भारत की अधिकांश शाकाहारी जनसंख्या के लिए प्रोटीन का एक अंतर स्रोत दलहन ही है। अनाज पर आधारित भोजन में दलहन सम्मिलित करने पर पोषकयुक्त सन्तुलित आहार उपलब्ध होने की अपार संभावनाएं है। औसत रूप से दालों में 20-25% तक प्रोटीन पाई जाती है, जो कि अनाज वाली फसलों की तुलना में 2.5-3.0 गुना अधिक होती है। प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता बढ़ाने हेतु अन्य दलहनों के साथ – साथ चना की उत्पादकता एवं उत्पादन बढ़ाने के लिए एकीकृत प्रयास करने की आवशकता है, जिसे पोषण सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। चना की खेती करने से मानव के लिए प्रोटीन एवं पशूओं हेतु उच्च गुणवत्ता युक्त (प्रोटीन युक्त चारे की उपलब्धता भी होती है। चना उगाने से भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है एवं यह टिकाऊ कृषि में सहायक होती है। चना या अन्य दलहन उगाने से भूमि की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणवत्ता में वृद्धि होती है, साथ ही चना की जड़ों में पाई जाने वाली ग्रंथियों में राइजोबियम जीवाणु वायूमंडल नत्रजन स्थिरीकरण करके पौधों को उपलब्ध कराता है जो एक लघु नत्रजन फैक्ट्री के रूप में कार्य करता है चना की जड़े भूमि में वायुवीय संचार को बढ़ाने में भी सहायक होती है। अधिक पैदावार वाली एवं सूखा सहन करने वाली किस्में आने से चना अनाज के साथ तिलहन फसल प्रणाली में संगत रूप से उपयुक्त है। जिससे किसानों की कुल आय एवं उत्पादकता में वृद्धि संभव है। मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में चना की उत्पादकता बढ़ाने की अपार संभावनाएँ हैं और वह भी खासकर बुंदेलखंड क्षेत्र में। इस क्षेत्र में सिंचाई के संसाधन नगण्य या कम होने के कारण किसानों को विवश होकर चना या अन्य दलहन जैसे मसूर, मटर आदि की खेती करनी पड़ती है। चना की फसल को पानी की कम आवश्यकता होती है, अत: यह फसल किसनों के लिए अधिक लाभकारी भी है। बुंदेलखंड क्षेत्र में चना की खेती को बढ़ावा देकर उत्पादन बढ़ाने की अपार संभावना है एवं उच्च कोटि की उत्पादन तकनीकी अपनाकर अधिकतम उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त चना की खेती अंत: फसल, सघन फसल चक्र, गैर मौसमी खेती एवं अपारंपरिक क्षेत्रों में करके उत्पादन में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। इसके अलावा निम्नलिखित महत्वपूर्ण उपाय या तकनीकियों के द्वारा उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है-
क. जैवीय एवं अजैवीय स्वराघात के कारकों से बचाव करके
ख. विविध रोग एवं कीट रोधी प्रजातियाँ उगाकर
ग. सूखा सह्य लघु अवधि वाली प्रजातियाँ उगाकर
घ. नमी संरक्षण के उपाय अपनाकर
ङ. उच्च कोटि की उत्पादक तकनीकियों को अपनाकर
च. एकीकृत कीट एवं रोग प्रबंधन अपनाकर।
छ. अच्छी कृषि क्रियाएँ अपनाकर, इत्यादी।
बुन्देलखंड में कृषि क्षेत्र बारानी, विविध, जटिल, कम पूँजी लागत, जोखिम से भरपूर एवं अतिसंवेदनशील है। इसके अलावा प्रचंड मौसम, सूखा अकाल, अल्पकालिक वर्षा एवं बाढ़ इत्यादि कृषि की अनिश्चितता को और बढ़ा देती हैं। यहाँ के अर्द्धशुष्क क्षेत्र में पानी की कमी, बंजर भूमि एवं कम उत्पदकता जैसे कारक खाद्य सुरक्षा को और कमजोर कर देते हैं।
बुंदेलखंड क्षेत्र भारत के मध्य में स्थित है जिसके उत्तर में गंगा का मैदानी क्षेत्र है एवं दक्षिण व पश्चिम भाग में विंध्याचल की पहाड़ियां फैली हुई हैं। बुंदेलखंड का कुल भौगोलिक क्षेत्र लगभग 70.8 लाख हेक्टेयर है। इसकी भौगोलिक स्थिति 230 20’ एवं 26020’ उत्तरी अक्षांश एवं 780
20’ एवं 81040’ पूर्वी देशांतर है।
बुंदेलखंड क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के सात जिले (बाँदा, जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर, महोबा एवं चित्रकूट) एवं मध्य प्रदेश के छ: जिले (छत्तरपुर, दमोह, दतिया, पन्ना, सागर एवं टीकमगढ़) आते हैं यह क्षेत्र भारत के केन्द्रीय पठार एवं पहाड़ी कृषि जलवायु क्षेत्र के अंतर्गत आता है। मुख्यत: यह क्षेत्र छोटी पहाड़ियों, टीलों, घाटियों दर्रों से अच्छादित है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र की मृदाएँ मुख्य रूप से लाल (राकड़ एवं परवा) एवं काली (मार एवं काबड़) हैं। राकड़ मृदाओं की संरचना हल्की, कार्बनिक पदार्थ की कमी, जल भराव क्षमता की एवं नत्रजन तथा फॉस्फोरस की कमी पाई जाती है। जबकि पड़वा मृदाओं की संरचना माध्यम, जिसकी गहराई 40-75 से.मी. तक होती है, जल निकास अच्छी तरह से होता है एवं नमी संग्रहण क्षमता 100-150 मि. मी. प्रति मीटर तक होती है। हालाँकि परवा मृदाओं में भी नत्रजन एवं फॉस्फोरस की कमी पाई जाती है। इसी तरह मार मृदाएँ निर्जलीकरण एवं आर्द्रतावास्था में फूलती एवं सिकुड़ेती हैं। काबड़ मृदाओं की संरचना खुरदरी गहरी एवं जल ग्रहण क्षमता अधिक होती है। दूसरी तरफ मध्य प्रदेश के अंतर्गत बुंदेलखंड क्षेत्र की मृदाएँ मिश्रित लाल एवं काली होती हैं। इन मृदाओं के पी.एच. मान 8.2 से 8.5 तक, कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा थोड़ी अधिक (4-5%), उपलब्ध नत्रजन माध्यम एवं उपलब्ध फॉस्फोरस अधिक होता है।
बुंदेलखंड की जलवायु उपाद्र होती है। यहाँ गर्मियों में अधिकतम तापमान 42-450 सेंटीग्रेड एवं सर्दियों में न्यूनतम तापमान- 6-80 सेंटीग्रेड होता है। इस क्षेत्र में फसल उत्पादन मुख्यता: वर्षा आधारित ही होती है। सिंचाई के संसाधनों की कमी है, फिर भी सिंचाई मुख्य रूप से नहर, नलकूप एवं तालाबों द्वारा की जाती है। इस क्षेत्र में सिंचाई के निश्चित संसाधन नहीं होने के कारण फसल की मुख्य, रूप से नहर, नलकूप एवं तालाबों द्वारा की अति है। इस क्षेत्र में सिंचाई की निश्चित संसाधन नहीं होने के कारण फसल की मुख्य वृद्धि अवस्था में नमी की होने लगती है एवं पैदावार पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
उत्तर प्रदेश के तीन जनपदों (हमीरपुर, बाँदा एवं चित्रकूट) को ट्रोपिकल लिगम -3 परियोजना में सम्मिलित करके किसानों को चना की उन्नतशील प्रजातियाँ एवं उत्पादन तकनीकियों के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है। इससे किसानों को चना की फसल से अधिकतम उत्पादन मिलेगा। साथ ही चना की विभिन्न प्रजातियों (जे.जी.14, जे. जी. 16, एन.वी.ई.जी. 47, जाकी 9218, शुभ्रा, उज्ज्वल, आदि) का बीज भी किसानों को उपलब्ध कराया जा रहा है ताकि किसान स्वयं अपनी रुचि के अनुसार प्रजातियों का चयन कर सकें।
बुन्देलखंड क्षेत्र में फसल उत्पादन एवं उत्पादकता को प्रभावित करने वाले प्रमुख अवरोध करी तत्वों को संक्षिप्त रूप में नई, निम्न प्रकार से वर्णित किया जा सकता है –
क) मृदा में नमी कम होने के कारण चना उत्पादकता में कमी होती है। हल्की मृदा में जल वाष्पोत्सर्जन की अधिकता एवं भारी मिट्टी में जल किस समस्या भी चना की उत्पदकता में कमी लाने का कारण है।
ख) अच्छी वर्षा होने के बावजूद भी मृदा में नत्रजन, फॉस्फोरस एवं सल्फर की कमी होने के कारण पैदावार में कमी होती है। पोषक तत्वों की कमी के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति भी कम कम होती है, जिसे पैदावार पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
ग) विशेषत: हल्की कछारी, मिश्रित लाल एवं काली मिट्टी में मृदा पपड़ी बन जा जाती है, जो धीरे- धीरे सख्त हो जाती है एवं बीज अंकुरण तथा पौधे की वृद्धि को प्रभावित करता है। जिससे पौधों की औसत संख्या में कमी हो जाती है एवं परिणामस्वरूप उत्पादकता में कमी आती है।
घ) अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जहाँ की मिट्टी में काली होती हैं वहाँ पर मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं एवं जल निकास प्रभावित होता है, जिससे पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है एवं पैदावार में कमी आती है।
ङ) जल एवं मृदा संरक्षण उपायों का अभाव एवं वर्षा जल दोहन संरचनाएं जैसे- ताल, तालाब, कूएँ इत्यादि की अपर्याप्तता होना भी एक प्रमुख कारण है।
च) कृषि यंत्रों एवं मशीनरी जैसे – जुताई, अंत सस्य, बुवाई, कटाई, मढ़ाई इत्यादि का कम प्रयोग करना।
छ) उन्नत किस्मों के बीज की उपलब्धता में कमी। बीज विस्थापन दर का लक्ष्य 25-30% होना चाहिए।
ज) बुंदेलखंड क्षेत्र में उच्च उत्पादक किस्मों के क्षेत्रफल में कमी। चना की बीज प्रतिस्थापना दर 15% से भी कम है।
झ) उर्वरक प्रयोग, राष्ट्रीय औसत (90 कि.ग्रा./हे.) से काफी कम (30 कि.ग्रा./हे.) है बुंदेलखंड में उर्वरक प्रयोग खरीफ ऋतू में 10 कि.ग्रा. /हे. एवं रबी में 60 कि. ग्रा. /हे. है। सूक्ष्म तत्वों का प्रयोग नगण्य ही है।
ञ) चना में शुष्क जड़गलन रोग के प्रबंधन के अपर्याप्त उपाय प्राय: फसल को काफी नुकसान पंहुचाते हैं।
त) चना में फली भेदक कीट के प्रबंधन हेतु एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन की अपर्याप्त जानकारी।
थ) कीट एवं रोगाणुओं का चना को अधिक पसंद करना भी एक जैविक अवरोधक है। जिससे अनाज एवं तिलहन की तुलना में कीट एवं व्याधियों का अतिक्रमण अधिक होता है।
द) चना के पकते समय अधिक तापमान एवं नमी की कमी होने से खाली फलियाँ अधिक बनती हैं, फलस्वरूप पैदावर में कमी आती है।
ध) फसल के सफल होने की अनिश्चितता बनी रहना, इत्यादि।
चना (साइसर एराईटिनम एल.) को देश के विभिन्न हिस्सों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है जैसे- चना, चनी, छोला इत्यादि। चना उत्पादन एवं क्षेत्रफल में भारत अग्रणी राष्ट्र है। वर्ष 2013-14 में कूल दलहन उत्पादन (192.5 लाख टन) का लगभग 49.51% (95.3 लाख टन) चना का हिस्सा है। चना की खेती मुख्य रूप से सर्दी के मौसम में की जाती है। यह भारत के विभिन्न हिस्सों के सिंचित एवं असिंचित क्षेत्रों में की जाती है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्णाटक, उत्तर प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, हरियाणा एवं बिहार इन 11 राज्यों में चना का 99% उत्पादन होता है।
देश के कुल चना उत्पादन (95.3 लाख टन) का लगभग 4.98% उत्पादन उत्तर प्रदेश (04.751) लाख टन) एवं 34.62% मध्य प्रदेश (32.99 लाख टन) का है इसी तरह 30.67% चना उत्पादन बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश (1.457 लाख टन) के जिलों से एवं लगभग 7.95%
तालिका 1: चना उत्पादन एवं क्षेत्रफल: एक दृष्टि
(20.13 – 14)
क्षेत्र |
क्षेत्रफल (लाख हे.) |
उत्पादन (लाख टन) |
उपज (कि. ग्रा./हे.) |
भारत |
99.30 |
95.30 |
960 |
उत्तर प्रदेश |
5.77 |
4.75 |
824 |
बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश) |
3.96 |
1.45 |
401 |
बाँदा |
0.952 |
0.217 |
230 |
जालौन |
0.396 |
0.295 |
740 |
झाँसी |
0.549 |
0.156 |
290 |
ललितपुर |
0.191 |
0.087 |
460 |
महोबा |
0.613 |
0.251 |
410 |
हमीरपुर |
0.808 |
0.322 |
400 |
चित्रकूट |
0.451 |
0.126 |
280 |
मध्य प्रदेश |
31.60 |
32.99 |
1044 |
बुंदेलखंड खंड (मध्य प्रदेश) |
5.73 |
2.62 |
554 |
छत्तरपुर |
0.936 |
0.281 |
300 |
दमोह |
1.781 |
0.673 |
380 |
दतिया |
0.174 |
0.202 |
1160 |
पन्ना |
0.832 |
0.375 |
450 |
सागर |
1.810 |
1.041 |
580 |
टीकमगढ |
0.196 |
0.048 |
250 |
बुंदेलखंड (कुल) |
9.69 |
4.08 |
477 |
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र (2,622 लाख टन) से होता है। इस तरह बुंदेलखंड में चना का कूल क्षेत्रफल 9.69 लाख हेक्टेयर, उत्पादन 4.08 लाख टन एवं औसत उपज 477 कि. ग्रा. हे. है।
चना एक वर्षीय शाकीय पौधा है। इसकी ऊँचाई सामान्यत: 30 – 70 से. मी. तक होती है। इसकी जड़ें मूसला जड़ होती हैं। जो सामान्यत: भूमि में अधिक गहराई तक जाती हैं एवं मजबूत होती है। चना की जड़ ग्रंथियों में राईजोबियम नामक जीवाणु पाया जाता है, जो वायुमण्डलीय नत्रजन का स्थितिकरण करके पौधे को नत्रजन उपलब्ध कराता है एवं मृदा की उर्वरता में सुधार करता है। चना अपनी कुल नत्रजन आवश्यकता की 80% पूर्ति सहजीवी नत्रजन स्थिरीकरण प्रक्रिया द्वारा कर लेता है। चना अपने जीवन काल में 140 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हे. तक स्थिरीकरण कर सकता है। इस प्रकार आगामी फसल के लिए अवशिष्ट नत्रजन की संतोषप्रद मात्रा मृदा में रह जाती है। दूसरी ओर फसल अवशेष के रूप में कार्बनिक पदार्थ भी अच्छी मात्रा मिल जाता है। जिससे मृदा उर्वरता एवं मृदा स्वास्थय में सुधार होता है। चना की जड़ें अधिक होता है इससे जड़ों का अधिक विकास होता है एवं मृदा में जैविक हलचल बढ़ने से पोषक तत्वों की उपलब्धता भी बढ़ती है। चना की जड़ें गहरी होने के कारण मृदा की अधिक गहराई से नमी को ग्रहण करती हैं, जिससे पौधे की सूखा सहन करने की क्षमता बढ़ती है।
चना का उपयोग कई तरह से किया जाता है। जैसे- हरी पत्तियाँ एवं कोमल शाखाएँ हरी सब्जी के रूप में प्रयोग में लाई जाती है। कच्चे बीज या दाने सलाद या सब्जी के रूप में उपयोग किये जाते हैं। इसी तरह पके हुए दानों को दाल बनाने, भुना हुआ दाना बनाने इत्यादि प्रयोग में लाया जाता है। चना के आटे के बेसन बनाकर कई तरह की मिठाइयाँ एवं विभिन्न प्रकार की नमकीन बनाने में प्रयुक्त होता है। चना की पत्तियाँ, तना एवं चारा पशुओं को खिलाने के काम में लिया जाता है। चना का चारा प्रोटीन युक्त होता है एवं स्वादिष्ट होता है इसी कारण इसे पशु बड़े चाव से खाते हैं।
चना के दाने प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्रोत हैं। चना के दानों में युक्त अमीनो अम्ल के अलावा सभी आवश्यक अमीनो अम्लों की मात्रा बहुतायत में पाई जाती है। चना का मुख्य संग्राही कार्बोहाइड्रेट स्टार्च है, तत्पश्चात आहार रेशा, ओलिगोसेकेराइड एवं सामान्य शर्करा जैसे ग्लूकोज एवं सूक्रोज पाई जाती है। चना के दानों में कैल्शियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस एवं पोटाश भी पाया जाता है। कुछ महत्वपूर्ण विटामिन जैसे राइबोलेविन, नियासिन, थायमिन, फोलेट, बीटा केरोटिन (विटामिन ए) इत्यादि का भी अच्छा स्रोत है।
तालिका 2 : चना के दानों के 100 ग्राम शुष्कभार की पोषक गुणवत्ता
घटक |
मात्रा |
संगठन |
मात्रा |
प्रोटीन |
17.0 - 22.0 ग्रा. |
आयरन |
4.6 – 7.0 मि. ग्रा. |
स्टार्च |
33.1 - 40.4 ग्रा. |
जिंक |
2.8 – 5.10 मि. ग्रा. |
सूक्रोज |
1.56 – 2.85 ग्रा. |
कॉपर |
0.5 – 1.40 मि. ग्रा. |
रेफिनोज |
0.46 – 0.77 ग्रा. |
मैंगनीज |
2.8 – 4.10 मि. ग्रा. |
स्टेकायोज |
1.25 – 1.98 ग्रा. |
कैल्सियम |
115 – 228.6 मि. ग्रा. |
कार्बोहाइड्रेट |
60.7 – 63.3 ग्रा. |
मैग्नीशियम |
143.7 – 188.6 मि. ग्रा. |
वसा |
6.0 – 6.5 ग्रा. |
सोडियम |
21.07 – 22.9 मि. ग्रा. |
कुल शर्करा |
10.7 – 11.3 ग्रा. |
पोटेशियम |
1027.6 – 1479 मि. ग्रा. |
लाइसिन |
5.2 – 6.90 ग्रा. |
फॉस्फोरस |
276.2 – 518.6 मि. ग्रा. |
मिथियोनिन |
1.10 – 1.70 ग्रा. |
फोलिक अम्ल |
206.5 – 208.4 मि. ग्रा. |
सीसटीन |
1.10 – 1.60 ग्रा. |
विटामिन |
1.65- 1.73 मि. ग्रा. |
आइसोलूसिन |
2.50 – 4.40 ग्रा. |
सी |
1.72 -1.81 मि. ग्रा. |
लूसीन |
5.60 – 7.70 ग्रा. |
विटामिन |
368 किलो कैलोरी |
कुल तेल |
5.88 – 6.57 ग्रा. |
बी – 3 |
|
कुल आहार रेशा |
18.0 – 22.0 ग्रा. |
ऊर्जा |
|
चना रबी मौसम की दलहनी फसल है। उष्णकटिबंधीय जलवायु में इसे शरद ऋतू में उगाया जाता है। जबकि समशीतोष्ण जलवायु क्षेत्र में चना की खेती ग्रीष्म या बसंत काल में की जाती है। सामान्यत: चना की बुवाई रबी ऋतू में, बारानी एवं असिंचित दोनों क्षेत्रों में की जाती हैं। चना में पुष्पावस्था को वहाँ का तापमान, प्रकाश अवधि एवं नमी की उपलब्धता इत्यादि अजैविक कारक प्रभावित करते हैं। सामान्यत: कम तापक्रम एवं लघु प्रकाश अवधि में पुष्प देरी से निकलते है। चना में अनुवांशिक भिन्नता पाई जीत है। इसलिए पौधा प्रकाश अवधि सहिष्णु होता है। प्रजनन अवस्था में चना की फसल अत्यधिक (अधिकतम दैनिक तापमान 350 सेंटीग्रेट) एवं निम्न (अधिकतम एवं न्यूनतम दैनिक तापमान का औसत 150 सेंटीग्रेट से कम) तापक्रम से ज्यादा प्रभावित होती है। चना की अच्छी वृद्धि एवं पैदावार हेतु बुवाई से लेकर कटाई तक 30-350 सेंटीग्रेड तापमान अच्छा माना जाता है। पुष्पावस्था में अत्यधिक उच्च तापमान एवं अत्यधिक निम्न तापमान होने से फूल झड़ जाते हैं एवं फलियाँ नहीं बनती हैं।
विभिन्न प्रकार की मृदाएँ जैसे- खुरदरी बुलाई मिट्टी से लेकर गहरी काली चिकनी मिट्टी में भी चना की सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है। फिर भी गहरी दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी जिसका पी.एच.मान यदि 5.5 – 6.0 तक हो तो भी चना की खेती के लिए उपयुक्त है। बुंदेलखंड की बालूई दोमट, चिकनी दोमट एवं अच्छी जल निकास युक्त चोना युक्त मृदा जैसे मार, पडूआ, एवं कावर भी चना की खेती के लिए उपयोगी मृदाएँ है।
खरीफ या वर्षा ऋतू की फसलें जैसे- मक्का, बाजरा, ज्वार, तिल, धन इत्यादि की कटाई के बाद चना की बुवाई की जा सकती है। चना की बुवाई अंत: फसल, रिले फसल, मिश्रित फसल, एकल फसल के रूप में अनाज आधारित फसल चक्र में करनी चाहिए। अन्य दलहन जैसे – मूंग उरद, सोयाबीन या अन्य फसल जैसे कपास इत्यादि की कटाई के बाद चना की बुवाई कर सकते हैं। चना की फसल लेने के बाद अनुगामी फसल के लिए नत्रजन उर्वरक की बचत की जा सकती है। जैसे चना के बाद मक्का की फसल लेने पर लगभग 50-60 कि. ग्रा./हे. नत्रजन उर्वरक की बचत की जा सकती है।
वैसे तो अधिकतर किसान चना की एकल फसल ही उगाते हैं। परंतु अंत: फसल की रूप में उगाने से उत्पादकता एवं आय में वृद्धि होती है। बुंदेलखंड के लिए प्रमुख अंत: फसल तंत्र निम्नलिखित हैं –
चना + अलसी (4:2)
चना + कुसुम (4:1)
चना + सरसों (6:2)
इसके अलावा सरसों या जौ के साथ मिश्रित फसल के रूप में भी चना की खेती बुंदेलखंड में काफी प्राचलित है। चना को मिश्रित फसल की बजाय यदि अंत: फसल के रूप में पंक्तिबद्ध ऊगाए तो अंत: सस्य प्रबंधन भी आसानी से कर सकते हैं। चना आधारित प्रमुख फसल पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं:
मक्का – चना
ज्वार – चना
ज्वार + उरद – चना
मक्का – गेहूँ + चना
मक्का – जौ + चना
सोयाबीन – चना
बाजरा – चना
तिल – चना
किस्मों का चयन वहाँ की फसल पद्धति, बुवाई का समय, सिंचाई फल की उपलब्धता इत्यादि कारकों पर निर्भर करता है। बुंदेलखंड के लिए चना की कई प्रजातियाँ संस्तुत की गई हैं। उकठा एवं शुष्क जड़ गलन रोग से प्रतिरोधी, जल्दी पकने वाली बड़े एवं माध्यम दाने वाली (देशी व काबुली), कम वानस्पतिक वृद्धि, हल्की लवणता से सहनशीलता एवं नमी की कमी को सहन करने वाली कई किस्में संस्तुत की गई है। बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए चना की उपयुक्त किस्में निम्नलिखित हैं:
डी. सी. पी. 92 – 3, विजय, जे.जी. 315 जे. जी. – 16, एस.ए.के.आई. 9516) जे.जी.- 130, दिग्विजय, जे.ए.के.आई. 9218 आई.सी.पी. 2006 – 77 जे.एस.सी. 55 (आर.वी.जी. 202) जे.एस.सी. 56 (आर.वी.जी. 203), पूसा 391 (बी.जी. 391) आदि।
शुभ्रा (आई.पी.सी.के 2002-29), उज्ज्वल (आई.पी.सी.के. २००४-29),पी.के.वी. 4-, फूले जी 0517 जवाहर काबुली चना 1, पूसा शुभ्रा (बी.डी.जी. 128) आदि।
तालिका 3 : चना की उन्नतशील प्रजातियाँ एवं उनकी विशेषताएँ
किस्म |
विशष्ट गुण |
पकने की अवधि (दिन) |
औसत उपज (क्विंट/हे) |
विशेष क्षेत्र |
देशी चना |
||||
डी.सी.पी. 92-3 |
माध्यम फैलने वाली, पीले दाने, दाने माध्यम – बड़े आकार के, 100 दानों का भार लगभग 17 ग्राम |
145- 150 |
19-20 |
सिंचित |
विजय |
फैलने वाली, बीज का आकार छोटा 100 दानों का भर 15 ग्राम, बीज का रंग भूरा |
105 – 110 |
91 – 21 |
बारानी |
जे.जी. 315 |
ऊर्ध्व, मध्यम ऊंचाई, बीज नुकीले एवं भूरे रंग के, बीजों का आकार मध्यम – बड़े, 100 दानों का भर लगभग 16 ग्राम |
125 – 130 |
12 -15 |
बारानी |
जे.जी 16 (एस.ए.के आई. 1916) |
बीजों का रंग हल्का भूरा, अर्द्ध फैलावादार, अत्याधिक शाखाएँ, पत्तियों का रंग गहरा हरा बीजों का आकार मध्यम, 100 दानों का भर 19 ग्राम |
110 – 140 |
20 – 22 |
समय पर बुवाई |
जे.जी 130 |
अर्ध फैलावादर, मध्यम ऊंचाई, बीजों का आकार बड़ा, बीजों की आकृति गोलाकार, 100 दानों का भार 24 ग्राम |
115 – 120 |
18 -20 |
बरानी एवं सिंचित |
दिग्विजय |
अर्ध फैलावदार, बीज का आकार बड़ा एवं रंग पीलापन लिए भूरा |
110 – 115 |
17 – 18 |
बारानी |
जे.ए.के.आई. 9218 |
बीजों का आकार मध्यम – बड़ा, 100 दानों का भर 24 ग्राम |
115 – 120 |
18 – 20 |
बारानी |
जे.एस.सी. 56 (राजविजय चना 201) |
जल्दी पकने वाली उकठा के प्रति मध्यम अवरोधी |
105 – 110 |
22 – 25 |
सिंचित |
पूसा – 372 |
अर्ध उर्ध्व, बीजाकार छोटा एवं रंग भूरा 100 दानों का भार लगभग 14 ग्राम |
135 – 140 |
18 – 20 |
बारानी |
पूसा 391 (बी. जी. 391) |
मध्यम ऊँचाई, उर्ध्व पौधा, बीजों का रंग गहरा भूरा एवं बीज का आकार बड़ा 100 दानों का भर 25 ग्राम |
110 – 120 |
20 – 25 |
बारानी एवं सिंचित |
गुजरात चना 1 (जी.सी.पी. 101) |
अर्ध उर्ध्व, मध्यम ऊँचाई, बीज का आकार मध्यम बड़ा एवं रंग गहरा भूरा, 100 दानों का भार 18 ग्राम |
115 – 120 |
18 – 20 |
बारानी |
जे.एस.सी. 55 (राज विजय 202) |
बीज का आकार बड़ा, जल्दी पकने वाली उकठा के प्रति मध्य अवरोधी |
105 – 110 |
18 – 20 |
सिंचित |
आई.पी.सी 2006-77 |
मध्यम बड़ा दाना (100 दानों का भार 16.5 ग्राम), पीले रंग का दाना और अर्ध उर्ध्व कॉलर रॉट अवरोधी |
105 – 110 |
19 – 20 |
देर से बोने हेतु (सिंचित) |
काबुली चना |
||||
शुभ्रा (आईआ.पी.सी के 2002 – 29) |
उर्ध्व, हल्की हरी पत्तियाँ, बीज का आकार बड़ा एवं रंग सफेद, 100 दानों का भर 35 ग्राम |
110 – 115 |
20 – 22 |
सिंचित |
पूसा शुभ्रा (बी.डी.जी. 128) |
अर्ध उर्ध्व, पत्तियों का रंग हल्का हरा, बीज का आकार बड़ा एवं रंग बिस्कुटी, 100 दानों का भार 28 ग्राम |
115 – 120 |
18 – 19 |
सिंचित |
उज्ज्वल (आई.पी.सी. के 2004 – 29) |
पौधा उर्ध्व, पत्तियों का रंग हल्का हरा बीज के आकार बड़ा (100 दानों का भार 35 ग्राम) एवं रंग सफेद |
108 – 115 |
18 – 20 |
सिंचित |
फूले जी – 0517 |
अर्ध फैलावदार, पत्तियाँ चौड़ी, बीज का आकार अधिक बड़ा (100 दानों का भार 60 ग्राम) एवं रंग हाथीदांत जैसे – सफेद |
110 – 115 |
16 – 17 |
सिंचित |
जवाहर काबुली चना 1 |
बीजों का आकार बड़ा (100 दानों का भार 38 ग्राम), उकठा के प्रति मध्यम अवरोधी |
100 – 110 |
14 – 15 |
बारानी एवं सिंचित |
पी.के.वी. 4 - 1 |
बीजों का आकार बड़ा 100 दानों का भार 60 – 62 ग्राम), उकठा रोग सहा |
105 - 110 |
14 – 15 |
सिंचित |
बुंदेलखंड क्षेत्र में चना की बुवाई का उचित समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक है। जहाँ सिंचाई की सुविधा हो उन क्षेत्र में बुवाई नवंबर के अंतिम सप्ताह या दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक कर सकते हैं, परंतु अधिक देर सर बुवाई करने में पर उपज में कमी आ जाती है। देर से बुवाई करने पर उपज में कमी आ जाती है। देर से बुवाई करने पर चना की फसल पर निम्नाकिंत दुष्प्रभाव पड़ते हैं:
कमजोर वायु संरचण से चना अति संवेदनशील है। या खेत की सतह सख्त या कठोर होने पर अंकुरण प्रभावित होता है एवं पौधे की वृद्धि कम होती है। इसलिए मृदा वायु संचारण को बनाए रखने के लिए जुताई की आवश्यकता होती है। एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हाल से करने के उपरांत एक जुताई विपरीत दिशा में हैरो या कल्टीवेटर द्वारा करके पाटा लगाना पर्याप्त है। जल निकास उचित प्रबंधन भी अति आवश्यक है। बुंदेलखंड में सिंचाई के संसाधनों की कमी के कारण खरीफ फसल की कटाई के उपरांत संरक्षित नमी पर ही चना उगाएँ। अत: बारानी भूमि में मृदा नमी संरक्षण के उचित प्रबंधन भी अपनाने चाहिए।
संरक्षित मृदा नमी पर्याप्त नहीं होने की स्थिति में पलेवा करके बुवाई करनी चाहिए। चना को इतनी गहराई तक बोया जाना चाहिए ताकि बीज मृदा नमी के संपर्क में रहे। उचित अंकुरण एवं आविर्भाव हेतु चना की बुवाई 5-8 से. मी. गहराई पर करनी चाहिए। बुवाई कतार में सिड ड्रिल द्वारा करनी चाहिए। बारानी एवं सिंचित क्षेत्र में समय पर बुवाई करने पर क़तार से कतार की दूरी 10 सें. मी. (33 पौधे प्रति वर्ग मी.) रखें, जबकि बारानी क्षेत्र में देरी से बुवाई करने पर कतार से कतार की दूरी 25 सें. मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सें. मी. (40 पौधे प्रति वर्ग मी.) रखें। चना की बुवाई उच्च क्यारी विधि या चौड़ी क्यारी एवं कुंड विधि द्वारा करने पर पानी की बचत, जल निकासी एवं अंत: सस्य क्रियाओं से लाभ होता है। पौधों की संख्या प्रबंधन में बीज दर महत्वपूर्ण है। बीज दर उसके आकार, बुवाई समय एवं मृदा उर्वरता पर निर्भर करती है। बड़े दाने वाली किस्मों का 20% तक एवं देरी से बुवाई करने पर 25% तक अधिक बीज मात्रा लेना फायदेमंद होता है। चना की उचित बीज दर तालिका 4 में दर्शाई गई है।
चना की अधिक उत्पदकता एवं अच्छी फसल हेतु बीज की गुणवत्ता अति महत्वपूर्ण है। बीज की गुणवत्ता परखने हेतु उसकी अनुवांशिक एवं भौतिक शुद्धता जाँच लें। गुणवत्ता युक्त बीज की जमाव क्षमता 90-95% हो एवं रोग एवं कीट मुक्त हो तथा भौतिक रूप से कटा नहीं होना चाहिए। ज्यादा समय तक एवं गलत तरीके से भण्डारण किए हुए बीज की जमाव क्षमता कम हो जाती है। इस तरह अधिक नमी एवं तापक्रम पर बीज भण्डारण करने पर भी उसकी जविन क्षमता कम हो जाती है। साधारणत:, बड़े दाने वाले चना जैसे काबुली चना के बीज का भण्डारण एक वर्ष से अधिक समय तक करने पर उसकी जमाव क्षमता कम हो जाती है। किसी भी प्रजाति का अनावश्यक बड़ा एवं बहुत ही छोटा बीज भी प्रयोग में नहीं लेना चाहिए, क्योंकी ऐसा करने से भी अंकुरण क्षमता एवं बीज ओज में कमी आ जाती है। बीज अंकुरण एवं पौध संख्या प्रबंधन मुख्य रूप से बीज की गुणवत्ता, बुवाई की गहराई, मृदा नमी, मृदा तापमान, मृदा उर्वरता मृदा गुणवत्ता या स्वास्थय, बीज ओज इत्यादि कारकों द्वारा प्रभावित होता है।
बीज जनित रोगों से बचाव हेतु फफूंदीनाशक द्वारा बीजोपचार अति आवश्यक है। चना को उकठा एवं जड़ गलन बीमारी से बचाव हेतु 2.5 ग्रा. थिराम या 1 ग्राम बाविस्टिन या 1.5 ग्रा. थिराम + 0.5 ग्रा. बाविस्टिन प्रति कि. ग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित करना लाभकारी है। यदि दीमक का प्रकोप अधिक हो तो, क्लोरपायरीफास (1.0 ली. प्रति कु. बीज) द्वारा बीजोपचार उपयोगी है।
दलहनी फसलों में जड़ ग्रंथियों की संख्या बढ़ाने एवं नत्रजन स्थिरीकरण बढ़ाने हेतु उचित राइजोबियम नस्ल द्वारा बीजोपचार करना चाहिए। नत्रजन स्थिरीकरण एवं फॉस्फोरस उपलब्धता बढ़ाने हेतु क्रमशः राइजोबियम एवं फॉस्फेट विलेयी जीवाणु (पी.एस.बी) या वासिकूलर आर्बूस्कूलर मैकोराइज (वी.ए.एम्) (20 – 25 ग्रा. प्रति कि.ग्रा. बीज) से उपचारित करने से उपज बढ़ती है।
चना की अधिक उत्पादकता लेने हेतु पर्याप्त एवं सन्तुलित मात्रा में पोषक तत्वों की आपूर्ति करना आवश्यक है। चना हेतु उर्वरकों की आवश्यकता वहाँ की मृदा उर्वरता, मृदा नमी, प्रजातियाँ, पौधों के वृद्धिकाल, उपज एवं अवशेष निस्ताकरण इत्यादि कारकों पर निर्भर करती है। इसके अलावा पूर्ववर्ती फसल द्वारा पोषक तत्वों के दोहन द्वारा पोषक तत्वों की आवश्यकता प्रभावित होती है। सामान्यत: रबी दलहन का एक टन जैवभार पैदा करने पर 30-50 कि.ग्रा., नत्रजन, 2-7 कि.ग्रा. फॉस्फोरस, 12 – 30 कि. ग्रा. पोटाश, 3–10 कि. ग्रा. कैल्शियम, 1-5 कि. ग्रा. मैग्नीशियम 1-3 कि. ग्रा. सल्फर, 200-500 ग्रा. मैग्नीज, 5 ग्रा. बोरॉन, 1 ग्रा. कॉपर एवं 0.5 ग्रा. कॉपर एवं 0.5 ग्रा. मॉलिब्देंम का दोहन होता है। यह औसत मात्रा विभिन्न प्रयोगों पर आधारित है।
चना के दानों में प्रोटीन की भरपूर मात्रा पाई जाती है। अत: नत्रजन की मात्रा का मृदा से ह्रास अधिक होता है, जिसकी आपूर्ति वायु मंडल में उपस्थित नत्रजन के स्थिरीकरण द्वारा पौधा अपनी पूरी कर लेता है। अत: बाह्य स्रोत द्वारा प्रारंभिक अवस्था में आरंभिक के रूप में 15 – 20 कि. ग्रा./ हे. की दर से नत्रजन की आवश्यकता होती है। चना की अच्छी फसल लेने हेतु संस्तुत
उर्वरकों की मात्रा तालिका - 5 में दर्शायी गई है।
फसल |
पारिस्थितिकी |
बुवाई का समय |
उर्वरक की मात्रा (कि.ग्रा./ हे.) नत्रजन- फॉस्फोरस – पोटाश – सल्फर |
चना (देशी) |
बारानी |
सामान्य |
20-40-0-20 |
सिंचित |
सामान्य |
20-60-20-20 |
|
|
डेरी |
40-40-20-20 |
|
चना (काबुली) |
सिंचित |
सामान्य |
30-60-30-20 |
|
देरी से |
40-60-30-20 |
उपरोक्त उर्वरकों की संस्तुत नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय प्रयोग की जानी चाहिए। भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर में परीक्षणों से पाया गया है कि लगातार पोटाश एवं सूक्ष्म तत्व (जिंक, लौह, मॉलिब्देनम, बोरॉन इत्यादि) उर्वरक मिट्टी में नहीं, मिलाने से पोटाश एवं सूक्ष्म तत्वों की कमी आ रही है। जिनके लक्षण दलहनी फसलों की पत्तियों पर देखे जा सकता हैं। अत: इनकी आपूर्ति हेतु तकरीबन 40 कि.ग्रा./हे. पोटाश, 20-25 कि. ग्रा./हे. जिंक सल्फेट, 15-20 कि. ग्रा. आयरन सल्फेट, 10 कि. ग्रा./हे. बौरेक्स, 1.5 कि. ग्रा./ हे. अमोनियम मॉलिब्देनम इत्यादि उर्वरक देने से पैदावार में वृद्धि होती है। इसके अलावा सूक्ष्म तत्वों की कमी के लक्षण दिखाई देने पर सूक्ष्म तत्वों का छिड़काव करना भी लाभप्रद रहता है। बीज या दाने में सूक्ष्म तत्वों, विशेष रूप से जिंक एवं लौह तत्व की मात्रा बढ़ाने हेतु 0.5% जिंक सल्फेट एवं 0.3% आयरन सल्फेट का छिड़काव कर सकते हैं।
चना की अच्छी फसल लेने हेतु उचित जल प्रबंधन आवश्यक है। सामान्यत: चना संरक्षित नमी पर आधारित होता है। जिसकी वजह से मावट (सर्दी की वर्षा) नहीं होने पर पौधों में शीर्ष नमी तनाव की गंभीर अवस्था आ जाती है। अत: अंतिम वर्षा के जल को उचित माध्यमों द्वारा संरक्षित करने के उपाय जैसे – परिरेखा मेड़ (कंटूर बांडिंग), गर्मियों में गहरी जुताई, पलवार बिछाना, जल दोहन (वाटर हार्वेस्टिंग) आदि अपनाना चाहिए। पौधों की उचित आबादी एवं वृद्धि सुनिश्चित करने हेतु मृदा नमी की कमी होने पर पलेवा करके बुवाई करना फायदेमंद रहता है। सिंचाई करना लाभदायक होता है। पहली सिंचाई शाखाएँ बनते समय तथा दूसरी सिंचाई फली बनते समय देने से अधिक लाभ मिलता है। चना में फूल बनने की सक्रिय अवस्था में सिंचाई नहीं करनी चाहिए। इस समय पर सिंचाई करने पर फल झड़ सकते हैं एवं अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि हो सकती है। रबी दलहन में हल्की सिंचाई (4-5 सें. मी.) करनी चाहिए क्योंकी अधिक पानी देने से वानस्पतिक वृद्धि होती है एवं दाने की उपज में कमी आती है।
इसके अलावा चना में अधिक पानी देने या गहरी सिंचाई करने से जड़ ग्रंथियों में उपस्थित राइजोबियम जीवाणुओं की क्रियाशीलता ऑक्सीजन के अभाव में शिथिल पड़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप पौधों द्वारा वायूमंडलीय नत्रजन का स्थिरीकरण बाधित हो जाता है, साथ ही जड़ों ऑक्सीजन की कमी होने के कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया कम हो जाती है। जिससे पौधे पीले पड़ जाते है एवं बढ़वार पर प्रतिकूल असर पड़ता है। कभी – कभी गहरी सिंचाई करने पर उकठा की बीमारी भी फ़ैल सकती है। इस प्रकार पौधे में फलियाँ एवं दाने कम बनने पर पैदावार में कमी आ सकती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में उचित जल निकास की व्यवस्था करें या फसल को उठी हुई क्यारी पर बुवाई करें जिससे जल का ठहराव नहीं हो।
भा. कृ. अनु. प. भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर द्वारा किए गए परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि फौवारा विधि द्वारा सिंचाई करने पर जल की बचत भी होती है एवं पैदावार भी अधिक मिलती है। साथ ही यह भी पाया गया कि जल की मुख्य म्लानि अवस्था फलियाँ बनते समय है। अत: मृदा नमी की कमी होने पर एवं एक ही सिंचाई की उपलब्धता हो तो फली बनते समय सिंचाई अवश्य करें।
फसल उत्पादन में खरपतवार बहुत ही घातक एवं बड़ी जैविक बाधा है। खरपतवार बहुत ही घातक एवं बड़ी जैविक बाधा है। खरपतवार फसल उत्पदकता घटाने के साथ ही उसकी गुणवत्ता में भी कमी लाता है। जैविक कारकों द्वारा कुल नुकसान का लगभग 37% नुकसान केवल खरपतवारों के कारण होता है। खरपतवार से दलहन फसलों की पैदावार में औसतन 50-60% तक की कमी देखी गई है, जो कि दलहन जाति एवं वंश तथा प्रबंधन प्रणलियों पर निर्भर है। इसी प्रकार प्रभावी खरपतवार नियंत्रण से चना में 22-63% तक पैदावार में वृद्धि अर्जित की गई है।
चना की फसल में बथुआ गेहूं, जंगली जई एवं मोथा जंगली गाजर प्रमुख खरपतवार है। चना की फसल में सामान्यत: पाये जाने वाले खरपतवार निम्नलिखित हैं:
संकरी पत्ती/घास कूल के खरपतवार
जंगली जई, दूब घास एवं गेहूंसा/गेहूं का मामा
चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार
कृष्णनील, सत्यानाशी, जंगली प्याजी, बथुआ, खर्तूआ, हिरनखूरी, वनसोया गजरी, जंगली मटर, जंगली मेथी, सफेद सेंजी, पीली सेंजी, झन खानिया कड़ी/मसूर चना/मुनममुना, गेगला/अकरी/कूर, तिपत्तिया, जंगली गाजर
अन्य
बैंगनी मौथा
ज. खरपतवार प्रबंधन की विधियाँ
खरपतवार नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य अवांछनीय पौधों की वृद्धि को रोकना एवं लाभदायक या उपयोगी पौधों की वृद्धि को बढ़ाना है। खरपतवार प्रबंधन के प्रमुख तरीके निम्नांकित हैं:
खरपतवार रोकथाम : खरपतवारों का प्रवेश एवं स्थापना को रोकना, खरपतवार रोकथाम के लिए कारगर है। जैसे खरपतवार मुक्त बीज की क्यारी बनाना, खाद को संदूषण मुक्त रखना, अजोत क्षेत्र को साफ रखना, मशीन और औजारों को साफ रखना इत्यादि।
सस्य क्रियाएँ : इसमें कम लागत एवं पर्यावरण अनुकूल तरीकें फसल पालन, फसल चक्र, उचित पौध संख्या, अंत: फसल, संरक्षित जुताई इत्यादि तरीके अपनाए जा सकते है।
कृषि यांत्रिकी : इस विधि द्वारा खरपतवार नाशियंत्र जो उपलब्ध हो उनका प्रयोग करके खरपतवारों को निकला जा सकता है। जैसे हस्तचालित हो, कुदाली, ग्रबर निराई, उपकरण, खूँटीनुमा शुष्क भूमि हेतु निराई उपकरण, एकल पहिया हो, जुड़वाँ पहिया हो, शक्ति चालित झाडूनूमा जुताई यंत्र इत्यादि।
खरपतवार नाशी द्वारा: हाथों या खुरपी द्वारा खेत से खरपतवार निकालना एक साधारण निकालना एक साधारण तरीका है, परन्तु पिछले सालों से देखा गया है कि कृषि श्रमिकों की संख्या घटती जा रही है। इसकी कमी सबसे पहले पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखी गई। अत: शाकनाशी या खरपतवारनाशी की मांग बढ़ती जा रही है। चना में विभिन्न खरपतवारनाशी (तालिका 7) प्रयोग में लाए जा सकते हैं।
तालिका 7 : रबी दलहन हेतु संस्तुत खरपतवारनाशी/शाकनाशी
खरपतवारनाशी/संस्तुत मात्रा संक्रिया तत्व (ग्रा./हे.) |
उत्पाद ग्रा. या मि.ली./हे) |
प्रयोग का समय |
विशेष |
पेंडीमेथालिन 750-1000 |
2500-3000 |
बुवाई के बाद से अंकुरण पूर्व |
अधिकतर एकवर्षीय घास को मारता है एवं कुछ चौड़ी पट्टी वाले खरपतवार भी मारता है। |
फ्लूकोलरेलिन 750-1000 |
1500-2000 |
बुवाई पूर्व |
सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिलाए। कई तरह के एकवर्षीय संकरी पट्टी एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नियंत्रण करता है। |
मेटोलाक्लोर 1000-2000 |
2000-3000 |
बुवाई के बाद परंतु अंकुरण से पहले |
कई तरह के वार्षिक चौड़ी एवं संकरी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रण करता है। |
कूजलोफौप इथाइल 50-100 |
1000-2000 |
बुवाई के 15-20 दिन के मध्य |
एकवर्षीय घासों को मारने हेतु कारगर है। |
पेंडीमेथालिन (अंकुरण पूर्व)+ कुजालोफौप ईथाइल (अंकुरण पश्चात) 1250+100 |
4170+2000 |
बुवाई पश्चात एवं अंकुरण पूर्व तथा बुवाई से 20 – 25 दिन के |
ज्यादातर खरपतवार नियंत्रण करने हेतु उपयुक्त है।
|
अंधाधुध रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, अनियमित मशीनीकरण, अत्यधिक भूमिजल दोहन इत्यादि कारकों ने टिकाऊ कृषि पर खतरा उत्पन्न कर दिया है। परिणाम स्वरूप, मृदा अपक्षारण, उर्वरता ह्रास, घटता जल स्तर, जल एवं वायु प्रदूषण, कमजोर संसाधन उपयोग क्षमता को बढ़ावा मिला है। जिससे भविष्य में कृषिउत्पदकता को बढ़ाने में खतरा पैदा हो सकता है। अत: कृषि के सिद्धांतों को अपनाते हुए संसाधन क्षमता बढ़ाने की जरूरत है। संसाधन उपयोग क्षमता बढ़ाने हेतु निम्नलिखित यांत्रिक एवं सस्य विधियाँ प्रमुख हैं:
सीमित कर्षण : इस विधि में खेत की जुताई न्यूतम की जाती है। सीमित कर्षण हेतु पंक्तिबद्ध जुताई, प्लाऊ प्लांट टिलेज एवं व्हील ट्रेक प्लांटिंग तकनीक अपनाई जा सकती है। सीमित कर्षण अपनाकर सुदृढ़ बीज अंकुरण एवं पैदावार हेतु ऊर्जा एवं कृषि लागत में कमी लाई जा सकती है।
शून्य कर्षण : इस तकनीक में खेत की गहरी जुताई (प्राथमिक जुताई) नगण्य होती थी तथा द्वितीयक जूराई केवल बुवाई की पंक्तियों में ही की जाती है। शून्य कर्षण पंतनगर जीरो तिल ड्रिल या पंजाब कृ. वी. वी. जीरो तिल ड्रिल द्वारा किया जा सकता है। इस तकनीक से बुवाई करने पर किसान लागत कम करने के साथ ही समय की बचत भी कर सकता है और फसल की पैदावार में भी कोई कमी नहीं आएगी।
उच्च क्यारी विधि (बेड प्लानिंग) : इस तकनीक में बेड प्लान्टर द्वारा खेत की जुताई की जाती है। बेड प्लान्टर को ट्रैक्टर की पीछे जोड़कर इससे एक साथ 2-3 उच्च क्यारी, जिससे 40-60 से.मी.चौड़ी सतह एवं 30 सें.मी. नाली/कुंड का निर्माण होता haiहै। साथ ही साथ फसल की बुवाई एवं खाद भी पड़ जाती है। बेड प्लांटिंग सह – फसली खेती जैसे : चना (बेड) + पालक न (नाली), चना (बेड) + मूली (नाली), चना (बेड) + अलसी (नाली) इत्यादी एवं अत्यधिक भू-जल स्तर गिरावट वाले क्षेत्रों में अधिक कारगर है। भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर में किए गए प्रयोगों से पाया गया है कि बेड प्लांटिंग विधि द्वारा बुवाई करने पर 20-25% जल की बचत, 70-80% तक ऊर्जा की बचत एवं सकल आय में रू. 8-10 हजार/हे. का मुनाफा होता है।
लेजर पाटा द्वारा भू-समतलीकरण : यह एक आधुनिक पाटा है, जिससे लेजर किरणों की सहायता से पाटे की सतह को भूमि के समतल सतह पर व्यवस्थित किया जाता है। लेजर पाटे द्वारा भू-समतलीकरण करने से खेत में पानी पूरे क्षेत्र में एक समान फैलता है एवं 25-30% तक जल की बचत होती है। इसी तरह खेत में मेड़ एवं नालियाँ नहीं बनाने पर लगभग 2-3% अतिरिक्त क्षेत्रफल खेती करने हेतु उपलब्ध हो जाता है।
प्राय: देखा गया है कि किसान फसल काटने के बाद वहाँ पर आगामी फसल लेने हेतु फसलों के अवशेष को जला देते है। फलस्वरूप, पर्यावरण प्रदूषित होता है एवं फसल अवशेष में उपलब्ध पोषक तत्वों का ह्रास होता है। अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि एक टन फसल अवशेष जलाने पर तकरीबन 3 कि. ग्रा. विषाक्त पदार्थ, 60 कि ग्रा. कार्बन मोनो आक्साइड, 1460 कि.ग्रा. कार्बनडाईऑक्साइड, 199 कि. ग्रा. राख एवं 2 कि. ग्रा. सल्फर डाईऑक्साइड स्रावित होते हैं। अत:फसल अवशेष प्रबंधन अतिआवश्यक है तथा इसे निम्न विधियाँ द्वारा किया जा सकता है:
फसल अवशेष प्रबंधन के निम्नांकित फायदे है:
यह चना का प्रमुख रोग है। उकठा रोग का प्रमुख कारक फ्यूजेरियम ऑक्सिस्पोरम प्रजाति साईंसेरी नामक फफूंद है। यह समान्यत: मृदा एवं बीज जनित बीमारी है, जिसकी वजह से 10-12% तक पैदावार में कमी आती है। यह एक दैहिक व्याधि होने के कारण पौधे के जीवनकाल में कभी भी ग्रसित कर सकती है यह फफूंद बगैर पोषक या नियंत्रक के भी मृदा में लगभग छ: वर्षों तक जीवित रह सकती है। वैसे तो यह व्याधि सभी क्षेत्रों में फ़ैल सकती है परंतु जहाँ ठंड अधिक एवं लंबे समय तक पड़ती है, वहां पर कम होती है। यह व्याधि पर्याप्त मृदा नमी होने पर एवं तापमान 25-300 सेंटीग्रेड होने पर तीव्र गति से फैलती है। इस बीमारी के प्रमुख लक्षण निम्नाकिंत हैं:
प्रबंधन
1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम या कार्बेकिस्न या 2 ग्रा.थिराम एवं 4 ग्राम ट्राईकोडर्मा विरिडी प्रति कि. ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें। इस प्रकार, 1.5 ग्रा. बेन्लेट टी (30% बेनोमिल एवं 30% थिराम) प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार मृदा जनित रोगाणुओं को मारने में लाभप्रद है।
यह मृदा जनित रोग है। पौधों में संक्रमण राइजोक्तोनिया बटाटीकोला नामक कवक सेफैलता है। मृदा नमी की कमी होने पर वायु का तापमान 300 सेंटीग्रेड से अधिक होने पर इस बीमारी का प्रकोप पौधों में फूल आने एवं फलियाँ बनते समय होता है। रोग से प्रभावित पौधों की जड़ें अविकसित तथा काली होकर सड़ने लगती हैं एवं आसानी से टूट जाती है। जड़ों में दिखाई देने वाले भाग और तनों के आंतरिक हिस्सों पर छोटे काले रंग की फफूंदी के जीवाणु देखे जा सकते हैं। संक्रमण अधिक होने पर पूरा पौधा सूख जाता हैं एवं रंग भूरा/भूसा जैसा हो जाता है। जड़ें काली या भंगुर हो जाती हैं एवं कुछ या नगण्य जड़ें ही बच पाती हैं।
प्रबंधन
इस रोग का कारक स्क्लेरोशिमय राल्सी नामक कवक है। इसका प्रकोप प्राय: सिंचित क्षेत्रों अथवा बुवाई के समय मृदा में नमी की बहुतायत, भु – सतह पर कम सड़े हुए कार्बनिक पदार्थ की उपस्थिति, निम्न पी. एच. मान एवं उच्च तापकर्म (25-300 सेंटीग्रेड) होने पर अधिक होता है। अंकुरण से लेकर एक-डेढ़ महीने की अवस्था तक पौधे पीले होकर मर जाते हैं। जमीन से लगा तना एवं जड़ की संधि का भाग पतला एवं भूरा होकर सड़ जाता है। तने के सड़े भाग से जड़ तक सफेद फफूंद एवं कवक के जाल पर सरसों के दाने के आकार के स्केलरोशिया (फफूंद के बीजाणु) दिखाई देते हैं।
प्रंबधन
एस्कोकाईट पट्टी धब्बा रोड एस्कोकाईट रेबी नमक फफूंद द्वारा फैलता है। उच्च आर्द्रता एवं कम तापमान की स्थिति में यह रोग फसल की क्षति पहुँचाता है। पौधे के निचले जिससे पर गेरूई रंग के भूरे कत्थई रंग के धब्बे पड़ जाते हैं एवं संक्रमित पौध मुरझाकर सूख जाता है। पौधे वाले भाग पर फफूंद के फलन काय देखे जा सकते हैं। ग्रसित पौधे की पत्तियों, फूलों और फलियों पर हल्के फलियों पर हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं।
प्रबंधन
अनुकूल वातावरण होने पर यह रोग सामान्यत: पौधों में फूल आने एवं फसल की पूरे रूप से विकसित होने पर फैलता है। वायूमंडल एवं खेत में अधिक आर्द्रता होने पर पौधों पर भूरे या काले भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। फूल झड़ जाते हैं एवं संक्रमित पौधों पर फलियाँ नहीं बनती हैं। शाखाओं और तनों पर जहाँ फफूंद के संक्रमण से भूरे या काले धब्बे पड़ जाते हैं, उस स्थान पर पौध गल या सड़ जाता है। तंतुओं के सड़ने के कारण टहनियां टूटकर गिर जाती हैं। और संक्रमित फलियाँ पर नीली धब्बे पड़ जाते हैं। फलियों में दाने नहीं बनते हैं, एवं बनते भी है तो सिकुड़े हुए होते हैं। संक्रमित दानों पर भूरे व सफेद रंग के कवक तन्तु दिखाई देते हैं।
प्रबंधन
हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा एक बहुभक्षी कीट है, जो सामान्यत: चनाफली भेदक नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण भारत में चना की फसल पर लगने वाला यह प्रमुख कीट है। यह कीट 181 प्रकार की फसलों एवं 38 प्रकार के खरपतवार को खा सकता है। इसका प्रकोप पत्तियों व पुष्पों की अपेक्षा फलियों पर सर्वाधिक होता है। इस कीट की छोटी सूंडी फसल की कोमल पत्तियों को खुरच-खुरच कर खाती हैं एवं द्वितीयक सूंडी सम्पूर्ण पत्तियों, कलियों एवं पुष्पों को खाती हैं। तृतीयक अवस्था की सूंडी चना कि फली में गोलाकार छिद्र बनाकर मुंह अंदर घुसकर दाने को खा जाती है। एक वयस्क सूंडी 7-16 फलियों को क्षतिग्रस्त कर सकती है।
प्रबंधन
इस कीट का प्रकोप उन क्षेत्रों में अधिक होता है, जहाँ पर बुवाई से पूर्व बरसात का पानी भरा रहता है एवं मृदा भारी या चिकनी हो। इस कीट की गिडारेंचिकनी, लिजलिजी एवं देखने में हल्के स्याही या गहरे भूरे रंग की तैलीय होती है। कटवर्म की लटें गहरे भूरे रंग की एक से डेढ़ इंच लंबी व एक चौथाई इंच से एक तिहाई इंच मोटी होती है, जो ढेलों के नीचे छिपी रहती हैं और रात को बाहर निकलकर पौधों को भूमि की सतह के पास से काट देती हैं। चुने पर ये लटें गोल घुंडी बनाकर पड़ जाती है। यदि एक सूंडी प्रति वर्ग मी. क्षेत्र में पौधे की वानस्पतिक अवस्था में दिखाई दे तो आर्थिक नुकसान हो सकता है।
प्रबंधन
यह जूड़ों को काटकर उसके अंदर रहती है। ग्रसित पौधों के ऊपर दीमक मिट्टी की सुरंगें बनाकर उसके भीतर रहती है।
प्रबंधन
इस कीट की सूड़ियाँ हरे रंग की होती हैं जो लूप बनाकर चलती है। सूड़ियाँ पत्तियों, कोमल टहनियों, फूलों एवं कलियों को खाकर क्षति पहूँचाती हैं।
प्रबंधन
कीट का नाम |
फसल की अवस्था |
आर्थिक क्षति स्तर |
कटुआ/ कटवर्म |
वानस्पतिक अवस्था |
एक सूंडी प्रति वर्ग मी.
|
अर्द्ध कूंडीकार कीट |
फूल एवं फलियाँ बनते समय |
दो सूंडी प्रति 10 पौधे |
फली भेदक कीट |
फूल एवं फलियाँ बनते समय |
एक बड़ी सूंडी प्रति 10 पौध अथवा 4-5 4-5 नर पतंगे प्रति गंधपाश में लगातार 2-3 दिन तक मिलने पर |
चना एवं अन्य रबी दलहनी फसलों को सामान्यत: जड़ ग्रंथि सूत्रकृमि (मेलोइडोगाइनी जावानिका, मे. इनकोग्निटा) मूल जख्म सूत्रकृमि (प्रोटीलेंक्स थोनी), रेनिफौर्मिस), पुट्टी (सिस्ट) सूत्रकृमि (हेट्रोडेरा स्वरूपी एवं हेट्रोडेरा केजेनो) इत्यादि सूत्रकृमि मुख्य रूप से प्रभावित करते हैं।
सूत्रकृमि या गोलकृमि धागे के आकार के रंगहीन कीड़े होते हैं, जिनको खुली आँखों से देखना मुश्किल होता है। ये छोटे, पतले, खंडरहित धागे के सदृश्य एवं द्विलिंगी होते हैं। ये मृदा के भीतर 15-30 से. मी. की गहराई में पाए जाते हैं, जहाँ पर पौधों की जड़ें होती हैं। फलस्वरूप जड़ द्वारा पोषण एवं जल का अवशोषण अवरूद्ध हो जाता है। इसी कारण प्रभावित पौधे के वायवीय भागों में पोषक तत्वों एवं जल की कमी एवं लवणता की प्रचुरता बढ़ जाती है। इसकी वजह से पौधों की वृद्धि रूक जाती है, पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं तथा शाखाएँ कम निकलती हैं। अधिक प्रकोप होने पर फूल, फली एवं दाने बनना पूरी तरह से प्रभावित होता है। सूत्रकृमि पौधे के भूमिगत भागों में पाए जाने की वजह से जड़ों में गांठे बनना, जड़ों में अत्यधिक शाखाएँ निकलना, जड़ की uupriऊपरी परत का छिलका उतरना, पत्तियों पर उभार उत्पन्न होने जैसे लक्षण दिखाई देते हैं।
प्रबंधन
चना की फसल की परिपक्वता का अनुमान पत्तियों, फलियों एवं दोनों देखकर लगाया जा सकती है। यदि चना की पत्तियाँ पीली या भुरी पड़ जाए एवं फलियाँ और फली के अदंर बीज पीला पड़ जाए तो समझ लें कि फसल पकने वाली है। पंरतु अभी कटने का इंतजार करना है। जब तक फसल या पौधे में नमी हो तब तक कटाई नहीं करें। यदि दाने में नमी की मात्रा अधिक हो तो काटी एवं मड़ाई तथा भण्डारण के समय बीजों को क्षति होने का खतरा अधिक रहता है तथा बीज की जमाव क्षमता भी नष्ट होने का खतरा रहता है। सामान्यत: चना की पत्तियाँ पीली से भुरी हो जाए एवं स्वत: ही पौधे गिरने या झड़ने लग जाए तो कटाई कर लेना चाहिए। कटाई के समय बीज में नमी की प्रतिशतता 12-14 से कम होना अति महत्वपूर्ण है। पके हुए बीज में नमी की मात्रा बीज को दांतों तले दबाकर भी जाँच की जा सकती है। दांतों तले बीज दबाकर तोड़ने पर काट की आवाज आए तो समझ लें कि फसल पक गई है। चना का पकना वहाँ की जलवायु परिस्थिति जैसे तापमान, आद्रता एवं सूर्य की रोशनी, बीज में नमी की मात्रा इत्यादि पर निर्भर करता है। अधिक समय तक फसल को सुखाने या खड़ी रखने पर नुकसान हो सकता है। लंबी एवं सीधे पौधे वाली प्रजातियों (एच.सी. 5) की कटाई, मड़ाई कंबाईन द्वारा भी की जा सकती है, अन्यथा हंसियों द्वारा कटाई करना चाहिए।
फसल को कटाई के पश्चात् सूर्य की रोशनी या धुप में सूखाएँ ताकि वानस्पतिक भाग फलियों एवं दाने में नमी कम हो सके। खलिहान में 3-4 दिन तक धूम में रखने के बाद जाँच लें कि दाने में नमी की मात्रा 10-12$% से कम हो। मड़ाई या गहाई ट्रैक्टर या बैलों द्वारा की जा सकती है, परन्तु थ्रेशर मशीन द्वारा गहाई करने से समय एवं श्रमिकों की बचत होती है। कचरा या भूसा अलग करने हेतु ट्रैक्टर चालित या बिजली चलित विनोवर द्वारा दानों की सफाई अच्छी तरह से की जा सकती है। बाजार में उपलब्ध थ्रेशर मशीनों का संक्षिप्त में विवरण निम्नाकिंत है:
तालिका 8 : थ्रेशर एवं उनका तकनीकी विवरण
थ्रेशर |
तकनीकी विवरण |
क्षमता (कि. ग्रा./घंटा) |
सोनालिका |
25 एच.पी. ट्रैक्टर, पेग टाइप, एक ब्लोवर |
300-350 |
अमर |
7 एच.पी. मोटर, पेग टाइप दो ब्लोवर |
100-350 |
सी.आई.ए.ई. |
7 एच.पी. मोटर, पेग टाइप दो ब्लोवर |
300/450 |
कंबाईन हार्वेस्टर द्वारा चना की कटाई हेतु सामान्यत: गेहूं की कटाई वाला यंत्र ही काम में लिया जा सकता है। कंबाईन हार्वेस्टर द्वारा लंबी एवं सीधे पौधों वाली किस्मों की कटाई की जा कटी है। इसके अलावा फसल एक साथ पके एवं खेत समतल हो तो ही कंबाईन द्वारा कटाई संभव है। कंबाईन मशीन द्वारा एक घंटे में 0.9 से 1.1 हेक्टेयर क्षेत्रफल चना की कटाई संभव है। इसके अलावा चना की कटाई हेतु रीपर भी इस्तेमाल कर सकते हैं। मशीन द्वारा कटाई करने से लागत में कमी आती है। अत: मशीनीकरण का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करें।
चना का भंडारण दो तरीके से किया जा सकता है। वेयर हाउस या खुली हवा में रखना हो तो बोरों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जबकि थोक में भण्डारण करना हो तो डिब्बा (बिन) एवं साइलो बेहतर होता है।
बोरों में भण्डारण करना आसान रहता है क्योंकि, यह सस्ता तरीका है। परन्तु इसमें घुन लगने एवं ख़राब होने का खतरा ज्यादा रहता है। खास किस्म के बोरे जो प्लास्टिक या फाइबर के बने हो तो नुकसान कम होता है। दूसरी तरफ धातु द्वारा निर्मित बिन्स, ड्रम एवं हवा से बचा जा काट है। यदि लंबे समय तक भंडारण करना हो तो साइलो या बिन्स बेहतर तरीका है।
चना को भंडारण उपरांत मुख्य रूप से घुन द्वारा सर्वाधिक क्षति होती है। घुन को ढोरा, चिरैया, धनुर और घुन इत्यादि नामों से जाना जाता है। ज्यादातर दलहनी फसलों में घुन का प्रकोप खेत्र में फलियाँ पकते ही शुरू हो जाता है, जो कटाई उपरांत दानों का उचित उपचार नहीं होने पर भंडारण में निरंतर बढ़ता ही जाता है।
चना की फलियों पर रोएँ होने के कारण पकने की अवस्था में संक्रमण नहीं हो पाता है, क्योंकि घुन मादा को फलियों पर उपस्थित रोंए अंडारोपण करने में बाधा पहुंचाते हैं। अत: चना में घुन का संक्रमण भंडारण से शुरू होता है। उचित एवं सुरक्षित भंडारण के लिए निम्न उपाय अपनाने की संस्तुति की जाती है –
क. भण्डारण के पूर्व चना को साफ करके धूप में सूखा लेना चाहिए ताकि नमी का स्तर 12%या इससे भी कम हो।
ख. छोटे किसान चना को बोरों में भरकर सिलाई करके सीधा रखें।
ग. बड़े किसान चना को स्टील के पात्रों में भण्डारण करके दानों की ऊपरी सतह 2.5 से. मी. मोटी रेत व धुल रहित बालू से ढक दें ताकि घुन का पुन: प्रकोप व विकास न हो सके।
घ. अल्प मात्रा में भंडारण हेतु आयुर्वेदिक कंपनियों द्वारा निर्मित पारद तिकड़ी का प्रयोग करें या अल्यूमिनियम फॉसफाइड की 1-2 गोली (3
ङ. घरेलू प्रयोग हेतु भंडारण करना होतो चना की दाल बनाकर उसे सरसों के तेल (अन्य खाद्य तेल यथा नारियल, मूंगफली सोयाबिन, तिल) लगभग 5-6 मि.ली एवं हल्दी पाउडर 2 ग्राम प्रति कि. ग्रा. डाल से उपचारित करके स्टील के बर्तन में ढककर भण्डारण कर सकते हैं। इस तरह घरेलू उपचार द्वारा 6-8 माह तक घुन का सभी अवस्थाएँ खत्म हो जाएँगी।
किसान अपनी उपज का अच्छा मूल्य प्राप्त कर सकें इसके लिए विपणन बहुत ही महत्वपूर्ण है। मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के विभिन्न जनपदों में अनेक कृषि मंडियां है जहाँ पर चना की बिक्री की जा सकती है और उचित कीमत मिल सकती है (तालिका 9 एवं 10)
तालिका 9 : मध्य प्रदेश बुंदेलखंड में स्थित कृषि उपज मंडियाँ
जिला/शहर |
मंडी का पता |
संपर्क सूत्र |
पन्ना |
|
|
पन्ना |
कृषि उपज मंडी समिति, पन्ना, जिला – पन्ना |
07732-250143 |
अजय गढ़ |
कृषि उपज मंडी समिति, अजयगढ़, जिला – पन्ना |
07730-278269 |
देवेन्द्रनगर |
कृषि उपज मंडी समिति, देवेद्रनगर, जिला – पन्ना |
07732-272230 |
पवाई |
कृषि उपज मंडी समिति, पवाई, जिला – पन्ना |
07733-268449 |
सागर |
|
|
बामोरा |
कृषि उपज मंडी समिति, बामोरा, जिला- सागर |
07593-226230 |
रहटगढ़ |
कृषि उपज मंडी समिति, रहटगढ़, जिला- सागर |
07584-254532 |
सागर |
कृषि उपज मंडी समिति, सागर, जिला- सागर |
07582-271555 |
बीना |
कृषि उपज मंडी समिति, बीना, जिला- सागर |
07580-225615 |
खुराई |
कृषि उपज मंडी समिति, खुराई, जिला- सागर |
07581-240463 |
देवरी |
कृषि उपज मंडी समिति, देवरी, जिला- सागर |
07586-250275 |
गढ़ाकोटा |
कृषि उपज मंडी समिति, गढ़ाकोटा, जिला-सागर |
07585-288406 |
रेहली |
कृषि उपज मंडी समिति, रेहली, जिला-सागर |
07585 |
बाँदा |
कृषि उपज मंडी समिति, बाँदा, जिला-सागर |
07583- 252261 |
केसली |
कृषि उपज मंडी समिति, केसली, जिला-सागर |
07586-224309 |
शाहगढ़ |
कृषि उपज मंडी समिति, शाहगढ़, जिला-दमोह |
07583-259002 |
दमोह |
कृषि उपज मंडी समिति, दमोह, जिला-दमोह |
07812-222050 |
छत्ता |
कृषि उपज मंडी समिति, छत्ता, जिला-दमोह |
07604-262684 |
पठारिया |
कृषि उपज मंडी समिति, पठारिया, जिला-दमोह |
07601-242232 |
जबेरा |
कृषि उपज मंडी समिति, जबेरा, जिला-दमोह |
07606-255216 |
दतिया |
||
दतिया |
कृषि उपज मंडी समिति, दतिया, जिला-दतिया |
07522-234566 |
भंडार |
कृषि उपज मंडी समिति, भांडर, जिला-दतिया |
07521-242374 |
सेवदा |
कृषि उपज मंडी समिति, सेवदा, जिला- दतिया |
07521-271254 |
छत्तरपुर |
||
लौंडी |
कृषि उपज मंडी समिति, लौंडी, जिला-छत्तरपुर |
07687-251701 |
बड़ामल्हार |
कृषि उपज मंडी समिति, बड़ामल्हार जिला-छत्तरपुर |
07689-252291 |
हरपालपुर |
कृषि उपज मंडी समिति, हरपाल, जिला-छत्तरपुर |
07685-261220 |
राजनगर |
कृषि उपज मंडी समिति, राजनगर, जिला-छत्तरपुर |
07686-200055 |
बिजावर |
कृषि उपज मंडी समिति, बिजावर, जिला-छत्तरपुर |
07608-253223 |
बक्सवाहा |
कृषि उपज मंडी समिति, बक्सवाहा, जिला-छत्तरपुर |
07609 |
छत्तरपुर |
कृषि उपज मंडी समिति, छत्तरपुर, जिला-छत्तरपुर |
07682-248367 |
टीकमगढ़ |
||
टीकमगढ़ |
कृषि उपज मंडी समिति, टीकमगढ़, जिला-टीकमगढ़ |
07683-242362 |
निवारी |
कृषि उपज मंडी समिति, जाटारा, जिला-टीकमगढ़ |
07680-232304 |
जाटारा |
कृषि उपज मंडी समिति, खरगापुर, जिला-टीकमगढ़ |
07681-254505 |
खरगापुर |
कृषि उपज मंडी समिति, खरगापुर, जिला टीकमगढ़ |
07683 |
तालिका 10 : उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में स्थिति कृषि उपज मंडियाँ
जिला /शहर |
मंडी का नाम |
संपर्क सूत्र |
झाँसी |
||
झाँसी |
कृषि उपज मंडी समिति, झाँसी |
272972 |
मऊरानीपुर |
कृषि उपज मंडी समिति, मऊरानीपुर |
272973 |
चिरगाँव |
कृषि उपज मंडी समिति, चिरगाँव |
272974 |
मोंठ |
कृषि उपज मंडी समिति, मोंठ |
272976 |
गुरसराई |
कृषि उपज मंडी समिति, गुरसराई |
272975 |
बरूवासागर |
कृषि उपज मंडी समिति, बरूवासागर |
272977 |
हमीरपुर |
||
मौदाहा |
कृषि उपज मंडी समिति, मौदाहा |
272979 |
राठ |
कृषि उपज मंडी समिति, राठ |
272991 |
भारूवासूमेरपुर |
कृषि उपज मंडी समिति, भारूवासूमेरपुर |
272993 |
मौरारा |
कृषि उपज मंडी समिति, मौरारा |
272995 |
मस्कूरा |
कृषि उपज मंडी समिति, मस्कूरा |
272994 |
ललितपुर |
||
ललितपुर |
कृषि उपज मंडी समिति, ललितपुर |
272980, 272981 |
जालौन |
||
उरई |
कृषि उपज मंडी समिति, उरई |
272982 |
कौंच |
कृषि उपज मंडी समिति, कौंच |
272983 |
माधोगढ़ |
कृषि उपज मंडी समिति, माधोगढ़ |
272987 |
आयत |
कृषि उपज मंडी समिति, आयत |
----- |
जालौन |
कृषि उपज मंडी समिति, जालौन |
272985 |
कालपी |
कृषि उपज मंडी समिति, कालपी |
272986 |
करौरा |
कृषि उपज मंडी समिति, करौरा |
272988 |
महोबा |
||
महोबा |
कृषि उपज मंडी समिति, महोबा |
272989 |
चरखोरी |
कृषि उपज मंडी समिति, चरखोरी |
272990 |
पनवारी |
कृषि उपज मंडी समिति, पनवारी |
272001 |
बाँदा |
||
बाँदा |
कृषि उपज मंडी समिति, बाँदा |
272996 |
अतर्रा |
कृषि उपज मंडी समिति, अतर्रा |
272997 |
बबेरू |
कृषि उपज मंडी समिति, बबेरू |
272998 |
चित्रकूटधाम |
|
|
कर्वी |
कृषि उपज मंडी समिति, कर्वी |
272978 |
मऊ |
कृषि उपज मंडी समिति मऊ |
---- |
खेती की नयी जानकारी या समस्या निवारण हेतु किसान
बात करें – किसान कॉल सेंटर, निशुल्क टेलीफोन – 1800-180-1551, प्रातः 6.00 से रात्रि 10.00 बजे तक
देखें – डी.डी. किसान, दूरदर्शन उत्तर प्रदेश, ई.टी.वी. मध्य प्रदेश, डी. डी. नेशनल
सुनें – ऑल इंडिया रेडियो , सामुदायिक रेडियो
मिलें – कृषि कार्यालय, भारतीय दलहन अनुसन्धान केंद्र, कानपुर; भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद्
लॉग इन करें – www.agriculture.up.nic.in,www.mpkrishi.mp.gov.in या www.farmer.gov.inपर अपना मोबाइल पंजीकरण करवाकर निशुल्क एस.एम.एस. प्राप्त करें।
स्रोत: भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
अगस्त माह में बोई जाने वाली फसलों के बारे में जानक...
अक्टूबर माह में बोई जाने वाली फसलों के बारे में जा...
इस पृष्ठ में जनवरी माह के कृषि कार्य को बताया गया...
जुलाई माह में बोई जाने वाली फसलों के बारे में जानक...