यदि मिटटी के स्वास्थ्य को सतत बनाए रखा जाए तो खेत से लंबे समय तक अच्छी उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है और मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखते हुए भविष्य के लिए एवं आने वाली पीढ़ी के लिए खाद्यान्न सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। राज्य के विभिन्न जिलों की मिट्टी के स्वास्थ्य की जानकारी प्राप्त करने के लिए झारखंड सरकार के कृषि, पशुपालन एवं सहकारिता विभाग के सौजन्य से आई. सी. ए. आर. की क्षेत्रीय इकाई “नेशनल ब्यूरो ऑफ़ स्वायल साइंस”, कोलकाता एवं बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग के संयुक्त प्रयास से 22 जिलों के मृदा सर्वे एवं मिट्टी की जांच का काम सम्पन्न किया गया। इस सर्वे कार्य में मिट्टी की ऊपरी सतह का परीक्षण कर जिलों की मिट्टी में पोषक तत्वों की उपलब्धता ज्ञात की गई, जिसके परिणामों से संबंधित जिले की भूमि की उर्वरता की स्थिति एवं उसके गुण-दोषों का पता चलता है।
झारखंड राज्य कृषि क्षेत्र में काफी पिछड़ा हुआ है। इस राज्य को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने हेतु वर्तमान उपज को बढ़ाकर दुगुना करना होगा। इसके लिए मृदा उर्वरता की स्थिति एवं उनकी समस्याओं की समुचित जानकारी का होना अति आवश्यक है ताकि प्रदेश के किसान कम लागत में अच्छी उपज प्राप्त कर सके।
झारखंड प्रदेश में लगभग 10.0 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि, अम्लीय समस्या से ग्रस्त (पी.एच.5.5 से कम) के अंतर्गत आती है, जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 48 प्रतिशत है। विभिन्न एग्रो-क्लाईमेटिक जोन में पड़नेवाली जिलों में अम्लीय भूमि की स्थिति को देखने से उत्तरी पूर्वी पठारी जोन (जोन IV) का अंतर्गत जामताड़ा, धनबाद, बोकारो, गिरिडीह, हजारीबाग एवं राँची के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 50 प्रतिशत से अधिक भूमि अम्लीय समस्या से ग्रस्त है, जिसका पी.एच. 5.5 से कम पाया गया है।
इस तरह पश्चिमी पठारी जोन (जोन V) में सिमडेगा, गुमला एवं लोहरदगा में 69 प्रतिशत से 72 प्रतिशत तक अम्लीय भूमि की समस्या है, जबकि पलामू, गढ़वा एवं लातेहार में अम्लीय भूमि का क्षेत्रफल 16 प्रतिशत से कम पाया गया है।
दक्षिण-पूर्वी पठारी जोन (जोन VI) में अम्लीय भूमि की समस्या सबसे ज्यादा है। इस जोन के अंतर्गत आने वाले तीनों जिलों – सरायकेला, पूर्वी एवं पश्चिम सिंहभूम में अम्लीय भूमि के क्षेत्र 70 प्रतिशत के करीब है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि झारखंड प्रदेश में अम्लीय भूमि की समस्या सर्वाधिक प्रमुख समस्या है।
शोध में देखा गया है कि अम्लीय समस्याग्रस्त भूमि में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों में असंतुलन के कारण पैदावार में कमी हो जाती है। ऐसी भूमि जिसका पी.एच. मान 5.5 से नीचे हो, अधिक पैदावार हेतु उनका उचित प्रबंधन किया जाना अत्यंत जरूरी है। इसके लिए ऐसे पदार्थो का प्रयोग करना चाहिए, जो भूमि का अम्लीयता को उदासीन कर विभिन्न तत्वों की उपलब्धता बढ़ा सकें। ऐसी भूमि में चूने का प्रयोग कर भूमि की अम्लीयता को कम कर पैदावार बढ़ाई जा सकती है, इसके लिए चूना खेतों में डालने के काम में लाया जाता है। जब फसलों की बुआई के लिए कुंड खोला जाए, उसमें चूने का महीन चूर्ण 2-4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के दर से डालने के बाद उसे पैर से ढक देना चाहिए। उसके बाद फसलों के लिए अनुशंसित उर्वरकों एवं बीज की बुआई करनी चाहिए। चूने के स्थान पर बेसिक स्लैग, प्रेस मड, डोलोमाइट, पेपर मिल एवं स्लज इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है।
मृदा सर्वे में राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 47.38 प्रतिशत अर्थात 37.77 लाख हेक्टेयर भूमि में जैविक कार्बन की स्थिति निम्न से मध्यम पाई गई है जबकि 50.71 भूमि में जैविक कार्बन का स्तर उच्च पाई गई है। ऐसी भूमि में जैविक एवं जीवाणु खाद्य की समुचित व्यवहार कर मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करते हुए अच्छी फसल उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
तालिका 1: झारखंड की मिट्टी में जैविक कार्बन की स्थिति
जैविक कार्बन स्तर |
क्षेत्र (’00 हें.) |
कुल भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत |
निम्न (0.50 प्रतिशत से कम) |
17354 |
21.77 |
मध्यम (0.50 प्रतिशत से 0.75 प्रतिशत तक) |
20415 |
25.61 |
अधिक (0.75 प्रतिशत से ज्यादा) |
40423 |
50.71 |
अन्यान्य |
1522 |
1.91 |
कुल |
79714 |
100.00 |
मृदा सर्वे जाँच में झारखण्ड राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 89.67 प्रतिशत अर्थात 71.48 लाख हेक्टेयर भूमि में उपलब्ध नेत्रजन निम्न से मध्यम स्तर का पाया गया है। ऐसी भूमि में फसलोत्पादन के लिए उचित एवं अनुशंसित मात्रा में नेत्रजनीय उर्वरक का व्यवहार आवश्यक है। राज्य की बहुतायत भूमि अम्लीय प्रकृति के होने के कारण ऐसी भूमि में अमोनियम सल्फेट का नेत्रजनीय उर्वरक के रूप में व्यवहार से भूमि की अम्लीयता बढ़ जाती है, जिसका फसलोत्पादन में प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
तालिका 2: झारखंड की मिट्टी में उपलब्ध नेत्रजन की स्थिति
उपलब्ध नेत्रजन (किलो/हें.) |
क्षेत्र (’00 हें.) |
कुल भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत |
निम्न (280 से कम) |
15648 |
19.63 |
मध्यम (280 से 560 तक) |
55832 |
70.04 |
अधिक (560 से ज्यादा) |
6600 |
8.28 |
अन्यान्य |
1634 |
2.05 |
कुल |
79714 |
100.00 |
अम्लीय भूमि में पौधों के उचित विकास के लिए आवश्यक स्फूर (फ़ॉस्फोरस) की उपलब्धता बहुत कम होती है। हाल में किए गए मृदा सर्वेक्षण एवं जाँच में राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र के करीब 65.77 प्रतिशत भूमि में उपलब्ध स्फूर की कमी पाई गई हैं। जबकि 27.65 प्रतिशत भूमि में मध्यम तथा 4.54 प्रतिशत भूमि मात्र में उपलब्ध स्फूर का स्तर अधिक पाया गया है। अम्लीय भूमि में उपलब्ध स्फूर की कमी को पूरा करने के लिए रॉक फ़ॉसफेट के साथ कम्पोस्ट/गोबर खाद का प्रयोग अनुशंसित हैं। इसके अलावा सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट, ट्रिपल सुपर फ़ॉस्फेट या डाय अमोनियम फास्फेट के अनुशंसित मात्रा का व्यवहार लाभप्रद पाया गया है।
तालिका 3: झारखंड की मिट्टी में उपलब्ध स्फूर की स्थिति
मृदा-क्रिया वर्गीकरण |
क्षेत्र (’00 हें.) |
कुल भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत |
निम्न (10 से कम) |
52428 |
65.77 |
मध्यम (10 से 25 तक) |
22041 |
27.65 |
अधिक (25 से अधिक) |
3619 |
4.54 |
अन्यान्य |
1626 |
2.04 |
कुल |
79714 |
100.00 |
राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र के करीब 68.8 प्रतिशत भूमि में उपलब्ध पोटाश की स्थिति निम्न से मध्यम पाई गई है। ऐसी भूमि में पोटाशधारी उर्वरक – म्यूरिएट ऑफ़ पोटाश का व्यवहार अनुशंसित मात्रा में अवश्य करना चाहिए। इससे पौधों को रोग व्याधि से लड़ने की क्षमता में वृद्धि होती है तथा फसलों की गुणवता जैसे – चमक, रखरखाव में मदद मिलती है।
तालिका 4: झारखंड की मिट्टी में उपलब्ध पोटाश की स्थिति
उपलब्ध पोटाश (किलो/हें.) |
क्षेत्र (’00 हें.) |
कुल भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत |
निम्न (108 से अधिक) |
14261 |
17.89 |
मध्यम (108-280 तक) |
40582 |
50.91 |
अधिक (280 से अधिक) |
23237 |
29.15 |
अन्यान्य |
1634 |
2.05 |
कुल |
79714 |
100.00 |
राज्य की कुल भौगोलिक क्षेत्र का 23.24 लाख हेक्टेयर अर्थात 29.15 प्रतिशत भूमि में उपलब्ध पोटाश की स्थिति पर्याप्त पाई गई है।
राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र 79.714 लाख हेक्टेयर भूमि में से 30.32 लाख हेक्टेयर भूमि में 38.04 प्रतिशत निम्न, 24.80 लाख हेक्टेयर अर्थात 31.1 प्रतिशत भूमि में मध्यम तथा 28.80 प्रतिशत भूमि में उपलब्ध स्फूर (गंधक) की स्थित्ति अधिक पाई गई है। राज्य की भूमि में सल्फर की कमी को देखते हुए तेलहनी फसलों की खेती में सल्फर (गंधक) धारी उर्वरक का व्यवहार करना जरूरी है।
तालिका 5: झारखण्ड की मिट्टी में उपलब्ध सल्फर की स्थिति
उपलब्ध सल्फर (मि.ग्रा./किलो) |
क्षेत्र (’00 हें.) |
कुल भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत |
निम्न (10 से कम) |
30323 |
38.04 |
मध्यम (10-20 तक) |
247999 |
31.11 |
अधिक (20 से अधिक) |
22958 |
28.80 |
अन्यान्य |
1634 |
2.05 |
कुल |
79714 |
100.00 |
झारखंड प्रदेश में मुख्य पोषक तत्वों में मुख्य रूप से फ़ॉस्फोरस (स्फूर) एवं सल्फर (गंधक) की कमी पाई गई है। कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 66 प्रतिशत भाग में फ़ॉस्फोरस एवं 38 प्रतिशत भाग में सल्फर की कमी पाई गई है। पोटैशियम की स्थिति कुल भौगोलिक क्षेत्र के 51 प्रतिशत भाग में निम्न से मध्यम (108-280 किलो प्रति हेक्टेयर) तक तथा नाइट्रोजन की स्थिति 70 प्रतिशत क्षेत्र (280-560 प्रति हेक्टेयर) में निम्न से मध्यम पाई गई है। जैविक कार्बन 47 प्रतिशत भाग में मध्यम (0.5 प्रतिशत – 0.75 प्रतिशत) स्थिति में पाई गई है।
यदि मुख्य पोषक तत्वों की स्थिति पर हम जिलावार गौर करे तो हम पाते हैं कि झारखंड क्षेत्र के आधा से ज्यादा जिलों में फ़ॉस्फोरस की कमी है। गुमला, पूर्वी सिंहभूम, सिमडेगा, गोडडा, सरायकेला एवं पश्चिमी सिंहभूम में 80 प्रतिशत से अधिक भूमि में फ़ॉस्फोरस की उपलब्धता बहुत कम है।
पश्चिम सिंहभूम, लातेहार एवं लोहरदगा जिलों में सल्फर की कमी 60-80 प्रतिशत तक है। गढ़वा, हजारीबाग, गुमला, देवघर, गोड्डा, राँची, सरायकेला, पाकुड़, दुमका, पूर्वी सिंहभूम, साहेबगंज में 30 से 58 प्रतिशत तक भूमि में सल्फर की कमी पाई गई है। अन्य जिलों में इसकी उपलब्धता संतोषजनक है। उपलब्ध पोटैशियम की कमी पूर्वी एवं पश्चिम सिंहभूम एवं धनबाद के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 30 से 50 प्रतिशत तक की भूमि में है। अन्य जिलों में कमी का स्तर 5 से 25 प्रतिशत तक है। उपलब्ध नाइट्रोजन को स्थिति कुछ जिलों (गुमला, देवघर, सिमडेगा एवं लोहरदगा) को छोड़कर सभी जिलों में मध्यम पाया गया है। जैविक कार्बन की स्थिति नाइट्रोजन के जैसा ही है।
स्फूर (फ़ॉस्फोरस) की कमी विशेषत: दलहनी एवं तेलहनी फसलों की उपज को प्रभावित करता है। फसल विलम्ब से पकते हैं एवं बीजों या फलों के विकास में कमी आती है। ऐसे क्षेत्र जहाँ पर स्फूर की कमी हो मिट्टी जाँच प्रतिवेदन के आधार पर सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट या डी.ए.पी. का प्रयोग करना चाहिए। लाल एवं लैटेरिटिक मिट्टियों में जिसका पी.एच. मान 5.5 से कम हो रॉक फ़ॉस्फेट का उपयोग काफी लाभदायक पाया गया है।
जिन जिलों में सल्फर की कमी ज्यादा पाई गई है वहाँ पर एस.एस.पी. का प्रयोग कर इसकी कमी पूरी की जा सकती है। इसके अलावा फ़ॉस्फो जिप्सम मिश्रित उर्वरक का प्रयोग भी सल्फर की कमी को दूर करने में लाभदायक है। दलहनी एवं तेलहनी फसलों में सल्फर युक्त खाद का प्रयोग लाभदायी होता है। अत: पोटाश पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक है। किसान को फसलों के आधार पर नाइट्रोजन के साथ-साथ अन्य पोषक तत्वों स्फूर, पोटाश, सल्फर के अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
मृदा सर्वेक्षण जाँच में राज्य की भूमि में फसलों के लिए आवश्यक विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्वों में से उपलब्ध जिंक (90.55 प्रतिशत), उपलब्ध कॉपर (73.64 प्रतिशत) तथा उपलब्ध बोरान (53.43 प्रतिशत) की स्थिति पर्याप्त (संतोषप्रद) पाया गया है। जबकि राज्य की 44.52 प्रतिशत भूमि में उपलब्ध बोरॉन की स्थिति अपर्याप्त (कमी) देखी गई । इसलिए फसल के आवश्यकतानुसार बोरानधारीउर्वरक का व्यवहार किया जाना जरूरी है। अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों में से उपलब्ध लोहा, उपलब्ध मैंगनीज, उपलब्ध कैल्सियम की स्थिति लगभग शत प्रतिशत भूमि में पर्याप्त पाई गई है।
तालिका 6: झारखंड की मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्व की स्थिति
सूक्ष्म पोषक तत्व |
क्षेत्र (’00 हें.) |
कुल भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत |
उपलब्ध जिंक (मिली ग्रा./किलो) |
||
अपर्याप्त (0.5 से कम) |
5907 |
7.41 |
पर्याप्त (0.5 से अधिक) |
72181 |
90.55 |
उपलब्ध कॉपर (मिली ग्रा./किलो) |
||
अपर्याप्त (0.2 से कम) |
3444 |
4.32 |
पर्याप्त (0.2 से अधिक) |
74644 |
93.64 |
उपलब्ध बोरॉन (मिली ग्रा./किलो) |
||
अपर्याप्त (0.25 से कम) |
35489 |
44.52 |
पर्याप्त (0.25 से अधिक) |
42591 |
53.43 |
इस प्रकार हम देखते हैं कि झारखंड के कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 45 प्रतिशत भाग में बोरॉन, 4 प्रतिशत भाग में कॉपर तथा 7 प्रतिशत में जिंक की कमी पाई गई है। यदि सूक्ष्म पोषक तत्वों की स्थिति पर हम जिलावार गौर करें तो हम पाते हैं कि सरायकेला, पलामू, गढ़वा, लोहरदगा, पूर्वी सिंहभूम एवं लातेहार जिले के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 5 प्रतिशत भाग में बोरॉन की कमी पाई गई है। शेष अन्य जिलों में इसकी कमी का स्तर 20-45 प्रतिशत तक है।
जिंक की कमी मुख्यत: चार जिलों – पाकुड़, लोहरदगा, गिरिडीह एवं कोडरमा में पाई गई है। इसकी कमी की स्थिति इन जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 14-17 प्रतिशत भूमि में है। कॉपर की कमी लगभग नगण्य है एवं अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे – आयरन, मैंगनीज मिट्टी में पूर्ण मात्रा में उपलब्ध है।
स्त्रोत: कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/26/2020
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