अन्तर्गत ब्राउन  ने खेल-संघ, समाज कल्याण-केन्द्र, नाटकीय संघ, युवक कल्याण-संगठन, स्काउटिंग, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र तथा गर्ल-गईडिंग आदि साधनों को सम्मिलित किया है। उसका मत है की खेल-संघो के द्वारा बालक विभिन्न प्रकार के खेलों को खेलता है। इससे उसका शारीरिक विकास होता है तथा विश्व भ्रातृत्व की भावना जागृत होती है। सामाजिक कल्याण समितियां  जैसे भारत सेवा सदन तथा भारत सेवा समाज आदि बालक को समाज की सेवा करने के लिए प्रेरित करती है। नाटकीय संघ बालक का समाजीकरण करते हैं। युवक कल्याण-संगठन बालक को समाज के हित के लिए सुयोग्य नागरिक बनाने का प्रयास करते हैं। प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों में प्रौढ़ व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करते हैं तथा स्काउटिंग एवं गर्ल-गाईडिंग के द्वारा बालक को व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त होती है।

(5) उपर्युक्त तीनों वर्गीकरण पर प्रकाश डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा के साधनों का पहला वर्गीकरण उत्तम एवं उपयुक्त है। दुसरे शब्दों में शिक्षा के सभी साधनों को केवल औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों के अन्तर्गत सरलतापूर्वक रखा जा सकता है। अत: निम्नलिखित पंक्तियों में हम शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों पर विस्तृत दृष्टि से प्रकाश डाल रहे हैं।

शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों का अध्ययन

(1) औपचारिक साधन - औपचारिक साधनों का अर्थ – शिक्षा के औपचारिक साधनों के अन्तर्गत वे संस्थायें आती है जिनके द्वारा किसी पूर्व निश्चित योजना के अनुसार बालक को नियंत्रित वातावरण में रखते हुए शिक्षा के संकुचित अथवा निश्चित उदेश्य को प्राप्त किया जाता है। इन साधनों का निर्माण समाज इसलिए करता है कि बालक इनके द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा प्राप्त कर सके। शिक्षा के औपचारिक साधनों का सम्पूर्ण वातावरण नियंत्रित होता है। इनके कार्य करने का स्थान तथा समय भी निश्चित होता है। इनकी देखभाल प्रशिक्षित व्यक्ति करते हैं। इन सब साधनों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। यही नहीं, इन सबका सम्पूर्ण कार्यक्रम एक विशेष अनुशासन के अन्तर्गत होता है तथा इन सबकी रुपरेखा एवं कार्य करने का ढंग भी अलग-अलग और पूर्वनिश्चित होता है। इस प्रकार औपचारिक साधनों में शिक्षा की प्रक्रिया सुव्यवस्थित होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के औपचारिक साधन पूर्वनिश्चित योजना के अनुसार निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बालक को नियंत्रित वातावरण में रखते हुए निश्चित व्यक्ति द्वारा निश्चित व्यक्ति द्वारा निश्चित पाठ्यक्रम (ज्ञान) को निश्चित विधि द्वारा निश्चित स्थान पर निश्चित समय में समाप्त कर देते हैं। इस प्रकार शिक्षा के औपचारिक साधन सीमित होते हैं तथा इनके द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा कृत्रिम होती है। इन साधनों की श्रेणी में स्कूल विचित्र संग्रहालय, व्यवस्थित मनोरंजन केन्द्र, चित्र भवन, वाचनालय तथा पुस्तकालय आदि संस्थायें आती है। चूँकि इन साधनों के द्वारा बालक के व्यवहार में जानबूझ कर प्रत्यक्ष रूप में सुधार करने का प्रयास किया जाता है, इसलिए इन्हें प्रत्यक्ष साधन भी कहते हैं।

औपचारिक साधनों के गुण – औपचारिक साधनों द्वारा सांस्कृति का संरक्षण, सुधार तथा हस्तांतरण होता है। इस प्रकार इन साधनों का सबसे बड़ा गुण यह है कि इनके द्वारा मानव समाज के उन अनुभवों तथा गुणों को निश्चित समय में प्राप्त किया जा सकता है जो अन्य साधनों के द्वारा असम्भव है। जॉन डीवी ने – “ अनौपचारिक शिक्षा के बिना जटिल समाज के साधनों तथा सिधान्तों को हस्तांतरित करना सम्भव नहीं है। एक एक ऐसे अनुभव की प्राप्ति का द्वार खोलती है जिसको बालक दूसरों के साथ रहकर औपचारिक शिक्षा के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकते “|

औपचारिक साधनों के दोष - औपचारिक साधनों के दोष भी अनके है। इन साधनों के द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा तुच्छ, अस्पष्ट, निर्जीव तथा किताबी होती है। इस प्रकार की शिक्षा पाठ्यक्रम से जकड़ी रहती है जिसके करण बालक को समय-चक्र तथा कठोर अनुशासन के बन्धनों में जकड कर नियंत्रित वातावरण में रखा जाता है। ऐसे निय्नात्रित वातावरण में रहते हुए बालक तोता तो आवश्य बन जाता है, परन्तु ज्ञानी नहीं। वह उन अनुभवों से वंचित रह जाता है जिन्हें वह स्वयं क्रिया करके स्वाभाविक रूप से ग्रहण करता। जॉन डीवी ने औपचारिक शिक्षा के इन दोषों पर प्रकाश डालाते हुए लिखा है – “औपचारिक शिक्षा बड़ी सरलता से तुच्छ, निर्जीव, अस्पष्ट तथा किताबी बन जाती है। कम विकसित समाजों में जो संचित ज्ञान होता है उसे कार्य में बदला जा सकता है। पर उन्नत संस्कृति में जो बातें सीखी जाती है वे प्रतीकों के रूप में होती और उनको कार्यों में परिणित नहीं किया जा सकता है। इस बात का सदैव डर रहता है कि औपचारिक शिक्षा जीवन के अनुभव से कोइ सम्बन्ध न रखकर केवल स्कूलों को विषय-सामग्री न बन जाये। “

(2) अनौपचारिक साधन - अनौपचारिक साधन का अर्थ- अनौपचारिक साधनों के अन्तर्गत ऐसी संस्थायें आती है जो बालक पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालती है। यही कारण है कि  इन साधनों अथवा संस्थाओं को अप्रत्यक्ष साधनों की संज्ञा दी जाती है। इन साधनों को प्राय: शिक्षा के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाया जाता है। अत: इन साधनों की न कोई पूर्वनिश्चित योजना होती है और न कोई पूर्वनिश्चित उद्देश्य। इन साधनों से कार्य करने का समय तथा स्थान भी निश्चित नही होता है। न ही इन साधनों की देखभाल के लिए किसी प्रशिक्षित व्यक्ति की आवश्यकता होती है। इन साधनों पर किसी का नियंत्रण भी नहीं होता। ये साधन बालक के समक्ष स्वतंत्र वातावरण प्रस्तुत करते हैं, जिससे उसे स्वयं क्रिया करते हुए आकस्मिक  तथा स्वाभाविक शिक्षा प्राप्त होती रहती है। बालक के सम्पर्क में आने वाले वे सभी प्राणी उनके शिक्षक हैं, जिनसे वह जिस स्थान पर जिस समय जो कुछ भी सीखे। इस प्रकार अनौपचारिक अथवा अप्रत्यक्ष साधनों के स्वर शिक्षा की प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलती ही रहती है। इन साधनों के अन्तर्गत परिवार, चर्च(धर्म), समुदाय, रेडियो, चलचित्र, समाचार-पत्र, खेल के मैदान तथा युवक समूह आदि आते हैं।

अनौपचारिक साधन के लाभ- अनौपचारिक साधनों का बालक के उपर बहुत गहरा तथा व्यापक प्रभाव पड़ता है। ये साधन बालक को अनियंत्रित स्वतंत्रता प्रदान करके उसके उपर प्रत्यक्ष रूप से आकस्मिक प्रभाव डालते हैं जिससे उसमें अच्छी आदतों, व्यवहारों तथा रुचियों एवं दृष्टिकोण का स्वाभाविक रूप से निर्माण होता रहता है। शिक्षा के अनौपचारिक साधन बालक की बुद्धि तथा कल्पना शक्ति को विकसित करते हैं एवं उसे इस प्रकार के अनुभवों को प्राप्त करने का अवसर प्रदान करते हैं जिससे उसके उत्तम चरित्र का निर्माण होता रहे।  जॉन डीवी ने अनौपचारिक साधनों के लाभों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है –“ बालक दूसरों के साथ रहकर अनौपचारिक ढंग से शिक्षा प्राप्त करता है, और साथ रहने की प्रक्रिया की शिक्षा देने का कार्य करती है। यह प्रक्रिया अनुभव को विस्तृत करती है तथा कल्पना को प्रेरणा देती है। यह कथन तथा विचार में शुद्धता एवं सजीवता लाती है “

अनौपचारिक साधनों के दोष – जहाँ एक ओर अनौपचारिक साधनों के कुछ लाभ है वहाँ दूसरी ओर कुछ दोष भी हैं। वास्तविकता यह है कि बालक को केवल अनौपचारिक साधनों के द्वारा ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ज्ञान नहीं दिया जा सकता है। इसका कारण यह है कि इन साधनों की कोई निश्चित योजना नहीं होती। अत: इन साधनों के द्वारा शिक्षा प्रदान करने में प्राय: समय भी अधिक लगता है तथा शक्ति भी व्यर्थ नष्ट होती है। इससे शिक्षा की प्रक्रिया सुव्यवस्थित नहीं हो पाती। अनौपचारिक साधनों के द्वारा बालक को कला और कौशल की शिक्षा भी नहीं डे जा सकती है। अन्त में अनौपचारिक साधनों के द्वारा बालक में ऐसे अवगुण भी विकसित हो जाते हैं जो स्वयं उसके तथा समाज दोनों के लये हानिकारक हो सकते हैं।

औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों में सन्तुलन

उपर्युक्त पंक्तिओं में हमने शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों के अन्तर पर प्रकाश डाला। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दोनों प्रकार के साधनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। यदि हम बालक को दोनों प्रकार के साधनों में से केवल एक ही प्रकार के साधनों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करें तो बालक का समुचित विकास नहीं हो सकेगा। उसे पूर्णरूपेण विकसित करने के लिए दोनों प्रकार के साधनों की आवश्यकता है। बालक की शिक्षा में दोनों ही प्रकार के साधनों का महत्व है। ऐसी दशा में हमें दोनों प्रकार के साधनों में सन्तुलन बनाये रखना परम आवशयक है। अत: हमें चाहिये कि हम दोनों प्रकार के साधनों पर बराबर-बराबर बल दें तथा एक ही उपेक्षा करके दुसरे पर आवश्यकता से अधिक बल न दें।

परिवार का अर्थ तथा परिभाषा

घर कुटुम्ब अथवा परिवार मानव-समाज की प्राचीनतम एवं आधारभूत इकाई एक ऐसा समूह है जिसमें बूढ़े, जवान, पति-पत्नी तथा उनके बच्चे होते हैं। ये सब एक-दुसरे से माता-पिता, भाई-बहन तथा भाई-भाई अथवा क्सिसी अन्य सीधे सम्बन्ध से सम्बंधित होते हैं। कुछ प्राचीन समाजों में नौकरों को भी परिवार का ही सदस्य समझ लिया जाता था। इसलिए परिवार के अंग्रेगी शब्द “Family” की उत्पत्ती “ Famulus” शब्द से मन इजती है जिसका अर्थ नौकर। इस प्रकार परिवार एक छोटा सा सामाजिक वर्ग है जो सामान्यत: माता-पिता तथा एक अथवा अधिक बालकों द्वारा संगठित होता है। यह परिवार का सबसे सरल रूप है। इसका जटिल रूप भारत के कुछ संयुक्त परिवारों में देखा जाता है जिसमें माता-पिता तथा उनके बालकों के अतिरित्क चाचा-चाची, ताऊ-ताई तथा बाबा–दादी अधि सभी लोग साथ रहते हैं।

परिवार की परिभाषा

परिवार के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित परिभाषायें दी जा रही है –

(1) मैकाइवर और पेज – “ परिवार एक ऐसा समूह है जो पर्याप्त रूप से लैंगिक सम्बन्ध ओर आअधरित होता है तथा जो इतना स्थायी होता है कि इसके द्वारा बालकों के जन्म तथा पालन-पोषण हो जाती है।”

(2) क्लेयर – “ परिवार से हम सम्बन्धों की वह व्यवस्था समझते है, जो माता-पिता तथा उनकी सन्तानों के बीच में पाई जाती है।

उपर्युक्त परिबहषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि परिवार व्यक्तियों का वह समूह है जिनका आपस में रक्त सम्बन्ध हो अर्थात जिनके बीच निकटवर्ती सम्बन्ध हो तथा जो एक-दुसरे को किसी न किसी प्रकार से प्रभावित करें।

संयुक्त परिवार तथा औद्योगिक

प्राचीन युग में संयुक्त परवर का प्रथा थी। इन परिवारों में माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भतीजे-भातिजीयाँ तथा दादा-दादी आदि सभी सदस्य एक साथ सम्मिलित रूप से रहते थे। इन परिवारों के बड़े सदस्य बालकों को समय-समय पर हर प्रकार की शिक्षा देते रहते थे। इससे उस युग में केवल संयुक्त परिवार ही बालक की नैतिक, धार्मिक, व्यवसायिक तथा सामाजिक आदि सभी प्रकार की शिक्षा का केन्द्र माना जाता था। समय की गति के साथ-साथ 18वीं शताब्दी में औधोगिक क्रांति हुई जिसके परिणामस्वरूप जिस व्यक्ति को जिस धंधे में जहाँ-तहाँ जीविका कमाने के अवसर मिलते गये वह वहीँ –वहीँ जाने लगा। इस परिवर्तन का यह फल हुआ की शताब्दियों पुराने वे सभी संयुक्त परिवार छिन्न-भिन्न होने लगे जिनमें अन्य सदस्यों के साथ-साथ रहते हुए बालक अपने चरित्र को विकसित करके सामाजिक दृष्टिकोण का निर्माण सरलतापूर्वक स्वत: ही कर लेता है। कहने का तात्पर्य ये है कि औधोगीकरण के प्रभाव से - (1) परिवार का आकार छोटा होने लगा तथा आधुनिक युग के नये-नये कानूनों द्वारा और भी छोटा होता जा रहा है, (2) परिवार के परम्परागत कार्यों का उतरदायित्व अब समाज की अन्य संस्थाओं ने ले लिया है, (3) सत्ता का हस्र हो गया है जिससे अब स्त्री और पुरुष दोनों को बराबर अधिकार प्राप्त है, (4) नैतिकता भी परिवर्तिती हो गई है जिससे अब विवाह एक धार्मिक कार्य नहीं अपितु केवल एक क़ानूनी समझौता समझा जाता है तथा (5) राज्य ने परिवार की सीमा में प्रवेश कर लिया है।

बालक का शिक्षा में परिवार का महत्व

यधपि वर्तमान युग में संयुक्त परिवार का स्थान एकाकी परिवार ने ले लिया है तथा इसके अनके कार्यों को भी दूसरी सामाजिक संस्थाओं ने सम्भाल लिया है, पर इससे यह नहीं समझना लेना चाहिये की आधुनिक परिवार पर बालक के पालन-पोषण तथा शिक्षा का उतरदायित्व नहीं रहा है। वास्तविकता यह है कि परिवार एक ऐसी आधारभूत संस्था ही जिसका बालक की शिखा में अब भी महत्त्व कम नहीं हुवा है। इसका कारण यह है कि नवजात शिशु अपने जीवन की यात्रा को परिवार से ही आरंभ करता है तथा इसी संस्था में रहते उसे विभिन्न प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती है जैसे-जैसे बालक की आयु में वृधि होती जाती है वैसे-वैसे परवर द्वारा उसमें उन सभी मानवीय गुणों का विकास होता जाता है जिनकी आवश्यकता उसे आगे चलकर एक सुयोग्य एवं सचरित्र नागरिक के रूप में पड़ती है। इस प्रकार जब तक बालक जीवित रहता है तब तक उस परिवार का प्रभाव पड़ता ही रहता है। सूत्र रूप में बालक को बनाने और बिगड़ने का उतरदायित्व अब भी परिवार पर ही है।

परिवार में रहते हुए बालक को यु तो अनके सुवधायें मिलती रहती है, परन्तु प्रत्येक परिवार दो महत्वपूर्ण बातों की पूर्ति अवश्य करता है – (1) स्नेह तथा समाजीकरण। परिवार ही ऐसा स्थान है जहाँ पर ब्लाक को वास्तविक स्नेह मिलता हिया। जितना स्नेह बालक से माता-पिता कर सकते हैं उतना अन्यत्र दुर्लभ है। यही कारण है कि बालक का पालन-पोषण जितना अच्छा परिवार में हो सकता है उतना और कहीं नहीं हो सकता।

परिवार एक छोटी से सामाजिक संस्था है जिसमें रहते हुए बालक माता-पिता के अतिरिक्त भाई-बहन तथा अन्य सम्बन्धियों के सम्पर्क में आता है। इन सभी का अपना-अपना अलग-अलग कार्य होता है। यह कार्य स्थिर नहीं होता। सभी सदस्य एक-दुसरे के साथ आदान-प्रदान करते हैं तथा एक-दुसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। बालक भी परिवार के प्रत्येक सदस्य से प्रत्येक क्षण प्रभावित होता रहता है। इस प्रभाव से वह समाज के तौर-तरीके सीखता है तथा अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है।

परिवार में रहते हुए ही बालक पाने बवों तहत विचारों को प्रकट करने के लिए एक आवशयक शब्दावली बना लेता है। यही है उसकी मात्र- भाषा जिसके माध्यम से उसके ज्ञान भण्डार में वृधि होती रहती है।

प्रथम छ: वर्षो तक बालक का सामाजिक वातावरण केवल परिवार ही होता है। परिवार के वातावरण में उसे स्वतंत्रता, स्वछंदता तथा माता-पिता का असीम स्नेह प्राप्त होता है। इस स्नेह के माध्यम से उसकी प्रराम्म्भिक आदतों तथा दृष्टिकोण का निर्माण होता है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहनों तथा अन्य सदस्यों के दैनिक जियन में होने वाली सभी कर्यों का अनुकरण कार्यों लगता है। जब वह देखता है की परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने-अपने कर्तव्यों का पूर्ण श्रधा तथा निष्ठा से पालन करता है, तो वह भी कर्त्तव्य का पालन करना सिख जाता है। ऐसे ही जब वह देखता है कि परिवार के सारे सदस्य एक-दुसरे के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं, तो वह भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना सिख जाता है। यही नहीं परिवार में ही रहते हुए उसे शारीरिक, कलात्मक तथा नैतिक सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती रहती है जिससे उसकी विभिन्न आदतों तथा मूल्यों का निर्माण होता है। वह माता से प्रेम, भाई-बहनों से भ्रातत्व भावना तथा पिता से न्याय आदि नैतिक आदर्शों की शिक्षा प्राप्त करता है। इस प्रकार उसकी पाशविक प्रवृतियां मानवीय गुणों में परिवर्तित होता रहती है। परन्तु जब माता-पिता अपने बालकों के साथ झूठ वायदे कर लेते हैं तो बालक झुंझला उठता है और उसके मन में उनके प्रति श्रद्धा कम हो जाती है। अन्त में फिर वह भी वैसा ही व्यवहार करने लगता है।

परिवार में बालक की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है। परिवार में ही रहते हुए उसे नाना प्रकार के संवेगात्मक अनुभव प्राप्त होते हैं। इन आवश्यकताओं तथा संवेगात्मक अनुभवों का बालक की शिक्षा से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। सन्तोषजनक अनुभवों का बालक को सीखने की प्रेरणा मिलती है। इससे उसका स्वाभाविक विकास होता है। इसके विपरीत कटु अनुभवों की उपस्थिति में बालक का विकास कुण्ठित होने लगता है।

प्रत्येक परिवार का व्यक्तित्व अलग-अलग होता है। प्राय: देखने में आता है कि विभिन्न परिवारों की रुचियाँ तथा बोलने-चालने के ढंग अलग-अलग होते हैं। इन सबको बालक प्रभावित होता है। जब बालक किसी ऐसी बात के लिए हट कर बैठता है जिसे परिवार के सदस्य उचित नहीं समझते तो बालक को यही कहकर समझाने का प्रयास किया जाता है कि- “ हम लोग ऐसा नहीं करते “ इससे बालक में अपनापन तथा मनोवैज्ञानिक सुरक्षा बालक के विकास के लिए परम आवश्यक है।

संक्षिप्त रूप से शैशव अवस्था में बालक का मस्तिष्क अत्यधिक ग्राहा होता है। परिवार के स्नेहपूर्ण वातावरण से प्रभावित होते हुए वह अपने परिवार की भाषा, संस्कृतिक वेश-भूषा, आचार-विचार, आहार-विहार तथा रुचियों को स्वाभाविक रूप से ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार पारिवारिक शिक्षा बालक के व्यक्तित्व की ऐसी आधारशिला बन जाती है जिसे वह जीवन-पर्यन्त कभी नहीं भूलता। चूँकि प्रत्येक परिवार के प्रभाव अलग-अलग होते हैं, इसलिए एक बालक दुसरे बालकों से विभिन्न होता है। रेमान्ट ने ठीक ही लिखा है –“ दो बालक एक ही स्कूल इस भले ही पढ़ते हों, एक से ही शिक्षकों से प्रभावित होते हों, एक साथ अध्ययन करते हों, फिर भी सामान्य ज्ञान, रुचियों भाषा-व्यवहार तथा नैतिकता ने अपने-अपने अलग-अलग परवारिक वातावरण के कारण, जहाँ से आते है पूर्णतया भिन्न होते हैं।

बालक की शिक्षा में परिवार के महत्त्व में विषय में विभिन्न विचार

शिक्षा जगत में परिवार अनौपचारिक साधन के रूप में प्राथमिक पाठशाला का स्थान उसी समय से ग्रहण करता चला आ रहा है, जब से संसार में मानव जीवन के अस्तितिव की कल्पना की जा सकती है। बालक की शिक्षा की श्रीगणेश परिवार में ही होता है। परिवार में माता अपने बालक की शिक्षा का प्रथम स्त्रोत होती है। माता रूपी गुरु के द्वारा प्रेमपूर्वक प्राप्त की हुई शिक्षा को बालक कभी नहीं भूलता। उसके व्यक्तित्व पर इस शिक्षा की अमित छाप लग जाती है। यही कारण है कि विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने बालक की शिक्षा में परिवार की मुक्त कन्ठ से प्रशंसा करते हुए इसके महत्त्व का अनेक प्रकार गुणगान किया है। इस सम्बन्ध में हम अग्रलिखित विद्वानों के विचार प्रस्तुत कर रहे हैं –

(1)   रूसो का विचार

रूसो ने परिवार के महत्त्व पर बल देते हुए लिखा है – “ शिक्षा जन्म से ही प्रारम्भ होती है तथा माता उपयुक्त परिचायिका है।”

(2)   पेस्टलॉजी का विचार – स्विट्ज़रलैंड के प्रशिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टलॉजी की शिक्षा का आयोजन उसकी माता के प्यार भरे वातावरण में हुआ था। अत: उसने पारिवारिक वातावरण में प्राप्त की हुई शिक्षा को सर्वोतम मानते हुए लिखा है –“ परिवार – प्यार तथा स्नेह का केन्द्र, शिक्षा का सर्वोतम स्थान तथा बालक का प्रथम स्कूल है।”

(3)   फ्रोबिल का विचार – जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रोबिल का भी मत है कि- “ मातायें बालकों की आदर्श गुरु होती है, तथा परिवार द्वारा प्राप्त हुई अनौपचारिक शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली और प्राकृतिक होती है “|

(4)   मैडम का विचार – मैडम ने भी परिवार की शिक्षा की प्रशंसा की है। इसलिए उसकी शैक्षिक संस्था ‘ बच्चों का घर ‘ में प्रेम और स्वतंत्रता का वातावरण पाया जाता है।

(5)   मैजनी का विचार – मैजनी ने माता-पिता द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है – “ बालक नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुम्बन एवं पिता के संरक्षण के बीच सीखता है।”

उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से परिवार की शिक्षा का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन भारत में भी परिवार सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक सभी प्रकार की शिक्षा का केन्द्र था। छत्रपति शिवाजी में वीरता के गुण उसकी माता जिजाबाई ने ही भरे थे। गाँधी जी की नैतिक तथा धार्मिक शिक्षा उनकी माता के ही द्वारा प्रदान की गई थी। इसी शिक्षा के कारण गाँधी जी के उज्ज्वल चरित्र का निर्माण हुआ जिसके परिणामस्वरूप वह एक महान व्यक्ति एवं राष्ट्रपिता कहलाये। रामायण, गीता, महाभारत एवं वेदों में भी परिवार के महत्त्व का गुण-गान किया गया है। राम, लक्षमण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं सीता में  प्रेम, त्याग, सहनशीलता एवं बंधुत्व की भावनाओं को माताओं ने ही विकसित किया था। संक्षेप में कहा जा सकता है की बालक की शिक्षा में परिवार के वातावरण का महत्वपूर्ण स्थान है। के० जी० सैयदेन ने ठीक लिखा है – “ व्यक्ति की शिक्षा पारिवारिक वातावरण पर निभर करती है। यदि ये सभी वातावरण परिवार के अच्छे रीती-रिवाजों पर आधारित हैं तो इसका व्यक्ति की विचारधारा और विकास पर प्रशंसनीय प्रभाव पड़ेगा तथा उसकी शिक्षा न केवल उसके लिए अपितु सम्पूर्ण समाज के लिए लाभप्रद सिद्ध होगी।

परिवार का कार्य

परिवार का निम्नलिखित कार्य है –

(1) शारीरिक विकास- बालक के स्वास्थ्य की रक्षा तथा उसका शारीरिक विकास करना परिवार का मुख्य कार्य है। परिवार में माता-पिता अपने बालक के स्वास्थ्य का रक्षा तथा उसके शारीरिक विकास के लिए पौष्टिक भोजन ,वस्त्र, खेल-कूद, तथा व्यायाम आदि की अच्छी से अच्छी व्यवस्था करके ऐसे सुन्दर वातावरण का निर्माण करते हैं की उसमें साफ-सुथरा रहने, व्यायाम करने तथा अन्य सभी स्वास्थ्य वर्धक क्रियायों को करने की उपयुक्त आदतें पड़ जायें। दुसरे शब्दों में, बालक के स्वास्थ्य तथा शारीरिक विकास की चिंता जितनी अधिक माता-पिता को हो सकती है उतनी अधिक संसार के और किसी व्यक्ति को नहीं हो सकती। इस सम्बन्ध में माता की ममता विशेष उल्लेखनीय है। वह स्वयं नहीं खाती – बालक को खिलाती है वह स्वयं नहीं खेलती – बालक को खिलाती है तथा वह स्वयं सोती बालक को सुलाती है। इस प्रकार बालक के शारीरिक विकास पर उसके परिवार का गहरा प्रभाव पड़ता है।

(2) मानसिक विकास – परिवार का दूसरा कार्य बालक का मानसिक विकास करना है। स्मरण रहे कि मानसिक विकास के लिए विचार, कल्पना निरिक्षण तथा परिक्षण आदि मानसिक शक्तिओं का विकास आवश्यक है। पर ये शक्तियां केवल उसी समय विकसित हो सकती है जब इनके विकास हेतु बालक को अधिक से अधिक वस्तुओं से सम्पर्क स्थापित करने के लिए उयुक्त अवसर प्रदान किये जायें। इस दृष्टि से साधनहीन परिवारों की अपेक्षा साधन सम्पन्न परिवारों अपने बालकों को विभिना वस्तुओं से सम्पर्क स्थापित करने के लिए अधिक से अधिक अवसर प्रदान कर सकते हैं। अत: साधन सम्पन्न परिवारों के बालकों को निर्धन परिवारों के बालकों की अपेक्षा मानसिक विकास के लिए अधिक तथा उयुक्त अवसर प्राप्त होते हैं।

(3) संवेगात्मक विकास – बालक के संवेगात्मक विकास पर भी परिवार का गहरा प्रभाव पड़ता है। घर की सफाई, फर्नीचर, पेड़-पौधे, फल-फूल, चित्र, गृह-सज्जा तथा इसी प्रकार के तत्व बालक को हर समय संवेगात्मक दृष्टि से प्रभावित करते हैं। लगातार सुन्दर वस्तु को देखने से बालक में सौन्दर्य बोध उत्पन्न हो जाता है जिससे उसकी विभिन्न रुचियाँ तथा अभीरुचियाँ विकसित होती है। यही नहीं, परिवार के सदस्यों का आपसी व्ववहार अथवा सम्बन्ध भी बालक को संवेगात्मक दृष्टि से प्रभावित करता है। जिन परिवारों में सहयोगपूर्ण व्यव्हार तथा स्नेहपूर्ण सम्बन्ध होते हैं उनके बालकों की आवश्यकतायें तथा भावनाओं पूरी होती रहती है। परिणामस्वरूप उनमें सहानभूति, स्नेह, साहस, आनन्द, प्रसन्नता तथा आत्मविश्वास अदि अनेक प्रभावात्मक संवेगों का विकास होता है। इसके विपरीत जिन परिवारों में सदैव कलह, लडाई-झगडे, तथा मारपीट का वातावरण बना रहता है उन परिवारों के बालकों में भय, घ्रणा, क्रोध चिन्ता, तथा ईर्ष्या आदि अनेक निषेधात्मक संवेग विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार पारिवारिक वातावरण का बालक के संवेगात्मक विकास से घनिष्ट सम्बन्ध होता है।

(4) सामाजिक विकास – परिवार का एक सूक्षम समाज होता है जहाँ पर बालक का सामाजिक विकास होता है। वैसे तो बालक को सामाजिक दृष्टि से विकसित करना स्कूल का कार्य है परन्तु चूँकि परम्परागत स्कूल इस कार्य को करने में अब असफल से हो चुके हैं, इसलिए आजकल उनके स्थान पर सामाजिक जीवन को विकसित करने के लिए प्रगतिशील स्कूलों को स्थापित किया जा रहा है। वास्तविक यह है कि इन प्रगतिशील स्कूलों में बालकों के सामाजिक विकास हेतु जिस वातावरण की आवश्यकता है वह अब भी परिवार जैसी छोटी सी संस्था में बिना कुछ खर्च किये ही आसानी से मिल जाता है। इस दृष्टि से बालक को सामाजिक जीवन का परिचय देने के लिए परिवार से अच्छी और कोई संस्था नहीं है। परिवार में बालक अन्य ससस्यों के साथ रहते हुए सामाजिक आदर्शों, परमपराओं तथा व्यवहारों को सीखता रहता है। इससे उसमें प्रेम, सहानभूति, सद्भावना, सहयोग, त्याग, परोपकार, उतरदायित्व तथा न्यायप्रियता आदि अनके सामाजिक भावनाओं एवं गुणों का विकास स्वत: ही हो जाता है।

(5) धार्मिक विकास – परिवार ही ऐसा संस्था है जहाँ हर बालक का धार्मिक विकास बिना किसी कठनाई के किया जा सकता है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में तो बालक को धार्मिक शिक्षा देने अब परिवार का ही कार्य है। पारिवार में रहते हुए बालक को धार्मिक पुस्तकें पढ़ने, धार्मिक कथायें सुनने, पूजा-पाठ तथा अन्य सदस्यों के साथ धार्मिक कार्यों में भाग लेने के लिए विभिन्न अवसर प्राप्त होते हैं। ऐसे धार्मिक वातावरण में रहते हुए बालक एक विशेष धर्म का पालन करने लगता है तथा उसमें अनेक नैतिक तथा धार्मिक गुण विकसित हो जाते हैं।

(6) संस्कृति का हस्तांतरण – आज के औधोगिक युग में संस्कृति का संरक्षण, विकास तथा हस्तांतरण वैसे तो स्कूल का कार्य है , परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि परिवार इस महत्वपूर्ण कार्य से विमुख हो गया है। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक समाज की संस्कृति अलग-अलग होती है और वह अब भी परिवारों में ही पलती हिया। स्कूल में तो बालक संस्कृति को सिखाता है, परन्तु परिवार में रहते हुए वह अपनी संस्कृति को स्वत: ही ग्रहण कर लेता है। यही कारण है कि अब भी हिन्दू  संस्कृति हिन्दू परिवारों में तथा मुस्लिम संस्कृति मुस्लिम परिवारों में जीवित है।

(7) भाषा का विकास – यधपि भाषा की शिक्षा आजकल स्कूलों  तथा कॉलेजों में दी जाती है, परन्तु परिवार में रहते हुए बालक अपनी भाषा को सरलतापूर्वक सिख जाता है। अनुभव की बात है कि भाषा को बोलते समय शब्दों का उचारण जितना अच्छा सुशिक्षित परिवारों के बालक करते हैं उतना अच्छा पिछड़े परिवारों के बालक स्कूल में पढ़कर भी नहीं कर पाते। इस प्रकार भाषा की शिक्षा पर भी परिवार का ही विशेष प्रभाव पड़ता है।

(8) रुचियों तथा आदतों का विकास – बालक की अच्छी अथवा बुरी रुचियाँ तथा आदतें परिवार में ही विकसित होती है। परिवार के सभी सदस्य जिन बातों अथवा वस्तुओं  को अच्छा अथवा बुरा कहते हैं, बालक भी उन्हें वैसा ही कहने लगता है। इस प्रकार परिवार में रहते हुए बालक के अन्दर आरम्भ से ही अच्छी अथवा बुरी रुचियों तथा आदतों का विकास होने लगता है बचपन में पड़ी हुई यही रुचियाँ तहत आदतें आगे चलकर बालक के चरित्र को प्रभावित करती है। जो परिवार इस सम्बन्ध में पहले से ही सतर्क रहते हैं उनके बालकों की आरम्भ से ही वांछनीय रुचियाँ तथा प्रशासनीय आदते विकसित होने लगती है। इसके विपरीत जो परिवार इस सम्बन्ध में आंख मींच लेते हैं, उनके बालकों में अनुचित रुचियाँ तथा बुरी आदतें पड़ जाती है। माता पिता की यह असावधानी बालकों के लिए तथा उसकी स्वयं के लिए आगे चलकर महँगी पड़ती है।

(9) नैतिकता तथा चरित्र का विकास – बालक में नैतिकता तथा चारित्रिक गुणों को विकसित करने के लिए परिवार के प्रभावों का स्थान मुख्य होता है तथा अन्य संस्थायों का गौण। अन्य संस्थायें तो नैतिकता तथा चारित्रिक गुणों के विकास में केवल सहायता ही प्रदान करती है। परन्तु परिवार में रहते हुए बालक को विभिन्न सदस्यों द्वारा नैतिक गुणों को प्रत्येक्ष शिक्षा मिलती है। वह माता से प्रेम, भाई-बहनों से भ्रातत्व भावना तथा पिता से न्याय की शिक्षा प्राप्त करता है। यही नहीं उसके उपर परिवार के रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा तथा आचार-विचारों की गहरी छाप लगती है। यह छाप उसके चरित्र को पूर्णतया प्रभावित करती है। इन सभी परभावों के परिणामस्वरूप या तो बालक में दया, प्रेम, श्रधा, सद्भावना, सत्य तथा ईमानदारी एवं सचरित्र आदि गुणों का विकास होता है अथवा वह हृदयहीन, स्वार्थी दयाहीन तथा दुश्चरित्र बन जाता है। इस प्रकार अपने जीवन के प्रथम छ: वर्षों में परिवार के ही अन्दर बालक का नैतिक एवं चारित्रिक विकास हो जाता है।

(10) जन्मजात प्रवृतियों एवं प्रेरणा की विकास – प्रत्येक बालक की कुछ जन्मजात प्रवृतियाँ एवं प्रेरणायें होती है। इन सबका प्रकाशन आवशयक है। यदि किसी कारणवश इनका प्रकाशन न हो तो बालक के अन्दर ग्रंथियाँ बन जाती है। इन भावना ग्रंथियों से उसका व्यक्तित्व विकृत हो जाता है। यदि बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है तो इन प्रवृतियों तथा प्रेरणाओं के प्रकाशन के लिए उपयुक्त वातावरण की रचना करनी परम आवशयक है। परिवार वह स्थान है जहाँ पर बालक को समस्त प्रवृतियों तथा प्रेरणाओं के प्रकाशन के लिए उपयुक्त वातावरण हर समय मिलता है।

(११) व्यक्तित्व का विकास – यधपि बालक के व्यक्तित्व का विकास का उतरदायित्व अनेक संस्थाओं के उपर है, फिर भी इसका बीजारोपण परिवार में ही होता है। इस सम्बन्ध में प्रत्येक माता का अपने बालक के प्रति दृष्टिकोण पूर्णरूपेण व्यक्तियों में  श्रेष्ट हो। अत: माता के साथ-साथ परिवार के सभी सदस्य बालक की वैयक्तिकता का विश्लेषण करते हैं तथा उसके विकास हेतु उयुक्त वातावरण की रचना करते हैं।

(12) व्यावहारिक तथा व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था – परिवार का प्रभाव बालक की व्यावहारिक तथा व्यवसायिक शिक्षा पर भी पड़ता है। जैसे –जैसे बालक बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे उसे दूसरों के साथ उठने-बैठने, बात-चित करने, बाहार से आने वाले अतिथियों का सत्कार एवं व्यवहार करने का स्वत: ही ज्ञान हो जाता है। यही नहीं, उसे परिवार के अन्य सदस्यों के साथ कार्य करके अपने पैतृक व्यवसाय की शिक्षा भी अप्रत्येक्ष रूप से मिलती रहती है। बढ़ाई, दर्जी, धोबी, नाई , तेली , कुम्हार, लुहार तथा ठठेरा आदि सभी अपने-अपने परिवार में ही अपने पैतृक व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं। आगे चलकर वे इसी व्यवसाय को अपनी जीविका का साधन बना लेते हैं।

भारतीय परिवार

यूँ तो भारतीय परिवारों में अनेक दोष पाये जाते हैं पर शिक्षा की दृष्टि से इनमे केवल दो ही दोष उल्लेखनीय हैं। कुछ परिवार तो ऐसे हैं जिनमें बालक को प्रारम्भिक अवस्था से ही इतनी स्वतंत्रता प्रदान कर दी जाती है कि वह बड़ा होकर प्रौढ़ व्यक्ति के रूप में समाज से अनुकूल नहीं कर पाता। इसके विपरीत कुछ परिवार ऐसे है जिनमें बालक के साथ आरम्भ में ही इतनी कठोरता का व्यवहार किया जाता है कि उसका व्यक्तित्व विकृत बन जाता है। परिणामस्वरूप वह परिवार से घ्रणा करने लगता है। आगे चलकर माता-पिता के विरुद्ध यही घ्रणा की भावना उसे समाज के विरुद्ध बगावत करने के लिए मजबूर कर देती है। कुछ परिवार ऐसे भी है जिनमें ये दोनों ही दोष पाये जाते हैं। हो सकता है पहला दोष माता में हो तथा दूसरा दोष पिता में। ऐसे परिवारों की स्थिति भयंकर रूप धारण कर लेती है। के०जी०सैयदेन ने ठीक लिखा है – “ बालक माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ उचित तथा गहरे सम्बन्ध स्थापित करने में असफल हो जाता है। बालक और माता-पिता के बीच की खाई बढ़ती रहती है तथा भारतीय परिवार अपने पवित्र तथा महान उद्देश्य में असफल हो जाता है।”

भारतीय परिवार- उनके बालकों पर प्रभाव

भारतीय परिवार की विशेषता सम्मिलित अथवा सयुंक्त परिवार की रही है इस परिवार में दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची के आपसी सहयोग से बालक को स्नेह तथा सभी प्रकार के नैतिक, चारित्रिक एवं सामाजिक गुणों की शिक्षा अन्यास ही मिल जाती है। परन्तु अब अनेक कारणों से सयुंक्त परिवार छोटी-छोटी एकईयों में बंटते जा रहे हैं खेद का विषय है की इन एकाकी परिवारों की अज्ञानता निर्धनता अथवा अभिभावकों के ध्यान में कमी के कारण अब बालकों को वह स्वस्थ, सुन्दर तथा स्वतंत्र वातावरण नहीं मिल पता जिसमें रहते हुए वे पूर्णरूपेण विकसित हो सकें। अधिकांश परिवारों में बालक का पालन-पोषण दूषित परिस्थितियों में होता है। प्राय: निम्न कोटि के परिवारों में तो बालको के पालन पोषण तथा शिक्षा की व्यवस्था सोचनीय है। जिन परिवारों में माता तथा पिता दोनों ही नौकरी पर चले जातें हैं उनके बालक प्राय: सड़कों पर असुरक्षित रूप से घूमते दिखाई पड़ते हैं। यही नहीं जिन परिवारों में न दयां का आभाव है और न अर्थ-आभाव है उसमें भी बालकों को विकसित होने के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता। चूँकि परिवार बालक की शिक्षा का प्रमुख स्थान है, इसलिए इसे प्रभावशाली बनाना परम आवश्यक है।

भारतीय परिवार को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के सुझाव

भारतीय परिवार को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने निम्नलिखित सुझाव दिये जा रहे हैं –

(1) शारीरिक विकास की व्यवस्था – बालक के शारीरिक विकास के लिए निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिये-

(अ) परिवार का निवास स्थान – परिवार का निवास स्थान ऐसे स्थान पर होना चाहिये जहाँ का सम्पूर्ण वातावरण पवित्र तथा शांतिमय हो। बालक के स्वास्थ्य के लये स्वछता तथा प्रकाशमय वातावरण परम आवश्यक है। अत: भवन के प्रत्येक कमरे में खिड़कियाँ तथा रोशनदान भी होने चाहिये जिससे स्वच्छ वायु प्रकाश तथा धुप प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सके। कहावत है कि जहाँ धुप नहीं आती वहाँ डॉक्टर आता है। यदि भवन के आस-पास का वातावरण भी वायुउक्त तथा खुला हुआ हो तो और भी सुन्दर है।

(आ) भोजन – निवास स्थान के अतिरिक्त अभिभावकों को बालक के भोजन पर भी विशेष ध्यान देना चाहिये। चूँकि बालक के शारीरिक विकास के लिए सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन आवश्यक है , इसलिए परिवार को अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार बालक को खाने के लिए ऐसा भोजन देना चाहिये जिसमें चर्बी, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन अधि प्रचुर मात्रा में हों।

(इ) वस्त्र – बालकों को ऐसे वस्त्र पहनाये जायें जो न तो बहतु ढीले ही हों और न ही बहुत तंग ही हों। वस्त्र ऐसे होने चाहियें जिनके प्रयोग से बालक का विकास भली प्रकार हो सके।

(ई) खेल तथा आराम की व्यवस्था – शारीरिक विकास के लिए व्यायाम भी आवशयक है। अत: माता-पिता को चाहिये कि वे बालकों के लिए उचित व्यायाम अथवा खेल-कूद एवं आराम की भी व्यवस्था करें। यदि हो सके तो स्वयं भी उनके व्यायाम अथवा खेलों में सुबह-शाम भाग लें।

(उ) व्यक्तिगत स्वच्छता- शारीरिक विकास के लये व्यक्तिगत स्वच्छता अत्यन्त आवश्यक है। अभिभावकों को चाहिये कि वे अपने बालकों के अन्दर आरम्भ से ही दांत साफ करने, नाख़ून काटने तथा शारीर को स्वच्छ रखने की आदतें डालें। जो आदतें बचपन में पड़ जाती है, वे ही जीवन-पर्यन्त चलती रहती है।

(2) बौधिक,कलात्मक तथा व्यावहारिक रुचियों का विकास – परिवार को बालक की बौधिक, कलात्मक तथा व्यवहारिक रुचियों एवं गुणों को आरम्भ से ही विकसित करना चाहिये। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहियें-

(अ) बौधिक विकास – बौधिक विकास के लिये परिवार का वातावरण भी बौधिक होना आवश्यक है। अत: बालकों की बुधि के विकास हेतु छल्ले निकलने वाले तथा इसी प्रकार के अन्य यंत्रो एवं खिलौने की व्यवस्था होनी चाहिये। बौधिक विकासार्थ यह भी आवशयक है कि बालकों के लिए बाल-मनोवैज्ञानिक पर आधारित आकर्षित करने वाले रंगीन चित्रों के साहित्य की भी व्यवस्था की जाये। इससे मानसिक विकास के साथ-साथ बालकों में सौंदर्य अनुभूति भी उत्पन्न हो जायेगी। चूँकि बालक में जिज्ञासा प्रवृति बड़ी प्रबल होती है इसलिए अपने ज्ञान में वृधि करने के लिए वह नाना प्रकार ही वस्तुओं को छुता है, देखता है तथा कभी-कभी तोड़ता-फोड़ता भी है। यही नहीं, वह माता-पिता, भाई-बहनों तथा परिवार के अन्य सदस्यों एवं नौकरों से हर समय कोई न कोई प्रश्न भी पूछता रहता है। परिवार के अन्य सदस्यों को चाहिये कि वे बालक की जिज्ञासा प्रवृति का आदर करें तथा उसके प्रश्नों का प्रेमपूर्वक ठीक-ठीक उत्तर दें । बालक के बौधिक विकास में पहेलियों तथा कहानियों का भी विशेष महत्त्व होता है। इससे बालक की कल्पना शक्ति, एकाग्रता, चिन्तन, तथा विश्लेषण की योग्यता बढ़ती है। अत: सोते समय बालकों को पहेलियां तथा कहानियां अवश्य सुनाई जानी चाहियें। जब बालक स्कूल न जाने अथवा किसी अन्य कारण से कक्षा के कार्य से पिछड़ जाये तो माता-पिता को उसके इस पिछड़े जाने को व्यक्तिगत शिक्षण के द्वारा दूर करना अथवा करना चाहिये जिससे उसका बौधिक विकास कक्षा के अन्य बालकों के साथ-साथ होता रहे और वह पिछड़ा बालक न कहलाये।

(आ) सौंदर्य अनुभूति का विकास – बालक में सौंदर्य अनुभूति ही शक्ति को विकसित करने के लिए उपयुक्त वातावरण आवश्यक है। यदि बालक से उसके पहनने के कपड़े, उनका रंग तथा डिज़ाइने पसन्द कराई जायें, उससे कमरों की सजावट, भवन की स्वछता, बाग़ अथवा प्रकृति का निरिक्षण कराया जाये तो इन छोटे छोटे कार्यों के द्वारा बालक में सौन्दर्य बोध जागृत किया जा सकता है। साथ-ही साथ पशु-पक्षी, चित्रों, तथा टिकटों एवं खिलौनों आदि के संग्रह कराने से बालक की भावनाओं को सन्तुलित एवं शिक्षित किया जा सकता है। परिवार को चाहिये कि यह बालकों को सौंदर्य अनुभूति के विकास हेतु कलात्मक वातावरण की रचना करें।

(इ) व्यावहारिक शिक्षा की व्यवस्था – परिवार के बड़े तथा सदस्यों को चाहिये कि वे बालकों को अपने से छोटे तथा बड़े व्यक्तियों के साथ बातचीत करने एवं अतिथियों का सत्कार करने के ढंगों को समय-समय पर बाताते रहें। परिवार की इस व्यावहारिक शिक्षा से बालकों को जीवन में आगे चल कर बड़ा लाभ होगा

(3) रचनात्मक क्रियाओं की व्यवस्था – परिवार को बालकों की रचनात्मक प्रवृतियों क विकसित करने के लिए रचनात्मक क्रियाओं को प्रोत्साहित करना चाहिये बालक जिस ज्ञान रचनात्मक क्रियायों द्वारा प्राप्त करता है वह स्थायी होता है तथा जीविकोपार्जन के  लये भी सहायक एवं उपयुक्त शिद्ध होता है। अत: परिवार को बालक के सामने ऐसे अवसर प्रदान करने चाहिये जिनके द्वारा वह रचनात्मक क्रियाओं के माध्यम से अपनी रचनात्मक प्रवृतियों को विकसित करता रहे। आत्मविश्वास के इस कार्य को प्रोत्साहित कनरे के लिए परिवार को समाचार-पत्र, मसिक पत्रिकाओं तथा विभिन्न प्रकार के शिशु उपयोगी साहित्य का भी प्रबन्ध करना चाहिये।

(4) चरित्र का विकास तथा उतरदायित्व का प्रशिक्षण – बालक के चरित्र का विकास परिवार में ही होता है। अत: परिवार को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिये चरित्र का बीज बालक  के आत्मविश्वास तथा अहम् में होता है। इसको जागृत करने के लिए परिवार बालक को अनके प्रकार के उतरदायित्वपूर्ण कार्य सौंप सकता है। उसे रात को दरवाजा बन्द करने तथा छोटे भाई-बहनों की देख-रेख करने की जिम्मेदारी भी दी जा सकती है। इससे बालक में उतरदायित्व को निभाने की आदत भी पड़ जायेगी तथा आत्मविश्वास तथा आत्मत्याग आदि गुणों को विकसित करना चाहिये। इन गुणों के विकसित होने से उसके वास्तविक चरित्र का निर्माण होगा तथा वह एक सफल नागरिक के रूप में राष्ट्र के अनेक उतरदायित्व को पूरा कर सकेगा।

(5) व्यकिगत आवश्यकताओं, क्षमताओं तथा रुचियाँ का विकास – मनोविज्ञान ने यह शिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक बालक का व्यक्तित्व एक दुसरे से भिन्न होता है। अत: परिवार को चाहिये कि वह प्रत्येक बालक को उसकी आवश्यकताओं, क्षमताओं तथा रुचियों के अनुसार विकसित होने के अवसर प्रदान करें। सभी बालकों को एक समान अवसर प्रदान करने से कोई भी लाभ न होगा। व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर विकसित करने से सामूहिक शिक्षा के दोष भी दूर हो जायेंगे। चूँकि सामूहिक शिक्षा में बालक पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान नहीं दिया जा सकता, इसलिए उसकी पूर्ति परिवार को ही करनी चाहिये।

(6) समान व्यवहार- माता-पिता को परिवार के बालकों के साथ समान व्यवहार करना चाहिये। बालकों में भेद-भाव करना तथा एक को छोडकर दुसरे की हिमायत लेना दोषमुक्त है। प्राय: भारतीय परिवारों में बालक तथा बालिकाओं के साथ पक्षपात का व्यवहार किया जाता है। फलस्वरूप बालक उदण्ड तथा बालिकायें मानसिक दासियाँ बन जाती है। यह रूढ़िगत भावना बदल जानी चाहिये। इसका कारण यह है कि भारत अब एक स्वतंत्र देश है जिससे पुरूषों तथा स्त्रियों को सामान अधिकार प्राप्त हैं। सभी मिलकर अपने देश की सरकार एवं राजनितिक समस्याओं को मिल-जुलकर जनतांत्रिक ढंग से सुलझाते हैं, क्योंकि आज के बालक तथा बालिकायें ही कल के नागरिक बनकर राष्ट्रीय सरकार का निर्माण करेंगे, इसलिए परिवार को भी अब बन्धन एवं कृत्रिमता की पुरानी दीवारों को तोड़कर बालक तथा बालिकाओं को आदर, स्नेह, संरक्षण तथा अन्य प्रकार की सभी सुविधायें समान रूप से प्रदान करनी चाहिये।

(7) धार्मिक शिक्षा – परिवार को बालक की धार्मिक शिक्षा का भी उचित प्रबन्ध करना चाहिये। इसमें संदेह नहीं हैं कि छोटे-छोटे बालक धर्म के गूढ़ तत्वों को समझने एवं पालन करने में असमर्थ होते हैं, परन्तु धार्मिक पुस्तकों तथा धार्मिक कथाओं एवं अन्य धार्मिक क्रियाओं के द्वारा उन्हें धार्मिक शिक्षा अवश्य दी जा सकती है। बचपन में प्राप्त हुई धार्मिक शिक्षा से बालकों में प्रेम सहानभूति दया त्याग परोपकार एवं सचरित्रता आदि अनेक गुण विकसित होते हैं जो एक स्वस्थ नागरिक के लिये आवश्यक है। भारत जैसे धर्मनिपेक्ष राष्ट्र में परिवार को इस दिशा में विशेष रूप से सतर्क रहने की आवश्यकता है।

(8) सर्वांगीण विकास – परिवार को बालक का सर्वांगीण विकास करना चाहिये। भारत में अधिकांश परिवार ऐसे ही जो बालक के एकांगी विकास को ही सम्पूर्ण विकास समझ बैठते हैं। जैक्स ने अपनी पुस्तक टोटल एजुकेशन में ऐसे दोषपूर्ण परिस्थितियों वाले परिवारों को तीन वर्गों में विभाजित करते हुए बताया है कि स्पर्धशील परिवारों में बालकों को एक-दुसरे से निश्चित परन्तु सीमित दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इससे बालकों के अन्य पक्षों का विकास नहीं हो पाता। कुछ परिवार ऐसे भी होते हैं जिनमें सांस्कृतिक कार्यों एवं रुचियों की हंसी उड़ाई जाती है। ऐसे परिवारों में बालक का सांस्कृतिक विकास कुंठित हो जाता है। तीसरे प्रकार के परिवारों को जेक्स ने भावनात्मक रेफ्रीजरेटर परिवारों की संज्ञा दी है। ऐसे परिवारों में स्नेह तथा सहानभूति आदि गुणों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे भावना प्रदर्शनहीन परिवारों के बालकों का व्यवहार शीतल व जड़ जो जाता है और उनमें मानवीय भावनाओं का विकास नहीं हो पाता। जिन परिवारों में हर समय कलह रहता है अथवा माता-पिता मादक वस्तुओं का प्रयोग करके एक-दुसरे से लड़ते हैं, अच्छे परिवार नहीं कहे जा सकते। इस प्रकार के परिवारों में ब्लाक का व्यक्तित्व दबा रहता है और वह पूर्णरूपेण विकसित नहीं हो पाता। संक्षेप में, कुछ परिवार केवल पढने-लिखने पर ही अधिक बल देते हैं तो कुछ केवल खेल-कूद को ही अच्छा समझते हैं। कुछ परिवार सांस्कृतिक कार्यों को विशेष महत्त्व देते हैं तो कुछ इन क्रियाओं को हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसे ही कुछ परिवारों में सामाजिक गुणों को विकसित किया जाता है तो कुछ भावना प्रदर्शनहीन परिवारों में इन गुणों का कोई स्थान ही नहीं होता। वास्तविकता यह है कि परिवार को बालक का सर्वांगीण विकास करने के लिए ऐसे मनोवैज्ञानिक वातावरण का निर्माण करना चाहिये जिसमें रहते हुए वह खेलने-कूदने के साथ-साथ पढ़ने-लिखने तथा सांस्कृतिक कार्यों में भाग लेते हुए पूर्णरूपेण विकसित हो सके।

(9) बाल संस्थायें – यदि किसी कारणवश परिवार उपर्युक्त सुझावों का पालन न कर सके तो  उसे बालकों को शिशु-निकेतन, किनडरगार्टन, नरसरी स्कूल अथवा अन्य बोर्डिंग स्कूलों में प्रवेश करा देना चाहिये। इससे बालकों को उचित शिक्षा भी मिल जायेगी तथा उनका सर्वांगीण विकास भी हो जायेगा। भारत में ऐसी बात संस्थाओं की बहुत कमी है। यदि कुछ तोड़ी से संस्थायें है भी तो वे धनाभाव के कारण अपने कार्यों को पूरा नहीं कर पाती। अत: सरकार को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिये।

स्त्रोत: पोर्टल विषय सामग्री टीम

अंतिम बार संशोधित : 3/13/2023



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