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फागुनी रंगों से लदे सखूआ का त्यौहार सरहुल

फागुनी रंगों से लदे सखूआ का त्यौहार सरहुल

भूमिका

फाल्गुनी रंगों से सजा- संवरा चैत का महिना आया और सखूआ के पेड़ फूलों से लद गए| पर्व- त्योहारों के ताने-बानों से सुवासित झारखंडी आदिवासियों के जीवन चक्र में और एक ऋतुपर्व आ गया – सरहुल| इस पर्व के नाम मात्र से जीवन समर्थक, प्रकृति प्रेमी, नैसर्गिक गुणों के धनी  और पर्यावरण के स्वभाविक रक्षक आदिवासियों का मन-दिल रोमांचित हो उठता है| उन फूलों की भीनी-भीनी महक सारे वातावरण को सुरभित कर पर्व के आगमन का संकेत दे जाती है|

परिचय

सरहुल चैत महीने के पांचवे दिन मनाया जाता है| इसकी तैयारी सप्ताह भर पहले ही शुरू हो जाती है| प्रत्येक परिवार से हंडिया बनाने के लिए चावल जमा किए जाते हैं| पर्व के पूर्व संध्या से पर्व के अंत तक पहान उपवास करता है| एक सप्ताह पूर्वसूचना के अनुसार पूर्व संध्या गाँव की ‘डाड़ी’ साफ की जाती है| उसमें ताजा डालियों डाल की जाती है| उसमें ताजा डालियाँ डाल दी जाती हैं जिससे पक्षियाँ और जानवर भी वहाँ से जल न पी सकें|

पर्व के प्रात: मुर्गा बांगने के पहले ही पूजार दो नये घड़ों में ‘डाड़ी’ का विशुद्ध जल भर कर चुपचाप सबकी नजरों से बचाकर गाँव की रक्षक आत्मा, सरना बुढ़िया, के चरणों में रखता है| उस सुबह गाँव के नवयुवक चूजे पकड़ने जाते हैं| चेंगनों के रंग आत्माओं के अनुसार अलग-अलग होते है| किसी – किसी गाँव में पहान और पूजार ही पूजा के इन चूजों को जमा करने के लिए प्रत्येक परिवार जाते हैं|

दोपहर के समय पहान और पूजार गाँव की डाड़ी झरिया अथवा निकट के नदी में स्नान करते हैं| किसी – किसी गाँव में पहान और उसकी नदी में स्नान करते हैं| किसी – किसी गाँव में पहान और उसकी पत्नी को एक साथ बैठाया जाता है| गाँव का मुखिया अथवा सरपंच उनपर सिंदुर लगाता है| उसके बाद उन पर कई घड़ों डाला जाता है| उस समय सब लोग “ बरसों,बरसों” कहकर चिल्लाते हैं| यह धरती और आकाश की बीच शादी का प्रतीक है|

उसके बाद गाँव से सरना तक जूलूस निकला जाता है| सरना पहूंचकर पूजा-स्थल की सफाई की जाती है| पूजार चेंगनों के पैर धोकर उन पर सिंदुर लगाता है और पहान को देता है| पहान सरना बुढ़िया के प्रतीक पत्थर के सामने बैठकर चेंगनो को डेन के ढेर से चुगाता है| उस समय गाँव के बुजुर्ग वर्ग अन्न के दाने उन पर फेंकते हुए आत्माओं के लिए प्रार्थनाएँ चढाते हैं कि वे गाँव की उचित रखवाली करें| उसके बाद पहान चेंगनों का सिर काट कर कुछ खून चावल के ढेर पर और कुछ सूप पर चुलता है| बाद में उन चेंगनो को पकाया जाता है| सिर को सिर्फ पहान खा सकता है| कलेजे यकृत आदि आत्माओं में नाम पर चढ़ाये जाते हैं| बाकी मांस चावल के साथ पकाकर उपस्थित सब लोगों के बीच प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है|

ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता ख्याल रख कर उनके नाम पर अलग सफेद बलि चढ़ायी जाती है जो पूर्णता और पवित्रता का प्रतिक है| अन्य आत्माओं के नाम पर अलग – अलग रंगों के चिंगने चढ़ाये जाते हैं| पहान पूर्व की पर देखते हुए ईश्वर है| हे पिता, आप ऊपर हैं, “यहाँ नीचे पंच है और ऊपर परमेश्वर है| हे पिता आप ऊपर हैं हम नीचे| आप की आंखे हैं, हम अज्ञानी हैं; चाहें अनजाने अथवा अज्ञानतावश हमने आत्माओं को नाराज किया है, तो उन्हें संभाल कर रखिए; हमारे गुनाहों को नजरंदाज कर दीजिए|” प्रसाद भोज समाप्त होने के बड पहान को समारोह पूर्वक गाँव के पंचगण ढोते हैं| इस समय पहान सखूआ गाछ को सिंदुर लगाता और अरवा धागा से तीन बार लपेटता है जो अभीष्ट देवात्मा को शादी के वस्त्र देने का प्रतीक है| कई जगहों में पहान सखूआ फूल, चावल और पवित्र जल प्रत्येक घर के एक प्रतिनिधि को वितरित करता है| उसके बाद सब घर लौटते हैं| पहान को एक भी व्यक्ति के कंधे पर बैठाकर हर्सोल्लास गाँव लाया जाता है| उसके पाँव जमीन पर पड़ने नहीं दिए जाते हैं, चूंकि वह अभी ईश्वर का प्रतिनिधि है| घर पहुँचने पर पहान की पत्नी उसका पैर धोती है और बदले में सखूआ फूल, चावल और सरना का आशीष जल प्राप्त करती है| वह फूलों को घर के अंदर, गोहार घर में और छत में चुन देती है| पहान के सिर पर कई घड़े पानी डालते वक्त लोग फिर चिल्लाते हुए कहते हैं, - ‘बरसों, बरसो’|

दुसरे दिन पहान प्रत्येक परिवार में जाकर सखूआ फूल सूप से चावल और घड़े से सरना जल वितरित करता है| गाँव की महिलाएँ अपने-अपने आंगन में एक सूप लिए खड़ी रहती हैं | सूप में दो दोने होते हैं | एक सरना जल ग्रहण करने के लिए खाली होता है दूसरे में पाहन को देने के लिए हंडिया होता है| सरना जल को घर में और बीज के लिए रखे गए धन पर छिड़का जाता है| इस प्रकार पहान हरेक घर को आशीष देते हुए कहता है, “आपके कोठे और भंडार धन से भरपूर होन, जिससे पहान का नाम उजागर हो|” प्रत्येक परिवार में पहान को नहलाया जाता है| वह भी अपने हिस्से का हंडिया प्रत्येक परिवार में पीना नहीं भूलता है| नहलाया जाना और प्रचुर मात्रा में हंडिया पीना सूर्य और धरती को फलप्रद होने के लिए प्रवृत करने का प्रतीक है| सरहुल का यह त्यौहार कई दिनों तक खिंच सकता है चूंकि बड़ा मौजा होने से फूल, चावल और आशीषजल के वितरण में कई दिन लग सकते हैं|

सरहूल पर्व में सखूआ के फूलों का ही प्रयोग अपने में चिंतन का विषय है| आदिवासी जन जीवन में सखुए पेड़ की अति महत्ता है| सखुए की पत्ती, टहनी, डालियाँ, तने, छाल, फल आदि सब कुछ प्रयोग में लाये जाते हैं| पत्तियों का प्रयोग पत्तल दोना, पोटली आदि बनाने में होता है| दतवन, जलावन, छमड़ा बैठक, सगुन निकालने, भाग्य देखने आदि में सखुए की डाली, टहनी, लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है| सखुए की पत्ती, डाली लकड़ी आदि के बिना आदिवासी जन- जीवन की कल्पना करना असम्भव-सा है| जन्म से लेकर मृत्यु के बाद भी सखुए वृक्ष का विशेष स्थान है ऐसा ही सटीक विचार आदिवासी जनजीवन के पारखी मीकर रोशनार ने अपनी  पुस्तक “द फ़्लाइंग हॉर्स ऑफ धर्मेस” में रखा है| इसी लिए सखुए का पेड़ आदिवसियों के लिए  सुरक्षा, शांति, खुशहाल जीवन का प्रतीक माना गया है, तो उचित ही है|

सरहुल पर्व में प्रयुक्त कुछ प्रतीकों पर गौर किया जाए तो आदिवासियों की प्रकृति प्रेमी अध्यात्मिकता, सर्वव्यापी ईश्वरीय उपस्थिति का एहसास, ईश्वरीय उपासना में सृष्टि की सब चीजों, जीव- जन्तुओं आदि का सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्वा का मनोभाव निखर उठता है| उदारहण के तौर पर प्रत्येक परिवार से चावल जमा किया जाना और प्रतिनिधियों की उपस्थिति उनकी सहभागिता एवं सामुदायिक आध्यात्मिकता के एकत्व भाव को दर्शाता है| डाड़ी की सफाई एवं पूजा के लिए जल ले जाने तक उसकी रक्षा करना ईश्वर के प्रति उनकी श्रद्धा और निष्ठा का परिचायक है|

जीवन के श्रोत, पवित्र ईश्वर को वे विशुद्ध जल ही चढ़ा सकते हैं| नया घड़ा, सबकी नजरों से बचाकर सरना तक पहूँचाना, रास्ते में किसी से बातें नहीं करना, पहान द्वारा उपवास करना आदि उनकी पवित्रता के मनोभावों की ही दर्शाते हैं| कई चेंगनों की बलि गाँव के बच्चें- बच्चियों का प्रतीकात्मक चढ़ावा है जिसके द्वारा उनकी सुरक्षा और समृद्धि की कामना की जाती है| सर्वोच्च ईश्वर के लिए मात्र सफेद बलि भी पवित्रता और पूर्णता का बोध कराती है| पहान और उसकी पत्नी की प्रतीकात्मक शादी, जल उड़ेला जाना, हंडिया पिलाना आदि धरती और आकाश अथवा सूर्य की शादी, अच्छी वर्षा की कामना, उर्वरा और सम्पन्नता की कामना का प्रतिक है| फूल, चावल आर सरना जल खुशी, पूर्णता, जीवन और ईश्वर की बरकत का बोध कराते हैं जिसके लिए पहान प्रत्येक परिवार में प्रर्थना करता है| पहान को समारोह के साथ ढोकर सरना से गाँव तक लाना ईश्वर को ही आदर देना है जिसमें अपनी निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति और समर्पण दर्शाकर जाति की निष्ठा, भक्ति और समर्पण को दर्शाया जाता है| सरना जल से बीज के लिए सुरक्षित धान को आशीष देना भी ईश्वर में उनकी निष्ठा और उसकी बरकत में निर्भरता को दर्शाता है| इस प्रकार देखा जाए तो सरहुल मात्र फूलों, खुशियों और बहारों को पर्व नहीं है| यह आदिवासियों की संस्कृति एवं धर्म की मूल आध्यात्मिकता को ही व्यक्त करने का पर्व है| इस पर्व के बाद ही वे अन्य फूलों को घर में ला सकते हैं, बीज बोना शुरू कर सकते हैं, अन्य पत्तियों का प्रयोग कर सकते है|

वर्त्तमान में दूषित पर्यावरण, उजड़ते जंगलों के कुप्रभावों को देखते हुए समस्त मानवता के सामने स्थित चिंता हम सबों की भी चिंता है| भावी पीढ़ी के लिए स्वच्छ वातावरण, विशूद्ध पर्यावरण दे सकने के लिए आवश्यक है कि आदिवासियों की मौलिक मनोवृति अपनायी जाए| प्रकृति और पर्यावरण को विशूद्ध रखने का नैसर्गिक गुण ही उनकी विरासत है| उनकी संस्कृतिक पहचान है| उनके आस्तित्व का मूल अवयव है| इस सत्विकत्थ्य को समग्रमानवता की सार्थकता के लिए अनुपम उपहार बना सकें, तो ऋतु पर्वों का सिरोमणि – सरहुल, हम सबके लिए नवजीवन, आशा, खुशी, सम्पन्नता, पवित्रता और एकता का त्यौहार बनकर आएगा|

स्रोत : झारखण्ड समाज संस्कृति और विकास/ जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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