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निःशक्तता संबंधी दिशा निर्देश

निःशक्तता संबंधी दिशा निर्देश

भूमिका

अत्यधिक निःशक्तता' से ग्रस्त लोगों को शामिल किया गया हैं और इसमें मध्यम से कम निःशक्तता वाले लोग शामिल नहीं हैं जो थोड़ी सी कोशिश  से ग्रामीण विकास के प्रयासों में शामिल किए जा सकते हैं। इस संख्या  में मानसिक निःशक्तता वाले तथा कुष्ठ  रोग एवं बिगड़ती तंत्रिका-मांस-पेशी  स्थितियों (उदाहरणार्थ, मांस-पेशी -क्षीणता, मोटर-न्यूरॉन रोग, पार्किन्सन रोग और जरामूलक विक्षिप्तता) से प्रभावित लोग भी शामिल नहीं हैं। मानसिक विक्षिप्तता से संबंधित एक अलग प्रतिदर्श  सर्वेक्षण में यह अनुमान लगाया था कि 0 से 14 वर्ष तक की आयु के 3 प्रतिशत  बच्चों का विकास विलंबित है। लेकिन, इस आंकड़े में भी ऐसे बच्चे शामिल नहीं हैं जिन्हें सीखने से संबंधित निःशक्तता (उदाहरणार्थ डिस्लेक्सिया) है या जिन्हें मंद बुद्धि कहा जाता है। और यह भी कि भारत की सामान्य जनसंख्या  का लगभग 5 प्रतिशत  से 10 प्रतिशत  हिस्से के विभिन्न प्रकार के और विभिन्न गंभीरता के मानसिक रोगों से ग्रस्त होने का अनुमान है। देश के विभिन्न भागों में गांव स्तर के सर्वेक्षण से पता चलता है कि जनसंख्या  का 4 प्रतिशत  - 10 प्रतिशत  हिस्सा निःशक्तता से ग्रस्त लोगों का है।

निःशक्तता से जुड़े मुददे

  • उपलब्ध आंकड़ों और निःशक्तता संबंधी आंकड़ों की व्याख्या थोड़ी सावधानी से करनी चाहिए।

कई परिवार, विशेषकर  अधिकतर समुदायों में निःशक्त व्यक्तियों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण निःशक्तता की सूचना देने में झिझकते हैं। कुछ मामलों में, आंकड़ों के संग्रहणकर्ता या यहां तक कि सूचनादाताओं स्वयं को भी इतना ज्ञान और अनुभव नहीं होता जो किसी व्यक्ति के निःशक्त होने की पहचान कर सके। राष्ट्रीय  प्रतिदर्श  सर्वेक्षण (एनएसएस) बृहत-स्तर के आंकड़ों का विश्वसनीय स्रोत माना जाता है, लेकिन सूक्ष्म-स्तर पर अनुमान लगाने के लिए एनएसएस आंकड़ों का प्रयोग करना व्यापक क्षेत्रीय विविधता को देखते हुए संभवतः संगत नहीं होगा। अधिकतर निःशक्तताओं की आसानी से रोकथाम की जा सकती है

  • अन्य विकासशील  देशों की तरह भारत में भी निःशक्तता के मुख्य कारण हैं- कुपोषण, संचारी रोग, बचपन में संक्रमण तथा घर और बाहर हुई दुर्घटनाएं।

पोषण संबंधी कमियों, अपर्याप्त स्वच्छता, अपर्याप्त अथवा दुर्लभ स्वास्थ्य देखरेख सेवाओं, खराब ढंग से निर्मित उपस्करों एवं उपकरणों से हुई दुर्घटनाओं एवं उनसे लगी चोटों और समरक्त विवाहों जैसी प्रथाओं, सबने मिलकर निःशक्तता को बढ़ाया है। अपर्याप्त अवसरंचना, संभारिकी संबंधी समस्याओं और शीत श्रृंखला बनाए रखने में आने वाली मुश्किलों और आंशिक रूप से इस विषय  पर जन-शिक्षा  के अभाव के कारण प्रतिरक्षण कार्यक्रमों ने 100 प्रतिशत  कवरेज हासिल नहीं की है।

यह अनुमान लगाया गया है कि एक प्रभावी प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यक्रम लगभग आधी निःशक्तताओं की रोकथाम कर सकता है। विकृति की जल्दी पहचान के साथ-साथ शीघ्र  एवं कारगर उपचारात्मक देखरेख विकृति और इसके परिणामों को कम करने या उनकी प्रतिपूर्ति करने पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं।

    ग्रामीण निर्धन निःशक्तता के सर्वाधिक शिकार  हो सकते है

भारत में 80 प्रतिशत  निःशक्त व्यक्ति ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। ग्रामीण निर्धनों को ऐसी निःशक्तताओं का विशेष  तौर पर खतरा हो सकता है जो कुपोषण, पर्यावरणीय स्वच्छता संबंधी खराब स्थितियों और संचारी रोगों से जुड़ी होती हैं। कार्य-स्थल पर लापरवाही, अज्ञान और सुरक्षोपायों की कमी से होने वाली दुर्घटनाएं और समुदाय भी निःशक्तता के बड़े कारण हैं।

निःशक्त व्यक्तियों का समूह अनेक-रूप समूह है जिसमें जन्मजात निःशक्त व्यक्ति, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और/अथवा रोग के कारण होने वाली निःशक्तता से प्रभावित तथा वे निःशक्त व्यक्ति शामिल हैं जो दुर्घटनाओं या जीवन की घटनाओं से लगी चोटों के कारण निःशक्त हुए हों। इनमें बच्चे और युवा, बालक और वृद्ध व्यक्ति शामिल हैं। उनकी निःशक्तता बड़ी या मध्यम हो सकती है और उन्हें एकल निःशक्तता अथवा अनेकानेक रूप की निःशक्तता हो सकती है। लेकिन, उनकी निःशक्तता का कोई भी रूप या सीमा हो, उनकी बुनियादी जरूरतें वहीं होती हैं जो उनके आयु, लिंग, आर्थिक एवं सामाजिक- सांस्कृतिक समूह के अन्य सदस्यों की होती हैं।

इसलिए, निर्धन ग्रामीण परिवारों के निःशक्त सदस्य अनेक कारणों से हाशिये  पर या साधनहीन हो जाते   हैं

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में भागीदारी करने के लिए समर्थ बनाने वाले उत्पादनकारी संसाधनों और अवसरों की सूचना और कौशल  सुविधा का अभाव। इनके अतिरिक्त, निःशक्त व्यक्ति और अधिक साधनहीन और अपाहिज हो जाते हैं जब उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक, वास्तविक और आर्थिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है जो उन्हें समान शर्तों  पर और ससक्त  व्यक्तियों के समान स्तर पर अपने समुदायों के जीवन में भागीदारी करने के अवसर बहुत कम कर देती हैं। उनकी भागीदारी के लिए समझ और सरोकारों के अभाव के कारण ग्रामीण निःशक्त व्यक्ति विशेषकर  वे जो गरीब परिवारों के सदस्य हैं, आर्थिक और सामाजिक अपंगता के सर्वाधिक शिकार  हो सकते हैं।

समान अवसरों का होना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिए समाज की संरचनाएं और प्रणालियां निःशक्त व्यक्तियों को अधिक सुलभ कराई जाती हैं। इसमें भौतिक और सांस्कृतिक माहौल के सभी पहलू, सेवाएं, सुविधाएं एवं विकास कार्यक्रम शामिल हैं जो जनता द्वारा उपयोग किए जाने के लिए बने हैं या जिन पर प्रत्येक नागरिक, जिनमें गरीब और निःशक्त भी शामिल हैं, का हक है। तथापि, निःशक्त निर्धन ग्रामीण लोगों और उनके परिवारों को ऐसे अवसरों, सूचना, प्रौद्योगिकियों और कार्यक्रमों की न के बराबर अथवा कोई सुविधा नहीं है जो भारत में पुनर्वास अथवा विकास प्रक्रिया में भागीदारी के लिए उपलब्ध हैं। अत्यधिक निर्धन परिवारों में माता-पिता और देखरेख करने वालों, जिनकी आय का एकमात्र स्रोत दिहाड़ी की मजदूरी होता है, के पास निःशक्त व्यक्तियों को उपयुक्त देखरेख मुहैया कराने के लिए और मौजूदा ग्रामीण विकास कार्यक्रमों और पुनर्वास सेवाओं का लाभ उठाने के लिए न तो समय होता है और न ही अन्य जरूरी संसाधन, यदि उन्हें आवश्यक  सूचना और कौशल  मुहैया करा दिए जाएं तो भी।

    किए गए उपाय शहर -आधारित और कल्याणोन्मुखी रहे है

अब तक निःशक्तता के क्षेत्र में किए गए अधिकतर प्रयास स्वास्थ्य व्यवसायियों और धर्मार्थ संगठनों द्वारा किए गए हैं। हालांकि निःशक्त भारतीयों की अधिसंख्या  ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, उपलब्ध सेवाएं शहरी  केन्द्रों तक ही सीमित हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि पुनर्वास के जरूरतमंद व्यक्तियों में केवल 2 प्रतिशत  से 3 प्रतिशत  लोगों को ही इन सेवाओं की सुविधा प्राप्त है।

निःशक्तता संबंधी मामलों के लिए कल्याण मंत्रालय केन्द्रक मंत्रालय है। जहां एक ओर, इससे बिल्कुल हाशिये  पर पहुंचे सामाजिक वर्ग के हितों के संवर्धन के लिए केन्द्रीभूत नीतियों और उपायों की आवश्यकता को पूरा किया गया है, वहीं दूसरी ओर, इससे दूसरे मंत्रालयों की इस पारम्परिक प्रवृत्ति को पुनः बल मिला है जो निःशक्तता संबंधी मुद्दों को मात्र कल्याण संबंधी मामले मानते हैं जिनका उनके अपने-अपने अधिदेश को और योजनाओं पर कोई प्रभाव नहीं होता। परिणामस्वरूप, निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्तियों को मुख्यधारा के कार्यक्रमों में भागीदारों के रूप में आम तौर  पर किनारे पर कर दिया गया है। ग्रामीण निर्धनों के लिए विशेष  रूप से तैयार कार्यक्रम इस पैटर्न के अपवाद नहीं हैं। अन्य विकास क्षेत्रों के साथ महत्वपूर्ण संबंधों के अभाव में,

    निःशक्त व्यक्तियों के लिए समान अवसर पैदा करने में कोई प्रगति नहीं की गई है।

हालांकि निःशक्त ग्रामीण लोगों को लेकर निश्चित  रूप से चिन्ता जरूर है लेकिन यह इस धारणा पर आधारित है कि उन्हें मुख्यतया राहत और पीड़ा से मुक्ति की जरूरत है। ऐसे दृष्टिकोण पर आधारित उपायों ने उन्हें आश्रितता और निरूपायता की स्थिति में ला खड़ा किया है। निःशक्त व्यक्तियों के सम्मान, अधिकारों और क्षमताओं पर पर्याप्त ध्यान दिए बिना चिकित्सीय दखल-कार्रवाई हेतु किए जाने वाले कार्यों को प्रधानता दी जाती रही है।

चिकित्सीय पुनर्वास महत्वपूर्ण है लेकिन यह शायद ही महसूस किया जाता है कि यह लक्ष्योन्मुखी और समय-बाधित प्रक्रिया है। इस प्रकार पुनर्वास स्वयं में पूर्ण नहीं है लेकिन यह निःशक्त व्यक्तियों को काम करने के इष्टतम स्तर तक पहुंचने का एक माध्यम है जो उन्हें अपने समुदायों के सक्रिय सदस्य के रूप में योगदान करने में समर्थ बनाता है। निःशक्त व्यक्तियों से जुड़ी सभी कार्रवाइयों को 'पुनर्वास' का लेबल देने से आत्म-निर्णय और भागीदारी करने की उनकी क्षमता को साकार करने में अड़चन आ सकती है।

    समान अवसर पैदा करने में सबसे बड़ी बाधा मानसिकता है

हालांकि सेवाओं की कमी और जानकारी एवं प्रौद्योगिकी का अभाव गंभीर बाधाएं हैं, फिर भी पूर्ण भागीदारी और समानता के सामने सबसे बड़ी बाधा है - परिवार एवं समुदाय तथा स्वयंसेवी क्षेत्र, विकास तंत्र और प्रशासन  में अन्य ससक्त  लोगों का नकारात्मक रवैया। कार्यक्रम और दखल कार्रवाई की योजना बनाते तथा उन्हें तैयार करते समय, लोगों की आम प्रवृत्ति यही होती है कि निःशक्त व्यक्तियों को महत्वहीन अल्पसंख्यक वर्ग का सदस्य माना जाए जिनपर केवल चिकित्सीय मामलों या दान के पात्र के रूप में ध्यान दिया जाए। उनकी मानवीयता, इच्छाएं और योग्यता और यह सच्चाई कि भारत के नागरिक होने के नाते उन्हें वही हक हैं जो किसी भी ससक्त  नागरिक के, अक्सर स्वीकारी नहीं जाती। व्यक्तिगत स्तर पर, निःशक्तता के आधार पर बरता जाने वाला भेदभाव निःशक्त व्यक्ति के रोजमर्रा के जीवन की एक आम बात है। इस भेदभाव की अभिव्यक्ति परिवार में ही संसाधनों का छोटा हिस्सा मिलने से लेकर ग्रामीण निर्धनों के लिए विशेष  रूप से अभिप्रेत सेवाओं के कार्यक्रमों की सुविधा प्राप्त करने में आने वाली मुश्किलों में होती है। कठोर और परम्परागत जाति-संरचना से उभरते वाले कष्ट  इन मुश्किलों को और बढ़ा देने हैं।

नकारात्मक रवैये के साथ गहराई से जुड़ी है- समाज में निःशक्त व्यक्तियों की स्थितियों, समस्याओं और क्षमताओं की जानकारी की व्यापक कमी। साथ ही, दक्षिण भारत में निःशक्त व्यक्तियों के अनेक छोटे संगठनों(संगम) के विकास को बढ़ावा देने के बावजूद, निःशक्त व्यक्तियों द्वारा आत्म-समर्थन किया जाना अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कम है।

इन सभी कारकों का एक परिणाम इस वर्ग का मुख्यधारा के विकास कार्यक्रमों, जिनमें ग्रामीण निर्धनता- उन्मूलन के कार्यक्रम भी शामिल हैं, में भाग न लेना हुआ है। अब तक भारत में मुख्यधारा के विकास कार्यक्रमों की, उनके निःशक्त व्यक्तियों पर प्रभाव तथा निःशक्तता केन्द्रित कार्यक्रमों के साथ उनके समेकन के संभावना की जांच करने के लिए कोई समीक्षा नहीं की गई है।

    निःशक्त व्यक्तियों के कुछ समूह अन्यों से अधिक कष्टप्रद स्थितियों में हैं

ग्रामीण विकास में समान अवसरों को बढ़ावा देने के लिए किसी भी कार्रवाई में इस तथ्य को अवश्य  ध्यान में रखा जाना चाहिए कि निःशक्त व्यक्तियों के कतिपय समूह अन्य समूहों की तुलना में अधिक कष्ट दायक स्थितियों में हैं, और जब तक उन्हें शामिल करने के लिए विशिष्ट उपाय न किए जाएं, वे छूट ही जाएंगे।

ऐसे समूहों के उदाहरण हैं-निःशक्त महिलाएं एवं लड़कियां, श्रवण-द्गाक्ति एवं सम्प्रेषण  की निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्ति, बौद्धिक निःशक्तता और मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्ति, कुष्ठ  रोग से ग्रस्त व्यक्ति और विस्तृत एवं अनेकानेक निःशक्तताओं से ग्रस्त व्यक्ति।

निःशक्त महिलाएं और लड़कियां न सिर्फ निःशक्तता के प्रति नकारात्मक रवैये से ही बल्कि लिंग-भेदभाव और गरीबी से भी प्रभावित होती हैं। हालांकि निःशक्त व्यक्तियों के लिए बने कार्यक्रमों के रूप में सेवाएं अवश्य  उपलब्ध हैं, मुख्य लाभानुभोगी पुरुष  और लड़के ही होते हैं। निःशक्त महिलाएं एवं लड़कियां कुल मिलाकर मुख्यधारा के महिलाओं के आन्दोलन तथा गरीब महिलाओं के लिए लक्षित कार्यक्रमों से और स्व-सहायता आन्दोलन तथा निःशक्त व्यक्तियों के संगठनों से भी बाहर ही रहती हैं। कुल मिलाकर, भारत में निःशक्त व्यक्तियों के स्व-सहायता संगठनों के नेतृत्व और सदस्यता में स्पष्ट  दिखाई देने वाली लिंग संबंधी असमानता ही निःशक्त महिलाओं एवं लड़कियों की कठिन स्थितियों की परिचायक है।

बौद्धिक निःशक्तता से ग्रस्त लगभग 75 प्रतिशत  व्यक्ति 50 से 100 आईक्यू की श्रेणी में आते हैं, और कम से मध्यम निःशक्तता से ग्रस्त हैं। वे अपनी देखरेख में कुछ हद तक स्वतंत्र हो सकते हैं, अपने समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत तरीकों से व्यवहार करना सीख सकते हैं और सहायता-प्राप्त रोजगार में कमाई कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, उन्हें विभिन्न घरेलू कार्यों में या पशु पालन, बागवानी अथवा दोहराए जाने वाले खेती से इतर कामों में लगाया जा सकता है जिन कामों के लिए ससक्त  लोगों में सहन शक्ति  नहीं होती। लेकिन इसके बावजूद, उनके परिवारों और समुदायों के प्रति उनके योगदान की क्षमता को समझा नहीं जाता। उनके विकास के अवसर अक्सर उस समय उपलब्ध नहीं होते जब वे सीखने के लिए सर्वाधिक इच्छुक होते हैं और विकास के लिए संरचित कार्यक्रमों के लिए बेहद जरूरतमंद होते हैं।इसकी बजाय, उन्हें 'मूर्ख' या 'बेवकूफ' जैसे अपशब्द  कहे जाते हैं और उन्हें अक्सर ''खराब दिमाग'' वाला

माना जाता है। यहां तक कि अभी 1987 तक भी, कानून में भी बौद्धिक निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्ति और मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्ति के बीच अंतर को स्वीकारा नहीं गया था। बौद्धिक निःशक्तताओं से ग्रस्त और अनेक व्यक्तियों को अभी भी पागलखानों में छुपाया जा रहा है या ''गैर-आपराधिक विक्षिप्त'' लोगों के रूप में कैद किया जा रहा है। यह समूह गलतफहमी का सबसे बड़ा शिकार  और सर्वाधिक उपेक्षित रहा है। उनकी क्षमता के बारे में और उनके विकास के लिए अनेक तरीकों, जिनमें माता-पिता का प्रशिक्षण , पाठ्‌यचर्या सुधार और औपचारिक व अनौपचारिक क्षेत्र की सन्निविष्ट  शिक्षा  शामिल है, के लिए जागरूकता बढ़ाने हेतु तत्काल कार्रवाई किए जाने की जरूरत है। जागरूकता बढ़ाने के प्रयास सिर्फ परिवारों और समुदायों तक ही सीमित नहीं रहने चाहिए बल्कि इसमें स्वास्थ्य, पुनर्वास और शिक्षा  से जुड़े व्यवसायियों तथा स्थानीय प्रशासकों एवं विकास कार्यकर्ताओं को भी शामिल किया जाना चाहिए।

वर्ष 1993 में एक ऐतिहासिक फैसले में भारत में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों के जेलों में बंद रखना गैर-कानूनी और असंवैधानिक है। राज्य सरकारों को भी मानसिक रोगियों की देखरेख के लिए मूलभूत न्यूनतम सुविधाएं मुहैया कराने के निदेश दिए गए हैं। पिछले चार दशकों  में, अनेक मानसिक रोगों के लिए विशिष्ट और कारगर उपचार उपलब्ध हो गए हैं। रोग की जल्दी पहचान हो जाने तथा इलाज से अनेक लोग मानसिक रोगों से मुक्त हो जाते हैं और इससे लम्बी बीमारी और निःशक्तता की रोकथाम की जा सकती है। परिवारों की क्षमता मजबूत करके, स्वयं सेवकों के जरिए संकट के समय हस्तक्षेप करके और स्व-सहायता समूहों के निर्माण को प्रोत्साहन देकर मानसिक रोगियों के जीवन-स्तर में सुधार हो सकता है तथा परिवारों को परस्पर सहायता लेने एवं बीमारी की आवृत्ति रोकने में मदद मिल सकती है। अग्रणी उपायों ने सिद्ध किया है कि चिकित्सकों के लिए यह संभव है कि वे प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी देखरेख सेवाएं मुहैया कराएं और यह भी कि मानसिक रोग से ग्रस्त व्यक्ति की देखभाल और उपचार उनके घरों और समुदाय में ही किया जा सकता है। दखल-कार्रवाई का केन्द्र पागलखानों से हटाकर आम अस्पतालों में मनःचिकित्सा यूनिटों पर लाने तथा इससे भी आगे प्राथमिक स्वास्थ्य संबंधी देखरेख के स्तर पर लाने में की गई प्रगति के बावजूद, मानसिक रोगी भारतीयों की कुल संख्या  का बहुत छोटा हिस्सा ही मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच पाता है। यह बहुत जरूरी है कि विभिन्न क्षेत्रों से आए पेद्गोवर लोग एक साथ काम करें ताकि परिवारों एवं समुदायों को संवेदनशील तथा जानकार बनाया जाए और मानसिक स्वास्थ्य की देखरेख के प्रति वैकल्पिक सामुदायिक दृष्टिकोणों को कार्यान्वित करने के लिए सहायता दी जाए।

वाक्‌ और श्रवण संबंधी निःशक्तता तथा अन्य सम्प्रेषण  संबंधी निःशक्तताओं से ग्रस्त व्यक्तियों के साथ सम्प्रेषण  के असाधारण तरीकों के प्रति संवेदनहीनता ही उन्हें अलगाव और एकाकीपन के गर्त में धकेलने का कारण है। चूंकि संकेतों की भाषा  ऐसी संकल्पनाओं और संकेतों से बनी है जो संस्कृति-विशेष  से जुड़ी है, इसलिए भारत की भाषा ओं और संस्कृतियों की विविधता को देखते हुए, दूसरे देशों में विकसित भाषा एं भारत में उपयोगी सिद्ध नहीं  होतीं। देशीय संकेतों की भाषा  का विकास करने की अत्यंत आवश्यकता है जो ग्रामीण भारत के विभिन्न भागों के बधिर लोगों को स्वीकार्य हो। शहर  के प्रशिक्षित  उच्च वर्ग की संस्कृति से अलग, ग्रामीण संस्कृति पर आधारित संकेतों की भाषा  का विकास करने के लिए ऐसे संकेतों का, जो ग्रामीण भारत में इस्तेमाल किए जाते हैं, संग्रहण और वर्गीकरण करने के लिए विस्तृत अनुसंधान की जरूरत है। बधिर बच्चों का पूर्ण ज्ञानात्मक विकास और सभी बधिर व्यक्तियों के आत्म-निश्चय  के सामने खड़ी सम्प्रेषण  बाधा को तभी हटाया जा सकेगा जब उन्हें उनके स्वभाव के विरूद्ध, सुनने वाले व्यक्ति की सुविधा के लिए, सम्प्रेषण  के मौखिक तरीकों को अपनाने की कोशिश  करने के लिए बाध्य न किया जाए बल्कि अपनी पसंद से संकेत-भाषा  इस्तेमाल करने के उनके अधिकार का सम्मान किया जाए।

विस्तृत और अनेकानेक निःशक्तता जैसाकि गंभीर दृष्टि निःशक्तता के साथ प्रमस्तिष्कीय पक्षघात या मानसिक विक्षिप्तता के साथ प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात वाले व्यक्तियों के परिवारों को अत्यधिक तनाव झेलना पड़ता है

जिससे अक्सर पारिवारिक जीवन टूटता है। इन परिवारों के लिए किसी प्रकार की सहायक सेवाओं के अभाव में,रोगों के परिणामस्वरूप जीवन में आगे चलकर पैदा हुई अनेकानेक निःशक्तताएं (उदाहरणार्थ मांस-पेशी क्षीणता और जरामूलक विक्षिप्तता) भी अत्यधिक तनाव का कारण बनती हैं। ग्रामीण इलाकों में, सेवाएं लगभग हैं ही नहीं और जहां हैं भी, वहां उनमें वही लोग शामिल किए जाते हैं जो मध्यम या कम सीमा की निःशक्तताओं से ग्रस्त हों और जिनकी सफलता की संभावना अधिक हो। अनेकानेक और अत्यधिक गंभीर निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्ति निःशक्त व्यक्तियों के संगठनों या विकास गतिविधियों में सीधे संभवतः भाग नहीं ले सकते। अनेकानेक निःशक्तता तथा गंभीर निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्तियों के माता-पिता तथा परिवारों के ग्रामीण स्तर के परस्पर सहायक समूहों के निर्माण को सुसाध्य बनाने की जरूरत है। प्रेरणा, प्रशिक्षण  और राहत संबंधी देखरेख सेवाएं विशेषकर  ऐसे गरीबी परिवारों के लिए महत्व रखती हैं जिनके पास प्रेरणा और समाजीकरण के लिए जरूरी गहन दखल कार्रवाइयों के लिए संसाधन सीमित, ऊर्जा कम और समय नहीं है। अनेकानेक और व्यापक निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्तियों के परिवारों और देखरेख करने वालों को दिवस-परिचर्या सेवाओं और गृह-आधारित आर्थिक गतिविधियों की सुविधा की जरूरत होती है। चोटों, दुर्घटनाओं या बीमारियों के कारण जीवन में आगे चलकर अनेकानेक निःशक्तताओं से ग्रस्त होने वाले व्यक्तियों को समयबद्ध पुनर्वास की तथा स्व-सहायता समूहों में भाग लेने के अवसरों की और कौशल  विकास एवं रोजगार के लिए वैकल्पिक मार्गों की जरूरत होती है।

यह अनुमान लगाया गया है कि विश्व  में कुष्ठ  रोग से प्रभावित हर तीन व्यक्तियों में से एक भारतीय है। कुष्ठ  रोग को व्यापक रूप से असाध्य रोग माना जाता है और इससे जुड़ी कपोल-कल्पनाओं और आकांक्षाओं  के परिणामस्वरूप इस समूह को सामाजिक तौर पर लगभग पूरी तरह एकाकी बना दिया गया है और हाशिये  पर ला दिया गया है। आज भी अधिकतर लोग नहीं जानते कि ''बहुऔषधी उपचार'' से गंभीर मामलों का इलाज भी तीन से छह महीने के भीतर हो जाता है और यह कि उपचार में एकाकीपन और अलग रखने के जरूरत नहीं होती। आरंभिक लक्षणों की पहचान करने और इलाज शुरू  करने में हुए विलम्ब के परिणामस्वरूप स्थायी क्षति और निःशक्तता पैदा होने के साथ-साथ संक्रमण भी फैलता है। कुष्ठ  रोग से ग्रस्त लोगों के बच्चे भी बहिच्च्कार का सामना करते हैं और उन्हें अक्सर शिक्षा , बाल देखरेख और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित कर दिया जाता है। कुष्ठ  रोग नियंत्रण कार्यक्रमों का प्राथमिक स्वास्थ्य देखरेख के साथ एकीकरण समुदायों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की इसे ''बस एक रोग'' के रूप में देखने में मदद करने की दिशा  में एक कदम हो सकता है। यह जरूरी है कि प्राथमिक स्वास्थ्य देखरेख कार्यकर्ता, पुनर्वास कार्यकर्ता और निःशक्त व्यक्तियों के संगठन कुष्ठ  रोग की बेहतर समझ पैदा करने, लोगों के डर कम करने, रोग के जल्दी पता लगने और इलाज करने तथा समुदाय से स्वीकृति और सहायता को सुसाध्य बनाने के लिए मिलकर काम करें। संक्रमण को नियंत्रित करने, विकृतियों की रोकथाम करने एवं उन्हें ठीक करने के लिए दीर्घकालिक चिकित्सीय उपचार के अलावा, कुष्ठ  रोग से ग्रस्त व्यक्तियों को शिक्षा , आर्थिक विकास, निःशक्तता पुनर्वास एवं ग्रामीण विकास के चल रहे कार्यक्रमों में शामिल करने के लिए सकारात्मक उपाय किए जाने की जरूरत है। ऐसे व्यक्तियों विशेषकर  महिलाओं के लिए विशेष  सहायता प्रणालियां विकसित किए जाने की जरूरत है, जो यह पता चलते ही कि वे कुष्ठ  रोग से ग्रस्त हैं, अपने परिवारों द्वारा त्याग दी जाती हैं और उनका उपचार हो जाने के बाद भी उनका कोई ठिकाना और आजीविका का कोई साधन नहीं होता।

मार्गदर्शी  सिद्धांत

  • निःशक्त ग्रामीण निर्धन अपने समुदायों के ही सदस्य हैं और भारत के नागरिक हैं। उन्हें निर्णय लेने तथा योजना-निर्माण की प्रक्रियाओं में भागीदार के रूप में तथा ग्रामीण निर्धनों के लिए बनाए गए कार्यक्रमों के लाभानुभोगियों के रूप में ग्रामीण विकास की प्रक्रिया में भाग लेने का हक है।
  • ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों और परियोजनाओं में उनकी भागीदारी के समक्ष आने वाली मानसिकता संबंधी और वास्तविक बाधाओं का सामना करने के लिए निःशक्त व्यक्तियों को समर्थ बनाने हेतु विशिष्ट उपाय किए जाने की जरूरत है। इन उपायों में सामाजिक सहयोग (ससक्त  व्यक्तियों की मानसिकता बदलना और निःशक्त व्यक्तियों में आत्मविश्वास  और स्वाभिमान जगाना) के साथ-साथ उनकी भागीदारी में भौतिक और संभारिकी संबंधी बाधाओं को हटाने पर जोर दिया जाना चाहिए।
  • निःशक्त ग्रामीण व्यक्ति अपने अधिकार और हकदारी प्राप्त करें - यह सुनिश्चित करने की प्रक्रिया ग्रामीण विकास से जुड़े सभी व्यक्तियों की संयुक्त जिम्मेदारी है।
  • प्राथमिक पुनर्वास, सामाजिक सहयोग और ग्रामीण विकास के लिए सामुदायिक कार्रवाई का आयोजन करने में भारत में स्वैच्छिक और गैर-सरकारी विकास क्षेत्र के गहन अनुभव का लाभ विकास कार्यक्रमों में निःशक्त ग्रामीण निर्धनों की भागीदारी को सुसाध्य बनाने के लिए उठाया जा सकता है।
  • चूंकि मूलभूत पुनर्वास सेवाएं, सहायक उपकरण और ग्रामीण निर्मित पर्यावरण की सुविधा की उपलब्धता विकास कार्यक्रमों में भागीदारी हेतु पूर्वापेक्षाएं हैं, इसलिए इन कार्यक्रमों को निःशक्त ग्रामीण निर्धनों की मूल हकदारी माना जाना चाहिए।
  • गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों और समुदायों के लिए, मूलभूत पुनर्वास सेवाएं उन्हीं के निवास-स्थानों पर उनके लिए सुविधाजनक रूपों और समय पर मुहैया कराए जाने की जरूरत है। इन मूलभूत पुनर्वास सेवाओं में ये शामिल हैं - रोग की जल्दी पहचान और नैदानिकी, नियमित स्वास्थ्य जांच और उपचार, कार्यकरण के शारीरिक, संवेदी और बौद्धिक स्तरों का आकलन, मौजूदा कार्यक्रमों में शीघ्र  दखल-कार्रवाई, रेफरल और समेकन।
  • समुदाय आधारित पुनर्वास (सीबीआर) अपने व्यापक अर्थ में निःशक्त व्यक्तियों को शिक्षा , कौशल -विकास, निर्णय लेने, आवास, परिवहन एवं विकास योजनाओं में भागीदारी करने के लिए समान अवसर पैदा करने के लिए सामाजिक सहयोग ओर अन्य संसाधन जुटाने के लिए की गई सामाजिक कार्रवाई हैं। सीबीआर से जुड़ी सभी गतिविधियों में योजना-निर्माण और सुपुर्दगी सेवाओं में भाग लेने के निःशक्त व्यक्तियों के अधिकार का अवश्य  सम्मान किया जाना चाहिए।

उद्देश्य  और महत्वपूर्ण क्षेत्र

इस कार्यनीति का उद्देश्य  भारत में सरकारी तथा स्वैच्छिक संगठनों के सभी ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में निर्धन ग्रामीण निःशक्त व्यक्तियों की सक्रिय भागीदारी का संवर्धन करना है। कार्रवाई के महत्वपूर्ण क्षेत्र नीचे बताए गए हैं।

  • ऐसी मानसिकता, सांस्कृतिक और भौतिक बाधाओं को समाप्त करना जो निःशक्त निर्धन ग्रामीणों को ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाओं, सेवाओं, सूचना और विकास कार्यक्रमों से वंचित रखती हैं।
  • स्थानीय स्तर पर सहायता उपायों की व्यवस्था करना ताकि निःशक्त निर्धन ग्रामीण लोग ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की पूरी सुविधा प्राप्त कर सकें।
  • ग्रामीण निर्धनों तथा निःशक्त व्यक्तियों से जुड़े गैर-सरकारी विकास संगठनों के बीच परस्पर सहयोग और भागीदारी को प्रोत्साहित करना।
  • ग्रामीण भारत में निःशक्त व्यक्तियों के स्व-सहायता आन्दोलन का विकास और सुदृढ़ीकरण।
  • ऐसी सीबीआर परियोजनाओं की सहायता करना तथा उन्हें मजबूत बनाना जो स्थानीय स्थितियों और संस्कृतियों पर आधारित हो, तथा सीबीआर के कवरेज का ग्रामीण समुदायों में निःशक्तता से ग्रस्त लोगों के लिए समान अवसर पैदा करने के एक माध्यम से रूप में विस्तार करना।

प्रमुखकर्ता

यह कार्यनीति मुख्यतया निःशक्तता से ग्रस्त ग्रामीण निर्धन लोगों के लाभ के लिए तैयार की गई है और अनेक समूहों द्वारा संयुक्त कार्रवाई किए जाने के लिए निर्दिष्ट  है।

  • निःशक्तता से ग्रस्त लोगों के ग्राम स्तर के संगठन (संगम)। इन संगठनों में विभिन्न निःशक्तताओं से ग्रस्त लोग और अनेकानेक एवं गंभीर निःशक्तताओं से ग्रस्त लोग तथा उनके माता-पिता व देखरेख करने वाले, सम्प्रेषण  में कठिनाई और बौद्धिक निःशक्तता से ग्रस्त लोग, निःशक्त महिलाएं एवं लड़कियां तथा सामाजिक दृष्टि से साधनहीन वर्गों के निःशक्त सदस्य भी शामिल हो सकते हैं।
  • महिला समूह, युवा क्लब, स्व-सहायता समूह, क्रेडिट समूह, वाटरशेड एसोसिएशन, सीबीआर समितियां, ग्रामीण शिक्षा  समितियां और ग्राम स्तर के अन्य जन समूह।
  • निःशक्तता से ग्रस्त लोगों के साथ प्रत्यक्षतः कार्य करने वाले स्वैच्छिक संगठन जिनमें शहरों में स्थित निःशक्त लोगों के स्व-सहायता संगठन और पुनर्वास सेवा सुपुर्दगी संगठन, जो अपनी सेवाएं निःशक्त ग्रामीण लोगों को देने में लगे हैं, शामिल हैं।
  • ग्रामीण विकास के मुद्दों पर कार्य कर रहे स्वैच्छिक/गैर-सरकारी विकास संगठन।
  • स्थानीय स्व-शासन  और पंचायती राज संगठनों में जन-प्रतिनिधि एवं प्रशासन ।
  • ग्रामीण निर्धनों को संगठित करने में लगे लोग और समूह जिनमें श्रम और भूमि संबंधी मुद्दे सुलझाने में लगे लोग, विकास प्रक्रिया में महिलाओं तथा हाशिये पर आए अन्य समूहों की भागीदारी को बढ़ावा देने में लगे लोग और साक्षरता, सुरक्षित मातृत्व, मतदाता शिक्षा  और सामुदायिक स्वास्थ्य जैसे जन प्रचार अभियानों के सदस्य।
  • सभी स्तरों पर ग्रामीण विकास से जुड़े सरकारी अधिकारी और प्रशासन  विशेषकर  जिला कलेक्टर,जिला ग्रामीण विकास एजेंसियों (डीआरडीए) के परियोजना अधिकारी और ब्लॉक विकास अधिकारी।

परियोजना प्रस्तावों के महत्वपूर्ण क्षेत्र

ऐसे उपायों को, जो निःशक्त गरीब लोगों की ग्रामीण विकास कार्यक्रमों और परियोजनाओं में भागीदारी को मजबूत बनाएं, सुसाध्य बनाने के लिए कपार्ट ऐसे स्वैच्छिक संगठनों को सहायता प्रदान करेगा जिनके परियोजना प्रस्ताव इस कार्यनीति के समग्र केन्द्र और मार्गदर्शी  सिद्धांतों के अनुरूप हों और जो इसके कार्यान्वयन को और मदद दें।

नीचे वर्णित एक या अधिक महत्वपूर्ण क्षेत्रों को पर्याप्त रूप से शामिल करने वाले परियोजना प्रस्तावों पर वित्तीय सहायता हेतु विचार किया जाएगा।

क. सामाजिक संघटन

1.     संगठन-निर्माण

ग्रामीण क्षेत्रों में निःशक्तता से ग्रस्त लोगों को स्वयं अपने ग्राम स्तर के संगठन बनाने में समर्थ बनाना। इन संगठनों में बौद्धिक निःशक्तता, अनेकानेक और व्यापक निःशक्तता से ग्रस्त लोगों, जो सीधे भाग लेने में असमर्थ हैं, के माता-पिता, अभिरक्षक और देखरेख करने वाले शामिल हो सकते हैं। तथापि, प्रत्यक्ष भागीदारी को यथासंभव प्रोत्साहित करने के प्रयास अवश्य  किए जाने चाहिए।

निःशक्त व्यक्तियों के ग्राम स्तर के संगठनों के संघ बनाने के लिए सहायता देना तथा उन्हें समर्थ बनाना और इन संघों की हाशिये  पर लाए गए अन्य समूहों के संगठनों के साथ नेटवर्क एवं एकता स्थापित करने में मदद करना।

2.  सामाजिक सहयोग में प्रयोग के लिए प्रशिक्षण और सूचना-सामग्री का विकास।

सामग्री ऐसे होनी चाहिए जो इन लोगों द्वारा आसानी से समझी जा सके तथा इस्तेमाल की जा सके - ग्रामीण समुदाय (जिनमें नव-साक्षर और निरक्षर लोग शामिल हैं), ग्रामीण विकास में कार्य कर रहे स्वैच्छिक संगठनों के फील्ड कार्यकर्ता, सामुदायिक विकास में कार्य करने वाले पंचायती राज कर्मचारी, आंगनवाड़ी/बालवाड़ी कार्यकर्ता, समेकित बाल विकास सेवाओं के कर्मचारी, प्राथमिक स्वास्थ्य देखरेख कर्मचारी और ग्राम स्तर के अन्य कार्यक्रमों के कार्यकर्ता।

सामग्री स्थानीय भाषा ओं में होनी चाहिए और निःशक्त व्यक्तियों को आसानी से उपलब्ध होनी चाहिए। इनमें दृश्य -श्रव्य और मुद्रित सामग्री दोनों शामिल हो सकती है। इस कार्यनीति के अनुरूप विषय -सामग्री इस तरह तैयार की जाए कि निःशक्तता और निःशक्तता से जुड़े मुद्दों की बेहतर समझ को बढ़ावा दिया जा सके। इन प्रशिक्षण  और सूचना सामग्रियों का विकास और इस्तेमाल करते समय स्थानीय संसाधन, लोकप्रिय और लोक माध्यमों, मिथकों तथा अध्यात्मिक परम्पराओं को इस्तेमाल किया जा सकता है।

कुछ मुद्दे जिन्हें महत्व दिया जा सकता है, नीचे दिए गए हैं।

  • निःशक्तता को प्रसामान्यता की निरंतरता का हिस्सा ही माना जा सकता है और प्रत्येक ससक्त व्यक्ति के छिपी हुई निःशक्तताएं होती हैं।
  • कोई भी व्यक्ति जीवन में कभी भी निःशक्तता से ग्रस्त हो सकता है। निःशक्तता कठिन और चुनौतीपूर्ण हो सकती है लेकिन यह जीवन का अंत होने की बजाए जीने के एक और तरीके की शुरूआत हो सकती है।
  • निःशक्त व्यक्ति अनिवार्यतः मंद बुद्धि नहीं होते, भले ही वे स्वयं को अलग-अलग तरीकों से अभिव्यक्त करें।
  • मानसिक रोगी खतरनाक नहीं होते।
  • निःशक्त व्यक्तियों के अनेक समूह, विशेषकर  वे उप-समूह जो खास तौर पर हाशिये  पर हैं जैसे कि निःशक्त महिलाओं एवं लड़कियों को हिंसा और अत्याचार के शिकार  होने का जोखिम अधिक है।
  • एक व्यक्ति, नागरिक और अपने समुदाय का सदस्य होने के नाते निःशक्त व्यक्तियों के अधिकारों और स्वाभिमान का सम्मान किए जाने की जरूरत है।
  • निःशक्त लोगों को विकास के अवसर प्राप्त करने और अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में लेने का अधिकार है।
  • निःशक्त लोगों में क्षमता, योग्यता होती है और वे अपनी सीमाओं का सामना कर सकते हैं और कर भी रहे हैं तथा अपने एवं औरों के जीवन को नया अर्थ दे सकते हैं।
  • निःशक्त व्यक्तियों में उदासीनता, आत्मविश्वास  की कमी और आहत स्वाभिमान, जब प्रकट होता है, तो वह नकारात्मक सामाजिक रवैये को ग्रहण करने के परिणामस्वरूप होता है और इसका समाधान तदनुसार किया जाना चाहिए।
  • निःशक्त व्यक्तियों की मदद और सहायता के प्रयास उन्हें विकास प्रक्रिया में सक्रिय रूप से योगदान देने में समर्थ बनाने की दिशा  में होने चाहिए न कि उन्हें सिर्फ दानप्राप्तकर्ता बनाने पर।
  • ससक्त व्यक्तियों की भूमिका ग्रामीण माहौल में ऐसी वास्तविक बाधाएं हटाने के लिए मदद करने की है जो निःशक्त व्यक्तियों की भागीदारी में रोड़ा अटकाती हैं।
  • चल रही गतिविधियों और कार्यक्रमों में निःशक्तता संबंधी सरोकार शामिल करने को सुसाध्य बनाने के लिए समुदाय सहायता समूह बनाने की पहल कर सकते हैं।
  • निःशक्त व्यक्तियों के संगठन बनाना जरूरी है जो निःशक्तता संबंधी मुद्दों पर कार्रवाई की योजना बनाने एवं उसे कार्यान्वित करने में नेतृत्व कर सकते हैं।

3.   कार्यक्रम सहायता

  • निःशक्तता संबंधी  मुद्दों पर सामुदायिक कार्रवाई करने के तरीकों का विकास और सुदृढ़ीकरण करने की दृष्टि से नीति-निर्माण, डिजाइन, फील्ड सहायता और कार्यक्रमों की मानीटरिंग तथा मूल्यांक्न।
  • निःशक्तता के मुद्दे को लेकर सामाजिक सहयोग के संचालक तथा सुविधाकर्ता के रूप में कार्य करने के लिए उनकी क्षमता निर्माण हेतु स्वयंसेवी संगठनों के फील्ड स्टाफ और सुविधाकर्ताओं का प्रशिक्षण । प्रशिक्षण  की विषय -सामग्री में निर्धनता के कारणों, निःशक्तता और निर्धनता के बीच संबंध और विकास-मुद्दे के रूप में निःशक्तता की बुनियादी समझ पैदा करना शामिल होना चाहिए। प्रशिक्षण  में सामाजिक विशलेषण को सुसाध्य बनाने, सामुदायिक सर्वेक्षण और विषय  अध्ययन करने, सामुदायिक बैठकें और स्कूल स्तर की निःशक्तता बैठकें संचालित करने, परामर्श  देने, सामुदायिक स्तर पर संगठन निर्माण, प्रचार माध्यमों और प्रलेखन का प्रयोग सुसाध्य बनाने के लिए बुनियादी जानकारी और कौशल  तैयार करना शामिल होना चाहिए। निःशक्तता के कारणों और रोकथाम की बुनियादी जानकारी तथा पहचान एवं प्राथमिक दखल कार्रवाई करने में दक्षता भी जरूरी है।

4. सहायक उपकरणों की स्थानीय उपलब्धता में वृद्धि करना

  • बढ़ई, लोहार, मिस्त्री, इलेक्ट्रीशियन , मेकैनिक और अन्य तकनीशियन  के ग्राम स्तर के नेटवर्क के जरिए सहायक उपकरणों की आपूर्ति, मरम्मत और रखरखाव में कम लागत के नए परिवर्तनों का बढ़ावा देना।
  • उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सहायक उपकरणों के अनुसंधान, विकास और उत्पादन से जुड़े प्रमुख संगठनों एवं सरकारी संस्थाओं के साथ संबंध स्थापित करना तथा उनसे सहायता लेना।

ख.    क्षमता-निर्माण

1.   विकास कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण

  • सरकारी एजेंसियों और स्वैच्छिक संगठनों में कार्यकर्ता ग्रामीण निर्धनों, जिनमें महिलाएं, जनजातीय समूह, भूमिहीन कृषि  मजदूर और हाशिये  पर लाए गए अन्य समूह शामिल हैं, की अधिकारिता के मुद्दे पर ध्यान दे रहे हैं ताकि विभिन्न गतिविधियां शुरू  करने के लिए उनकी क्षमता का निर्माण किया जा सके।
  • निर्धन परिवारों के लिए सहायता जुटाना जो उन्हें अपने निःशक्त सदस्यों की पूर्ण सहभागिता और समानता हासिल करने के लिए उनकी मदद हेतु चाहिए।
  • निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्तियों को अपने संगठन तथा स्व-सहायता समूह बनाने में मदद करना।
  • निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्तियों को गरीब महिलाओं, जनजातीय और कृषि  मजदूरों के स्व-सहायता समूहों में सक्रिय रूप से शामिल करना तथा निःशक्त महिलाओं एवं लड़कियों को महिला मंडलों एवं महिलाओं के अन्य संगठनों की सभी गतिविधियों में शामिल करने पर विशेष  जोर देना।
  • निःशक्तता की समय से पहचान करना तथा उपलब्ध सेवाओं हेतु संदर्भित करना।

2.     निःशक्त व्यक्तियों के लिए प्रशिक्षण  पैकेजों और सूचना-सामग्री का विकास

श्रव्य, दृश्य  और ब्रेल सहित उपर्युक्त रूपों में सूचना सामग्री को डिजाइन तथा तैयार करना और निःशक्त व्यक्तियों के प्रशिक्षण  के प्रति नवीन दृष्टिकोणों की शुरू आत करना। इन सामग्रियों और प्रशिक्षण  पैकेजों के लिए कुछ संभावित विषय  नीचे दिए गए हैं।निःशक्त ग्रामीण व्यक्तियों की ग्रामीण विकास में भाग लेने की हकदारी और उनके इलाकों में उपलब्ध योजनाओं और कार्यक्रमों के ब्यौरे।

  • विशेष  ग्रामीण क्षेत्रों में निःशक्त व्यक्तियों के लिए उपयुक्त कार्यों के प्रकार, तथा उपलब्ध सहायक उपकरण जिनमें निःशक्त व्यक्तियों द्वारा इस्तेमाल करने के लिए अपने अनुकूल बनाए जाने वाले उपकरण भी शामिल हैं। इन सामग्रियों में निःशक्त व्यक्तियों को घिसे-पिटे कार्यों तथा निम्न स्तर के और परंपरागत कार्यों तक सीमित रखने से बचना चाहिए।
  • आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों एवं प्रक्रियाओं में भागीदारी करने के लिए कौशल  का विकास जिनमें ग्रामीण कार्य के माहौल, परिवार और समुदाय के संदर्भ में आपसी मानवीय समझ तथा प्रबंधन कौशल  भी शामिल हैं।
  • प्रजनन-स्वास्थ्य और आपसी मानवीय संबंधों पर साथियों से परामर्श ।

 

3.    समुदाय-आधारित सहायता-सेवाओं का विकास

  • ऐसे क्षेत्रों में जहां सेवाओं का विकास किए जाने की जरूरत है, ग्रामीण समुदायों के सदस्यों के बीच से ही सीबीआर कार्यकर्ताओं की पहचान और प्रशिक्षण । चयन के मानदंडों में औपचारिक, शहरी  और संस्था-आधारित पुनर्वास प्रशिक्षण  की कठोरता का सहारा लिए बिना निःशक्त व्यक्ति के साथ तादात्म्य स्थापित करने की योग्यता और सृजनात्मक एवं लचीले तरीकों से काम करने की क्षमता शामिल होनी चाहिए।
  • निःशक्त व्यक्तियों के संगठनों, अन्य लोगों के संगठनों और स्थानीय स्वैच्छिक संगठनों द्वारा पहचाने जाने वाले समुदाय से ही लिए गए व्यक्तियों (जिनमें कुछ औपचारिक शिक्षा  लिए हुए व्यक्ति भी शामिल हैं) के प्रशिक्षण  के जरिए ग्राम स्तर के प्रमुख प्रशिक्षकों के नेटवर्क का निर्माण करना। ये व्यक्ति ग्राम स्तर के बुनियादी सामाजिक सहयोग के प्रशिक्षक,

कर्ताओं, परामर्शदाताओं  और पुनर्वास कार्यकर्ताओं का काम करेंगे जो निःशक्त व्यक्तियों के लिए सहायक सेवाओं के विकास में स्वयंसेवी संगठनों की सहायता कर सकते हैं। दक्षता निर्माण और कौशल  विकास के क्षेत्रों में  वाणी सुधार, भौतिक चिकित्सा, विशेष  शिक्षा, सहायक उपकरणों का विनिर्माण और रखरखाव तथा सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य देखरेख शामिल होगी।

  • आंगनवाड़ी, बालवाड़ी और स्कूल-पूर्व संस्थाओं, आईसीडीएस केन्द्रों और स्वास्थ्य केन्द्रों के साथ सहबद्ध किए जाने वाले संसाधन कार्यकर्ताओं के स्थानीय स्तर के दलों का निर्माण।

ये व्यक्ति निम्नलिखित की व्यवस्था करेंगे :

  1. मूलभूत पुनर्वास सेवाएं (समय से पहचान और नैदानिकी, शिशु उद्दीपन) और सम्प्रेषण  एवं शारीरिक चिकित्सा के जरिए आरंभिक दखल-कार्रवाई;
  2. जरूरत होने पर अधिक विशिष्ट पुनर्वास सेवाओं को संदर्भित करने की सुविधा;
  3. निःशक्त व्यक्ति के माता-पिता और परिवारों के लिए सामाजिक एवं तकनीकी सहायता।

4.  परम्परागत दाइयों और घरेलू औषधियों  के उपयोगकर्ताओं का प्रशिक्षण

  • इस प्रशिक्षण  में निःशक्तता के कारणों की रोकथाम, रोग का जल्दी पता लगाने, जल्दी दखल-कार्रवाई करने और मूलभूत पुनर्वास पर जोर दिया जाना चाहिए।

ग.   ग्रामीण अवसरंचना का विकास

1.     ग्रामीण माहौल में भौतिक बाधाएं समाप्त करने की प्रक्रिया में नवीन परिवर्तन

ग्रामीण माहौल में ग्रामीण समुदायों द्वारा इस्तेमाल किए जाने के लिए अभिप्रेत सभी सुविधाएं और संबंधित सूचना शामिल है जिनमें ग्रामीण परिवहन प्रणालियां, स्कूल, स्वास्थ्य केन्द्र, कुएं, जल-स्थल और अन्य जल-स्रोत, स्वच्छता सुविधाएं, पंचायत-घर, बैंक, डाकघर, प्रशिक्षण  एवं रोजगार केन्द्र, सामुदायिक केन्द्र और अन्य सभी स्थान शामिल हैं जो निःशक्त ग्रामीणों के रोजगार या स्व-रोजगार में बाधा या सहायता के स्रोत हो सकते हैं।

बाधा-रहित डिजाइन के विकास में स्थानीय समाधान तथा स्थानीय सामग्रियों के प्रयोग पर जोर दिया जाना चाहिए।

2.     कार्य-स्थल पर बाधाएं हटाना

  • निःशक्तता से ग्रस्त व्यक्तियों के काम पर प्रशिक्षण और रोजगार अथवा स्वरोजगार को सुसाध्य बनाने के लिए ग्रामीण कार्यस्थलों पर बाधा-रहित डिजाइन और अनुकूलन तंत्रों में नवीन परिवर्तन;

3.     ग्रामीण अवसंरचना के विकास के लिए बाधा-रहित डिजाइनों का प्रचार-प्रसार

  • सामग्रियों और मैनुअलों का विकास और प्रचार-प्रसार करके तथा भारत के विभिन्न भागों में नवीन परिवर्तनों के अध्ययन हेतु संबंधित कर्मचारियों के दौरों का आयोजन करके।

घ.    घरेलू (देशी) प्रौद्योगिकी

1.    कम लागत की घरेलू प्रौद्योगिकियों की पहचान और प्रचार-प्रसार

  • भारत में स्वैच्छिक संगठनों और सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विकसित की गई उपयुक्त कम लागत की प्रौद्योगिकिों की पहचान जो निःशक्त व्यक्तियों को चलने-फिरने में, अपने ही समुदायों के भौतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में आर्थिक और सामाजिक भागीदारी करने के लिए अपेक्षित अनेक कौशलों  को हासिल करने में समर्थ बनाती हैं।

2.    सहायक उपकरणों से संबंधित सूचना-सामग्री का विकास

  • सहायक उपकरणों की चित्रित तकनीकी सामग्री का स्थानीय भाषा ओं में तथा ऐसे रूप में उत्पादन जो गांव के बढ़ई, तकनीशियन , मेकैनिकों तथा कारीगरों को आसानी से समझ में आ सके।

3.    दुर्घटनाओं की रोकथाम और सुरक्षा के उपायों का संवर्धन

  • दुर्घटना, चोटों और इनके परिणामस्वरूप होने वाली निःशक्तताओं के जोखिम को कम करने के लिए कृषि  और कृषि -भिन्न उपकरणों एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकियों की सुरक्षा को बढ़ाने के लिए अनुकूलन यंत्रों, उपकरणों एवं प्रक्रियाओं के प्रयोग की सूचना का प्रचार-प्रसार तथा संवर्धन।

4.    प्रशिक्षण  कार्यशालाएं  और विचार-विनिमय यात्राएं

प्रशिक्षण  कार्यशालाओं  का आयोजन, सहायक उपकरणों के स्थानीय नव-परिवर्तनों, उत्पादन, मरम्मत और रखरखाव के संबंध में गांवों के बढ़ई, तकनीशियन ,मेकैनिकों और कारीगरों के लिए आपसी विचार-विमर्श  एवं परस्पर यात्राओं का अवसर ताकि ग्रामीण भारत में ऐसे कार्मिकों के ग्रामीण नेटवर्क की स्थापना को सहायता दी जा सके।

5.    मौजूदा प्रौद्योगिकियों का मूल्यांकन और अनुकूलन

चलने-फिरने, ज्ञानात्मक विकास, शिक्षा  एवं कौशल  विकास हेतु मौजूदा प्रौद्योगिकियों और सहायक उपकरणों, शिल्पकार्य हेतु औजारों, कृषि  औजारों तथा कृषि -भिन्न कार्य के औजारों का उनके प्रयोक्ताओं एवं ग्रामीण नेटवर्क के सदस्यों के साथ मिलकर मूल्यांकन किया जाए तथा अनुकूलन किया जाए ताकि निःशक्त व्यक्तियों द्वारा उनके कारगर प्रयोग को बढ़ावा दिया जा सके।

ड.    नेटवर्क तैयार करना

1.     ग्रामीण सामुदायिक नेटवर्क शुरू  करना एवं उनकी सहायता करना

ग्रामीण समुदायों, स्व-सहायता समूहों, संगम और निःशक्त व्यक्तियों के ग्राम स्तर के अन्य संगठनों, सीबीआर समितियों, माता-पिता के संगठनों, सहायक उपकरणों हेतु ग्राम नेटवर्क, विकास संगठनों और पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधियों एवं कार्यकर्ताओं के बीच संपर्क और नेटवर्किंग को बढ़ावा देना।

  • विशिष्ट सेवाओं की जरूरत वाले क्षेत्रों से आए व्यक्तियों के लिए प्रशिक्षण  सहबद्धता तथा प्रशिक्षुता का आयोजन।
  • समुदाय      आधारित     सेवाओं के    विकास एवं    सुदृढ़ीकरण    में सहायता करने    के      लिए पीएचसी/आईसीडीएस केन्द्रों/बाल देखरेख केन्द्रों में पुनर्वास व्यवसायियों को नियुक्त करना।
  • इस कार्यनीति के विभिन्न पहलुओं और महत्वपूर्ण क्षेत्रों को शामिल करते हुए जिला, राज्य और राष्ट्रीय  स्तर पर कार्यशालाओं  का आयोजन।
  • स्थानीय विशेषज्ञता का विकास करने और ग्रामीण क्षेत्रों में विशिष्ट सेवाएं मुहैया कराने के लिए, जहां ऐसी दखल कार्रवाई की जरूरत है, स्थानीय स्तर के अनुकरणीय कार्यक्रमों से लिए गए विविध कौशलों  से युक्त सामुदायिक कार्मिकों के मोबाइल दलों को संगठित करना।
  • सामाजिक सहयोग और प्रशिक्षण  हेतु कार्यनीतियों के संबंध में फील्ड आधारित समूहों के बीच अनुभवों एवं अंतदृष्टी  का विचार-विनिमय।
  • इस कार्यनीति के कार्यान्वयन में सक्रिय रूप से लगे स्वयंसेवी और विकास संगठनों के बीच ''निकनेट'' के जरिए संबंध स्थापित करके इलैक्ट्रॅानिक संचार की स्थापना।
  • इस कार्यनीति के अंतर्गत कपार्ट सहायता हेतु पात्र गतिविधियों की एक निर्देशात्मक सूची में दी गई है।

 

 

स्रोत: ज़ेवियर समाज संस्थान पुस्तकालय, कपार्ट, एन.जी.ओ.न्यूज़, ग्रामीण विकास विभाग,भारत सरकार|

 

अंतिम बार संशोधित : 12/7/2019



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