जन्म के पश्चात् शिशु सवर्प्रथम अपनी माँ या परिवार के सदस्यों के सम्पर्क में आता है| अतः सामाजिक विकास में पारिवारिक सन्दर्भ की अंह भूमिका होती है| इस सन्दर्भ में शिशु के पालन पोषण की शैली, पारिवारिक संरचना तथा सहोदर सम्बन्ध की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है|
बच्चा जन्म लेता है तो पहला सम्बन्ध माता –पिता से बनता है एंव ऐसे सम्बन्ध में माता-पिता की विशेष भूमिका होती है, क्योंकि वः जीवनयापन के लिए माता-पिता पर पुर्णतः निर्भर होता है| बच्चे का सम्पूर्ण परिवेश उसके माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य मिलकर निर्मित करते हैं| माता-पिता तथा अन्य सदस्य बच्चे की देखभाल करते हैं तथा उसके साथ अन्तः क्रिया करते हैं| विभिन्न परिवारों एवं संस्कृतियों के बीच बच्चों की पालन शैली में अंतर पाया जाता है| इसका कारण यह है की विभिन्न सन्दर्भों में बच्चों से क्या व्यवहार अपेक्षित है, अलग-अलग होता है| यथा –पशिचमी संस्कृति में बच्चों में स्वतंत्रता, स्वायत्तता और अभिव्यक्ति विकास पर बल दिया जाता है| दूसरी ओर भारतीय समाज में आज्ञापालन, सेवा एवं परोपकार या परिवार या समाज के लिए अपनी इच्छाओं और रुचियों के त्याग पर बल दिया जाता है} माता-पिता अनुशासन लागू करने के तरीके से एक दूसरे से अलग हो सकते हैं| यथाः प्रोत्साहन एवं दंड के लिए उचित व्यवहार के चयन में अपनी शिक्षण शैली तथा बच्चों के प्रति स्नेह प्रदर्शन इत्यादि में भी भिन्नता पायी जाती है|
माता-पिता के अतिरिक्त अन्य सदस्यों जैसे दादा-दादी या अन्य लोग, बड़े भाई-बहनों के साथ बच्चे का किस ढंग का सम्बन्ध है, यह भी उसके सामाजिक/सांवेगिक विकास को प्रभावित करता है| अतः परिवार की संरचना , जैसे बच्चा एकल परिवार का सदस्य है या संयुक्त परिवार, जहाँ उसे समाजीकृत करने में परिवार के अन्य सदस्यों की भी अहम भूमिका होती है, इसका भी प्रभाव पड़ता है| अतः परिवार की संरचना न केवल आरंभिक अनुभवों को प्रभावित करती है बल्कि एक्स प्रभाव सामाजिक अभिवृत्तियों एंव व्यवहारों के संरूपों के विकास पर भी पड़ता है| वे बच्चे जिन्हें परिवार में स्वीकृति मिलती है वे बाहरी परिवेश से भी स्वीकृति की प्रत्याशा करते हैं| परन्तु प्रत्याशा के अनुरूप बाहरी लोगों से व्यवहार न मिलने पर बालक आहत होता है| कभी-कभी उग्र भी जाता है| वे बच्चे जो घर के अन्दर एवं बाहर अस्वीकृति पाते हैं, अन्तेर्मुखी प्रवृत्ति के हो जाते हैं| वहीँ यदि माता-पिता या परिवार के सदस्यों का प्रोत्साहन मिलता है तो बच्चों में बहिर्मुखता विकसित होती है| इस प्रकार बच्चा अनेक सामाजिक व्यवहारों को अर्जित करता है|
बच्चों के सहोदर भाई या बहन,उसके विकास को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| सहोदर भाई या बहन बच्चे की समस्याओं को समझाने में सक्षम होते हैं तथा माता-पिता की अपेक्षा वे शिशु के साथ संवाद करने में अधिक सहमत होते हैं| अग्रज सहोदर (भाई/बहन) की भूमिका बच्चे के देखरेख में महत्वपूर्ण होती है| चूँकि प्रथम शिशु को अपने माता-पिता का विशेष ध्यान प्राप्त होता है तथा उस बच्चे से माता-पिता की अपेक्षाएं भी ऊँची रहती है| माता-पिता उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार और उच्च उपलब्धि के लिए उस पर ज्यादा दबाव डालते हैं| बड़े सहोदर से या अपेक्षा की जाती है कि अपने से छोटे सहोदर के साथ संयमित व्यवहार तथा उत्तरदायित्वपूर्ण संवाद बनाएं| प्रायः देखा गया है कि जन्म क्रम में पहले और बाद वाले बच्चों की विशेषताएं भिन्न-भिन्न होती हैं| अपने छोटे भाई या बहन की अपेक्षा, बड़े/बहन अधिक परिपक्व, संयमी तथा पारिवारिक एंव सामाजिक मानकों का पालन करने वाले होते हैं| अतः पारिवारिक पृष्ठभूमि,आपसी अंतःक्रिया का स्वरुप ऐसे अनेक कारक बच्चे के सामजिक विकास को प्रभावित करते हैं| इसके अतिरिक्त अन्य परिवेशीय कारक भी सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होते हैं|
जब बच्चा पारिवारिक परिवेश से बाहर निकलता है तो वह अपनी उम्र के बच्चों के साथ अंतःक्रिया करता है| मित्रमंडली बच्चे के सामाजिक/सांवेगिक विकास को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है| यह वाह्य जगत सूचना व्यवस्था के स्रोत के रूप में कार्य करता है| बच्चे भी हम उम्र बच्चों के साथ अंतःक्रिया करके अपनी योग्यताओं के बारे में सुचना एवं प्रतिपूर्ति प्राप्त करते हैं| वे एक मानक की तरह कार्य करते हैं, जिससे बच्चे आपसी क्रियाकलापों की तुलना करते हैं| बड़े होने पर बच्चे मित्र मण्डली के साथ अधिकाधिक समय बिताना पसंद करते हैं इसीलिए इस आयु को कहा गया है| अंतः मित्र मण्डली की भूमिका सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होती है दूसरी ओर सामाजिक एकाकीपन अनेक समस्यात्मक व्यवहारों को जन्म देता है|
बचपन में मित्र मण्डली के बीच पारस्परिक अंतःक्रिया अपरिवर्तनीय रूप से खेल से जुडी होती है| खेल या क्रीड़ा एक आनंददायक कार्य है जिसमें जुड़ाव अपने लिए होता है| यह एक छोटे बच्चे के सर्वंगीण विकास के लिए आवश्यक है| इसके अतिरिक्त खेल, मित्र मण्डली के सदस्यों के बीच जुड़ाव, तनाव से मुक्ति, संज्ञानात्मक विकास तथा अन्वेषण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है| खेल इस संभावना को बढ़ाता है कि बच्चे एक दूसरे के साथ परस्पर अंतःक्रिया करेंगे| खेल अतिरिक्त शारीरिक उर्जा तथा तनाव से बच्चे को मुक्त भी करता है| अतः खेलों की भूमिका सही सामाजिक एवं सांवेगिक विकास में महत्वपूर्ण होती है|
पिछले कुछ वर्षों में जनसंचार माध्यमों का विस्तार, विशेषकर टेलीविजन का प्रचलन व्यापक स्तर पर हुआ है| टेलीविजन शैक्षणिक कार्यक्रमों के प्रोत्साहन, स्वस्थ मनोरंजन, भांति-भांति की सूचनाओं को उपलब्ध कराने तथा समाजोपयोगी व्यवहार के लिए प्रतिरूप उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है| वहीँ बच्चों में पढ़ाई के प्रति अरुचि, निष्क्रियता, अवज्ञा एवं स्वछन्दता के साथ-साथ हिंसा तथा आक्रामक व्यवहारों के विकास में भी टेलीविजन की अहम भूमिका होती है| अतः माता-पिता या परिवार के सदस्यों का दायित्व बनता है कि बच्चों को अच्छे कार्यक्रमों को ही देखने का अवसर दें|
स्त्रोत: मानव विकास का मनोविज्ञान, ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान
अंतिम बार संशोधित : 11/29/2019
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