शोध परिणामों से यह स्थापित हो चुका है कि वर्षों तक लगातार असंतुलित एवं अपर्याप्त प्रबंध, जिसमें पोषक तत्वों में जैविक स्रोतों का सामान्यतः अभाव रहता है, भूमि कि उर्वरा शक्ति एवं उत्पादकता में ह्रास के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी होता है। रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग, भूमि की उर्वरता एवं फसलोत्पादकता को लंबे समय तक बनाए रखने में अक्षम है। जबकि जैविक कृषि तकनीक की उर्वरता एवं फसलोत्पादकता को लम्बे समय तक स्थिर बनाये रखने के साथ-साथ मृदा के भौतिक, रसायनिक एवं जैविक गुणों की कमी नहीं होने पाती। राष्ट्रीय स्तर पर उर्वरकों की बढ़ती कीमत एवं मांग तथा पूर्ति के बीइच बढ़ते अंतर को ध्यान में रखते हुए जैविक कृषि तकनीक को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए। जैविक कृषि तकनीक में जैविक खाद, दलहनी फसलें, हरी खाद, फसल अवशेष, जीवाणु खाद एवं केंचुआ खाद द्वारा पोषण प्रबंध तथा कीट एवं बीमारियों के जैविक नियंत्रण, जल प्रबन्धन, पशुधन प्रबन्धन एवं जनसहभागिता सम्मिलित हैं।
मृदा में जैविक पदार्थों कि पर्याप्त उपलब्धता के लिए जैविक खादों का प्रयोग अनिवार्य है। जैविक खाद मृदा कि भौतिक संरचना तथा रसायनिक एवं जैविक गुणों पर लाभदायक प्रभाव डालते हैं। एक टन गोबर की खाद तथा ग्रामीण कोम्पोस्ट के प्रयोग से 5-8 कि.ग्रा. नत्रजन, 3.0-35 कि. ग्रा., फास्फोरस एवं 5-6 कि. ग्रा., पोटाश मिलता है। शहरी कम्पोस्ट में औसत पोषक तत्वों कि मात्रा थोड़ी ज्यादा होती है। एक टन करंज, नीम, अरंडी, मूंगफली, नारियल, सरगुजा, तिल इत्यादि की खली के प्रयोग से 30-70 कि, गर, नत्रजन, 8-2 0 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 10-20 कि. ग्रा. पोटाश मिलता है।
दलहनी फसलों को सब्जियों के साथ सम्मिलित किया जा सकता है। मुख्यतः दलहनी फसलों को सब्जियों के साथ अन्तःफसल के रूप में या हरी खाद के रूप में उगाया जा सकता है। दलहनी फसलों को सम्मिलित करने से सब्जियों की पैदावार में उत्साहजनक वृद्धि तथा उपज में स्थिरता देखी गई है। दलहनी फसलें खेत में उगाने से इनके द्वारा किये जाते वाले वायुमंडलीय नत्रजन यौगिकीकरण का लाभ मिलता है। लोबिया, मटर, सोयाबीन, मूंगफली, बीन इत्यादि दलहनी फसलों से 40-90 कि. ग्रा./हेक्टेयर की दर से यौगिकीकृत नत्रजन का लाभ मिलता है।
हरी खाद के प्रयोग से जैविक पदार्थ के अतिरिक्त मृदा में नत्रजन की मात्रा बढ़ जाती है। इसकी अतिरिक्त जीव रसायनिक क्रिया में तीव्रता आती है तथा पोषक तत्वों का संरक्षण व उपलब्धता बढ़ती अहि। बरसात में उगाये जाने वाले हरी खाद में ढैंचा (सेसवानिया एक्युलियाटा ) एवं सनई (क्रोटोलेरिया जन्सिया) तथा शुष्क मौसम में उगायी जाने वाली हरी खादों में सेंजी (मेलिलोटस अल्वा) एवं बरसीम (ट्राईफोलियम अलेक्सनड्रीनम) प्रमुख है। हरी खाद की जुताई उसी समय करना चाहिए जब फसल में काफी पत्तियाँ आ जाए परन्तु वे कड़ी न हो जिससे पलटाई के बाद आसानी से सड़ जाए। साधारणतः बुआई से 45-50 दिन बाद हरी खाद पलट कर जुताई करना चाहिए। इसके अतिरिक्त वनखेती तंत्रानुसार गरिपुष्प (ग्लिरिसिडिआ मैकूलाटा) एवं सुबबूल (ल्युकायना लुकोसेफाला) लगाकर उसके पत्तों का हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। ग्लिरिसिडिआ की एक टन हरी पत्तियों में 30-40 कि. ग्रा. नत्रजन, 3.0-32 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 15 -25 कि. ग्रा. पोटाश होता है। एक टन सुबबूल कि पत्तियों के प्रयोग से 30-35 कि. ग्रा. नत्रजन, 2.5 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 14-15 कि. ग्रा. पोटाश मिलते हैं।
धान, मूंगफली कि भूसी तथा ज्वार एवं मडुआ के तनों आदि के प्रयोग से जमीन में जैविक कार्बन में वृद्धि के साथ-साथ मृदा की भौतिकी संरचना भी उत्कृष्ट हो जाती है। फसल अवशेष के एक टन में ३-15 कि. ग्रा. नत्रजन, 2-7 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 3-20 कि. ग्रा. पोटाश होता है।
कुछ जीवाणु पौधों की जड़ों में या उसके आसपास रहकर वायुमंडलीय नत्रजन का यौगिकीकरण करते हैं या भूमि में उपलब्ध अघुलनशील फास्फोरस को पौधों के लिए उपयोगी बनाते हैं इस प्राकर पौधों की वृद्धि एवं उपज बढ़ाने में ये सक्रिय योगदान देने के साथ-साथ की उर्वरा शक्ति भी बनाये रखते हैं। इन्हें जीवाणु खाद के रूप में फसलों में दिया जाता है।
नत्रजन उपलब्ध कराने वाली जीवाणु खादों में उपस्थित जीवाणु वातावरण में उपलब्ध कराते हैं। दलहनीजातीय सब्जियों जैसे – लोबिया, मटर, बीन आदि में नत्रजन की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए राइजोबियम जीवाणु खाद प्रयोग करनी चाहिए। अन्य सब्जी फसलों में नत्रजन की उपलब्धता बढ़ाने वाली जीवाणु खाद एजोटोबैक्टर तथा एजोस्प्रिल्लियम हैं।
फास्फोरस उपलब्ध कराने वाली जीवाणु खादों में ऐसे जीवाणु होते हैं जो भूमि में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील रूप में बदल दी हैं जिससे पौधे आसानी से इसे अपने भोजन के रूप में प्रयोग कर पाते हैं। अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाने वाले जीवाणु खाद फास्फोबैक्ट्रिन तथा फास्फाटिका नाम से बाजार में उपलब्ध है।
विभिन्न जीवाणु खादों का प्रयोग करने कि विधियाँ
बीजोपचार विधि से 250 ग्रा. गुड़ एक लीटर पानी में उबाल कर ठंडा करने के बाद उसमें 500 ग्रा, जीवाणु खाद तथा एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त बीज को अच्छी तरह मिलाकर आधा घंटा तक छायादार स्थान में सुखाने के बाद इस उपचारित बीज की बुआई करनी चाहिए। जीवाणु कल्चर को धूप से बचाना आवश्यक होता है। कंद उपचार के लिए 2 कि. ग्रा. कल्चर 5 लीटर पानी में अच्छी तरह मिलकर एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त कंदों को इसमें उपचारित करके आधा घंटा तक छायादार स्थान में सुखाने के बाद बुआई करनी चाहिए। मिट्टी उपचार के लिए, 2 कि. ग्रा. कल्चर, 25 कि. ग्रा. गोबर की सड़ी खाद एवं 25 कि. ग्रा. मिट्टी के साथ अच्छी तरह मिलाकर भींगे हुए जूट के बोर से ढककर छायादार स्थान पर रखें तथा 5 दिन के अंतराल पर दो बार पलटें। 15 दिन के बाद उपरोक्त मिश्रण को एक हेक्टेयर में समान रूप से बिखेर देना चाहिए। इस प्रक्रिया को चार्जिंग कहा जाता है। जीवाणु खादों का प्रयोग करते समय उर्वरकों तथा रसायनिक दवाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए।
यह एक उच्च कोटि कि संतुलित जैविक खाद है जो एसिनिया फोटिडा तथा युड्रीलस युजनी नामक केंचुओं द्वारा तैयार किया जाता है। इसमें नत्रजन (8.0-1.2%), फास्फोरस (0.7-1.2%) तथा पोटाश (1.0-1.5%) के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व एवं एंजाइम उपलब्ध होते हैं जो पौधों के लिए आवश्यक होते हैं। यह जमीन कि उर्वरता तथा मिट्टी कि जलधारण क्षमता को भी बढ़ाती है।
बुआई/रोपाई से पहले 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से केंचुआ खाद जमीन को मिलानी चाहिए। केंचुआ खाद के प्रयोग के बाद भूमि की सतह को पुआल, सुखी पत्तियां या कूड़ा-करकट बिछाकर ढँक (मल्चिंग) देने से इसका प्रयोग प्रभाव अच्छा होता है। इसकाउपयोग करते समय उर्वरक तथा रसायनिक दवाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए।
रसायनिक दवाओं द्वारा कीट एवं बीमारियों का प्रबन्धन एक सरल एवं प्रभावशाली तरीका है। परन्तु रसायनिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग, प्रबन्धन के साथ-साथ कृषि व्यवस्था के लिए कई नई समस्याओं जैसे कीट में कीटनाशक की प्रतिरोधक क्षमता का पैदा होना, वातावरण एवं भूमिगत-जल प्रदुषण, कृषि उत्पाद में रसायनिक दवा के अवशेष की मात्रा का मानव स्वास्थ्य में कुप्रभाव, फसल के कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या का ह्रास, फसलों के भण्डारण क्षमता में ह्रास प्रमुख है।
कीट एवं बिमारियों के नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपायों को अपनाया जा सकता है।
यह एक जैविक फफूंदीनाशक है जो मुख्यतः ट्राईकोडर्मा विरिडी पर आधारित है। यह आलू, हल्दी, अदरक, प्याज, लहसुन आदि फसलों के जड़ सड़न तना गलन, झुलसा आदि रोगों, जो फफूंद से होते हैं, में प्रभावकारी पाया गया है। साथ ही साथ टमाटर एवं बैंगन के जीवानुज मुरझा रोग के लिए भी यह उपयुक्त पाया गया है। बाजार में ट्राईकोडर्मा मोनिटर, बायोडर्मा, आनमोलडर्मा, ट्राईको एस पी, ट्राईकोडर्मा, बायोनैब टी एवं फुले ट्राईकोकिल आदि विभिन्न नामों से उपलब्ध है। इसके प्रयोग से मिट्टीजनित अनेक बीमारियों की रोकथाम की जा सकती है साथ ही पौधों कि बढ़वार अच्छी होती है। उपचार के लिए सब्जियों में नर्सरी लगाने के पहले 2-4 ग्रा. ट्राईकोडर्मा प्रति कि. ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बीज लगाएं। खेत में ट्राईकोडर्मा का प्रयोग करने के लिए गोबर की खाद को उपचारत करके लगाएं। एक बैलगाड़ी सड़ी हुई गोबर की खाद (250-300 कि.ग्रा.) में 1 कि. ग्रा. ट्राईकोडर्मा पाउडर छिडककर अच्छी तरह मिलाएं। पांच दिन के अन्तराल पर 2 बार इसे पलटें ताकि ट्राईकोडर्मा अच्छी तरह खाद में मिल जाएं तथा फफूंद पूरी खाद में फैल जाए। खाद में नमी बनाए रखने के लिए गर्मी के दोनों एन भींगे जुट के बोर या अखबार से ढकें। जाड़े में इसे पौलिथिन से ढका जा सकता है, यह ध्यान रहे कि इसमें हल्की नमी (20%) बनी रहे था तापमान 50 सेंटीग्रेड से न बढ़ने पाए। इस क्रिया को चार्जिंग कहते हैं। इस प्रकार से तैयार गोबर की खाद को सब्जी एवं फलों में देना चाहिए।
यह संक्षेप में बी,टी, के नाम से जाना जाता है जो फूलगोभी एवं पातगोभी पर हीरक पीट फतिंगों (डायमंड बैक मोथ) का नियंत्रण करता है। इसका 500-1000 ग्रा. कल्चर प्रति हेक्टेयर की दर से 650 लीटर पानी में घोल्कार 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव् करना चाहिए। बाजार में यह डेल्फिन के नाम से उपलब्ध है।
छोटे ततैया पर आधारित है जो पतिंगों के अंडे के परजीवी होते हैं। इसके 8 से 12 कार्ड प्रति हेक्टेयर की दर से 10 से 15 दिनों के अंतराल पर 3-4 बार फसल में शाम के समय लगा दिए जाते हैं। ट्राईकोग्रामा बैक्ट्री फूलगोभी एवं पातगोभी के लिए तथा ट्राईकोग्रामा किलोनिस अन्य सब्जियों में प्रयोग किया जाता है।
यह पेसिलोमाईसीस लीलासिनस नामक फफूंद से बनाया जाता है जो जमीन में रहकर कृमि के अंडे और कई बार मादा सूत्रकृमि को खाकर उनका नियंत्रण करती है। सब्जी की फसलों की बुआई के वक्त या उसके तुरंत बाद इसे 50 कि. ग्रा. हेक्टेयर की दर से पौधे के आसपास देना चाहिए। अगर खेत में नमी नहीं है तो शीघ्र ही पानी का प्रबंध किया जाना चाहिए। नर्सरी के लिए 1 वर्गमीटर में 20 ग्रा. जैविक सूत्रकृमिनाशक इस्तेमाल करें।
यह फफूंद पर आधारित जैविक कीटनाशक है, जो हरी, इल्ली, डायमंड बैक मोथ, सफेद मक्खी, माहू(लाही), लीफ माइनर, बोरर आदि कीड़ों में बीमारी फैलाकर उनका नियंत्रण करता है। इसके लिए 4 से 5 ग्रा. ब्युवेरीया बेसियाना प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव् करना चाहिए। जमीन में प्रयोग करने के लिए 1 कि. ग्रा. ब्युवेरीया बेसियाना मिट्टी में मिलना अच्छा रहता है।
यह भी फफूंद पर आधारित जैविक कीटनाशक है, जो सफेद मक्खी, माहू (लाही), थ्रिप्स आदि पर बीमारी फैलाकर नियंत्रण करता है। इसके लिए 2 कि. ग्रा. वार्टिसिलियस लीकानी 500 लीटर पानी में घोलकर खड़ी फसल पर छिड़कव् करें।
एन. पी. वी. – यह हरी इल्ली (इसे अमेरिकन वर्म, हेलियोथिस या हेलिकोवरपा भी कहते है) के शरीर से निकला गया विषाणु तत्व है जो टमाटर की फल छेदक से रक्षा करता है। इसके प्रयोग के लिए 250 एल. ई. (लार्वा इक्विवैलेंट) प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 500 लीटर पानी में 500 ग्रा. गुड़ तथा 250 मि.ली. डिटर्जेंट के साथ गोलकर उपयोग करें।
इसका प्रयोग सफेद मक्खी, भृंग, फुदका (जैसिड्स) कटुआ कीट, टहनी तथा फल बेधक सुंडी पर किया जाता है। यह कीड़ों के जीवन चक्र को कमजोर बनाता है। नीम के बीज का घोल बनाने के लिए 35 कि. ग्रा.नीम के बीज पानी में पीस कर 100 ली. घोल तैयार कर टब में जमा करें। इसे 12 घंटे बाद कपड़े में छानकर प्रति ली.घोल को 6 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव् करें। एक हेक्टेयर में लगी सब्जी फसल पर छिड़काव् के लिए लगभग 700 ली. नीम के बीज के घोल कि आवश्कता होती है।
उपरोक्त तकनीकों के अलावा जल प्रबन्धन एवं पशुधन प्रबन्धन अपनाकर तथा स्वयं सहायता समूह बनाकर कम खर्च में साधारण किसानों के लिए भी आसानी से निर्यात बाजार उपलब्ध हो सकेगा।
स्त्रोत एवं सामग्रीदाता : कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 7/4/2021
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