अगर कोई मजदूर किसी पेशा के कारण किसी स्वास्थ्य समस्या का सामना करता है तो उसे उचित मुआवज़ा देना और उपयुक्त पुनर्वास करना मालिक या प्रबंधक की ज़िम्मेवारी बनती है। आज सिर्फ कुछ ही ज़िम्मेदार और मानवीय मालिक ऐसा करते हैं। बहुत से असंगठित क्षेत्रों जैसे खेतों, खुद का काम करने वाले लोगों को भी व्यवसायों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं के लिए मुआवज़ा मिलना चाहिए। परन्तु यह सोचने की बात है कि यह मुआवज़ा कौन देगा? जिन देशों में सामाजिक सुरक्षा का तंत्र कमज़ोर होता है वहॉं यह सवाल बहुत बड़ा होता है। अगर कोई किसान सांप के काटने या अपना पंप संभालने में बिजली के झटके से मर जाता है तो उसका पूरा परिवार अपना पेट पालने के लिए पीछे छूट जाता है।
दुर्घटनाएं काफी आम होती हैं, उनके लिए कुछ सहानुभूति पैदा हो जाती है और कभी कभी मुआवज़ा भी मिल जाता है। पर पेशा से जुड़े स्वास्थ्य के खतरे जिनसे मौत नहीं होती पर जो नुकसानदेह होते हैं, उन पर आमतौर पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जाता। स्वास्थ्य बर्बाद हो जाने पर व्यक्ति दौड़ से बाहर हो जाता है और परिवार का कोई दूसरा व्यक्ति रोजी रोटी की वैसी ही खतरनाक लड़ाई में जुट जाता है। अकसर ऐसे ही चुपचाप मार डालने वाले रोग जैसे पेशों से जुड़े हुए कैंसर आदि पर अकसर ध्यान ही नहीं जाता है और इसलिए इनके लिए कोई मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता। इसलिए सिर्फ इतना ही काफी नहीं है कि लेखा जोखा रखा जाए। हमें लोगों को जानकारी देनी चाहिए ताकि वो स्वास्थ्य के खतरों और सुरक्षा उपायों में बढ़ोतरी के लिए मांग करें।
पशुपालक परिवारों में भी खाँसी, टीबी तथा कृमि का जोखम बना रहता है| यह सभी विकासशील देशों का सबसे बड़ा व्यावसायिक क्षेत्र होता है और पेशे संबंधित स्वास्थ्य के संदर्भ में इस क्षेत्र पर शायद सबसे कम ध्यान दिया जाता रहा है। अकसर खेती से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को साधारण स्वास्थ्य समस्याएं समझ लिया जाता है और उन्हें खेती से नहीं जोड़ा जाता है। सांप का काटना ऐसा ही एक उदाहरण है। खेतों में काम कर रहे लोगों में यह एक आम समस्या रहती है। संक्रमण या मलेरिया, अंकुश कृमि, बैल के सींग मारने से लगी चोटें, कुत्ता, साप, बिच्छू का काटना और बिजली के झटकों से होने वाली दुर्घटनाएं आदि सभी खेती से ही जुड़े हैं। गरीबी, सामाजिक और नागरिक सुविधाओं का अभाव (जैसे सड़कें न होना, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, और स्कूलों का न होना) आदि से भी स्वास्थ्य के खतरे बढ़ते हैं।
मुख्य बिंदु यह समझना है कि खेती में भी खतरे होते हैं। और कृषि अर्थव्यवस्था अपने आप में इतनी कमज़ोर होती है कि इससे नुकसान की भरपाई हो पाना और विकलांग को सहारा मिल पाना संभव नहीं होता। सरकार के लिए इतने बड़े क्षेत्र से होने वाले स्वास्थ्य के नुकसान के लिए मुआवज़ा देना मुश्किल होगा और वो इससे कतराएगी। बीमा कंपनियॉं भी तभी आगे आएंगी अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो जाए कि लोग बीमे की किश्त देने की स्थिति में हों। उस समय तक कृषि से जुड़ी सभी स्वास्थ्य समस्याओं को गरीबी की देन समझा जाता रहेगा।
इमारत निर्माण काम में लाखों औरते कष्टप्रद कामे करती है इनका हमें खयाल नही चिरकारी विषाक्तीकरण होना कीटनाशकों द्वारा धीरे धीरे ज़हर फैलने की तुलना में इसके गंभीर रूप (अचानक होनेवाला असर) पर अधिक ध्यान जाता है। रसायनों का असुरक्षित ढंग से इस्तेमाल करना और जानकारी का अभाव इसके मुख्य कारण हैं। सुरक्षा के उपाय और स्वास्थ्य शिक्षा से इस खतरे को कम किया जा सकता है।
चिरकारी विषाक्तीकरण होने के असर काफी समय तक ज़हर के संपर्क के बाद ही सामने आते हैं। ज़्यादातर असर तंत्रिका तंत्र से जुड़े होते हैं, इसलिए चिकित्सीय टैस्टों से ज़्यादा जल्दी तंत्रिका चालान जांच से इनका पता चल सकता है। खेती में विषाक्तीकरण होने की समस्या से निपटने के लिए एक समग्र सोच और क्रियान्वन की ज़रूरत होती है। सबसे पहले हमें ज़हरीले पदार्थों की पहचान करनी होगी। फिर कीटों को मारने के लिए इन नुकसानदेह पदार्थों की जगह दूसरे तरीके ढूंढने होंगे। इससे समग्र कीट नियंत्रण कहते हैं।
स्त्रोत: भारत स्वास्थ्य
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
इस लेख में श्रमिकों के व्यावसायिक अस्वास्थ्य के वि...
इस लेख में श्रमिकों के लिए जीवन बीमा की योजनाओं की...
इस लेख में श्रमिकों के कामकाजी अस्वास्थ्य से बचाव ...
इस लेख में श्रमिक किस प्रकार के कीटनाशकों से घिरे ...