झारखण्ड के बहुमुखी विकास में कृषि विकास का एक महत्वपूर्ण योगदान है। राज्य की कुल 79.9 लाख हेक्टेयर भूमि में से मात्र 38 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल खेती के योग्य है जिसमें से वर्तमान में 16 लाख हेक्टेयर वर्षाश्रित एवं 2 लाख हेक्टेयर में सिंचित खेती की जाती है। झारखण्ड में 1400 मि.ली. वर्षा होती है अतः सिंचित क्षेत्र के विस्तार की अपार संभावनाएं हैं। राज्य की कुल कृषि योग्य भूमि का 60% भाग उपरवार है जिसमें से सिंचित क्षेत्रफल में मात्र वर्षाश्रित धान अथवा अन्य मोटे अनाजों की केवल एक ही फसल ली जाती है। राज्य से प्राप्त उपज घरेलू आवश्यकता के 50% से भी कम होती है। इस क्षेत्र में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता मात्र 130 कि. ग्रा. प्रति वर्ष है जो कि राष्ट्रीय उपलब्धता मात्र (205 कि.ग्रा./व्यक्ति/वर्ष) से बहुत ही कम है। अतः अभी तक कम उपयोग में लाई जानेवाली उपरवार भूमि में सघन कृषि प्रणाली द्वारा उत्पादन के स्तर को बढ़ाये जाने की जरूरत है।
असिंचित उपरवार भूमि में प्रमुख फलों जैसे आम, लीची, आंवला, कटहल, अमरुद, पपीता, शरीफा एवं नींबू कि सफल खेती अत्यधिक लाभकारी पायी गई है। फल वृक्षों को अपेक्षाकृत अधिक दुरी पर लगाया जाता है। अतः जब तक उनके क्षेत्रक का पूर्ण विकास नहीं होता तबतक बीच की खाली जमीन को धान, लघु खाद्यानों, दलहनों, तिलहनों अथवा सब्जियों के उत्पादन में प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार उपरवार भूमि का सघन खेती के लिए प्रयोग करके बागवानी फसलों के साथ-साथ क्षेत्र में अनाज की कमी को भी पूरा किया जा सकता है और क्षेत्र को अधिक खुशहाल बनाया जा सकता है। इससे पर्यावरण सुधार के साथ-साथ पौष्टिक आहार भी सुनिश्चित किया जा सकता है। इस केंद्र के पिछले अनेक वर्षों के अनुभव के आधार पर निष्कर्ष निकला गया है कि फलदार वृक्षों के साथ दलहनी, तिलहनी, सब्जियों एवं खाद्यान फसलों की बहुस्तरीय खेती करके अधिक शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार मुख्य फसल के रूप में आम, आवंला, लीची एवं कटहल, पूरक पौधों के रूप में अमरुद, नींबू, शरीफा तथा अंतरासस्य के रूप में दलहन, तिलहन, सब्जियों एवं खाद्यान फसलों के साथ-साथ औषधीय पौधों की खेती करके सतत आय प्राप्त की जा सकती है।
आधार फलों के रूप में आम, आंवला, लीची एवं कटहल के खेती इस क्षेत्र के लिए उपयुक्त पाई गई है। आधार फल वृक्षों का आकार बड़ा होता है एवं उनसे लम्बे समय तक आय मिलती है अतः उन्हें उचित दूरी पर लगाया जाना आवश्यक है। क्षेत्र के लिए अनुशंसित आधार फल एवं उनकी किस्में
आधार फल एवं उनकी किस्में
फसल |
परिपक्वता का समय |
अनुशंसित किस्में |
आम |
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अगेती |
20-30 मई |
बाम्बे ग्रीन, रानी पसंद, जर्दा, जरदालू |
मध्य अगेती |
30 मई-10 जून |
हिमसागर, गोपाल भोग, किशन भोग |
मध्य |
10-30 जून |
लंगड़ा, दशहरी, सफेद मालदह, प्रभाशंकर |
मध्य पिछेती |
20 जून-20 जुलाई |
महमूद बहार, मल्लिका |
पिछेती |
25 जून-20 जुलाई |
आम्रपाली, सीपिया, चौसा, फजली |
अधिक पिछेती |
20 जुलाई-10 अगस्त |
कतली |
लीची |
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लगेती |
10-20 मई |
शाही, अझौली, ग्रीन |
मध्यम |
20-25 मई |
रोज सेंटेड, अर्ली वेदाना, सी एच ई एस२ |
मध्य अगेती |
25-10 जून |
स्वर्ण रूपा, चाइना, लेट वेदना |
पिछेती |
5-15 जून |
पूर्वी |
आंवला |
अक्टूबर- दिसंबर |
नरेंद्र आंवला-7, कंचन |
कटहल |
मई-अगस्त |
खजवा, सी एच.इ.एस-1 |
|
सी. एच इ. एस-2 |
पूरक फल के रूप में अमरुद, शरीफा, आलू(सतालू), नाशपाती एवं नींबूवर्गीय फलों को लगाया जा सकता है। छोटा होता है और ये शीघ्र फल देने लगते है। आधार फसल के पौधे जब अपना पूर्ण आकार ग्रहण कर लेते हैं तो पूरक पौधों को निकाल दिया जाता है।
पूरक फल एवं उनकी किस्में
फसल |
अनुशंसित किस्म |
अमरुद |
सरदार, इलाहाबाद सफेदा, अर्का मृदुला |
नींबूवर्गीय |
कागजी नींबू, असम लेमन-गन्धराज |
शरीफा |
बालानगर, अर्का सहन, स्थानीय किस्म |
पपीता |
पूसा डवार्क, पूसा नन्हा, स्थानीय किस्म |
नाशपाती |
नेतरहाट लोकल |
सतालू |
प्रभात, प्रताप, फ्लोरिडा सन, फ्लोरिडा रेड |
उपरोक्त फसलों के अतिरिक्त पापलर, गम्हार शहतूत एवं औषधीय पौधों को भी पूरक पौधों के रूप में लगाया जा सकता है।
पूरक फल लगाने के पश्चात बीच में स्थान में खाद्यान, सब्जी, पुष्प, मसाले इत्यादि फसलों की खेती कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त औषधीय पौधों जैसे-पिप्पली, पुर्नवा, भुई आंवला, मंडूकपर्णी, सतावर एवं ब्राह्मी का भी अंतरासस्यन करके अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकते हैं।
बहुस्तरीय फसल प्रणाली में आधार फसल के पौधे काफी बड़ा आकार ग्रहण करते हैं अतः उनकी वर्गाकार विधि से रोपाई 10 गुणा 10 मी. की दूरी पर करनी चाहिए। पूरक फसलें अपेक्षाकृत कम बढ़ती हैं व् उनकी आयु भी कम होती है अतः इन्हें आधार पर फसलों के बीच में 5 मी. की दूरी पर लगाया जाता है। इस प्रकार एक हेक्टेयर भूमि में आधार फसल के 100 एवं पूरक फसल के 300 पौधे लगाये जा सकते है। आधार फसलों की तुलना में पूरक फसलें शीघ्र फलत देना प्रारंभ कर देती है अतः रोपाई के दूसरे साल से ही आमदनी प्राप्त होने लगती है।
पूर्ण रूप से तैयार किये गये खेत में पौधों की रोपाई से पहले उनयुक्त दूरी पर रेखांकन करके पौधे लगाने के स्थान पर चिन्ह लगा देना चाहिए। तत्पश्चात चिन्हित स्थान पर अप्रैल-मई में आधार फसलों के लिए 90x90x90 सेंटीमीटर एवं पूरक फसलों के लिए 60x60x60 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद कर छोड़ देना चाहिए। जून में वर्षा होते ही गड्ढों को दो टोकरी गोबर की खाद, दो कि.ग्रा.. करंज/नीम कि खली, 1 कि.ग्रा. हड्डी का चूर्ण/सिंगल सुपर फास्फेट एवं 15-20 ग्रा. फ्यूराडान 3 जी /डर्सबान-10 को सतह की ऊपरी मिट्टी में मिलकर भर देना चाहिए। वर्षा प्रारंभ होते ही मिट्टी को अच्छी तरह समतल करके चिन्हित स्थान पर पौधों के पिंड के आकार का स्थान बनाकर पौधे लगाते है। तत्पश्चात मिट्टी को चारों तरफ से अच्छी तरह दबा देते हैं और पानी दे देते हैं।
अंतरासस्यन के रूप में सब्जी, पुष्प, दलहन, तिलहन अथवा धान्य फसलों को आधार व पूरक फलों की दो कतारों के मध्य रिक्त स्थान में लगाया जाता है इस प्रकार प्रारंभ में अपेक्षाकृत काफीभूमि अंतरासस्यन के लिए उपलब्ध रहती है। आधार एवं पूरक पौधों की पूर्ण वृद्धि होने पर जब सूर्य का प्रकाश कम आने लगे तो छायादार स्थानों में उगाई जा सकने वाली फसलें जैसे-हल्दी, अदरक इत्यादि की खेती का आमदनी बढ़ाई जा सकती है। एवं अधिक रोजगार के अवसर पैदा किये जा सकते हैं। इस केंद्र पर इस दिशा में किये गये परीक्षणों के आशातीत परिणाम मिले हैं। इस विधि में कृषक अपनी परम्परागत फसलों की खेती के साथ-साथ फल पौधों को स्थापित कर सकते हैं जो कि भविष्य में झारखंड प्रदेश को सुदृढ़ आर्थिक आधार देने में सहायक सिद्ध होंगें।
फसल |
लगाने का समय |
दूरी (से.मी.) |
नत्रजन (कि.ग्रा./हे.) |
फास्फोरस (कि.ग्रा./हे.) |
पोटाश (कि.ग्रा./हे.) |
उन्नतशील किस्में |
भिन्डी |
जून-जुलाई |
4020 |
120 |
80 |
60 |
अर्का अलामिका, अर्का अभय, परभनी क्रांति |
लोबिया |
|
|
60 |
50 |
50 |
अर्का गरिमा, पूसा बरसाती, बिरसा |
फ्रेंचबीन (लत्तीदार) |
|
40 15 |
50 |
40 |
40 |
स्वर्ण लता, बिरसा प्रिया, स्थानीय |
फ्रेंचबीन (झाड़ीदार) |
अगस्त-सितम्बर |
4010 |
80 |
50 |
50 |
पन्त अनुपमा, स्वर्ण प्रिया, अर्का कोमल |
जिमीकंद (ओल) |
मई-जून |
90 90 |
40 |
60 |
100 |
गजेन्द्र, सन्त्रगची, स्थानीय |
हल्दी |
|
40 20 |
80 |
60 |
60 |
सुगुणा, सुदर्शन, स्वर्णा, राजेद्र सोनियां, स्थानीय |
अदरक |
जून |
4020 |
80 |
60 |
60 |
सुप्रभा, सुरुचि, चाईन, नदिया, स्थानीय |
गेंदा |
जून-जुलाई |
50 30 |
25 |
25 |
20 |
यलो ड्राप, गोल्डन ड्राप, डबल लेमन, स्थानीय |
जरबेरा |
जून |
30 20 |
50 |
40 |
40 |
थलासा, तारा, संग्रीमा, सनसेट |
धान |
जून |
30 10 |
70 |
40 |
20 |
बिरसा गोड़ा-102, बिरसा धान-105, बिरसा धान-106, कलिंगा, वन्दना |
महुआ |
मध्य जून |
20 15 |
40 |
30 |
20 |
बिरसा मडुआ-1, बिरसा मडुआ-2, स्थानीय |
गुन्दली |
जून |
20 5 |
20 |
10 |
10 |
बिरसा गुन्दली-1, व्ही-15, स्थानीय |
सरगुजा |
अगस्त |
30 5 |
20 |
20 |
20 |
बिरसा नाइजर-1, उटकमंड, स्थानीय |
तिल ` |
जून |
40 20 |
40 |
40 |
20 |
कांके सफेद, टी.सी.25, कृष्णा, स्थानीय |
तोरी |
सिंतबर |
30 10 |
25 |
25 |
20 |
बी. आर.-23, टी-9 पी. टी.303 |
उरद |
जून-जुलाई |
20 10 |
20 |
40 |
20 |
टी.-9, पन्त यु-19, बिरसा उरद-1, स्थानीय |
अरहर |
15 जून-15 जुलाई |
60 25 |
40 |
40 |
20 |
बिरसा अरहर-1, लक्ष्मी, टी.21, स्थानीय |
कुल्थी |
अगस्त |
30 10 |
40 |
40 |
20 |
बिरसा कुल्थी-1, मधु, स्थानीय |
जून के दूसरे पखवाड़े में वर्षा प्रारंभ होते ही फल पौधों की रोपाई करने से उनकी जड़ों का समुचित रूप से विकास होता है। वर्षा न होने की दशा में रोपाई के बाद से जबतक पौधे जड़ नहीं पकड़ लेते, समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए। बगीचे से अतिरिक्त वर्षा जल के निकास कि समुचित व्यवस्था होनी आवश्यक है अन्यथा पौधों को हानि पहुँच सकती है। प्रारंभ के दो से तीन वर्षों तक पौधों की समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए। फल पौधों के आसपास समयानुसार निकाई-गुड़ाई करके खरपतवार नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक होता है। प्रारंभिक अवस्था में पहल पौधों की समुचित द्खेरेख के साथ कीड़ों एवं बीमारियों से रक्षा करना लाभदायक होता है।
प्रारंभिक 3-4 वर्षों तक फल पौधों को अधिक सर्दी व गर्मी से बचाव की आवश्यकता होती है। पौधों की अवांछित शाखाओं को निकाल कर उन्हें निशिचत आकार प्रदान करना चाहिए। जमीन से लगभग 80 सेंटीमीटर उंचाई तक की शाखाओं को निकाल देने से मुख्य तने का उचित विकास होता है। इन शाखाओं पर द्वितीय एवं तृतीय शाखाएं आती हैं जिससे पौधों का आकार सुडौल एवं ढांचा मजूबत बनता है व फलत अच्छी होती है। साथ ही क्षत्रक के बीच की शाखाओं को जिनमें फल नहीं आते काटकर निकाल देना चाहिए। सुखी, रोगग्रस्त अथवा कैंची शाखाओं को समय-समय पर काटते रहना चाहिए। आम एवं लीची के फलों को तोड़ने के पश्चात गुच्छे के साथ 10-15 सेंटीमीटर टहनी काट देने से स्वस्थ शाखाएँ निकलती है एवं अगले वर्ष फलत अच्छी होती है। अमरुद के पौधों को सुंदर एवं मजूबत ढांचा देने के लिए प्रांरभ के 2-3 वर्षों सेंटीमीटर की ऊंचाई से 3-4 शाखाएँ चारों दिशाओं में निकलने दी जाती है।
आम एवं लीची के लिए शुरुआत के 2-3 वर्षों तक तथा आंवला के लिए 5 वर्षों तक 30 कि. ग्रा. यूरिया, 150 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 150 गर. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधों प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। पौधों की बढ़वार के साथ-साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करना आवश्यक होता है। इसके लिए 10 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद, 150 ग्रा. करंज की खली, 150 ग्रा. यूरिया, 100 ग्रा. सि.सु.फॉ., 50 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश, प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से वृद्धि करना उचित रहता है। लगभग 15 वर्ष बाद पूर्णतया विकसित वृक्ष में 80-100 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 3-4 कि. ग्रा. करंज कि खली, 2 कि. ग्रा. यूरिया, 1.5 कि. ग्रा. सि.सु.फॉ, एवं 0.80 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पाराश प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। इसी प्रकार अमरुद, शरीफा, नींबूवर्गीय फल एवं अन्य पूरक फलों में संतुलित उर्वरकीकरण के लिए प्रारंभिक 3 वर्षों तक 25-30 कि. ग्रा. सड़ी गोबर की खाद, 1.5-2.0 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश देना चाहिए एवं पूर्ण विकसित वृक्ष में 30-40 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 3 कि.ग्रा. करंज की खली, 1 कि.ग्रा. यूरिया, 800 ग्रा. सि.सु. फॉ. एवं 400 गर. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वृक्ष/प्रति वर्ष क्षत्रक के नीचे देने की संस्तुति की जाती है। पूरी खाद एवं आधे उर्वरकों को जून तथा शेष उर्वरकों को सितम्बर में वृक्ष के क्षत्रक के नीचे गोलाई में डकार अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। खाद देने के बाद यदि वर्षा नहीं होती है तो सिंचाई करना आवश्यक है। छोटानागपुर की भूमि में लीची के लिए 3-4 कि.ग्रा. चूना प्रति वृक्ष ३ वर्ष के अंतराल पर देने से भूमि में सुधार एवं उपज में वृद्धि देखी गई है। फल वृक्षों में जिंक की कमी के लक्षण इस क्षेत्र सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में उर्वरकों के साथ देना लाभकारी पाया गया है।
पौधों की प्रारंभिक अवस्था में शीत ऋतू में 15-20 दिनों के अंतराल पर तथा गर्मी में 10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करना उचित रहता है। बरसात के बाद फलदार पौधों की जड़ों के पास नमी का उचित स्तर बनाये रखने के लिए सितम्बर-अक्टूबर में पोलीथिन चादर अथवा खरपतवार से मल्चिंग करना लाभदायक पाया गया है। लीची के पूर्ण विकसित वृक्ष में दिसम्बर से फल लगने तक पानी नहीं देना चाहिए। आम के पौधों में फलत के समय पानी की अधिक आवश्यकता होती है अतः मटर के आकार के फल होने से लेकर फलों की तुड़ाई तक उचित जल प्रबंध से फलों की गुणवत्ता एवं पैदावार में वृद्धि होती है। लीची के पौधों में फल पकने के छः सप्ताह पूर्व ( अप्रैल के प्रारंभ) से ही फलों का विकास तेजी से होने लगता है। अतः इस समय उचित जल प्रबंध कि आवश्यकता होती है। पानी की कमी से फलों का विकास रुक जाता है एवं वे चटखने लगते हैं अतः इस अवधि में पौधों के नीचे मल्चिंग करने एवं 2-3 दिन के अंतर पर हल्की सिंचाई करने से फलों में गुदे का विकास अच्छा होता है एवं फलों में चटखने की समस्या कम हो जाती है तथा पैदावार में वृद्धि होती है। परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकला है कि पौधों पर अप्रैल में 100 पी.पी.एम्., एन.ए.ए. एवं 0.4% बोरेक्स के छिड़काव् से फलों के गिरने एवं फटने की समस्या कम होती है। खरीफ के अंतरासस्यन के बाद कम से कम जुताई करके या ‘जीरो टिलेज’ द्वारा रबी की फसल लेने से बगीचे में नमी संरक्षण अच्छा होता है।
प्रायः वानस्पतिक विधि से तैयार फल पौधों शीघ्र फूलने-फलने लगते है। चूँकि पौधों का प्रारंभिक विकास होने में 3-4 वर्षों का समय लगता है अतः आधार फसल से इस समय फलत नहीं लेनी चाहिए। पूरक पौधों से दूसरे साल से ही कुछ फल लेना लाभदायक रहता है। आंवले में अच्छे फलन के लिए दो किस्मों को साथ-साथ दो माह पहले सिंचाई बंद करने पर फलन अच्छा होता है। विभिन्न कीटों द्वारा परागित फसलों में फूल आने के समय कीटनाशक दवाओं का प्रयोग वर्जित है।
अमरुद पर किये परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि इस क्षेत्र में ‘हस्तबहार’ की फसल से अधिक पैदावार व आमदनी प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए ‘मृगबहार’ की फसल को नियंत्रण करना होता है जिसके लिए पौधों पर 10 दिनों के अंतराल पर यूरिया के 15% घोल का दो बाद छिड़काव करें। इससे पौधों पर आने वाले फूल व पत्तियां गिर जाती हैं, तत्पश्चात पर्णीय शक्ति से ‘हस्तबहार’ की फसल में अधिक ओजपूर्ण फूल और फल आते है व उपज में वृद्धि होती है। हस्तबहार के फल नवम्बर से जनवरी के मध्य पककर तैयार होते है, जो गुणवत्ता में अच्छे होते हैं।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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