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धार्मिक विधियाँ

धार्मिक विधियाँ

पालकन्सना

यह पूर्णरूपेण एक कुडूख अनुष्ठान है जिसका पालन सभी महत्त्वपूर्ण अवसरों पर किया जाता है| इस अनुष्ठान में अकेले धर्मेस को संबोधित किया जाना जाता है और उसे अंडा की बलि चढ़ायी जाती है| इस अनुष्ठान के पालन के दो उद्येश्य हैं| प्रथम, यह आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है; अच्छा स्वास्थ्य एवं संतान, पालतू पशु में वृद्धि तथा खुशियाँ एवं समृद्धि, वंश की भलाई, परिवार एवं गोत्र की निरंतरता इन्हीं आशीर्वाद पर निर्भर है| द्वितीयत: बुराई एवं शैतानी कर्म करने वालों के बुरे प्रभाव से बचाव के लिए यह किया जाता है|

इस अनुष्ठान के लिए किस पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती| कोई भी पुरूष कुडूख सदस्य जो अनुष्ठान को सम्पन्न कर सकता है| वह पारम्परिक कुडूख उत्पति का मिथक उच्चरित करता है, यह याद करते हुए कि पृथ्वी की रचना थोड़ी सी मिट्टी से हुई, विश्वव्यापी आग की वर्षा हुई, जिसमें भैया- बहन को छोड़ कर सभी नष्ट हो गए| धर्मस ने उन्हें खोज कर निकाला और कृषि की कला सिखाई, दिन और रात की रचना उनके काम करने और विश्राम करने के लिए की| उन्हें प्रजनन के रहस्य में दीक्षित किया और पालकन्सन की रहस्यमय विधि बतलाई|

सम्पूर्ण कार्यवाही का प्रारंभ ब्रह्माण्ड एवं पृथ्वी के सात कोनों का रहस्यमय चित्र क्रमशः रानू के चूर्ण अथवा चावल का आटा, चूल्हे की मिट्टी  और लकड़ी की कोयले से सफेद, लाला तथा काले रंगों में बनाने के साथ होता है चित्र के केंद्रीय वृत्त के बीच में एक मुट्ठी अरवा चावल रखा जाता है जिस पर एक अंडा खड़ा कर रखा जाता है| अंडे के ऊपर ‘भेलवा’ की एक चीरी टहनी टिका कर रखी जाती है|

सफेद, लाल और काले रंग इन्द्रधनुष के प्रतीक हैं जो सृष्टि में सबसे बड़ा धनुष है| किसी भी दुष्ट शक्तियों के विरूद्ध यह धर्मस का अत्यंत कारगर हथियार है| अंडा जीवन का एक शुद्ध स्रोत है| यह अपने आप में पूर्ण है – आत्मनिर्भर,  ‘निर्मही’ (बिना मुख के) (तिर्की : 27) इस प्रकार यह जीवन का एक उन्नत प्रतीक है| धर्मेस को अर्पित करने हेतु यह सबसे उचित बलि की वस्तु हैं, जिसका का वह अंतिम स्रोत है| इस प्रकार उसे अंडे का अर्पित किया जाना स्वयं के जीवन को शुद्धता एवं स्व-समर्पण के साथ अर्पित करने का प्रतीक है|

चावल आदिवासियों का मुख्य भोजन है| अत: यह जीवन का प्रतीक है| इसे परमसत्ता के आशीर्वाद के रूप में समझा जाता है जो उन्हें समृद्धि एवं तंदुरूस्ती प्रदान करते हैं| जब इसे बलि के रूप में अर्पित करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है यह जीवन के विकल्प के रूप में ठहरता है|

प्रतीक रूप में देने के लिए चीरी हुई भेलवा की टहनी से, एक साथ सम्पन्न करने के लिए भी अंडा फोड़ दिया जाता है जो बुरी दृष्टि के फोड़े जाने और डायन प्रथा ओझा जैसे असामाजिक तत्वों के बुरे मुंह को चीर दिए जाने का प्रतीक है| यह क्रिया इन लोगों द्वारा खुली छोड़ी गई आत्माओं के बुरे षडयंत्र के विध्वंस का भी प्रतीक है| इस अनुष्ठान के संपन्न करने से यह विश्वास किया जाता है कि जिस व्यक्ति के बदले यह अनुष्ठान किया गया उसकी फसल, उसके पशुओं और बच्चों को कोई हानि नहीं होगी| भेलवा बीज का तेल अम्लीय एवं ज्वलनशील  है| आँखों में इसकी एक बूँद निश्चित रूप से स्थायी अंधेपन का कारण हो सकती है| इसी कारण बलि के अंडे के ऊपर भेलवा की टहनी का उपयोग होता है, प्रतीकात्मक रूप में दुष्टता के सभी प्रकारों को नष्ट करने की इसकी भयानक शक्ति को बतलाने के लिए|

सात की संख्या

समुद्र को मथने के बाद इसके अशांत जल में एक छोटा बीज डालने से पृथ्वी के वर्त्तमान स्वरूप में बढ़ जाने के द्वारा परमसत्ता ने पृथ्वी का निर्माण किया| उसने (परमसत्ता ने) किलकिला पक्षी को सोलह समुद्र की अकूत गहराई के पार केंचुओं की दुनिया से यह बीज लेन के लिए भेजा| पृथ्वी का स्वरूप ‘सत्ते-पत्तीस’ (सात भाग अथवा कोने) हो गया| यही कारण है कि कुडूख लोगों के लिए संख्या सात महत्त्वपूर्ण है| यह सम्पूर्ण संख्या है| यह ईश्वर – सकेंद्रित विचारों तथा प्रेरणा का द्योतक है जो नर एवं नारी का अपना ध्यान धर्मस और उनकी सृष्टि की ओर ले जाता है (कैम्पियन : 9) सैम संख्या की अपेक्षा कुडूख लोग विषम संख्या को प्राथमिकता देते हैं संभवत: संख्या सात से इनके संबंध के कारण जो विषम संख्या है और इसे पूर्ण संख्या माना जाता है, जैसा कि ऊपर कहा गया है|

 

स्रोत: झारखण्ड समाज संस्कृति और विकास/ जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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