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झारखण्ड में पंचायत राज

भूमिका

देश की आजादी के बाद पूरे भारत में पंचायती राज प्रणाली लागू थी। देश के पाँचवीं अनुसूची वाले आदिवासी इलाकों में थी वही सामान्य कानून ही लागू थी जिससे उनकी विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्था लुप्तप्राय होने की स्थिति में पहुँच गयी थी। उनकी यही विशिष्ट पहचान को बचाने हेतू संविधान में 79वाँ संशोधन किया गया। यह संविधान का 73वाँ संशोधन अधिनियम 1992 पंचायतों को स्वशासी संस्था के रूप में काम करने में सक्षम बनाने के लिए कुछ शक्तियाँ और अधिकार देता है। इसी के आलोक में आदिवासी बहुल इलाकों में पंचायती राज के विस्तार पर अध्ययन करने के लिए एक संसदीय समिति बनायी गयी जिसे भूरिया समिति कहा जाता है जिसने 17 जनवरी, 1995 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।

भूरिया समिति की सिफारिश के बाद संसद ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 को अनुसूचित क्षेत्रों के लिए पारित किया। झारखण्ड राज्य का 259 प्रखंडों में से 134 प्रखंड पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। झारखण्ड राज्य में झारखण्ड पंचायत राज विधेयक 2001, 30 मार्च 2001 को विधान सभा में पारित हो गया और अब यह कानून बन गया है। इस कानून के तहत अब राज्य में पंचायत चुनाव होंगे। अनुसूचित क्षेत्रों और गैर अनुसूचित क्षेत्रों में अलग-अलग कानून होंगे और अलग-अलग तरीके से पंचायती राज चलेगा।

संशोधन

झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 पारित होने के बाद कुछेक संशोधन 2001 से लेकर 2004 तक किये गये हैं।

संशोधन 1 :- कोई भी निर्वाचित पद के उम्मीदवार का नाम उस पद के निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता सूची में शामिल होना चाहिए।

संशोधन 2 :- अनुसूचित क्षेत्र के पंचायत के मुखिया पंचायत समिति के प्रमुख एवं जिला परिषद के अध्यक्ष आदि पदों में एक तिहाई पद अनुसूचित जनजाति के महिलाओं के लिए आरक्षित होगा।

संशोधन 3 :- सभी उपमुखिया, उपप्रमुख, उपाध्यक्ष आदि पदों को अनुसूचित क्षेत्रों में अनारक्षित रखा गया है।

संशोधन 4 :- 2010 के अध्यादेश के द्वारा सभी वर्ग में सभी स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण होगा।

Study Areaग्राम स्वराज अभियान, झारखण्ड ने पेसा की वर्त्तमान हालत को जानने-समझने के लिए एक अध्ययन किया। यह अध्ययन झारखण्ड के 30 गाँवों में नमूने के तौर पर किया गया जिसमें राँची के 20, खूंटी के 2, लोहरदगा के 2, गोड्‌डा के 2 दुमका के 2 और पश्चिम सिंहभूम के 2 गाँव शामिल हैं।

अध्ययन विधि :-

इस अध्ययन को करने के लिए पश्चिम सिंहभूम से जयसिंह पुरती, खूंटी से विनोद अहीर, लोहरदगा से सुशीला कुमारी, गोड्‌डा से स्टानिस मुर्मू, दुमका से दीनानाथ शाह और राँची से दशरथ बेदिया, माया बेदिया, कुआंरी रोपन टोप्पो, मालती देवी, बालेश्वर मुण्डा, परमेश्वर भोक्ता और फागू राम मुण्डा, 12 रिसर्च फेलोज का चयन किया गया। एक लम्बी प्रश्नावली तैयार की गयी जिसमें ग्राम प्रधान, वार्ड सदस्य, मुखिया, प्रमुख, प्रखंड विकास पदाधिकारी, अंचलाधिकारी, उपायुक्त, स्वयं सेवी संस्था, अपवर्जित समूह, वंचित समूह और महिलाओं से साक्षात्कार लिये जाने थे।

इस फॉरमेट पर समझ बनाने के लिए उन्हीं चुनिन्दे 12 रिसर्च फेलोज को राँची बुलाया गया और कार्यशाला के माध्यम से जानकारी दी गयी। इस फॉरमेट को लेकर जब फेलोज गाँव लौटे तो दो-तीन फील्ड में जाकर यह देखा गया कि कहीं फॉरमेट भरने में असुविधा तो नहीं हो रही है।

सभी फेलोज ने जब अपने फॉर्म्स भरकर जमा किये तब उसका आंकड़े का विश्लेषण किया गया। 22 सितंबर, 2012 को राँची में एक राज्य स्तरीय सेमीनार कर उसके प्रतिफल को रखा गया। सेमीनार में वनाधिकार कानून, मनरेगा कानून, भोजन के अधिकार और पेसा कानून पर गहन चर्चा की गयी।

अध्ययन से यह पता करना था कि पेसा के प्रावधानों के अनुरूप ग्राम सभाओं का गठन किया जा रहा है अथवा नहीं। 30 गाँवों के अध्ययन से पता चला है कि 28 राजस्व गाँवों में ग्राम सभा का गठन किया गया है जबकि 2 टोले में ग्राम सभा गठन की प्रक्रिया शुरू की गयी है। पेसा में प्रावधान है कि सिर्फ राजस्व गाँव ही नहीं बल्कि हर टोला में ग्राम सभा का गठन किया जा सकता है।

अपनी पुरानी आदत के अनुसार पेसा कानून के बनने के बाद भी ग्राम सभाओं की नियमित बैठक नहीं हो पा रही है। इस अध्ययन से यह मालूम पड़ता है कि सिर्फ 6 गाँवों में ग्राम सभा की मासिक बैठक होती है। 2 गाँवों में सरकारी आदेश के बाद बैठक का आयोजन किया जाता है। 2 गाँवों में कभी-कभार ही बैठक हो पाती है जबकि 2 गाँवों में सिर्फ तभी ग्राम सभा का आयोजन किया जाता है जब गाँव में कोई विवाद का निपटारा करना हो।

झारखण्ड के आदिवासी अंचलों में समुदाय के मुखिया का चुनाव परंपरागत तरीके से किया जाता रहा है। जब प्रदेश में एक लम्बे समय के बाद पेसा के तहत पंचायत चुनाव किया गया तो समझा यह जा रहा था कि अब ग्राम प्रधान का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से होगा। Selection of Gram Pradhanलेकिन यह अध्ययन बताता है कि अभी भी 28 गाँवों में पारंपरिक तरीके से ही ग्राम प्रधान की नियुक्ति की जाती है यानी प्रधान का बेटा ही प्रधान बनता है। सिर्फ 2 गाँवों में ही बहुमत के आधार पर ग्राम प्रधान का चुनाव किया जाता है।

आज यह कहा जाता है कि आदिवासी समाज में महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया में भागीदार नहीं बनाया जाता है। लेकिन यह अध्ययन इस मिथ को तोड़ता है। अध्ययन बताता है कि 6 गाँवों में महिला प्रधान हैं जबकि 24 गाँवों में उनका कोई अस्तित्व नहीं है।

Women as Gram Pradhanअध्ययन बताता है कि किये गये सर्वेक्षण वाले सभी 6 जिलों में ग्राम सभाएँ विवादों का निपटान कर रही हैं। इन जिलों में ग्राम सभाएँ योजनाएँ भी बना रही हैं। लेकिन सरकारी योजनाओं की देख-रेख सिर्फ एक जिले यानी राँची में ही हो पा रही है। अगर हम राजस्व वसूली की बात करें तो यह सिर्फ 2 गाँवों तक ही सीमित है।

Functions of Gram Sabhaऊपर देखा गया कि 6 जिलों के कुछ गाँवों में योजनाएँ बनायी जा रही हैं। लेकिन गाँव द्वारा बनायी गयी योजनाओं की स्वीकृति का क्या हाल है। अध्ययन द्वारा इसका जब पता लगाया गया तो पाया गया कि 30 में से 26 गाँवों के चुनिन्दें व्यक्तियों ने कहा। सिर्फ 4 गाँवों के व्यक्तियों ने कहा कि ग्राम सभा द्वारा बनायी गयी योजनाओं की स्वीकृति मिलती है।

Acceptance of Village Plansयह छोटा अध्ययन बताता है कि ग्राम सभा की बैठक में जमीन अधिग्रहण संबंधी प्रस्ताव पर चर्चा की जाती है। 26 ग्राम सभाओं के सदस्यों ने कहा कि अगर किसी कंपनी या सरकार को किसी तरह की आवश्यकता होती है तो वैसे प्रस्ताव पर ग्राम सभा में विचार किया जाता है। 2 ग्राम सभाओं के लोगों ने सिर्फ यह कहा कि उनके ग्राम सभा में भू-अधिग्रहण प्रस्ताव पर विमर्श नहीं किया जाता है।

Lan Acouisition proposar discussedपरंपरागत सिस्टम में ग्राम सभा के सभी कार्यवाहियों का लेखा-जोखा रखने की परंपरा नहीं थी। लेकिन शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ जैसे ही पेसा कानून 1996 के तहत पंचायत चुनाव हुआ और कुछ शक्तियाँ ग्राम सभा को सौंपी गयी तो इसका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला। इस अध्ययन के मुताबिक 30 में से 28 गाँवों के ग्राम सभाओं ने अपने गाँवों में रिकॉर्ड रखना शुरू कर दिया था। सिर्फ 2 ही ऐसे गाँव मिले, जहाँ के लोगों ने यह कहा कि उनके गाँव में आज भी रजिस्टर नहीं रखे जाते हैं।

Up keeping of recordsकेन्द्र सरकार ने वनाधिकार कानून, 2006 पारित किया है जिसमें वैसे आदिवासी और वनजीवी समुदाय को 10 एकड़ तक की वनभूमि पर उपयोग का अधिकार मिलेगा जिन्होंने 13 दिसंबर, 2005 के पूर्व वनभूमि पर कब्जा किया हो। इस कानून के अंतर्गत ग्राम सभा को पूरी शक्ति दी गयी है। गाँव में एक वनाधिकार समिति का गठन करना है जो दावेदारों के दावे का सत्यापन कर उसे अनुमंडल स्तरीय समिति के पास भेजेगी और यह समिति जिला स्तरीय समिति को। जिला स्तरीय समिति ही दावेदारों को उपयोग करने का प्रमाण-पत्र देगा। लेकिन इस कानून के बारे में न तो लाभुकों को पता है और न ही सरकार को रूचि है। यह अध्ययन भी यही बताता है कि 30 गाँव में से 15 गाँव के लोग ही वनाधिकार कानून के मामले में भागीदारी करते हैं।

Participation in FRAअनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की बैठक की अध्यक्षता परंपरागत ग्राम प्रधान करता है। यह प्रधान परंपरागत तरीके से चुने जाते हैं। पेसा कानून के द्वारा ग्राम सभाओं को तीन तरह के अधिकार सौंपे गये हैं - विकास के काम करना, खर्चे पर निगरानी करना और भू-अर्जन के पहले परामर्श/ग्राम पंचायत की अध्यक्षता मुखिया करेंगे। उनका चुनाव मतदान के द्वारा होता है। ग्राम पंचायत को विकास कार्यों में खर्च करने का अधिकार है। वह बजट बना सकता है और खर्चे का हिसाब-किताब रखने का दायित्व है। लेकिन ग्राम सभा का पंचायत के साथ अच्छा समन्वय नहीं होता है। यह अध्ययन बताता है कि 30 में से 15 गाँव के लोगों ने कहा कि ग्राम सभा का पंचायत के साथ अच्छे संबंध हैं जबकि 15 गाँव के लोगों ने कहा कि पंचायत के साथ ग्राम सभा के संबंध अच्छे नहीं हैं।

Coordination on with panchyatपरंपरागत तरीके से जब किसी विवाद के निपटारे के लिए गाँव में बैठक होती थी तो ग्राम प्रधान के अलावे कुछ चुनिन्दे पंच वगैरह ही उसमें शामिल होते थे लेकिन पेसा कानून लागू होने के बाद इसमें कुछ सुधार आया है। यह अध्ययन बताता है कि 50 प्रतिशत लोगों को बैठक में भाग लेने हेतु आमंत्रित किया जाता है।

पूर्व में ग्राम सभाएँ महिलाओं के प्रति उतनी संवेदनशील नहीं थी। महिलाएँ Sensitivity in Panchyat for GS dessigionग्राम सभा में बुलायी नहीं जाती थीं। वहाँ कभी भी पुनर्वास में मिलने वाली नौकरी लड़कियों के देने पैत्रिक सम्पत्ति पर अधिकार देने आदि मुद्दे पर कभी भी विचार नहीं किया जाता था। इस अध्ययन से पता चलता है कि 30 में से 8 गाँव की ग्राम सभाएँ संवेदनशील हैं। जबकि 2 ग्राम सभाएँ एकदम ही संवेदनहीन हैं।

पंचायत चुनाव के बाद ग्राम सभाओं को खुद ही गाँव के विकास के लिए योजना बनानी थी। उसका कार्यान्वयन करना था। योजना की देख-रेख करनी थी। लेकिन Task performed by GSऐसा नहीं हो सका। यह अध्ययन बताता है कि किये गये 6 जिलों में ग्राम सभाएँ ग्राम विकास योजनाएँ बनाती हैं। लेकिन उसका कार्यान्वयन सिर्फ 1 जिले में होती है। यही हाल योजना की देख-रेख का है।

पंचायत प्रतिनिधियों का सरकार के प्रति क्या दृष्टिकोण है? अध्ययन बताता है Officials view on Panchyatकि सभी 6 जिलों में सरकार का सहयोग उन्हें कम मिलता है। अध्ययन के सभी इलाकों में पंचायत प्रतिनिधियों का ग्राम सभा के बारे में कम जानकारी है। उसी तरह सरकारी अधिकारियों की भी पंचायत के बारे में कम ज्ञान है। सभी 6 जिलों में योजनाओं का कार्यान्वयन ग्राम सभाएँ कर रही हैं। लेकिन सिर्फ 1 जिला में ही पंचायत ग्राम सभा के प्रति जिम्मेवार पाया गया।

यह पेसा कानून आदिवासियों के लिए बनाया गया है। हालांकि उनके साथ दूसरे समुदाय के लोग भी निवास करते हैं। इस अध्ययन में इन्हीं लोगों से पूछा गया कि कितने ग्राम सभाएँ प्रभावी हैं। 28 गाँवों के अपवर्जित समूह के लोगों ने कहा कि View of Excluded Groups on GSयहाँ ग्राम सभा प्रभावी हैं। 2 गाँव के लोगों ने कहा कि यहाँ की ग्राम सभाएँ निष्प्रभावी हैं। 12 ग्राम सभा के लोगों ने कहा कि यहाँ वंचित समूह की ग्राम सभा में अच्छी भागीदारी है। जबकि 18 गाँव के लोगों ने कहा कि ग्राम सभा में वंचित समूहों की औसत भागीदारी होती है। 8 ग्राम सभा के अपवर्जित समूह के सदस्यों से कहा निर्णय प्रक्रिया में उनकी अच्छी भागीदारी है। जबकि 22 ग्राम सभाओं के लोगों ने कहा कि निर्णय प्रक्रिया में उनकी औसत भागीदारी हो रही है।

झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में कटौती और विसंगति

झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2001 की सिफारिशों पर विमर्श करने के पूर्व यह याद करना जरूरी है कि केन्द्रीय पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 की धारा 4 यह स्पष्ट चेतावनी देती है कि राज्य विधान मंडल इसकी धाराओं से असंगत कोई कानून नहीं बनायेगा। लेकिन झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2001 में उक्त केन्द्रीय कानून द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों की ग्राम सभाओं और पंचायतों को दी गयी अधिकारों को शामिल नहीं किया गया है।

केन्द्रीय विस्तार अधिनियम के निम्न धारा के निम्न बिंदुओं को ग्राम सभा या किसी उपयुक्त स्तर पर शामिल नहीं किया गया हैः-

धारा 4(1) - विकास के विभिन्न परियोजनाओं के लिये तथा ऐसी अन्य परियोजना के कारण विस्थापित हुए लोगों को अनुसूचित क्षेत्रों में बसाने के लिए आवश्यक भूमि का अधिग्रहण करने से पहले ग्राम सभा या उपयुक्त स्तर की पंचायत से विचार-विमर्श करना होगा। अनुसूचित क्षेत्रों में ऐसी परियोजनाओं के समन्वय की जिम्मेवारी राज्य स्तर पर वहन की जाएगी।

धारा 4(ा) - अनुसूचित क्षेत्रों में खनिजों के खनन हेतू खनन लीज पर प्रत्याशित लाइसेंस देने से पहले ग्राम सभा या उपयुक्त स्तर की पंचायत को सिफारिश करनी होगी जिन्हें अनिवार्य रूप से माना जाएगा।

धारा 4(स) - नीलामी के माध्यम से गौण खनिजों के दोहन के लिए रियायत देने से पहले ग्राम सभा या उपयुक्त स्तर की पंचायत द्वारा की गयी पूर्व अनुशंसाएँ अनिवार्य रूप से मानी जाएगी।

धारा 4(उ) - राज्य सरकार उपयुक्त स्तर पर और ग्राम सभा पर अधिकार और शक्ति की गारंटी करें जिसे यह स्वशासित संस्था की तरह काम करे, खासकर जैसे -

(1) किसी भी मादक पदार्थों की बिक्री या उपयोग पर बंदिश लगाने या नियमन करने की शक्ति

(2) लघु वनोपजों पर मालिकाना हक

(3) अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि या बेजा कब्जों की रोकथाम और गैर कानूनी ढंग से किसी भी अनुसूचित जनजाति के आदिवासी की हस्तांतरित जमीन की वापसी हेतू उपयुक्त कार्रवाही करने की शक्ति

(4) अनुसूचित जनजातियों के लोगों को दिये जानेवाले कर्ज पर नियंत्रण संबंधी अधिकार

(5) सभी सामाजिक क्षेत्रों में सक्रिय संगठनों व संस्थाओं पर नियंत्रण संबंधी अधिकार

धारा 4(व) - राज्य विधान मंडल अनुसूचित क्षेत्रों, जिला स्तर की पंचायतों के लिए प्रशासकीय प्रबंध करने से पहले यह देखेगा कि यह प्रबंध संविधान की छठी अनुसूची की तर्ज पर हो रहा है

पेसा 1996 और जेपीआए का तुलनात्मक अध्ययन

पेसा - पेसा 1996 के धारा 4(क) में लिखा गया है कि पंचायतों पर कोई राज्य विधान जो बनाया जाए रूढ़िजन्य विधि सामाजिक और सामुदायिक संपदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप होगा।

जेपीआरए - धारा (10)(5)(1) व्यक्तियों के परंपराओं तथा रूढ़ियों, उनकी सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक साधनों (सरना, मसना, जाहेर स्थान आदि) को और विवादों के निराकरण के उनके रूढ़िगत तरीकों को जो संवैधानिक दृष्टिकोण से असंगत न हो, सुरक्षित करेगी। आवश्यकतानुसार इस दिशा में सहयोग के लिए ग्राम पंचायत, पंचायत समिति एवं जिला परिषद्‌ तथा राज्य सरकार के समक्ष प्रस्ताव विहित रीति से ला सकेगी।

टिप्पणी - केन्द्रीय कानून - पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 की धारा 4(क), राज्य के द्वारा पारित पंचायत अधिनियम 2003 की तुलना में व्यापक है जो कि राज्य विधान बनाने के संबंध में कहता है कि अनुसूचित क्षेत्रों के लिए पंचायत स्तर पर कानून जो बनाया जाए प्रथागत नियम सामाजिक एवं धार्मिक सम्पदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप होगा।

आदिवासी समुदायों की परंपरागत प्रबंध पद्धति स्तरीय होती है। गांव के स्तर पर ग्राम सभा, गांव के समूह के स्तर पर पड़हा पट्टी, परगना मानकी, पीड़ आदि तथा संपूर्ण समुदाय के स्तर पर राजी पड़हा, देश परगना महल, मानकी मुंडा संध आदि होती है। यदि केन्द्रीय कानून 1996 भावना के विपरित तीन स्तरीय पंचायत व्यवस्था, ग्राम पंचायत स्तर के लिए 5000 की जनसंखया, पंचायत समिति के लिए सी डी ब्लॉक स्तर और जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया जाता है तो वह आदिवासी परंपरागत तीन स्तरीय संरचना के खिलाफ है और इसे अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता है।

वर्तमान झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम का गहराई से अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि ग्राम सभाओं को ग्राम पंचायतों के नीचे रख दिया गया है जो कि केन्द्रीय कानून 1996 की धारा 4(द) के अनुसार ''ऐसे राज्य के विधानों में जो पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ और अधिकार प्राप्त करें जो उन्हें स्वायतशासी इकाई के रूप में या कृत्य करने के लिए समर्थ बनाने के लिए आवश्यक हों, यह सुनिश्चित करने के लिए रक्षोपाय अंतर्विष्ट होंगे कि उच्च स्तर पर पंचायतें निम्न स्तर पर किसी पंचायत की या ग्राम सभा की व्यक्तियों और प्राधिकार हाथ में न लें'' के बिल्कुल खिलाफ है।

और यह भी कि वर्तमान पंचायत संरचना में ग्राम पंचायतों में 10 वार्ड के सदस्य ही ग्राम पंचायतों में सदस्य होंगे, प्राकृतिक गांव में मौजूद परंपरागत आदिवासी पारंपरिक व्यवस्था और प्रबंध पद्धतियों के विपरित है।

पेसा - 4(छ) प्रत्येक पंचायत पर अनुसूचित क्षेत्रों में स्थानों का आरक्षण, उस पंचायत में उन समुदायों की जनसंखया के अनुपात में होगा जिनके लिए संविधान के भाग 9 के अधीन आरक्षण दिया जाना कहा गया है। परंतु अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण स्थानों के कुल संखया के आधार से कम नहीं होगा। परंतु यह और कि अध्यक्षों के सभी स्तरों पर अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगे।

जेपीआरए - झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 की धारा 17(ख)(1) में दिया गया है कि अनुसूचित क्षेत्रों में प्रत्येक ग्राम पंचायत में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान का आरक्षण जनसंखया के आधार पर होगा। परंतु अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण स्थानों की कुल संखया के आधे से कम नहीं होगा।

धारा 36(ख)(1) के अनुसार- अनुसूचित क्षेत्रों में प्रत्येक पंचायत समिति में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए स्थान का आरक्षण उस पंचायत समिति में अपनी-अपनी जनसंखया के आधार पर होगा परंतु अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण स्थानों की कुल संखया के आधे से कम नहीं होगा। धारा 51(ख)(1) के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में प्रत्येक जिला परिषद्‌ में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान का आरक्षण उस जिला परिषद में अपनी-अपनी जनसंखया के आधार पर होगा परंतु अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण स्थानों की कुल संखया के आधे से कम नहीं होगा।

साथ ही यह भी झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 21(ख) में दिये गये उपबंध के अधीन अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों का मुखिया और उपमुखिया का पद अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगे। परंतु यह भी कि उन अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों को जिनमें अनुसूचित जनजातियों के मुखिया एवं उपमुखिया के लिए आरक्षित पदों के आबंटन से विहित रीति में अपवर्जित कर दिया जाएगा। झारखण्ड पंचायत राज संशोधन 2003 के अनुसार संशोधित करते हुए धारा 21(ख) खंड(1) के द्वारा यथा, अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों में मुखिया का पद अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगे।

इसी प्रकार धारा 40(ख) में पहले प्रमुख एवं उपप्रमुख के दोनों पदों को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किया गया था उसे भी झारखण्ड पंचायत राज (संशोधन) अधिनियम 2003 के द्वारा संशोधन कर सिर्फ प्रमुख के पदों को अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किया गया है। इसी प्रकार, धारा 55(ख) में पहले अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष दोनों पदों को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किया गया था उसे भी झारखण्ड पंचायत राज (संशोधन) अधिनियम 2003 के द्वारा संशोधन का सिर्फ प्रमुख के पदों को अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किया गया है। इसी प्रकार धारा 55(ख) में पहले अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष दोनों पदों को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किया गया था उसे भी झारखण्ड पंचायत राज (संशोधन) अधिनियम 2003 के द्वारा संशोधन कर सिर्फ अध्यक्ष पद को अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किया गया है।

इसी प्रकार धारा 8(2) में (क) जोड़कर-परंतु यह भी कि जिस ग्राम सभा क्षेत्र में परंपरा से प्रचलित रीति-रिवाज के अनुसार मान्यता प्राप्त व्यक्ति जो ग्राम प्रधान तथा मांझी, मुंडा, पहान, महतो या अन्य नाम से जाना जाता हो गैर अनुसूचित जनजाति का सदस्य हो तो अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा के बैठक की अध्यक्षता उनके द्वारा अथवा यदि उक्त क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति का सदस्य हो तो अनुसूचित क्षेत्रों में, ग्राम सभा के बैठक अध्यक्षता उनके द्वारा अथवा यदि उक्त क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति के अन्य सदस्य हो तो ग्राम प्रधान द्वारा प्रस्तावित अथवा बैठक में उपस्थित सदस्यों की बहुमत से मनोनित/समर्थित ऐसे व्यक्ति और यदि अनुसूचित जनजाति के सदस्य न हो तो ऐसे प्रस्तावित अथवा मनोनित/समर्थित गैर अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति द्वारा की जाएगी।

टिप्पणी - झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 के प्रावधान 17(ख)(1) और (ख)(2) को साथ-साथ अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि ग्राम पंचायत स्तर पर अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों तथा पिछड़ी जातियों के लिए कुल आरक्षण 80 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है।

इसी प्रकार 36(ख)(1) को 36(ख)(2) को मिलाकर पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि पंचायत समिति के स्तर पर अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और पिछ़ड़ी जाति के लिए कुल सीटों का आरक्षण 80 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है।

ठीक उसी प्रकार, 51(ख)(1), 51(ख)(2) को साथ-साथ पढ़ने से यही बात स्पष्ट हो जाती है कि सीटों के आरक्षण में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों के लिए कुल सीटों के आरक्षण 80 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है।

झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्रों में बहुत से गाँव, ग्राम पंचायत और प्रखंड है जहाँ की कुल आबादी में अनुसूचित जनजातियों की आबादी 80 प्रतिशत से अधिक है वहाँ पर अनुसूचित जनजातियों की आबादी 80 प्रतिशत से अधिक है वहाँ पर अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों एवं पिछड़ा वर्ग को मिलाकर 80 प्रतिशत आरक्षण देना गैर संवैधानिक है। सरकार का यह कृत्य-पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार अधिनियम 1996 के प्रावधानों के अनुरूप नहीं हैं।

यह भी कि पूर्व में झारखण्ड पंचायत अधिनियम 2001 के धारा 21(ख)(1) को संशोधन कर संशोधित 2003 के अनुसार सभी स्तरों पर उपप्रमुख तथा जिला परिषद के उपाध्यक्ष पद को अनारक्षित कर दिया गया जो पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 के प्रावधानों और भावनाओं के प्रतिकुल है। संविधान के भाग 9 या पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 में कहीं पर भी उपमुखिया, उपप्रमुख पद को सृजित करने का कोई प्रावधान नहीं दिया गया है। झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 के द्वारा उपमुखिया, उपप्रमुख, उपाध्यक्ष (जिला परिषद) जैसे पदों का सृजन अनुसूचित क्षेत्रों में किया गया है एवं झारखण्ड पंचायत अधिनियम 2001 की धारा 73(क)(3)(पप) के अन्तर्गत मुखिया का निर्वाचन लंबित होने या मुखिया के नहीं रहने पर मुखिया के सभी शक्तियों का निर्वाह करेगा। धारा 73(ख)(पप)(1) के अंतर्गत उपप्रमुख, को प्रमुख की अनुपस्थिति में पंचायत समिति की बैठकों की अध्यक्षता एवं कार्यवाहियों का संचालन करेगा। धारा 73(ख)(पप)(2) के अंतर्गत प्रमुख का निर्वाचन लम्बित होने पर या प्रमुख के नहीं रहने पर प्रमुख के सभी शक्तियों का निर्वाह उपप्रमुख करेगा। धारा 73(ख)(पप)(1) के अंतर्गत उपाध्यक्ष, अध्यक्ष की अनुपस्थिति में जिला परिषद की बैठकों की अध्यक्षता एवं कार्यवाहियों का संचालन करेगा।

उपमुखिया, उपप्रमुख और उपाध्यक्ष के पद सृजित कर एवं उसे अनारक्षित कर मुखिया और अध्यक्ष की अनुपस्थिति या चुनाव लम्बित होने पर मुखिया प्रमुख और अध्यक्ष के सभी शक्तियों को इस्तेमाल करने के प्रावधान कर पिछले दरवाजे से गैर अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को मुखिया और अध्यक्ष पदों पर आसीन करने का षड्‌यंत्र किया गया है। यह पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के प्रावधानों एवं भावनाओं का उल्लंघन किया है। यह गैर संवैधानिक है। इसलिए उपमुखिया, उपप्रमुख या उपाध्यक्ष पद को पूर्व की भाँति अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किया जाए। या उपमुखिया उपप्रमुख और उपाध्यक्ष पदों को अनुसूचित क्षेत्रों में समाप्त कर दिया जाए। और ऐसा प्रावधान किया जाए कि मुखिया, प्रमुख और अध्यक्ष की अनुपस्थिति में अनुसूचित जनजाति के सदस्य ही उनकी शक्तियों का निर्वाह कर सके जो कि केन्द्रीय कानून के प्रावधानों से संगत होगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में आदिवासी गाँवों में भी गैर आदिवासियों के द्वारा ग्राम सभा को अध्यक्षता करने का मार्ग साफ कर दिया गया है। जो कि पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के विपरित है।

पेसा- धारा 4(झ) ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों से विकास परियोजनाओं के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अर्जन करने के पूर्व और अनुसूचित क्षेत्रों में ऐसी परियोजनाओं द्वारा प्रभावित व्यक्तियों की पुनर्स्थापित था पुनर्वास करने से पूर्व परामर्श किया जाएगा। अनुसूचित क्षेत्रों में परियोजनाओं की वास्तविक योजना और उनका कार्यान्वयन राज्य स्तर पर समन्वित किया जाएगा।

जेपीआरए- अधिनियम 2001 के धारा 144(1) के अनुसार जहाँ इस परियोजना के लिए कोई भूमि अपेक्षित हो और पंचायत करार द्वारा अर्जित करने में असमर्थ हो तो राज्य सरकार ऐसी पंचायत के निवेदन पर और जिला दंडाधिकारी को सिफारिश कर भूमि अर्जन के संगत अधिनियम के उपबंधों के अधीन उसे अर्जित करने की कार्यवाही कर सकेगी और उस अधिनियम के अधीन अधिनिर्णित प्रतिकार का तथा उन कार्यवाहियों के संबंध में राज्य सरकार द्वारा उपगत समस्त अन्य प्रभारों का पंचायत द्वारा भुगतान कर दिये जाने पर वह भूमि उस पंचायत में निहित हो जाएगी जिसके लिए वह इस प्रकार अर्जित की गयी है। एवं (2) के अनुसार पंचायत, राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के बिना किसी ऐसी भूमि को जो उपधारा (1) के अधीन अर्जित की गयी है, अंतरित नहीं करेगी या ऐसी भूमि को उस प्रयोजन जिसके लिए वह अर्जित की गयी है से भिन्न प्रयोजन के लिए इस्तेमाल नहीं करेगी।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 की धारा 4(झ) के द्वारा यह प्रावधान किया गया है कि ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों से विकास परियोजनाओं के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अर्जन करने से पूर्व परामर्श किया जाएगा एवं अनुसूचित क्षेत्रों में ऐसी परियोजनाओं द्वारा प्रभावित व्यक्तियों को पुनर्स्थापित या पुनर्वासित करने के पूर्व परामर्श किया जाएगा। झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अर्जन करने के पूर्व न तो ग्राम सभा और न ही समुचित स्तर पर पंचायत से परामर्श करने का प्रावधान किया गया है। और न ही अनुसूचित क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं से विस्थापित या प्रभावित व्यक्तियों को पुनर्वास करने के पूर्व ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों से परामर्श करने का प्रावधान बनाया गया है। जो कि पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 का खुलमखुला उल्लंघन है।

पेसा- धारा 4(ट) नीलामी द्वारा गौण खनिजों के समुपयोजन के लिए रियायत देने के लिए ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों की पूर्व सिफारिश को आज्ञापक बनाया जायेगा।

जेपीआरए (झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम)- पदार्थों के बावत किसी भी प्रकार का प्रावधान नहीं किया गया है। झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2003 में गौण खनिज पदार्थ के बावत किसी भी प्रकार का प्रावधान नहीं दिया गया है।

टिप्पणी- झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के अनुरूप ग्राम सभा या समुचित स्तर पंचायतों को यह अधिकार देने का प्रावधान करना होगा। नहीं करने की स्थिति में झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2001 गैर संवैधानिक एवं पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के असंगत होगा।

पेसा- धारा 4(ड)(1) मद्यनिषेध प्रवर्तित करने या किसी मादक द्रव्य के विक्रय और उपयोग को विनियमित करने या निबंधित करने की शक्ति दी गयी है।

जेपीआरए- (प)(गगपप)- मनोरंजनों, खेल-तमाशे, दूकानों, भोजनगृहों, पेय पदार्थों, मिठाईयों, फलों, दूध तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं के विक्रेताओं का विनियमन और उसपर नियंत्रण की शक्ति ग्राम सभा को दी गयी है।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के द्वारा ग्राम सभा एवं समुचित स्तर पर पंचायत को मद्यनिषेध प्रवर्तित करने की शक्ति दी गयी है जो झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2001 में ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायत को नहीं दी गयी है। अर्थात्‌ कोई प्रावधान ही नहीं किया गया है।

पेसा- धारा 4(ड)(1) के अनुसार गौण वनोपज का स्वामीत्व।

जेपीआरए- झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2001 की धारा 10(5)(पप) के भीतर के प्राकृतिक स्रोतों को जिनके अंतर्गत भूमि, जल एवं वन आते हैं, उसकी परंपरा के अनुसार परन्तु संविधान के उपबंधों के अनुसार तथा तत्समय प्रवृत अन्य सुसंगत विधियों की भावना का सम्यक ध्यान रखते हुए प्रबंध कर सकेगी। धारा 75(क) 8 के द्वारा। ग्राम पंचायत लघुवन उत्पाद, वस्तुओं का संग्रह, भंडारण, प्रसंस्करण एवं विपणन की व्यवस्था कर सकेगी। धारा 76(क) (अपपप)(घ) के द्वारा। पंचायत समिति लघु वन उत्पाद वस्तुओं का संग्रह, भंडारण, प्रस्करण एवं विपणन की व्यवस्था का समेकित प्रबंधन एवं पर्यवेक्षण कर सकेगी। धारा 77(क) ( अपप)(ग) के द्वारा। जिला परिषद लघु वन उत्पादों का समेकित प्रबंधन कर सकेगी। झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 की धारा 77(क) (गगपपप) के अनुसार।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों को किसी मादक द्रव्य के विक्रय को बाधित करने की शक्ति दी गयी है। जबकि झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2001 में सिर्फ पेय पदार्थों के विक्रेताओं को विनियमन और उसपर नियंत्रण करने की शक्ति दी गयी है। पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 का खुलमखुला उल्लंघन झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 में किया गया है जो कि केन्द्रीय कानून और संविधान के खिलाफ है।

इसी प्रकार ग्राम पंचायत को लघु वनोत्पाद का संग्रहण, भंडारण, प्रसंस्करण एवं विपणन की व्यवस्था की शक्ति दी गयी है, स्वामीत्व नहीं दिया गया है। पंचायत समिति को लघुवनोत्पाद, वस्तुओं का संग्रह, भंडारण, प्रसंस्करण एवं विपणन की व्यवस्था का सामेकित प्रबंधन एवं पर्यवेक्षण की शक्ति दी गयी है, स्वामीत्व नहीं। जिला परिषद को लघु वन उत्पादों का सामेकित प्रबंधन की शक्ति दी गयी है। स्वामीत्व नहीं दिया गया है।

इसी प्रकार जहाँ केन्द्रीय कानून ग्राम सभा एवं समुचित स्तर पर पंचायतों को गौण वनोपज का स्वामीत्व स्पष्ट रूप से देता है वही झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 द्वारा ग्राम सभा को सिर्फ वनों के प्रबंधन की शक्ति दी गयी है। और समुचित स्तर पर पंचायतों को सिर्फ लघु वन उपज का संग्रह, भंडारण, प्रस्करण एवं विपणन की व्यवस्था की शक्ति दी गयी है जो कि पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 से संगत नहीं है।

पेसा- 4(ड)(पअ) के अनुसार, ग्राम सभाओं को, चाहे वे किसी भी नाम से ज्ञात हो, प्रबंध करने की शक्ति।

जेपीआरए- ग्राम पंचायत के माध्यम से ग्रामों के बाजारों तथा मेलों जिनमें पशु मेला सम्मिलित हैं, चाहे वे किसी नाम से जाने जाएं, प्रबंध करेगी। धारा 75(ख)(प) के द्वारा ग्राम पंचायत के बाजार, मेला, पशु मेला सहित चाहे वे किसी नाम से जाने जाएँ, प्रबंध करेगी। धारा 77(क)(पग) के द्वारा जिला परिषद क्षेत्र में मेला (पशु मेला सहित) बाजार एवं हाट का प्रबंधन में सहायता कर सकेगी।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 के द्वारा ग्राम सभा को बाजारों को प्रबंध करने की शक्ति दी गयी है। जबकि झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001, ग्राम सभा को ग्राम पंचायतों के माध्यम से बाजारों के प्रबंध की शक्ति देती है। केन्द्रीय कानून 1996 की भावना के अनुरूप नहीं है क्योंकि ग्राम सभा को स्वायतशासन की इकाई के रूप में है। यह झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 में नहीं है और यह पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 की उस भावना का उल्लंघन है जिसमें ग्राम सभा को एक स्वायतशासी संस्था के रूप में परिकल्पित की गयी है।

पेसा- 4(ड)(अ) के अनुसार अनुसूचित जनजातियों को धन उधार देने पर नियंत्रण करने की शक्ति।

जेपीआरए- झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 के प्रावधान धारा 77(क) (गगपपप) (छ) के अनुसार तस्करी, करवंचना, मिलावट, सूदखोरी जैसे अपराधों पर निगरानी रख सकेगी।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 में स्पष्ट रूप से अनुसूचित जनजातियों को धन उधार देने पर नियंत्रण करने की शक्ति ग्राम सभा को दी गयी है। जबकि झारखण्ड पंचायती राज अधिनियम 2001 के द्वारा जिला परिषद को निगरानी करने की शक्ति दी गयी है। तथा केन्द्रीय कानून 1996 की ग्राम सभा को स्वायतशासन की इकाई के रूप में सुदृढ़ करने तथा शक्ति के विकेन्द्रीकरण करने की भावना के प्रतिकूल ही नहीं है बल्कि गैरसंवैधानिक भी है।

पेसा- धारा 4(ड)(अप) के अनुसार सभी सामाजिक क्षेत्र की संस्थाओं और कृतकारियों पर नियंत्रण रखने की शक्ति।

जेपीआरए- झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 के प्रावधान धारा 10(क)(ग) में सामाजिक प्रक्षेत्रों में ऐसी संस्था तथा ऐसी कृतकारियों पर जो ग्राम पंचायत को अंतरित या ग्राम पंचायत द्वारा नियुक्त किये गये हैं, उस पंचायत के माध्यम से नियंत्रण करना; धारा 76(ख)(2) के अनुसार पंचायत समिति को समस्त सामाजिक क्षेत्रों में उनको अंतरित संस्थाओं तथा कार्यों पर नियंत्रण करना; धारा 77(ग)(2) के अनुसार जिला परिषद को भी समस्त सामाजिक क्षेत्रों में उनको अंतरित संस्थाओं तथा कार्यों पर नियंत्रण करने की शक्ति प्रदान की गयी है।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 के द्वारा ग्राम सभा को स्वायतशासन की सुदृढ़ इकाई बनाने की भावना से सभी सामाजिक क्षेत्र की संस्थाओं और कृतकारियों पर नियंत्रण रखने की शक्ति को विकेन्द्रीत की गयी है। जबकि झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 के द्वारा ग्राम सभा को यह शक्ति ग्राम पंचायत द्वारा नियुक्त उसको अंतरित किये गये कृतकारियों पर ग्राम पंचायत के माध्यम से नियंत्रण का अधिकार है जो कि पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 के प्रतिकूल है एवं गैर संवैधानिक है।

पेसा- धारा 4(ड)(अपप) के अनुसार सभी स्थानीय योजनाओं और ऐसी योजनाओं के लिए जिनमें जनजातीय उपयोजनाएँ हैं, स्रोतों पर नियंत्रण रखने की शक्ति।

जेपीआरए- झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 के प्रावधान धारा 10(क)(ग) में स्थानीय योजनाओं जिनमें जनजातीय उपयोजना सम्मिलित हैं तथा ऐसी योजनाओं के लिए स्रोतों एवं व्ययों का प्रबंधन कर सकेगी। धारा 75(ख)(2) में ग्राम पंचायत को स्थानीय योजनाओं पर जिसमें जनजातीय उपयोजना सम्मिलित हैं के स्रोतों एवं व्ययों पर नियंत्रण रखने की शक्ति दी गयी है।

धारा 77(ग)(3) में जिला परिषद को स्थानीय योजनाओं पर जिसमें जनजातीय उपयोजना सम्मिलित है के स्रोतों एवं व्ययों पर नियंत्रण रखने की शक्ति दी गयी है।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध अधिनियम 1996 के द्वारा ग्राम सभा को स्वायतशासन की सुदृढ़ इकाई के रूप में सशक्त करने के लिए दी गयी शक्ति-सभी योजनाएँ जिनमें जनजातीय उपयोजना भी सम्मिलित है, के स्रोतों पर नियंत्रण रखने का है जबकि झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 में व्यय का प्रबोधन की शक्ति दी गयी है। नियंत्रण की नहीं। यह केन्द्रीय कानून 1996 के प्रावधान के खिलाफ है।

पेसा- धारा 4(ढ) के अनुसार, ऐसे राज्य विधानों में, जो पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करे जो उन्हें स्वायतशासन की संस्थाओं के रूप में कृत्य करने के लिए समर्थ बनाने के लिए आवश्यक हो; यह सुनिश्चित करने के लिए रक्षोपाय अंतर्विष्ट होंगे कि उच्च स्तर पर पंचायतों और निम्न स्तर पर किसी पंचायत की या ग्राम सभा की शक्तियाँ और प्राधिकार हाथ में न लें।

जेपीआरए- झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 की धारा 78(क)(प) में - ऐसी शर्तों के अध्याधीन रहते हुए जैसे कि राज्य सरकार द्वारा साधारण या विशेष आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट किये जाएं, पंचायतों को समुचित स्तर पर ऐसी शक्तियाँ तथा प्राधिकार होगा जो कि अनुसूची (प) में सूचीबद्ध विषयों के संबंध में जिसके अंतर्गत आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय के लिए योजनाओं की तैयारी और स्कीमों का क्रियान्वयन तथा धारा 10(6) धारा 75, धारा 76, धारा 77 के अधीन सौंपे गये अन्य कर्त्तव्य एवं कृत्य आते हैं, स्वशासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने के लिए उन्हें समर्थ बनाने हेतु आवश्यक हो।

टिप्पणी- पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के अनुसार यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ग्राम सभा को स्वशासन की सुदृढ़ इकाई के रूप में कार्य करने के लिए शक्तियों को विकेन्द्रीत करें। उक्त केन्द्रीय कानून 1996 के द्वारा सदियों से विकास की मुखयधारा से कटे अनुसूचित क्षेत्र के ग्राम सभा को राष्ट्र की मुखयधारा में सुदृढ़ता से भागीदारी निभाने के लिए शक्ति संपन्न करने की भावना अभिप्रेरित है। इसलिए यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि ग्राम सभा को जो शक्तियाँ दी गयी हैं या पंचायतों के निम्नस्तर पर जो शक्तियाँ सौंपी गयी हैं उनपर उच्च स्तर के किसी भी इकाई के द्वारा शक्तियों या दायित्वों को लेने से रोक लगा दी गयी है ताकि सबसे निम्न स्तर पर ग्राम सभा, मध्य स्तर पर पंचायत और उच्च स्तर पर जिला परिषद की शक्तियों को प्रभावित करने के लिए राज्य सरकार कोई भी विधि नहीं बना सकती है। बल्कि उसे सुनिश्चित करने के लिए ही अधिनियम बना सकती है।

परंतु झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 के द्वारा पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के पवित्र भावनाओं का खुलमखुला उल्लंघन किया गया है और अवहेलना करते हुए केन्द्रीय कानून के द्वारा ग्राम सभा को दिये गये अधिकारों में भी कटौती की गयी है और जो पूरी तरह से गैर संवैधानिक है।

मनरेगा

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून 2005 व्यापक स्तर पर एक अग्रगामी नीतिगत हस्तक्षेप है जिसे ग्रामीण भारत में गरीबी कम करने के लिए भारत सरकार द्वारा तैयार एवं लागू किया गया है। यह रोजगार गारंटी कानून अनोखी है क्योंकि यह जनमानस की मांग पर आधारित एक कार्यक्रम है। यह अधिकार आधारित ढांचे वाली मांग के 15 दिनों के भीतर काम देने का कानूनी गारंटी प्रदान करती है। इसके अलावे ये ऐसा ढांचा प्रदान करती है जो काम को ईमानदारी पूर्वक पूरा करने की प्रेरणा देता है। यह देश के ग्रामीण परिवारों का जीविकोपार्जन के लिए सुरक्षा बढ़ाती है। प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को जो अकुशल श्रम करने को तैयार हैं, यह कानून प्रत्येक वित्तीय वर्ष में उन्हें कम से कम 100 दिनों के लिए वेतन आधारित रोजगार की गारंटी प्रदान करती है। रोजगार गारंटी कानून में खेतिहर मजदूर या अन्य मजदूर काम कर सकता है जिसे सरकार द्वारा तय मजदूरी प्राप्त होगा।

हमारे इतिहास में गरीबी हटाने में यह रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) एक मील का पत्थर है। हमारे समय का यह एक महत्वपूर्ण कानून है जो काम के लिए कानूनी हक सुनिश्चित करता है। इसके तहत रोजगार मिलता है। इससे आमदनी होती है जिससे आजीविका की गारंटी मिलती है। जिससे प्रायः हरेक नागरिक अस्मिता और इज्जत के साथ जीवन जी सकता है। इसके साथ-साथ मनरेगा से गाँवों में ढांचागत व्यवस्था का निर्माण भी होता है। यह सचेतन सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए उठाये गये एक साकारात्मक कदम की ओर इशारा है। पिछले दिनों के और फिलहाल के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की अपेक्षा मनरेगा राजनेताओं और नौकरशाहों की जवाबदेही के लिए एक आंतरिक व्यवस्था प्रदान करती है ताकि संभावित भ्रष्टाचार न हो सके।

इस कानून की एक अनोखी विशेषता यह है कि इसमें हितग्राही स्वयं स्वामीत्व का दावा कर सकते हैं। ग्रामीण महिलाओं को रोजगार देने में विशेष बल देना इस कानून का दूसरा विशिष्ट स्वरूप है। महिलाओं और विशेषकर बच्चों की वर्त्तमान में नाजुक सामाजिक स्थिति एवं स्वास्थ्य के स्तर के मद्दे नजर यदि इस कानून के तहत परिवार के किसी एक व्यक्ति को लाभ मिले तो उसे आशा की एक किरण ही माना जाएगा। हालांकि कुछ राज्यों में गरीबों के हित में खर्च न होकर बड़े पैमाने पर अन्यत्र खर्च की जा रही है। यह भ्रष्टाचार तभी रूकेगा जब उच्च स्तरीय राजनेताओं और नौकरशाहों का इस कानून के संचालन में अभूतपूर्व सहयोग मिले। दूसरा, पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांत को बल पूर्वक लागू करना ही एक मात्र जादुई चिराग है जिसके जरिये इस कानून का सफल क्रियान्वयन किया जा सकता है। राजनेताओं और नौकरशाहों का सहयोग ही मात्र इसके लिए काफी नहीं है। उनके साथ सूचना तकनीक के इस्तेमाल और ग्रामीण समाज की भूमिका के फलस्वरूप ही मनरेगा की धारा सफल दिशा में प्रवाहमान हो सकती है। आंध्रप्रदेश में रोजगार गारंटी कानून के क्रियान्वयन के सभी पहलूओं को कम्प्यूटरीकृत कर दिया गया है। जैसे कि कामगारों का पंजीयन, जॉबकार्ड का वितरण, कार्य योजना का बजट बनाना, मस्टर रोल, प्रशासनिक सहयोग, सोशल ऑडिट, आर.टी.आई. के चलते सूचना व जानकारी खुले रूप में उपलब्ध है। सोशल ऑडिट की प्रक्रिया को मंडल स्तर पर एक आमसभा में परिवर्तित कर दिया गया है जिसमें हर गाँव के लोग, उनके चुने गये प्रतिनिधि, मीडिया, मनरेगा के कर्मचारी और वरिष्ठ सरकारी अफसर भाग लेते हैं।

लेकिन मनरेगा का सबसे दुःखदायी पहलू है कि जहाँ इस कानून को लागू किया जा रहा है वहाँ ग्राम सभाएँ सक्रिय नहीं हैं। ग्राम सभा ही इस कानून की मुखय कार्यकारी संस्था है। लेकिन यह मनरेगा सरकारी नौकरशाहों का शिकार है। आज भी सैकड़ों ग्रामवासी यह नहीं जानते कि मनरेगा किस चिड़िया का नाम है। 15 दिनों के अंदर काम मांगने का गारंटेड अधिकार है। और काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता भी भुगतान किया जाना जरूरी है। विभिन्न सरकारी विभागों, पंचायती संस्थाओं, और ग्राम सभा के बीच समन्वय की कमी से एक दूसरे पर आरोप, प्रत्यारोप लगाया जा रहा है जिसके फलस्वरूप नरेगा के कानूनों के सही तरीके से नहीं समझाया जा रहा है। खासकर पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत आनेवाले आदिवासी इलाकों में तो ग्राम प्रधान, वार्ड सदस्य, मुखिया, पंचायत समिति के सदस्य भी मनरेगा के कानूनों से अनभिज्ञ हैं। आज भी ग्रामीण काम के अभाव में दूसरे जगह पलायन कर रहे हैं। लेकिन मजदूरों को 100 दिन का काम उपलब्ध कराकर सिर्फ पलायन को रोकना ही मनरेगा का उद्देश्य था मनरेगा को राजनीतिक मुद्दा बनाना। इसके अंतर्गत गाँव के स्तर पर आंतरिक ढांचा बनाना, न्यूनतम मजदूरी का भुगतान किया जाना, कार्य के दौरान महिलाओं का यौन शोषण करना, बच्चों की शिक्षा की समस्या का समाधान खोजना था। लेकिन सच्चाई यह है कि कार्यान्वयन की कमी के चलते यह कानून मार खा रही है। जैसे कि जॉबकार्ड न देना, ठेकेदारों द्वारा मशीन से काम लेना, अनियमितताएँ, सरकारी अफसरों की उदासीनता, समय पर काम न देना और शिकायत समाधान की मशीनरी का ना होना आदि।

यदि किसी राज्य के किसी जिले में मनरेगा के बारे में अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट मालूम पड़ेगा कि वहाँ फर्जी मस्टर रोल तैयार किया जा रहा है। उसके आधार पर फर्जी भुगतान किये जा रहे हैं। अनियमितता और भ्रष्टाचार के कई ज्वलंत उदाहरण मिलेंगे वहाँ। कई योजनाओं में निजी ठेकेदारों द्वारा काम कराये जाते मिलेंगे। क्योंकि ठेकेदारी प्रथा में प्रतिशत प्रथा भी साथ-साथ चलती है जहाँ ऑफिसर कमीशन की राशि योजना शुरू होने से पहले ही प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी हालत में पारदर्शिता नदारद होती है। मस्टर रोल जाली होते हैं। जाँबकार्ड ठेकेदारों के पास होते हैं। ग्राम स्वराज अभियान द्वारा जो जनसभा कर सोशल ऑडिट कराये गये उससे न केवल यह स्थापित हुआ कि भ्रष्टाचार रोकने में सोशल ऑडिट की एक महत्वपूर्ण भूमिका है और साथ ही पूरी प्रक्रिया में जनभागीदारी को विकसित करने में एक सशक्त हथियार भी है। आज ये विश्वास दिलाने की जरूरत है कि सोशल ऑडिट से पारंपरिक सोच-विचार में मौलिक परिवर्तन लाया जा सकता है। सोशल ऑडिट में ग्राम प्रधानों, वार्ड सदस्य, मुखिया, प्रमुख, जिल परिषद सदस्य यहाँ तक कि विधायकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में देखा जा सकता है। वहीं झारखण्ड की स्थिति ठीक उलट है। यहाँ सोशल ऑडिट में तो     बी.डी.ओ., डी.सी. नदारद होते हैं। विधायक तो यहाँ सोशल ऑडिट का विरोध करते हैं।

इन विपरित परिस्थितियों के बावजूद यदि इस योजना का कार्यान्वयन किया जाए तो गरीबी रेखा में जीनेवाले परिवारों की संखया में सराहनीय कमी लायी जा सकती है। मनरेगा तभी सफल होगा जब आपसी विश्वास, इच्छाशक्ति और राजनैतिक समर्थन मिले। इनपर आधारित कार्ययोजना को पर्याप्त सुरक्षा मिले। इस कानून के प्रभावी कार्यान्वयन में पंचायतों को विभिन्न स्तर में एक दूसरे के साथ समन्वय बनाने की जरूरत है। इसी तरह से पंचायतों और जिला प्रशासन तथा प्रखंडों को मिला जुलाकर काम करने की आवश्यकता है। कानून के तहत ग्राम सभाओं को अधिकृत किया गया है। उसे यह अधिकार दिया गया है कि वह मनरेगा योजना के तहत काम की सिफारिश करें। उनकी निगरानी और निरीक्षण करें। किये गये कार्यों का सोशल ऑडिट करें। इसके साथ ही यह सुझाया गया है कि ग्राम सभा के माध्यम से इस कानून की व्यापक तरीके से कार्यान्वित किया जाए। योजना के कार्यान्वयन में ग्राम सभा की भूमिका केन्द्रीय हो। काम की योजना तैयार करने, कामगारों का पंजीयन करने, जॉबकार्ड देने, रोजगार उपलब्ध करने, 50 प्रतिशत काम करने, और ग्रामीण स्तर पर योजना के क्रियान्वयन पर निगरानी रखने की जिम्मेवारी ग्राम सभा को सौंपी गयी है। इस प्रकार ग्राम सभा को काफी संगठनात्मक जिम्मेदारियाँ निभानी हैं।

प्रखंड स्तर पर योजना बनाने की जिम्मेवारी माध्यमिक पंचायत की है। तथा इसका निरीक्षण और निगरानी करना तथा ग्राम सभा द्वारा बचे 50 प्रतिशत काम को पूरा करने की जिम्मेवारी भी पंचायत की है। प्रखंड स्तर पर जो कार्यक्रम अधिकारी नियुक्त होते हैं, वह इन पंचायत कार्यक्रम अधिकारी सभी आवेदकों को पत्र भेजकर सूचित करेगा कि कब और कहाँ उन्हें काम पर आना है। पंचायत ऑफिस और प्रखंड ऑफिस में भी सूचनापट पर ये जानकारी चिपकाया जाएगा।

जिला स्तरीय परियोजनाओं को अंतिम रूप देने की जिम्मेवारी जिला पंचायत की होगी। तथा वे ही उन योजनाओं की निगरानी तथा निरीक्षण करेंगे। जिला पंचायत द्वारा भी 50 प्रतिशत काम जो ग्राम सभा के जिम्मे में नहीं है, पूरा कर सकती है।

ग्राम सभा की स्थिति और अधिकार

परंपरा से प्रत्येक पड़हा क्षेत्र, प्रत्येक पीड़ क्षेत्र, प्रत्येक परगनैत क्षेत्र, प्रत्येक मानकी पट्टी और प्रत्येक खड़िया घाट का नाम और पहचान चला आ रहा है। इनमें से सिर्फ मानकी एवं परगनैतों को सरकारी मान्यता है- सेटलमेंट पदाधिकारी के हस्ताक्षर और मोहर से उन्हें अधिकार दिया गया है। यही अनुसूचित क्षेत्र के इलाकों की परंपरागत पहचान है। पेसा के तहत परंपरागत और सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखने का अधिकार कानून में संसद द्वारा बन चुका है। उन्हें ग्राम पंचायतों के गठन के द्वारा नष्ट करना ही पेसा कानून का उल्लंघन है। परंपरा और सांस्कृतिक पहचान को झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम के द्वारा नष्ट किया जा रहा है। अर्थात्‌ झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्रों में झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में प्रायोजित ग्राम पंचायतों तथा पंचायत समितियों का गठन पेसा के आलोक में नहीं किया जा सकता है।

झारखण्ड विधान सभा को पेसा की धारा 4(क) एवं (घ) के प्रावधानों के अनुसार अर्थात्‌ लोगों (खासकर आदिवासियों) की रूढ़िजन्य विधि, सामाजिक और धार्मिक पद्धतियों, सामुदायिक सम्पदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों, परंपरा और सांस्कृतिक पहचान तथा विवाद निपटान के रूढ़िक ढंग के अनुरूप पंचायत विधि बनाने का निर्देश है। राज्य सरकार इस कानूनी निर्देर्शों का पालन नहीं कर रही है और मनमानी तरीके से ग्राम पंचायतों और पंचायत समितियों को अनुसूचित क्षेत्रों पर थोप रही है।

इसलिए ग्राम पंचायत सिस्टम तथा पंचायत चुनाव का पुरजोर विरोध होना चाहिए। फिर भी यदि सरकार ग्राम पंचायतों का क्षेत्र विस्तार मानकी पीड़, परगनैत क्षेत्र और पड़हा क्षेत्र पर करती है तो वह इन क्षेत्रों को खंडित (विभाजन) करेगी जो लोगों के कस्टमरी लॉ (रूढ़िजन्य विधि) सामाजिक पद्धति और परंपरा तथा सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करती है - राजय सरकार से ऐसी उम्मीद तो नहीं की जा सकती है कि वह ऐसा करे। लेकिन यदि सरकार ऐस करती है तो जनता और सरकार के बीच विवाद ही खड़ा होगा।

झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्र में कोल्हान क्षेत्र भी है, वहाँ आज तक सीपीसी लागू नहीं हुआ है। सीपीसी के बदले एक छोटा सा नियमावली  है- विल्किनसन रूल। जो 1837 से आज तक लागू है। यह विल्किनसन रूल उस समय के डिविजनल कमिश्नर के पूरे डिविजन अर्थात्‌ तत्कालीन संपूर्ण छोटानागपुर के लिए ही था। जिसे बाहरी लोगों के झारखण्ड आने पर कोल्हान को छोड़ छोटानागपुर के अन्य क्षेत्रों से हटा दिया गया और देश का सामान्य कानून यहाँ बाहर से आया। परिणाम स्वरूप यहाँ का कुछ भला नहीं हुआ। जिसे हर कोई स्वीकार करेगा।

कोल्हान की ही तरह झारखण्ड के संपूर्ण अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत की अलग व्यवस्था रहे। ऐसा करने पर इस क्षेत्र की अलग पहचान बनी रहेगी। जिसके लिए यहाँ के समुदाय को सांविधानिक हक है।

संतालपरगना में भी पूर्व में सामान्य कानून लागू नहीं थे जहाँ रेगुलेशन  बनाने की व्यवस्था है। ऐसे में झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्र के लिए रेगुलेशन के द्वारा ही एक अलग पंचायती व्यवस्था, जो पेसा के अनुरूप हो, तो ऐसे रेगुलेशन को अपनाने में भारत के संविधान के भाग 9 की किस व्यवस्था का उल्लंघन होगा। सामान्य क्षेत्र की पंचायत व्यवस्था सामान्य क्षेत्र में लागू हो। अनुसूचित क्षेत्र के लिए अलग से रेगु   लेशन के रूप में अलग पंचायती-व्यवस्था हो जो उनकी परंपरा, रूढ़िगत विधि, सामाजिक, धार्मिक पद्धति और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर हो, पेसा कानून में ऐसी ही विशिष्ट व्यवस्था को मंजूरी दी गयी है।

जहाँ तक अन्य राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों पर पेसा के प्रावधानों को लागू करने का प्रश्न है, मध्य प्रदेश ने वर्षों पहले पेसा की धारा 5 के प्रावधानों के अनुपालन में (1) भूमि अंतरण पर नियंत्रण, और भूमि वापसी, माइनिंग लीज देने, सिविल प्रोसिज्योर कोड (सीपीसी), इंडियन पैनल कोड, आवकारी एक्ट आदि के पावर ग्राम सभाओं को दे दिया है। भारत में सिर्फ झारखण्ड ही एक राज्य होगा जिसने पेसा के इन कानूनी निर्देश का पालन नहीं किया है और उसी पंचायती राज व्यवस्था को फिर से अनुसूचित क्षेत्रों में थोपने पर लगा हुआ है।

सीएनटी एक्ट (छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम)

सीएनटी एक्ट 1908 का मूल उद्देश्य आदिवासियों-मूलवासियों की जमीन को सुरक्षा प्रदान करना था। यह कानून वास्तव में छोटानागपुर के आदिवासियों और मूलवासियों के अस्तित्व के रक्षा का कानून है। यह कानून न होता तो सम्भवतः आज छोटानागपुर में आदिवासी-मूलवासी समाप्त हो जाते। सच तो यह है कि इस सुरक्षा कानून के रहते हुए भी छल-कपट और बेइमानी से आदिवासियों की हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन गैर आदिवासियों ने छील ली और सरकार ने भी विभिन्न विकास योजनाओं, उद्योग-धंधों आदि के लिए आदिवासियों-मूलवासियों की जमीन का अधिग्रहण किया।

देश की आजादी के बाद छोटानागपुर में अनेक छोटे-बड़े कारखाने, नदी घाटी जल विद्युत परियोजनाएँ, शहरों-नगरों और कॉलोनियों का विस्तार हुआ। नये-नये खनन क्षेत्र बने और उनका भी विस्तारीकरण होता रहा और बाहरी लोगों के लिए दरवाजे खुलते गये। और वे करोड़ों की संखया में पूरे छोटानागपुर के शहर-शहर, नगर-नगर, वस्तियों और गांवों तक में बसते चले गये। उन्होंने आदिवासियों की जमीन हड़पी और मकान, दूकान और कई तरह के गैर कानूनी धंधे चलाकर सम्पन्न होते चले गये। इतने में भी उन्हें संतुष्ट नहीं होना था। अपने गैरकानूनी क्रियाकलापों के लिए राजनीतिक सहारे की जरूरत थी इसलिए वे छोटानागपुर की राजनीति में अपने पैर फैलाये और आशातीत सफलता पायी।

छोटानागपुर में बाहरी तत्वों की भारी घुसपैठ का नतीजा सामने है कि आज यहाँ के आदिवासी-मूलवासी अपने ही दिशोम में अल्पसंखयक हो गये। उनकी जनसंखया आज 27 प्रतिशत पर आकर अटक गयी है। वे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से टूटते-बिखरते दिखाई दे रहे हैं। देश और राज्य की विकास योजनाओं का 5 प्रतिशत लाभ भी इन आदिवासियों को नहीं मिला। क्योंकि तमाम योजनाएँ गलत और औपनिवेशिक मानसिकता के आधार पर बनी हुई थी। ऐसी अंधेरगर्दी वातावरण में छोटानागपुर आदिवासियों के पास मनुष्य के रूप सम्मानपूर्वक जिंदा रहने के लिए एकमात्र सहारा उनकी अपनी जमीन है। जहाँ उनका घर आंगन, सरना, ससनदिरी, देशावली है और जहाँ उनकी अपनी संस्कृति, रीति, रिवाज, भाषा और विशिष्ट पहचान है। यदि जमीन लूट गयी तो उनका लुप्त होना तय है जैसा कि अबतक विस्थापित आदिवासियों के साथ हुआ है। अब जरूरत इस बात की है कि आदिवासियों के साथ हुआ है। अब जरूरत इस बात की है कि अबतक जिन संशोधनों से छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट 1908 की मजबूती को कमजोर किया गया है उन संशोधनों को तुरंत प्रभाव से हटाया जाए।

धारा- 46 :- इस अधिनियम का यह एक ऐसा प्रावधान है जिसके तहत अंतरण (विक्रय, दान, अदला-बदली) आदि पर लगाये गये प्रतिबंधों के बावत प्रावधान है। लेकिन यदि कोई रैयत अपनी जमीन या उसके किसी भाग को बंधक में दे सकता है जिसकी अवधि सात वर्ष से अधिक की नहीं हो सकती है।

परंतु (क) कोई आदिवासी कायमी रैयत अपनी जमीन या उसके किसी भाग पर अपने हक को दूसरे आदिवासी के पास उपायुक्त की पूर्व अनुमति प्राप्त करके ही विक्रय, दान, वसीयत या अदला-बदली द्वारा अंतरण कर सकता है बशर्ते कि जमीन खरीदने या ग्रहण करने वाला उसी पुलिस थाने का निवासी हो जिस पुलिस थाने में वह जमीन स्थित है।

(ख) कोई अनुसूचित जाति अथवा पिछड़ी जाति का सदस्य कायमी रैयत अपनी जमीन या उसके किसी भाग पर अपने अधिकार को किसी दूसरे अनुसूचित जाति अथवा पिछड़ी जाति के सदस्य के पास उपायुक्त की पूर्व अनुमति प्राप्त करके ही अंतरित कर सकता है। बशर्ते कि क्रेता उसी जिले का निवासी हो, जिस जिले में वह जमीन स्थित है।

जमीन के बावत ग्राम सभा को शक्तियाँ - ग्राम सभा अपने गांव की जमीन की रक्षा करने में सक्षम है। वह बेजा कब्जों की रोकथाम कर सकता है और अगर गैर कानूनी ढंग से जमीन कब्जा की गयी हो तो खोई जमीन की वापसी करा सकती है। अगर सरकार या कोई भी कंपनी को अपनी परियोजना लगाने के लिए जमीन की आवश्यकता है तो उन्हें जमीन लेने से पूर्व ग्राम सभा से सलाह लेना अनिवार्य है। यदि किसी कंपनी या सरकारी कंपनी को गौण खनिज के लिए सर्वे की अनुमति, निलामी से उत्खनन के मामले में कोई रियायत देने से पूर्व सिफारिश या उत्खनन पट्टा देने से पूर्व सिफासिश लेनी हो तो उसे ग्राम सभा से बात करनी पड़ेगी। ये अधिकार पेसा कानून ने ग्राम सभा को दिये हैं। लेकिन झारखण्ड सरकार ने इन महत्वपूर्ण शक्तियों को झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में नहीं रखा है।

ग्राम सभा की शक्तियाँ एवं कृत्य

धारा-10 राज्य सरकार द्वारा दिए गए नियमों एवं विशेष आदेशों के अंतर्गत ग्राम सभा का कार्य निम्नलिखित होगा :-

  1. गांव के आर्थिक विकास के लिए योजनाओं की पहचान एवं योजनाओं की प्राथमिकता निर्धारित करने के लिए सिद्धांतों को प्रस्तुत करना।
  2. ग्राम पंचायतों स्तर पर सभी सामाजिक एवं आर्थिक विकास की वार्षिक योजनाओं, कार्यक्रमों का परियोजनाओं का कार्यान्वयन होने के पहले अनुमोदन करना।
  3. ग्राम पंचायत के वार्षिक बजट पर विचार विमर्श करना एवं अपनी सिफारिश देना।
  4. ग्राम पंचायत के लेखा-जोखा पर विचार करना एवं वार्षिक अंकेक्षण रिपोर्ट पर विचार करना।
  5. ग्राम पंचायत के विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों का परियोनाओं के लिए आवंटित रकम की समुचित उपयोग को सुनिश्चित करना एवं अनुमोदित करना।
  6. गरीबी उन्मूलन तथा अन्य कार्यक्रमों के अधीन लाभुकों की पहचान करना और उनके बीच में से योग्य व्यक्तियों का चयन करना।
  7. लाभुकों को दिये गये निधियों या परिसंपत्तियों का समुचित उपयोग तथा विवरण को सुनिश्चित करना।
  8. सामुदायिक कल्याण कार्यक्रमों के लिए लोगों को गतिशील करना एवं नगद या वस्तु में या दोनों रूपों में अंशदान और स्वैच्छिक श्रमिकों का सहयोग प्राप्त करना।
  9. जनसाधारण के बीच सामान्य चेतना, एकता एवं सौहार्द में अभिवृद्धि करना।
  10. सामाजिक प्रक्षेत्रों में ऐसी संस्था तथा ऐसी कृतकारियों (संगठन) पर, जो ग्राम पंचायत को अंतरित या ग्राम पंचायत द्वारा नियुक्त किए गए हो उस पंचायत के माध्यम से नियंत्रण करना।
  11. भूमि, जल, वन जैसे प्राकृतिक स्रोतों, जो ग्राम क्षेत्र की परिसीमा में आते हो, का संविधान तथा तत्समय प्रवृत्त अन्य सुसंगत विधियों के अनुसार प्रबंध करना।
  12. ग्राम पंचायत को लघु-जलाशयों के विनियमन तथा उपयोग में परामर्श देना।
  13. स्थानीय योजना पर तथा ऐसी योजनाओं के स्रोतों व व्ययों पर निगरानी रखना।
  14. स्वच्छता, सफाई और न्यूसेन्स (अशांति) का निवारण और उपशमन (दमन)।
  15. सार्वजनिक कुंओं और तालाबों का निर्माण, मरम्मत और अनुरक्षण तथा घरेलू उपयोग के लिए पेयजल उपलब्ध कराना।
  16. नहाने-धोने और पालतू पशुओं को पीने के लिए जल स्रोत उपलब्ध कराना एवं उसका अनुरक्षण।
  17. ग्रामीण सड़कों, पुलियों, पुलों, बांधों तथा सार्वजनिक उपयोगिता के अन्य संकर्मों तथा भवनों का निर्माण और अनुरक्षण।
  18. सार्वजनिक सड़कों, संडासों, नालियों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों का निर्माण, अनुरक्षण और उनकी सफाई।
  19. उपयोग में न आने वाले कुंओं, अस्वच्छ तालाबों, खाईयों तथा गड्ढों को भरना।
  20. ग्राम मार्ग पर अन्य सार्वजनिक स्थानों पर प्रकाश की व्यवस्था करना।
  21. सार्वजनिक मार्ग तथा स्थानों और उन स्थलों में से जो निजी संपत्ति न हो या जो सार्वजनिक उपयोग के लिए खुले हों, चाहे ऐसे स्थल जो पंचायत में निहित हों या सरकार के हों, बाधाओं तथा आगे निकले हुए भाग को हटाना।
  22. मनोरंजनों, खेल-तमाशे, दुकानों, भोजनगृहों और पेय पदार्थ, मिठाइयों, फलों, दूध तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं के विक्रेताओं का विनियमन और उस पर नियंत्रण।
  23. मकानों, संडासों, मूत्रालयों, नालियों  तथा फ्लश शौचालयों के निर्माण का विनियमन।
  24. सार्वजनिक भूमि का प्रबंध और ग्राम स्थल का प्रबंध, विस्तार और विकास।
  25. शवों, पशु-शवों (लावारिस शवों) और अन्य घुणोत्पादक पदार्थ का इस प्रकार व्यवस्था करना ताकि वे अस्वास्थ्यकर न हों।
  26. कचरा इकट्ठा करने के लिए स्थानों की अलग से व्यवस्था करना।
  27. मांस के विक्रय तथा परीक्षण का उत्तरदायित्व।
  28. ग्राम सभा की संपत्ति की देखरेख करना।
  29. कांजी हाउस की स्थापना और प्रबंध और पशुओं से संबंधित अभिलेखों का रखा जाना।
  30. राष्ट्रीय महत्व के घोषित किए गए प्राचीन तथा ऐतिहासिक स्मारकों को छोड़कर अन्य ऐसे प्राचीन तथा ऐतिहासिक स्मारकों की देखरेख और चारागाहों तथा अन्य भूमियों को बनाए रखा जाना जो ग्राम सभा के नियंत्रण में हों।
  31. जन्म, मृत्यु और विवाहों के अभिलेखों को रखना।
  32. केन्द्र या राज्य या विधिपूर्वक गठित अन्य संगठनों द्वारा जनगणना या अन्य सर्वेक्षणों में सहायता करना।
  33. संक्रामक रोगों की रोकथाम, टीकाकरण आदि कार्य में सहायता करना।
  34. अशक्त तथा निराश्रितों (महिला एवं बच्चों सहित) की सहायता करना।
  35. युवा कल्याण, परिवार कल्याण, खेलकूद का विस्तार करना।
  36. वृक्षारोपण एवं ग्राम वनों का संरक्षण।
  37. दहेज जैसी सामाजिक बुराईयों को दूर करना।
  38. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग की दशा सुधारने के लिए एवं अस्पृश्यता निवारण के लिए राज्य सरकार या अन्य सक्षम पदाधिकारी के आदेशों का कार्यान्वयन।
  39. बुनियादी सुविधाओं के लिए योजना बनाना एवं उसका प्रबंध करना।
  40. अपंग महिलाओं/बच्चों की सहायता करना।
  41. पंचायत समिति, जिला परिषद के द्वारा सौंपे गए कार्य को करना।
  42. ग्राम सभा क्षेत्र के भीतर यथाविनिर्दिष्ट स्कीमों एवं कार्य को क्रियान्वित करना तथा उनका पर्यवेक्षण करना।
  43. राज्य सरकार द्वारा इस अधिनियम या राज्य में तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन सौंपे गए अन्य शक्तियों तथा कृत्यों का पालन करना।
  44. ग्राम सभा, ग्राम पंचायत के कृत्यों संबंधित किसी विषय पर विचार करने के लिए स्वतंत्र होगी तथा ग्राम पंचायत इनकी सिफारिशों को तत्समय प्रवृत्त नियमों के आलोग में कार्यान्वित करेगी। धारा 10(7).
  45. धारा 10(1)(क) तथा धारा 10(5) में ग्राम सभा के वर्णित कृत्य तत्समय प्रवृत्त सरकार के अधिनियमों/नियमों एवं उनके क्षेत्राधिकार को प्रभावित नहीं करेगी। धारा 10(8).
  46. राज्य सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा ग्राम सभा को सौंपे गये कृत्यों में तथा कर्त्तव्यों में वृद्धि कर सकेगी (या उन्हें वापस ले सकेगी)। धारा 10(9).

क्या अनुसूचित क्षेत्र के ग्राम सभाओं को धारा 10(प)(क) में दिये गये 43 शक्तियों के अलावा अतिरिक्त शक्तियाँ और कर्त्तव्य दिया गया है? हाँ धारा 10 उपधारा (अ) में निम्न अतिरिक्त शक्तियाँ दी गई हैं:-

  1. आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान एवं सामाजिक संपत्तियों एवं विवादों को, अपने परंपराओं एवं रूढ़िगत तरीकों से भी संवैधानिक कानून के विरूद्ध न हों, सुरक्षित एवं संरक्षित करना एवं आवश्यक्ता अनुसार ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद एवं राज्य सरकार के समक्ष अपने परंपरा एवं रूढ़िगत विषयों पर प्रस्ताव प्रस्तुत करना। धारा 10(5)(प).
  2. ग्राम सभा क्षेत्र के भीतर के प्राकृतिक स्रोतों को, जिनके अंतर्गत भूमि, जल तथा वन आते हों, अपनी परंपरा सम्यक ध्यान रखते हुए, प्रबंधन कर सकेगी। धारा 10(5)(पप).
  3. ग्राम सभा क्षेत्र के अंतर्गत जो सभी सरकारी योजनाओं (जनजातीय उप योजना सहित) के आय-व्यय की निगरानी कर सकेगी।
  4. जो कार्य या शक्तियाँ राज्य सरकार द्वारा विधिवत्‌ सौंपी जायेगी, उनका पालन या प्रयोग कर सकेगी।
  5. ग्राम सभा, ग्राम पंचायत के माध्यम से ग्रामों के बाजारों तथा मेलों का, जिसमें पशु मेला सम्मिलित है चाहे वे किसी नाम से जानी जाय, प्रबंध करेगी।
  6. धारा (1)(क) में विनिर्दिष्ट कृत्य तथा धारा 10(5) में वर्णित अनुसूचित क्षेत्र में ग्राम सभा की अतिरिक्त शक्तियों एवं कृत्यों के अलावा राज्य सरकार समय-समय पर अनुसूचित क्षेत्र में ग्राम सभा को अन्य अतिरिक्त शक्तियाँ तथा कृत्य निर्धारित कर सकेगी।

वनाधिकार कानून

ब्रिटिश हुकुमत आने से पूर्व जंगल वन समुदायों की सामुहिक संपत्ति थे। लेकिन 1865 के वन विभाग के गठन के बाद सभी अधिकारों को ब्रिटिश हुकुमत ने अपने अधीन कर लिया। जैसे-जैसे उनके व्यापार का विस्तार होता गया वैसे-वैसे वनों पर उनका अतिक्रमण भी बढ़ता गया। स्थानीय लोगों के हक-ओ-हकूक रियायतों में तब्दील हो गये। अंग्रेजी हुकुमत ने वनों में एक नयी प्रथा को कायम किया। उसने जिस तरह से भूमि संबंधों को बदलकर जमीनदारी प्रथा को कायम किया, उसी प्रकार वनों में ठेकेदारी प्रथा को भी कायम किया। वनों में रहनेवालों को मालिक से नौकर बनाकर उन्हें सस्ते मजदूर में तब्दील कर दिया गया। आजादी के पहले से ही आदिवासी और अन्य वन समुदाय अपने ही वासस्थल पर अतिक्रमणकारी बना दिये गये।

उद्योगीकरण के लिए कच्चेमाल की जरूरत को पूरा करने के लिए वनों का विभिन्न तरह से दोहन करने और इसके लिए अंग्रेजी हुकुमत को सस्ते मजदूरों की जरूरत थी। उन्हें वनों की कटाई, ढुलाई, फायर लाइनों की सफाई, वनों को आग लगने से बचाने, वानिकी और सड़क बनाने आदि काम करवाते थे। इन सभी कामों के लिए बड़े पैमाने पर सस्ते मजदूरों की आवश्यक्ता थी। औद्योगिकरण के लिए इमारती पेड़ों की भी जरूरत थी। अपनी इन जरूरतों को पूरा करने के लिए वन विभाग के बहुत से वन क्षेत्रों में कई तरह के वनगांव बनाये। वनगांवों में रहने वाले समुदायों के श्रम को वन विभाग ने कभी मान्यता नहीं दी। आजादी के बाद भी वनगांवों के लिए कोई श्रम कानून नहीं बना। इसलिए वनों के अंदर आज तक बेगारी प्रथा कायम थी। कुछ वनक्षेत्रों में तो वहाँ रहनेवाले समुदायों को वन में रहने के एवज में वन विभाग में टैक्स देना पड़ता है, जो अनाज एवं घरेलू उत्पाद के रूप में दिया जाता है। जिन लोगों ने यह नजराना देने से इंकार किया, या अपना हक जताने की कोशिश की, उन्हें वहां से बेदखली का सामना करना पड़ा।

जंगल से आदिवासियों की बेदखली का इतिहास बहुत पुराना है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खात्मे से भी यह परिघटना नहीं रूकी। वन और वनोपज पर अपना हक जताने और उसे मनवाने के लिए इन समुदायों का लम्बा संघर्ष करना पड़ा। अंततः अपने ऐतिहासिक संघर्ष एवं दृढ़ संकल्प से उन्होंने दमन के दौर को पलटा। 2005 में पारित हुआ वनाधिकार कानून एक ऐसी उपलब्धि है जो दुनिया भर के उत्पीड़ित और वंचित तबकों के लिए एक विशेष प्रसांगिकता रखती है। वनाधिकार कानून के अंतर्गत वह आदिवासी व्यक्ति या समुदाय जो 25 सालों से अपनी जीविका के लिए जंगल पर निर्भर रहा हो, वह दावा पेश कर अधिक से अधिक 10 एकड़ तक की भूमि प्राप्त कर सकता है। वन पर निर्भर रहनेवाला गैर आदिवासी के बारे में यह समय 75 साल का है।

वनाधिकार कानून पर अमल - वनाधिकार कानून के लागू होने में जमीनी तौर पर कई समस्याएँ हैं। लाखों हेक्टेयर वनभूमि और वन जो वन विभाग, भू-माफिया, पूंजीपतियों, सरकारी अफ्सरों एवं नेताओं के नियंत्रण में हैं। उनको अब इस कानून के तहत वास्तविक रूप में समुदायों के हाथ सौंपा जाना है लेकिन यह काम आसान नहीं है। क्योंकि जंगल पर नियंत्रण बड़े स्वार्थी तत्व के लोगों का है। दूसरी बात यह है कि यह कानून लोगों को लाभार्थी नहीं बनाता जो सरकार बनाना चाहती है। यह कानून लोगों को प्राकृतिक संसाधनों पर धरोहरी बनाता है। असल में सरकारों की यही कोशिश रही है कि लोग कभी भी उत्पादन के साधनों के स्वतंत्र मालिक न बन सकें। इस कानून में सरकार और प्रशासन का पूरा जोर व्यक्तिगत अधिकारों एवं उसके लिए 75 साल के प्रमाणपत्र पर केन्द्रीत करने पर है। इस तरह इस कानून के मूल उद्देश्य - सामुदायिक अधिकार को ही पूरी तरह नजरअंदाज करने की है।

कानून पर प्रभावी ग्राम सभा -

यह पूरी तरह नहीं कही जा सकती है कि सरकार इस कानून को पूरी तरह लागू नहीं कर रही है। मगर यह कहा जा सकता है कि इस कानून को लागू होने में बहुत सारी बाधाएँ मौजूद हैं। इसी कारण अमल करने के मामले में राज्यस्तरीय स्थिति जटिल होती जा रही है। जिसमें जनसंगठनों का दखलांदाजी बहुत जरूरी है। क्षेत्रीय स्तर पर भी बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं। उनमें एक खास बात यह है कि गांवों में पंचायत का मौजूदा ढाँचा वनाश्रित समुदायों की वनाधिकार समिति को प्रतिद्वंदी के हिसाब से देख रहा है। यह पहला ऐसा कानून है जिसमें कानून को पालन कराने की सारी शक्ति ग्राम सभा को दी गयी है। देखा जाए तो इस कानून में ग्राम सभा को ही अधिक शक्तियाँ दी गयी हैं। लेकिन उसे सरकारी तंत्र और शक्तिसम्पन्न नौकरशाही मजबूत नहीं होने देना चाहती। क्योंकि उन्हें जनता के अधीन होने का खतरा है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि दावों का सत्यापन ग्राम सभा के जरिये ही होगा जिसका अनुमोदन केवल अनुमंडल स्तरीय समिति और अंत में जिला स्तरीय समिति करेगी। पर इन दोनों ही समितियों को दावों का खारिज करने का अधिकार नहीं है। वे केवल विवादास्पद दावों में ही हस्तक्षेप कर सकती हैं। इस कानून ने सरकारी तंत्र से अधिपात्य छीन लिया है और इस बात को आत्मसात किया जाना बेहद जरूरी है लेकिन सरकारी विभाग ऐसा करना नहीं चाहते।

भूमि अधिग्रहण कानून

झारखण्ड में यह परंपरा थी कि गांव का मुखिया नहीं होता था जो गांव बसाता था। गांव का जीवन सामुहिक था। गांव की जमीन पर गांव समाज की मालिकी थी। जमीन किसी व्यक्ति के नाम पर नहीं होता था। अंग्रेजों की जो औपनिवेशिक सरकार थी उसने भूमि की लूट के लिए भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 बनाया। इस कानून के तहत भी जमीन अधिग्रहण करने में काफी दिक्कतें थीं क्योंकि जमीन पूरे गांव की होती थी। इसलिए अंग्रेजों ने कूटनीति चाल के तहत स्थायी बंदोबस्ती कानून 1993 बनाया जिससे गांव टूटा और व्यक्तियों को जमीन के अधिकार मिले। अब प्रलोभन देकर जमीन का अधिग्रहण करना सरल हो गया था।

खान उद्योग फौजी फायरिंग और बड़े बांध जैसे परियोजनाओं से सबसे अधिक आदिवासी प्रभावित होते हैं। इसके चलते वे अपनी परंपरागत जमीन, अपने जंगल, अपने वातावरण से कट जाते हैं और विडम्बना यह है कि सबकुछ इनके विकास के नाम पर और देशहित में किया जाता है। 1960 से 1980 के दौरान झारखण्ड में 22.5 लाख आदिवासी भूमि को ऐसे ही परियोजनाओं की बलि चढ़ा दिया गया। 1990 के बाद भूमण्डलीकरण के अर्थशास्त्र ने संसाधन बहुल झारखण्ड में हितों के संघर्ष को और तीखा कर दिया है। सारे देश और खासतौर पर झारखण्ड के आदिवासियों को सामाजिक न्याय और उनके अधिकारों से वंचित रखने की कहानियाँ चारों तरफ सुनाई देने लगी हैं। इसी क्षेत्र में कोई 200 साल पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशी आये थे जिनके खिलाफ सिदो-कान्हू, तिलका मांझी और बिरसा मुंडा जैसे लड़ाकों ने संघर्ष किया था। उसकी प्रतिध्वनि आज भी हमें इन इलाकों में दिखाई देती है। झारखण्ड प्रान्त की स्थापना का मूल उद्देश्य आदिवासियों के मूल अधिकारों की रक्षा करने के लिए ही हुआ था लेकिन अबतक कुर्सी में बैठे सभी मुखयमंत्रियों ने आदिवासियों के प्रति अपनी उदासीनता का ही परिचय दिया है।

हालांकि यहाँ छोटानापुर टेनेन्सी एक्ट और संताल परगना टेनेन्सी एक्ट लागू है। इस एक्ट के तहत अंधाधुंध जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। इस एक्ट के ऊपर भी आप जमीन अधिग्रहण का कोई कानून नहीं बना सकते हैं। ये विशेश कानून हैं जिसपर सामान्य कानून लागू नहीं हो सकता है। छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट के धारा 70 के तहत पारंपरिक रीति-रिवाज का वर्णन किया गया है। अब यदि सरकार को जमीन का अधिग्रहण करना है तो ग्राम सभा से सलाह लेना आवश्यक हो गया है।

साक्षात्कार-1

पी.एन.एस. सुरीन - (पूर्व जिला पंचायत राज पदाधिकारी, शाहाबाद) यहाँ पर सुरीनजी से की गयी बातचीत का प्रमुख अंश छापा जा रहा है।

पेसा अधिनियम में अनुसूचित क्षेत्र के लोगों की परंपरा, सामाजिक और धार्मिक पद्धतियों तथा उनकी सांस्कृतिक पहचान आदि को बचाये और बनाये रखने की व्यवस्था है। इन्हीं पर आधारित पंचायत राज व्यवस्था बनाने का निर्देश पेसा में दिया गया है। सामान्य क्षेत्र की पंचायत राज व्यवस्था की संरचना आदिवासी परंपरा के लिए बाहरी व्यवस्था है। उन्होंने कहा कि सामान्य क्षेत्र के लिए बनी पंचायत राज व्यवस्था को रूपांतरित करते हुए अनुसूचित क्षेत्र के लोगों की परंपरा की नींव पर पंचायत राज व्यवस्था बनाकर लागू करना ही संवैधानिक निर्देश है किन्तु झारखण्ड सरकार ने ऐसा न कर सामान्य क्षेत्र के पंचायत राज व्यवस्था को ही मूल रूप में अनुसूचित क्षेत्र में थोपने की व्यवस्था झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 में किया है। जिसे लागू करने से आदिवासी समुदायों की सामाजिक और धार्मिक पद्धतियाँ, परंपरा, कस्टमरी लॉ, सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संपदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियाँ नष्ट हो जाएंगी। इसी कारण झारखण्ड सरकार ने पेसा की धारा 4 में वर्णित सभी 22 प्रावधानों को लागू नहीं किया है ताकि राज्य सरकार आदिवासियों को सामुदायिक या प्राकृतिक संपदा को मनमानी ढंग से लूट सके।

उन्होंने कहा कि पेसा के अधिकार प्रावधानों जैसे भू-अर्जन और विस्थापन के पहले ग्राम सभा और ग्राम पंचायतों से परामर्श, लघु खनिज पदार्थों के खनन, माइनिंग लिज के लिए सिफारिश, शराब पर नियंत्रण, लघु वनोपज पर मालिकाना हक, भूमि की खरीद-बिक्री पर रोक, भूमि वापसी का हक, साहकारी पर नियंत्रण करने का हक, सामाजिक सेक्टर की संस्थाओं और उनके कर्मचारियों पर नियंत्रण रखने का हक, छठी अनुसूची के पैटर्न पर जिला परिषद्‌/जिला काउंसिल द्वारा काम करने की व्यवस्था करने आदि विषयों पर झारखण्ड विधानसभा/सरकार पेसा द्वारा अपेक्षित शक्ति और अधिकार देने का बावत झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में कोई व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार के दोषपूर्ण और आपत्तिजनक तथा परस्पर विरोधी झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम के बनवाने और लागू करने का श्रेय पूर्व मुखयमंत्री बाबूलाल मरांडी और उसके बादी श्री अर्जुन मुण्डा सरकार को जाता है। श्री मरांडी ने इस कानून को विधानसभा में बिना बहस कराये पारित कराया था और यह काम श्री इंदरसिंह नामधारी (स्पीकर) की अध्यक्षता में हुई थी।

साक्षात्कार-2

ग्राम सभा की शक्तियाँ और उसके कार्य

(बंदी उराँव से बातचीत पर आधारित आलेख)

झारखण्ड में 1978 से ही पंचायत चुनाव नहीं हो रहे थे। पंचायत विकास की राशि पूर्व मुखियाओं, प्रखंड विकास पदाधिकारियों और ठेकेदारों के द्वारा हड़पी जा रही थी। इस भ्रष्टाचार को मिटाने और अनुसूचित इलाकों में नये किस्म की पंचायत व्यवस्था लाने के लिए 1996 में पेसा कानून का निर्माण किया गया। झारखण्ड 2001 में झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 बनाया गया जिसमें पेसा के तहत दिए गए कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को सम्मिलित नहीं किया गया जिसके लिए हमारी लड़ाई जारी रहेगी। झारखण्ड राज पंचायत अधिनियम 2001 में जो भी अधिकार प्रदान किए गए हैं संक्षेप में उनकी चर्चा करना चाहता हूँ।

पूर्व में गाँवों के विकास के लिए योजनाएँ दिल्ली, राँची, जिला मुखयालय और प्रखंड से बनकर आती थी। उन योजनाओं से ग्रामीणों का सहमत होना जरूरी नहीं था। लेकिन जब से पेसा कानून बनायी गयी है तब से यह प्रक्रिया ही उलट दी गयी है। अब योजनाओं की पहचान और चयन खुद ग्राम सभा करेगी। ग्राम पंचायत के स्तर पर होने वाली सभी सामाजिक और आर्थिक विकास की योजनाओं का कार्यान्वयन होने के पूर्व उसका अनुमोदन ग्राम सभा ही करेगी। इतना ही नहीं, ग्राम सभा जो वार्षिक अंकेक्षित रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी, उसमें भी ग्राम सभा विचार करेगी। गरीबी उन्मूलन के लिए लाभुकों की पहचान भी अब ग्राम सभा करेगी तथा उन लाभुकों को दिए गए संपत्तियों की देख-रेख का जिम्मा भी अब इन्हीं लोगों को प्राप्त है। ऐसा करने से भ्रष्टाचार पर लगान लग पाएगा।

हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि यहाँ के लोगों की आजीविका जल, जंगल, जमीन, गौण खनिज, लघु वनोपज, कुआ, तालाब, सड़क, आदि पर निर्भर है। अब इन परिसंपत्तियों का निर्माण और देखरेख की जिम्मेवारी भी ग्राम सभा को प्राप्त है। अब ग्राम सभा सार्वजनिक स्थलों का निर्माण, दूकानों, पेय पदार्थों, फलों, सब्जियों, हाट-बाजारों, मेलों एवं अन्य वस्तुओं के विक्रेताओं के लिए नियम-कानून बना सकेगी। यानी ग्राम सभा सभी प्रकार की बुनियादी सुविधाओं के लिए योजना बना सकेगी और उसका प्रबंधन करने में भी सक्षम होगी।

उपर्युक्त बुनियादी सुविधाओं के अलावे जो धारा 10(प)(क) में दिए गए हैं, ग्राम सभाओं को और भी अतिरिक्त शक्तियाँ और कर्त्तव्य धारा 10 उपधारा (अ) के अंतर्गत प्रदान किए गए हैं। आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान एवं सामाजिक संपत्तियों एवं विवादों को अपने परंपरागत तरीके से निपटाने और सुरक्षित रखने का अधिकार है। उसे गाँव के सीमा के भीतर के प्राकृतिक स्रोतों को अपनी परंपरा के अनुसार प्रबंध करने का अधिकार है। आज तक आदिवासी उप योजना में जितनी भी राशि आती है, उसका समुचित उपयोग आदिवासी इलाकों के लिए नहीं की जाती है। बहुधा उसकी राशि दूसरे मदों में खर्च कर दी जाती है और उसका हिसाब-किताब भी कोई नहीं लेता है। अब ऐसा नहीं हो पाएगा। सभी सरकारी योजनाओं के आय-व्यय की निगरानी अब ग्राम सभा कर पाएगी। ग्राम सभा, ग्राम पंचायत के माध्यम से गाँव के बाजारों-मेलों-पशु मेलों का प्रबंध कर सकेगी।

ये वे अधिकार हैं जो झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 ने दिया है। पेसा कानून की तुलना में ये अधिकार बहुत ही कम हैं। लेकिन इन अधिकारों की जानकारी भी ग्राम सभा के सदस्यों, वार्ड सदस्यों और ग्राम प्रधानों को नहीं है। सरकार को पंचायतों में कार्यशालाओं के माध्यम से इन अधिकारों की जानकारी लोगों को देनी चाहिए। अगर सरकार जागरूकता फैलाने में पहलकदमी न ले तो गैर सरकारी संगठनों को यह काम करना चाहिए।

(श्री बंदी उराँव एस टी)

(एस सी कमिशन के

वाइस चेयर पर्सन रह चुके हैं)

साक्षात्कार-3

ग्राम सभा और हाल में बने कानून

(बंधु तिर्की से बातचीत पर आधारित आलेख)

एक लम्बे अरसे के संघर्ष के बाद झारखण्ड में पंचायत चुनाव सम्पन्न हुए हैं। पंचायत रूल्स बनाने में सरकार ने लगभग 5 साल का समय लिया फिर भी वह पेसा कानून के संगत पंचायत रूल्स नहीं बना सका। यह असल में संवैधानिक कानून का उल्लंघन है। परिणामस्वरूप पंचायत के चुने हुए प्रतिनिधियों को और साथ-साथ ग्राम सभाओं को पेसा कानून के तहत दिये गए ज्यादा अधिकारों से वंचित रहना पड़ा।

ग्राम सभा की हमारी यह परंपरा नयी नहीं है। आदिवासी समाज और उसके साथ सदियों से जीवनयापन करने वाली मूलवासी समुदाय हजारों वर्षों से ग्राम सभा करते आए हैं। आपसी झगड़ों के समाधान से लेकर सामाजिक रीति-रिवाजों के निपटारे में ग्राम सभा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह ग्राम सभा समाज के रीति-रिवाजों एवं परंपराओं का सम्मान करती है। कई विपरित परिस्थितियों के बावजूद आज भी यह कई समुदायों में जीवित है। जिन समुदायों में यह जिंदा है, आज वहाँ भी उनका परंपरागत शासन व्यवस्था चलती है। इसी शासन व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सरकार ने ग्राम सभा को कई अधिकार दिए हैं। ग्राम सभा के बीच शक्ति को विकेन्द्रित करने से लोकतंत्र का सही विकास होगा। लेकिन मूल शक्ति-जमीन संबंधी अधिकार को झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम में सम्मिलित ही नहीं किया गया है। इससे साफ जाहिर है कि सरकार समुदाय के हाथ से जमीन लेकर कारपोरेट घराने को देना चाहती है। लेकिन अभी भी गाँव समाज मजबूत है। अभी तक ग्राम सभाओं ने दर्जनों एमओयू को संघर्ष के बल पर रोककर रखा है।

मनरेगा ग्रामीण इलाकों के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है जिसके अंतर्गत अकुशल मजदूरों को काम मांगने पर 100 दिन का काम दिये जाने का प्रावधान है। जितने लोगों को काम दिया जाएगा उनमें से कम से कम एक तिहाई महिलाएँ होनी चाहिए। सबसे मजेदार बात यह है कि काम अपने पंचायत में ही मिलेगा। लेकिन ग्राम सभा की कमजोरी के कारण इस कानून के रहते हजारों महिलाएँ रोजगार के लिए बाहर पलायन कर रही हैं जहाँ उन्हें न तो उचित मजदूरी और सुरक्षा ही मिल पाती है।

वनाधिकार कानून को ही देखिए। इस कानून के अंतर्गत दावेदारों को 10 एकड़ तक वनभूमि मिल सकती है। और इसकी पूरी शक्ति ग्राम सभा को दी गयी है। लेकिन कितने लोगों को वनभूमि का इस्तेमाल करने का मौका मिला? ग्राम सभा के लोग अपने अधिकार नहीं जानने के कारण घूस देकर कागज बनवा रहे हैं।

सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बारे में ग्राम सभा को कितनी जानकारी है? राशन की दूकान, अन्त्योदय अन्य योजना, मध्याह्न भोजन योजना, आंगनबाड़ी केन्द्र, राष्ट्रीय वृद्ध पेंशन योजना, अन्नपूर्णा योजना, राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना की देख-रेख की जिम्मेवारी ग्राम सभा को प्राप्त है। लेकिन ये योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी हैं। सूचना के अधिकार कानून को प्रयोग भी लोग नहीं करते। ऐसी परिस्थिति में भ्रष्टाचार पर लगाम कैसे लगेगा?

(लेखक झारखण्ड विधान सभा के सदस्य हैं)।

स्त्रोत : ग्राम स्वराज अभियान के सदस्यगण

अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



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