भारतीय कृषि में हरित क्रांति के बाद आधुनिक तकनीक का प्रयोग बढ़ने के साथ-साथ उसी अनुपात में पौध संरक्षण रसायनों व उर्वरकों का उपयोग भी अधिकाधिक होने लगा है| यद्यपि आज देश खाद्यानों के उत्पादन में आत्मनिर्भर हुआ है परन्तु आधुनिक तकनीक में इस्तेमाल होने वाले रसायनों से हमारी मृदा की संरचना तथा वातावरण में भाई असमानता व असंतुलन पैदा हो रहा है| अब हमारे देश में भी अन्य विकसित देशों की भांति कार्बनिक व प्राकृतिक खेती की आवश्यकता महसूस की जा रही है|
जैविक खेती पूर्ण रूप से प्राकृतिक के वातावरण के साथ जुडी हुई है| यह खेती की एक ऐसी समूह पद्धति है जिसमें उर्वरकों एवं कीटनाशी रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता है| इसमें भूमि की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिए घास-फूस से बनी कम्पोस्ट, शहरी कचरे व गंदे नाले से प्राप्त गली-सड़ी खाद, जीवाणु खाद तथा सूक्ष्म जीवाणुओं से निर्मित खाद, नीम के पौधे के विभिन्न उत्पाद तथा प्रक्रति में पाए जाने वाले अन्य पौधों के उत्पादों से पौध संरक्षण का काम लिया जाता अहि| रसायनों से होने वाले विभिन्न प्रकार के प्रदूषण को रोकने के लिए हमें जैविक संसाधनों पर निर्भर होना पड़ेगा| मैं विषय के दायरे में रह कर यहाँ सिर्फ रासायनिक खादों के विकल्प के बारे में ही बात करूँगा||
हिमाचल प्रदेश के किसान गोबर को गौशाला से सीधे ही खेतों में फेक दिया जाता है या फिर खेतों के किनारे पर बिना गड्ढा बनाये ढेर लगा दिया जाता है जिससे गोबर में पाए जाने वाले अधिकांश तत्व वर्षा के पानी से बह जाते हैं फिर कुछ तत्व धूप की गर्मी से उड़ जाते हैं| दूसरी तरफ ये कच्चा गोबर फसलों में विभिन्न प्रकार की बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप भी पैदा करता है| अगर किसान भाई इस खाद को गड्ढे में बनाएं तो इसमें विभिन्न पौध पोषण तत्वों की मात्रा दो से तीन गुणा ज्यादा होती है| गड्ढों/ टैंक या तो जमीन से नीचे या सतह के ऊपर बनाये जा सकते हैं| इन गड्ढों में तीन से चार मास के भीतर खाद बनकर तैयार हो जाती है| अच्छी खाद बनाने का ढंग व उसके उचित प्रयोग के बारे में निम्नलिखित बातें अवश्य ध्यान में रखें:
सबसे पहले गौशाला से कुछ ही दूरी पर या अपने खेत के एक कोने पर एक या 2 मीटर लम्बा, 2 मीटर चौड़ा तथा के मीटर गहरा गड्ढा खोदें| उसके अंदर की तरफ की मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएँ ताकि पानी का कम से कम रिसव हो| उसके बाद रोजाना गोबर और पशुओं के नीचे बिछाएं बचे घास-फूस को गड्ढे में डालते जाएं और जहाँ तक सम्भव हो सके पशुओं के मूत्र को भी उसी गड्ढे में गोबर के साथ-साथ अवश्य डालते रहें मूत्र में गोबर और मूत्र के कुल भाग का 95% पोटाश, 63% नाइट्रोजन और 50% गंधक जैसे तत्व होते हैं| पशुओं के बांधने का ऐसा तरीका भी अपनाया जा सकता हैं कि सभी पशुओं का मूत्र एक नाली से होता हुआ लगातार खाद के गड्ढे में गिरता रहे| यही मूत्र सूखे घास और गेंहू के भूसे के बिछावन में भी सोख लिया जा सकता है| पूरे बिछौने और गोबर को भी गड्ढे में डाला जा सकता है| जब यह गड्ढा भरते-भरते जमीन की सतह से लगभग डेढ़ फुट ऊपर तक भर जाए तो उसमें चार पांच बाल्टी पानी डालकर मिट्टी और गोबर के मिश्रित लेप को एक इंच मोटी तह जमा दें| ऐसा करने से गोबर की खाद में नमी अधिक बनी रहेगी और गलन-सड़न की प्रतिक्रियाएं तेजी से काम करेंगी और मक्खियों का प्रकोप भी कम होगा| चार-पांच मास के बाद खाद तैयार हो जायगी|
जब इस खाद का प्रकोप करना हो तो गड्ढे को फसल की बीजाई से एक महीना पहले खोलकर निरीक्षण करें| अगर खाद पूर्ण रूप से गली-सड़ी न हो तो उसे खेत में बीजाई के दो तीन सप्ताह पहले एक समान रूप से फैलाकर तथा हल चलाकर अच्छी तरह से मिट्टी में मिला दें ताकि सही अर्थ में पोषक तत्वों के भण्डार सिद्ध हो सकें| यदि खाद अच्छी तरह से गली-सड़ी हो तो बीजाई के केवल एक या दो पहले भी खेत में डाली जा सकती है| अति उत्तम गोबर की खाद बनानी हो तो गोबर को गड्ढे में भरते समय कुछ दिनों के अन्तराल पर सिंगल सुपर फास्फेट खाद का बुरकाव करते रहें क्योंकि ऐसा करने से खाद में फास्फोरस तत्व की मात्रा तो बढ़ती ही है साथ में नाइट्रोजन की होने वाली हानि पर भी रोक लग जाती है| यह ध्यान रखें कि केवल गोबर की खाद डालने से फसलों की आवश्यकता के सभी तत्व संतुलित मात्र में उपलब्ध नहों होते हैं, विशेषकर फास्फोरस इत्यादि| फसलों की अधिकतम पैदावार लेने के लिए रासायनिक खादों का भी सही मात्रा में प्रयोग करें| परन्तु इसके लिए अपने खेती की मिट्टी का परीक्षण जरुर करवाएं|
मृदा के लगातार दोहन से उसमें उपस्थित पौधे की बढ़वार के लिए आवश्यक तत्व नष्ट होते जा रहे हैं| इनकी क्षतिपूर्ति हेतु व् मिट्टी की ऊपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिए हरी खाद एक उत्तम विकल्प है| बिना गले-सड़े हरे पौधे (दलहनी एवं अन्य फसलों अथवा उनको भाग) को जब मृदा की नत्रजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिए खेत में दबाया जाता है तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते है|
आदर्श हरी खाद फसल के गुण
हरी खाद के मुख्य चार गुण है
क) उगाने में न्यूनतम खर्च
ख) न्यूनतम सिंचाई, कम से कम पादप संरक्षण
ग) खरपतवारों को दबाते हुए जल्दी बढ़त प्राप्त करें तथा विपरीत परिस्थतियों में उगने की क्षमता हो|
घ) कम समय में अधिक मात्रा में वायुमंडलीय नत्रजन का स्थिरीकरण करती हो|
प्रमुख हरी खाद की फसलें, बुआई, बीज दर व उपलब्ध जीवांश की मात्रा
फसल |
उगाई का समय |
बीज दर (कि.ग्रा.) |
जीवांश की मात्रा |
नत्रजन की मात्रा (प्रतिशत) |
खरीफ फसलों हेतु |
||||
सनई |
अप्रैल-जुलाई |
80-100 |
18-28 |
0.43 |
ढैंचा |
अप्रैल-जुलाई |
80-100 |
20-25 |
0.42 |
लोबिया |
अप्रैल-जुलाई |
45-55 |
15-18 |
0.49 |
उड़द |
जून -जुलाई |
20-22 |
10-12 |
0.41 |
मूंग |
जून -जुलाई |
20-22 |
8-10 |
0.48 |
ज्वार |
अप्रैल-जुलाई |
30-40 |
20-25 |
0.34 |
ख) रबी फसलों हेतु |
||||
सैंजी |
अक्टूबर-दिसम्बर |
25-30 |
25-30 |
0.51 |
बरसीम |
अक्टूबर-दिसम्बर |
20-30 |
15-18 |
0.43 |
मटर |
अक्टूबर-दिसम्बर |
80-100 |
20-22 |
0.36 |
हरी खाद
हरी खाद प्रयोग में कठिनाइयाँ
क) फलीदार फसल में पानी की काफी मात्रा होती है परन्तु अन्य फसलों में रेशा काफी होने की वजह से मुख्य फसल (जो हरी खाद के बाद लगानी हो) में नत्रजन की मात्रा काफी कम हो जाती है|
ख) क्योंकि हरी खाद वाली फसल के गलने के लिए नमी आवश्यकता पड़ती है अतः कई बार हरी खाद के पौधे नमी जमीन से लेते हैं जिसके कारण अगली फसल में सूखे वाली परिस्थितियां पैदा हो जाती है|
हरी खाद के व्यवहारिक प्रयोग
क) उन क्षेत्रों में जहाँ नत्रजन तत्व की काफी कमी हो|
ख) जिस क्षेत्र की मिट्टी में नमी की कमी कम हो|
ग) हरी खाद का प्रयोग कम वर्षा वाले क्षेत्र में न करें| इन क्षेत्रों में नमी का संरक्षण मुख्य फसल के लिए अत्यंत आवश्यक है| ऐसी अवस्था में नमी के संरक्षण के अन्य तरीके अपनाएं|
घ) जिनके तने तथा जड़ें काफी मात्रा में पानी प्राप्त कर सकें|
ङ) ये वे फसलें होनी चाहिए जो जल्दी ही जमीन की सतह को ढक लें चाहे जमीन रेतीली या भारी या जिसकी बनावट ठीक न हों में ठीक प्रकार बढ़ सकें|
च) जब ऊपर बतायी बातें फसल में विद्यमान हों तो फलीदार फसल का प्रयोग अच्छा होता है क्योंकि उन फसलों से नत्रजन भी प्राप्त हो जाती है|
किसानों व बागवान भाइयों के लिए यहाँ पर कुछ खादें बनाने की विभिन्न विधियों का वर्णन किया गया है| इस सन्दर्भ में यहाँ बताना उचित होगा कि जो भी खाद कार्बिनक पदार्थ के सड़ने से तैयार की जाती है उसे कम्पोस्ट कहते हैं| गोबर से बनी खाद फार्म यार्ड मैन्योर (FYM) को कम्पोस्ट कहते हैं| इसलिए आगे के लेख में खाद शब्द का प्रयोग कम्पोस्ट के लिए ही किया गया है| चाहे वह गोबर से या पेड़ पौधों के पत्तों से या इन दोनों के मिश्रण से बनी हो खाद या कम्पोस्ट ही कहलायेगी|
कम्पोस्ट बनाने का सामान
कम्पोस्ट खाद बनाने की विधियाँ
क) ऐडको विधि
हटचिन्सन और रिचर्डसन ने 1921 में विधि इंग्लैंड में विकसित की थी\ इस विधि में पराल, डंठल, घास और खेत खलिहानों के पदार्थ जिनका अन्य कोई उपयोग नहीं होता कम्पोस्ट बनाने के प्रयोग में लाये जाते हैं| इसके तैयार करने मने एड्को चूर्ण प्रयोग में लाया जात है जिसे ‘एग्रीकल्चरल डेवेलपमेंट कम्पनी ऐडको’ तैयार करती और बेचती है| एक टन सूखे कचरे के लिए 60 ग्राम अमोनियम सल्फेट, 30 ग्राम सुपरफास्फेट, 25 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश और 50 ग्राम चूना पत्थर पिसा हुआ डाला जाता है|
दस फुट वर्ग क्षेत्र में सुखी घास या पराल या इसी प्रकार का अन्य मोटा कचरा 12 इंच मोटी तह में एक सा बिछा देते हैं| फिर उसे पानी में भिगों दिया जाता अहि| भींगे पदार्थ पर एड्को चूर्ण आवश्यक मात्रा में फैला देते हैं| (7% की दर से) इस तह के ऊपर और दूसरी तह कचरे की डालकर भिगोकर उस पर फिर एड्को चूर्ण डाल देते हैं| इस तहर ढेर को पूरा करने के लिए एक के ऊपर दूसरी तह डालते जाते हैं| एक गड्ढे में लगभग एक टन सूखा कचरा रखते हैं जो कि गड्ढे की ऊंचाई (छः फुट) से अधिक नहीं होना चाहिए| इससे मोटी तह के लिए हवा के अंदर जाने और बाहर आने (creation) में कठिनाई होती है| इसे तीन सप्ताह तक ऐसे ही छोड़ देते हैं परन्तु आवश्कता पड़ने पर पानी पर पानी डाल देते रहना चाहिए| प्रति बार एक हजार लीटर तक पानी देना चाहिए| चार से छः मास में कम्पोस्ट तैयार हो जाती है| यदि जरूरत हो तो बीच में एक बार ढेर को उलट फेर कर देना चाहिए| भारतवर्ष जैसे गर्म देश के लिए यह विधि बहुत उपयोगी नहीं है क्योंकि पानी जल्दी सूख जाता है तथा तापमान भी जितना चाहिए वह भी एक सार नहीं रहता बल्कि कम या ज्यादा होता रहता है|
ख) सक्रियता कम्पोस्ट विधि
इस विधि के अविष्कार करने वाले बंगलूर के फाउलर और रेगे हैं जिन्होंने इस विधि को 1923 ई. में विकसित किया| घास, घास-पात, पत्ते, बाग़ बगीचों, खेत खलिहानों और घर के कचरे को एक गड्ढे में इकट्ठा करते हैं| फिर समय मिलने पर इस कचरे को ढेर से निकाल आकर छः फुट लम्बे-चौड़े और दो फुट ऊँचे एक स्थान पर इकट्ठा करते हैं| जरूरत हो तो कचरे को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट भी लेते हैं| लगभग किलोग्राम (एक मन) ताजा सान्ध्र गोबर लेकर पानी डालकर उसका पतला घोल बना लेते हैं और इसमें कचरे के ढेर को भिंगो देते हैं| समय-समय पर उसे उलट-फेर करके बराबर भींगा रखते हैं| पहले ढेर का तापमान बढ़ता है फिर बाद में कम होता है| जब यह कचरा सड़-गल कर भुरभूरा हो जाए तब उसका रंग भूरा हो जायेगा और न ही उससे कोई गंध आती है| आरंभ में पर्याप्त जीवाणु रहने चाहिए ताकि उनकी सहायता से अन्य पदाथों का किव्वन शीघ्रता में हो सके| गोबर के स्थान पर मूत्र, विष्ठा, मल प्रवाह, सीवेज और स्लज, के उपयोग से अधिक अच्छी कम्पोस्ट बनती है| इन सबसे आधी कम्पोस्ट मनुष्य के मल-मूत्र से तैयार होती है| यदि कचरे में हड्डी का चुरा मिला दें तो ज्यादा अधिक लाभप्रद कम्पोस्ट तैयार हो जाती है| ज्यों ही किव्वन समाप्त हो जाए ढेर का एक तिहाई भाग निकाल कर एक गड्ढे में सुरक्षित रखना चाहिए और शेष तो तिहाई में ताजा सूखा कचरा मिलाकर विधि को दोहराना चाहिए|
ग) इंदौर विधि
इंदौर के फार्म पर काम करने वाले हार्डवर्ड इस विधि को विकसित करने वाले हैं| इस विधि से गोबर की कम मात्रा से काम चल जाता है| यह एक बहुत ही अच्छी विधि समझी जाती है और इसका प्रयोग सारे संसार में हो रहा है| इस विधि के लिए गड्ढों का इस्तेमाल होता है| ये गड्ढे बंगलौर में 30’x14’x2’ जे थे| इनका किनारा ढलानदार तथा ताकि बैलगाड़ियाँ या ट्रैक्टर गड्ढे में आ जा सकें गड्ढे दो-दो के समूह में साथ-साथ बनाते हैं और प्रत्येक जोड़े गड्ढों के बीच 12 फूट की दूरी रहती है| एक टंकी में ज रहना है जिसमें 3000-3200 लीटर पानी आ सकता है| टंकी जमीन में 4’ की ऊंचाई रपर रहती है ताकि उससे बहकर पानी सरलता से गड्ढे में जा सके| एक टंकी छः गड्ढों के लिए प्रयोप्त होती है| खाद बनाने के लिए जो पदार्थ प्रयुक्त होते हैं वे हैं:
क) पेड़ पौधों के पत्ते या बारीक शाखाएं जो किसी अन्य उपयोग के न हों, घास-पात, पेड़ से गिरा पत्ता, हल्का छांटन, झाड़ियों और पेड़ों की कतरन, पराल, भूसा, लकड़ी की छीलन, लकड़ी का बुरादा, रद्दी कागज, पुराना सड़ा गला बोरा व कपड़ा इत्यादि| जो पदार्थ कड़ा अरु लकड़ी की तरह कठोर है उसे काट-काटकर अथवा कुचल कर छोटा या मुलायम बना लेते है| हरे कार्बिनक पदार्थ को सूखा कर इकट्ठा करते हैं|
ख) गाय, बैल व भैस का गोबर अथवा घोड़े की लीद अस्तबल या गौशाला का कचरा भी इसमें मिलाया जा सकता है|
ग) मूत्र वाली मिट्टी: जहाँ पशु रहते हैं वहां की मिट्टी तीन-तीन महीने पर करीब 6 इंच तक खोद कर निकाल लेनी चाहिए और कम्पोस्ट के गड्ढे के निकट इकट्ठा करना चाहिए जहाँ से मिट्टी निकाली हो वहां फिर ताज़ी मिट्टी भर देनी चाहिए|
घ) लकड़ी की राख: इससे अम्लता दूर होती है तथा इसमें पोटाश की मात्रा भी बढ़ती है|
ङ) जल और वायु: इससे खाद में हयूमस बनता है| जीवाणु और कवक ही ह्ययूमस बनाते हैं| इन जीवाणुओं और कवकों के लिए जल और वायु आवश्यक होते हैं|
च) कम्पोस्ट के लिए गड्ढा भरने की विधि
छ) गड्ढे के ऊपर एक तख्ता रख लेते हैं ताकि गड्ढे को कचरे से बिना कुचले भर सकें| कचरे को पहले 3 इंच मोटी तह बनाकर समतल कर लेते हैं| उस पर राख और मूत्र की मिट्टी को छिड़क देते हैं| उसके ऊपर फिर दो इंच मोटी तह को कूटे गोबर और मैली की हुई बिछाली से भर देते हैं| उसके ऊपर हर रोज पाइप से पानी डालकर उसे भिंगो देते हैं| इसके ऊपर फिर से कचरे और पानी को क्रम-क्रम से डालकर 3 इंच मोटी तह के ऊपर गोबर और बिचाली का एक तह और उसके ऊपर मूत्र मिट्टी और राख बिछाकर पानी छिड़क देते हैं| गड्ढे को शाम को और फिर दूसरे दिन प्रातः भिगोते हैं| पहली बार तीन क्रमों में पानी देने से उसमें इतना पानी रहता है कि उसका तीव्र किव्वन शुरू हो जाता है और गड्ढे का कचरा सिकुड़ का पेदों में चला जाता है| उसके बाद सप्ताह में एक बार सींचना चाहिए| यदि गर्मी ज्यादा हो तो सप्ताह में दो बार सींचना चाहिए|
ज) कचरे में भलीभांति सड़ने और अपक्षय के लिए वायु और जल का रहना आवश्यक है| वायु और जल की प्राप्ति के लिए उसका तीन बार उलट-फेर करना चाहिए| पहला उलट-फेर 10 से 14 दिन के बीच करते हैं| आधे गड्ढे को पंजा (कुदाली) द्वारा खोदते हैं और उस पर पानी देकर भिगोते हैं और बिना खोदे आधे भाग फिर बिछा देते हैं| आधे उलटे हुए ढेर की फिर अच्छी तरह सिंचाई कर देते हैं| दूसरा उलट-फेर 10 से 14 दिन के बाद करते हैं| उसे फिर उलट कर पानी से भिगो कर गड्ढे के दूसरे खाली अंश में ढीला-ढाला रख देते हैं| तीसरा उलट-फेर गड्ढे के तीन मास पुराना होने पर करते हैं| टूटते हुए काले पदार्थों को पानी से भिंगोकर सतह पर आयाताकार ढेर में पैंदे में (10 फुट चौड़ा, ऊपर 9 फूट चौड़ा और साढ़े तीन
फुट ऊँचा) इकट्ठा करते हैं और परिपक्व होने के लिए एक मास छोड़ देते हैं| एक मास के बाद वह इस्तेमाल करने के योग्य हो जाता है| बरसात के दिनों में जब गड्ढे के पानी से भर जाने की आंशका हो तो ढेर को सतह पर लगाते हैं| यदि वर्षा सामान्य हो तो ढेर नीचे 8 फुट +8 फुट और ऊपर 7 फुट + और गहरा होता है| यदि वर्षा ज्यादा तो तो ढेर के ऊपर छप्पर डालना चाहिए|
घ) भारद्वाज विधि
इस बढ़ी को अखिल भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के वैज्ञानिक डॉ भारद्वाज ने विकसित किया है| इस विधि द्वारा भी कम्पोस्ट, गोबर और दूसरे वनस्पति और नगर और शहरों के कचरे से तैयार किया जाता है| कम्पोस्ट को गड्ढों में बनाया जाता है परन्तु जमीन की सतह पर भी अच्छी कम्पोस्ट तैयार की जा सकती है| कम्पोस्ट का गड्ढा ऊँची जमीन पर बनाना चाहिए जहाँ वर्षा का पानी इसमें इकट्ठा न हो| इस विधि द्वारा खाद 1x1x1 मीटर के गड्ढों में तैयार की जाती है| ये गड्ढे यदि पक्के हों और उनके ऊपर यदि छत पड़ी हो तो बहुत ही अच्छा है| यह परन्तु कच्चे गड्ढों में खुले आसमान के नीचे भी अच्छी कम्पोस्ट तैयार की जा सकती है| उज गड्ढे का कम से कम आकार है जिसमें काम करने की सहुलियत, पानी का कम से कम उत्पन्न और खाद के तत्वों का सही संरक्षण रहता है| कचरे की मात्रा को ध्यान में रखकर गड्ढे को लम्बाई और चौड़ाई में बढ़ाया जा सकता है| परन्तु गहराई 1 मीटर से ज्यादा और चौड़ाई 2 मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए|
कचरे व गोबर को पहले बाहर ही भलीभांति मिलाकर गड्ढे में डाला जा सकता है| जब कम्पोस्ट पशुओं के गोबर और बहुत ज्यादा वनस्पति से तैयार करनी हो तो गड्ढे की सतह पर 3-6 इंच तक मोटी वनस्पति के कचरे की सतह डालनी चाहिए| उसके ऊपर गोबर की एक सतह 2-3 ईच की डालनी चाहिये| इस तरह कचरे और गोबर की सतह एक के ऊपर दूसरी रख कर गड्ढा जमीन से 1 फुट ऊँचा करना चाहिए| कचरा यदि सूखा हो तो 70-80% पानी भिंगो देना चाहिए| सबसे ऊपर की सतह कचरे की होनी चाहिए| गोबर वाली सबसे ऊपर की सतह पर 5-6 इंच मिट्टी डालनी चाहिए जिसमें कम्पोस्ट बनाने वाले जीवाणु पर्याप्त मात्रा में होते हैं तथा मिट्टी डालने से नाइट्रोजन व दूसरे पोषक तत्वों को भी कम हानि होती है| इसके लिए पेड़ों के नीचे की मिट्टी बहुत ही उपयोगी होती है|
इसके आलावा, राख, पशुओं का मूत्र, लगभग 1% नाइट्रोजन और यदि उपलब्ध हो तो 5% रॉक फास्फेट पाउडर बनाकर डालना चाहिए| रॉक फास्फेट किसी नही प्रकार के कम्पोस्टिंग किये जाने वाले गोबर या कचरे में डाला जा सकता है | अच्छी प्रकार के कम्पोस्ट बनाने के लिए जीवाणु कल्चर जो कि ज्वार के दानों पर या गेंहू के छिलके पर तैयार किये जाते हैं, लगाया जा सकता है| इसके खाद 60-75 दिनों में तैयार हो जाती है|
कचरे को गड्ढे में 15-15 दिन बाद फेरबदल कर देना चाहिए और यदि कचरा सुखा हो जाए तो इसे 70-80% नमी पर लाने के लिए पानी डालना चाहिए| इसतरह कम्पोस्ट 3-4 महीनों में तैयार हो जाती है| अब इसे और सड़ाने की जरूरत नहीं होती नहीं तो नाइट्रोजन और दूसरे तत्वों की हानि हो सकती है| अच्छी तैयार की गई कम्पोस्ट का रंग भूरा-काला होता है और यह भुरभुरी होने के साथ-साथ अच्छी सुगंध वाली होती है| इस समय इसका कार्बन और नाइट्रोजन का अनुपात 20% के लगभग होना चाहिए| खाद के परिपक्व होने का अनुमान आधा किलो खाद को आधा किलो पानी में डालकर मिलाएं तो पानी का रंग गहरे भूरे से काला हो जाता है जो की कम्पोस्ट में घुलनशील पदार्थों के पैदा होने से होता है|
कम्पोस्ट खाद गोबर की खाद से बहुत मिलती जुलती है| यह देखने और अन्य गुणों में सड़ी हुई गोबर जैसी ही होती है| कम्पोस्ट खाद का प्रयोग अकेले या नाइट्रोजन, फास्फोरस या पोटाश या अन्य तत्वों के साथ उर्वरकों के साथ बहुत ही लाभकारी होता है| सब प्रकार की भूमि के तैयार करने में इसका उपयोग बहुमूल्य है| हर गाँव व स्थान पर बिना अधिक मूल्य के और बिना अधिक परिश्रम के इसे तैयार किया जा सकता है और यही कारण है कि इसका उपयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है| इसके उपयोग के लिए कुछ बातों कद ध्यान रखना जरुरी है ताकि इसमें जो लाभकारी तत्व हैं उनकी हानि इसके उपयोग में न हो|
क) इसके तैयार होने के बाद जल्दी ही उपयोग में लाना चाहिए, नहीं तो गड्ढे में इकट्ठा करके मिट्टी की पतली सी परत से ढक देना चाहिए|
ख) खेत में डालने के उपरांत एकदम इसे मिट्टी में मिला देना चाहिए नहीं तो मिट्टी की सतह पर रहने से नाइट्रोजन की हानि हो जाती है जो कि गर्म जलवायु वाली जगह पर बहुत ही ज्यादा होती है|
ग) बीज बीजने के कम से कम एक सप्ताह पहले ही इसे मिट्टी में मिला देना चाहिए ताकि इसका विघटन पूरी तरह हो सके|
केंचुआ खाद
केंचुआ मिट्टी का सबसे जरुरी जीव है| इसकी संसार में 2700 से भी ज्यादा किस्में मिलती है| केंचुए बहुत प्रकार से लाभदायक है| केंचुए जमीन की उर्वरकता को बढ़ाने के लिए काफी सहायक होते हैं|
केंचुआ के मृदा में होने वाले लाभ
क) जो छोटे-छोटे छिद्र मिट्टी में केंचुए करते हैं जिससे मिट्टी वायु संचारण तथा जल निष्कासन को बढ़ावा मिलता है|
ख) नीचे वाली मिट्टी को ऊपर की सतह पर ले आते हैं|
ग) ये केंचुए मिट्टी को मिलाकर उसको भुरभुरा बनाते हैं|
घ) जमीन जिसमें खेती न की गई हो या कुछ सालों से बंजर हो वहां पर केंचुए मिट्टी की बनावट और उपजाऊ शक्ति को स्थिर बनाते हैं|
केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) बनाने की विधि
यह खाद घर के कूड़े-कचरे से, वनस्पति के किसी भी हिस्से से जो किसी अन्य प्रयोग में न लाया जा सके, छोटे-छोटे कीड़े जिन्हें केंचुए (अर्थ वर्म) कहते हैं उनकी सहायता से छोटे-छोटे गड्ढे (2x डेढ़ x डेढ़ ) में तैयार की जा सकती है| इसको, बनाने के लिए ऊपर लिखे गड्ढे के आकार में वनस्पति का कचरा, मिट्टी,छोटे-छोटे तिनके, किलोग्राम कागज और कोई भी कचरा जिसमें कार्बन की मात्रा ज्यादा हो डाला जा सकता है| गड्ढे के पैदें में छोटी-छोटी टहनियां काटकर डाली जाती हैं ताकि इससे ऊपर डाले कचरे में हवा आसानी से आ-जा सके| इसके ऊपर अच्छी तरह मिलाया हुआ कचरा डाल देते हैं जिससे अर्थ वर्म 100 प्रति वर्गमीटर गड्ढे के हिसाब से डाल देते हैं| वर्म सारे कचरे में फैल जाते हैं और इसे 2-4 महीनों के बीच एक बहुमूल्य खाद में बदल देते हैं जिसे वर्मीकम्पोस्ट खाद कहते हैं| दो से चार महीनों के अंत के कचरे का विघटन होकर कार्बन नाइट्रोजन का अनुपात 20:1 तक आ जाता है जो कि एक उत्तम खाद के लिए होना चाहिए| इसके अलावा वर्मज निकली हुई मिट्टी जैसा पदार्थ जिसे कास्टिमू कहते हैं वह भी पौधे को बहुमूल्य तत्व देता है जिसमें लाभदायक कीटाणुओं की बहुत मात्रा होती है| इसमें मित्र जीवाणुओं की संख्या साधारण मिट्टी से 10 गुणा होती है|
जीवाणु खाद का अभिप्राय ऐसे सूक्ष्म जीवाणुओं से है जो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए अधिक मात्रा में दिए जाते हैं और उनका प्रभाव धीरे-धीरे होता है| हमारे खेत की एक ग्राम मिट्टी में लगभग दो तीन अरब सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं जिसमें मुख्यतः बैक्टीरिया, फुफंद, कवक, प्रोटोजोआ आदि होते हैं जो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने व फसलोत्पादन की वृद्धि में अनेक कार्य करते हैं|
जीवाणु खाद के प्रकार
क) नाइट्रोजन योगीकरण वाले
फसल जीवाणु का नाम
दलहनी फसलें राइजोबियम
अन्न फसलें एजोटोबैक्टर, ऐजोस्पाईरिलम, एसीटोबैक्टर आदि
चावल/धान नीली हरी अनोला
ख) फास्फोरस घुलनशीलता के लिए
एसपजिलस, पैनिसिलियम, स्यूडोमोनॉस, बैसिलस आदि
ग) पोटाश व लोहा घुलनशीलता के लिए
बैस्लिम, फ्रैच्यूरिया, एसीटोबैक्टर आदि
घ) प्लांट ग्रोथ प्रमोटिंग राइजोबैक्टीरिया
बैस्लिम, फ्लोरिसैंट, स्यूडोमोनॉस, राइजोबियम, प्फैवोबैक्टीरिया
ड.) माइकोराइजल कवक
एक्टोमाइकोराइजा तथा अव स्कुलर माइकोराइजा
स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; सोलन
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
इस भाग में अतिरिक्त आय एवं पोषण सुरक्षा हेतु वर्ष ...
इस भाग में अंतर्वर्ती फसलोत्पादन से दोगुना फायदा क...
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