अन्य प्राणियों के समान मधुमक्खी क्लोनियों को भी विभिन्न रोगों तथा शत्रुओं से बहुत क्षति होती है। मधुमक्खी रोगों से उनके झुण्ड या वयस्क मधुमक्खियां संक्रमित हो सकते हैं। इसी प्रकार, मधुमक्खियों के कुछ शत्रु उनके झुण्डों पर आक्रमण करते हैं जबकि अन्य वयस्क मधुमक्खियों को संक्रमित करते हैं। मधुमक्खियों के इन शत्रुओं से न केवल मधुमक्खियों की क्लोनियों की संख्या में कमी आती है बल्कि इन क्लोनियों की उत्पादकता व लाभप्रदता भी कम हो जाती है।
यह मेलिसोकोकस प्लूटॉन नामक जीवाणु से होता है और अक्सर भारत में ए. मेलिफेरा की क्लोनियों में पाया जाता है। संक्रमित युवा डिम्भक अपनी कोशिकाओं से हट जाते हैं, आरंभ में उनके शरीर पर हल्की पीली आभा दिखाई देती है जो बाद में हल्की भूरी हो जाती है। यह डिम्भक कोशिका बंद होने के पूर्व ही मर जाते हैं। मृत डिम्भक मुलायम और जलीय हो जाते हैं तथा उनकी श्वास नलिकाएं सुस्पष्ट दिखाई देती हैं। अंततः मृत डिम्भक सूखकर भूरे रंग के हटाए जाने योग्य रबड़ जैसे शल्क कोशिका की तली में बन जाते हैं। झुण्ड का पैटर्न अनियमित हो जाता है।
आदिजीव नोसेमा एपिस अँडर, द्वारा होने वाला यह रोग वयस्क मधुमक्खियों की तीनों जातियों को संक्रमित करता है। संक्रमित मधुमक्खियां कम आयु पर ही उड़ना शुरू कर देती हैं। संक्रमित मधुमक्खियों की उड़ने की क्षमता इससे प्रभावित होती हैं और वे छत्ते में वापस लौटते समय नीचे गिर जाती हैं। ये मधुमक्खियां घास की पत्तियों पर रेंगते हुए ऊपर चढ़ने की कोशिश करती हैं और अंततः जमीन पर गिर जाती हैं। इस प्रकार की प्रभावित मधुमक्खियों को छोटे गड्ढों में एकत्र किया जा सकता है। ऐसी मधुमक्खियों का उदर विष्ठा सामग्री से भरकर फूल जाता है। काया के रोम नष्ट हो जाते हैं तथा मधुमक्खियां चमकदार दिखाई देती हैं। मध्य आंत फूल जाती है और यदि इसे काटा जाए तो इसमें स्वस्थ मधमक्खियों के लालिमा या भूरे रंग के आहारनाल की तुलना में दोहरी धूसर सफेद अंश दिखाई देते हैं। मधुमक्खियां छत्ते के प्रवेश द्वार पर तथा छत्ते के अगले भाग में जमीन पर मल त्याग करती हैं।
मधुमक्खियों के नाशकजीवों में से, वैरोरा कुटकी, ट्रोपोलिलेपस क्लेरी कुटकी, मोम पतंगा, चींटियां तथा परभक्षी बर्र व पक्षी प्रमुख समस्याएं हैं। इन नाशकजीवों की पहचान तथा इनके संक्रमण के लक्षणों का ज्ञान होने से मधुमक्खी पालकों को मधुमक्खी क्लोनियों में होने वाली क्षति को न्यूनतम करने में सहायता मिलेगी।
मादा कुटकी लम्बी तथा हल्के लालामीपन लिए हुए भूरे रंग की होती है। इसकी काया अंडाकार होती है तथा सम्पूर्ण काया छोटे कंटकों से ढकी होती है। यह वैरोआ कुटकी की तुलना में काफी छोटी होती है। मादा कुटकियां छत्ते की कोशिकाओं की कोरों पर चलती हुई देखी जा सकती हैं। संक्रमित झुण्ड के कैपिंग सिकुड़े हुए हो जाते हैं तथा कभी-कभी उनमें छेद भी पाए जाते हैं। झुण्ड का क्षेत्र धब्बेदार हो जाता है। संक्रमित मधुमक्खी के प्यूपा पर गहरे पिन जैसे आकार के धब्बे होते हैं। जो प्यूपा कुटकियों से संक्रमण से बच जाते हैं वे विरुपित वयस्क के रूप में विकसित होते हैं। जिनके पंख छोटे और ऐंठे हुए होते हैं या पंख होते ही नहीं हैं। कुटकी से संक्रमित मधुमक्खी झुण्ड तथा रेंग कर चलती हुई विरूपित पंखों वाली वयस्क मधुमक्खियां छत्ते के सामने मौजूद हो सकती हैं।
वयस्क मादा कुटकियां पृष्ठ-प्रतिपृष्ठीय चपटी, भूरे से गहरे भूरे व चमकदार रंग की, छोटे केकड़े की आकृति वाली तथा अपनी लंबाई की तुलना में अधिक चौड़ी होती हैं। यह कुटकियां संक्रमित मक्खी झुण्डों तथा वयस्क मधुमक्खियों पर आसानी से देखी जा सकती है। वयस्क नर मक्खियां हल्के पीले रंग की होती हैं जिनकी टांगें गहरे रंग की हो जाती हैं और शरीर की आकृति गोल हो जाती है। संक्रमित क्लोनियों में वयस्क कुटकियों को मधुमक्खियों के वयस्कों, डिम्भकों और प्यूपा पर देखा जा सकता है। संक्रमित एक वयस्क मधुमक्खी/ ब्रूड पर दो से छह कुटकियों के दिखाई देने पर कालोनी के आकार तथा गतिविधि में कमी आ जाती है। छत्ते की चौड़ी तली पर कचरे में जीवित और मृत अनेक कुटकियां भी देखी जा सकती है। संक्रमित ब्रूड की कोशिका के ढक्कनों में छेद दिखाई देते हैं। भारी संक्रमण होने पर विशिष्ट गंजे ब्रूड के लक्षण दिखाई देते हैं। चूंकि यह कुटकी नर मधुमक्खी के झुण्डों को पसंद करती है, अतः प्रजनन मौसमों के दौरान कुटकियों के संक्रमण के लिए नर झुण्डों की जांच करते रहना चाहिए।
मधुमक्खी क्लोनियों में प्रजातियां बड़े मोम पतंगे (गैलेरिया मैलोनेला) तथा छोटे मोम के पतंगे (एक्रोइया ग्रिसेला) से संक्रमित होती हैं। इन दोनों प्रजातियों में से बड़ा मोम पतंगा अधिक क्षति पहुंचाता है। वयस्क पतंगे भूरापन लिए हुए धूसर रंग के होते हैं जिनकी मादाओं का रंग नर से हल्का होता है, वे आकार में भी नर से बड़ी व भारी होती हैं। मादाओं में पिछले पंख की बाहरी कोर चिकनी होती है जबकि नरों में यह अर्ध चंद्राकार गड्ढे वाली होती है। मादाओं में अधरीय पाल्प बाहर की ओर निकला हुआ होता है। भंडारित व उजड़े हुए छत्ते, ठीक से न साफ किया गया मोम और निर्बल अथवा घटिया प्रबंध वाली क्लोनियाँ व मधुमक्खियों के उजड़े हुए छत्ते मोम के पतंगे की जनसंख्या का अनवरत स्रोत हैं। इनमें अनेक ओवरलैपिंग पीढियां उपस्थित होती हैं। ये पतंगे मार्च से अक्तूबर तक अधिक सक्रिय होते हैं लेकिन इनकी सर्वोच्च गतिविधि अगस्त से अक्तूबर के दौरान होती है। भंडारित छत्तों में नवम्बर से फरवरी के दौरान डिम्भक व प्यूपा की अवस्थाएं इस शत्रु से अधिक प्रभावित होती हैं। मोम के पतंगे पुष्प रस की कमी की अवधि तथा मानसून के दौरान अधिक गंभीर क्षति पहुंचाती हैं। यह पतंगा ब्रूड की सभी अवस्थाओं, कोशिकाओं तथा पराग सहित सम्पूर्ण छत्ते को संक्रमित करता है। मोम के पतंगे के डिम्भक के चारों ओर रेशमी धागे लिपट जाते हैं तथा ब्रूड छत्ते की मध्य कोर इससे फूल जाती है। यह दशा ऐसी होती है जिसमें वयस्क मधुमक्खियां कोशिकाओं से बाहर नहीं निकल पाती हैं क्योंकि उनकी टांगें नीचे मौजूद रेशमी धागों से फंस जाती हैं। मोम के इस पतंगे के डिम्भक छत्तों को एक जाली में बदल देते हैं और इसका कचरा काले पतले रंग का होता है। जिसमें पतंगे का मल चिपका रहता है। गहन संक्रमण से मधुमक्खी झुण्ड का पालन व वृद्धि के साथ-साथ उनके भ्रमण की प्रक्रिया रूक जाती है और अंत में कालोनी उजड़ जाती है। ए. मेलिफेरा प्रजातियां अधिक प्रापलिस एकत्र करती हैं अतः यह अन्य एपिस प्रजातियों की तुलना में मोम पतंगे के आक्रमण के प्रति अपेक्षाकृत कम संवेदनशील होती हैं।
बड़ा मोम का पतंगा अपना जीवन चक्र चार विकासात्मक अवस्थाओं अर्थात् डिम्भ, डिम्भक प्यूपा और वयस्क में पूरा करता है। इसके अंडे गोल, चिकने, हल्के गुलाबी से क्रीम जैसे सफेद रंग के तथा 0.4-0.5 मि.मी. व्यास के होते हैं। यह अंडे छत्तों के खाली स्थानों और दरारों में 50 से 150 के झुण्डों में दिए जाते हैं। एक मादा औसतन 300-600 अंडे देती है। डिम्भक 3-30 मि.मी. आकार के तथा सफेद से दूषित धूसर रंग के होते हैं। स्फुटन के पश्चात् यह छत्ते में मौजूद शहद, पुष्प रस तथा पराग को खाता है। यह डिम्भग छत्तों में रेशमी सुरंगें बनाता है जो छत्ते के मध्य भाग तक जाती हैं। यह रेशमी जाल कातता है जिससे इसे मधुमक्खियों से सुरक्षा प्राप्त होती है तथा नई उभरती हुई मधुमक्खियां इन कोशिकाओं में फंस जाती है। यह दशा ‘गेलेरियोसिस' कहलाती है। यह पूर्णतः विकसित डिम्भक छत्ते के काष्ठ भाग की ओर जाता है तथा लकड़ी में छोटे छेद करता है और गुच्छों में सफेद रंग के रेशमी कोकून में प्यूपा के रूप में परिवर्तित होता है। ये कोकून छत्ते के कोष्ठ की आंतरिक दीवारों पर भीतरी आवरण के नीचे या फ्रेम पर पाए जाते हैं।
छोटे मोम पतंगे के डिम्भक 15-20 मि.मी. आकार के, सफेद रंग के होते हैं जिनका सर भूरे रंग का होता है तथा ये अलग-थलग रेशमी सुरंगों में रहते हैं जो इसके द्वारा बुने गए जाल से ढकी होती है, जबकि बड़े मोम के पतंगों के डिम्भक समूह में रहते हैं। ये पतंगे बड़े मोम के पतंगे की तुलना में छोटे होते हैं तथा इनके पंखों पर चांदी जैसे धूसर रंग के निशान होते हैं।
अनेक पक्षी मधुमक्खियों का परभक्षण करते हैं। हरियाणा में मौजूद महत्वपूर्ण परभक्षी पक्षियों में ग्रीन बी–यीटर (मैरोप्स ओरिएंटेलिस) तथा काला ड्रोगों/विशाल कौआ (डिक्ररस एटर) शामिल हैं। ये पक्षी वयस्क मधुमक्खियों को पकड़कर खा जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप उड़ने वाली मधुमक्खियों को बहुत क्षति होती है।
बर्र मधुमक्खियों को पकड़ती हैं तथा अपने शिशुओं को खिलाने के लिए उन्हें कुचल देती हैं। वेस्पा ओरिएंटेलिस, वेस्पा सिंकटा, वेस्पा आउरेरिया, वेस्पा मैग्नीफिका और वेस्पा बेसिलिस मधुमक्खियों का परभक्षण करने वाली बर्र की मुख्य प्रजातियां हैं। इन मधुमक्खी परभक्षी बर्र प्रजातियों में से भूरी बर्र (वी. ओरिएंटेलिस) मानसून तथा मानसून के बाद की अवधि (जुलाई से अक्तूबर) के दौरान मधुमक्खियों की सर्वाधिक सामान्य शत्रु है। सर्दियों के मौसम में गर्भित मादा बर्र के अतिरिक्त अन्य सभी मर जाती हैं। गर्भित मादा वसंत आरंभ होते ही अंडे देना शुरू कर देती है और धीरे-धीरे कालोनी बनाती है।
हरियाणा में मधुमक्खियों के रोगों तथा शत्रुओं के उत्पाद को नियंत्रित करने के लिए हमें त्रिआयामी कार्यनीति अपनानी चाहिए। इस कार्यनीति के प्रमुख तीन घटक अनुसंधानकर्ताओं द्वारा खोजे गए वैज्ञानिक हल, अद्यतन तथा सटीक रोग पहचान व विस्तार कर्मियों द्वारा प्रबंध प्रौद्योगिकियों का प्रचार-प्रसार तथा मधुमक्खी पालकों द्वारा अनुशंसित विधियों को लागू करना है।
रोग तथा नाशकजीव प्रबंध के लिए गैर-रासायनिक विधियों का विकास
शहद में रासायनिक अपशिष्टों की मौजूदगी की संभावनाओं को समाप्त करने के लिए मधुमक्खियों के रोगों व शत्रुओं के प्रबंध हेतु गैर-रासायनिक विधियों के विकास तथा मूल्यांकन की तत्काल आवश्यकता है। इससे अंतरराष्ट्रीय व घरेलू बाजार में स्वीकार किए जाने वाले बेहतर शहद को उत्पन्न करने में भी सहायता मिलेगी।
मधुमक्खियों के रोगों तथा शत्रुओं के प्रबंध के लिए रसायनों के उपयोग की वर्तमान सिफारिशों का पुनः मूल्यांकन किया जाना चाहिए, ताकि उनकी प्रभावशीलता ज्ञात की जा सके। वैरोआ कुटकी के प्रबंध के लिए मधुमक्खी पालकों द्वारा प्रयुक्त होने वाली पट्टियों का मूल्यांकन किया जा रहा है।
अनेक मधुमक्खी पालक कई अवैज्ञानिक तथा गैर-अनुशंसित विधियों व उपकरणों का उपयोग कर रहे हैं। नाशकजीव प्रबंध तथा मधुमक्खी पालन के अर्थशास्त्र पर इन अवैज्ञानिक तथा गैर-अनुशंसित विधियों के प्रतिकूल प्रभाव को ऑन-फार्म परीक्षणों के माध्यम से मधुमक्खी पालकों के समक्ष प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
सहायता के लिए पहचान
विभिन्न मधुमक्खी रोगों के लक्षणों पर चित्रात्मक चार्ट विकसित करने के लिए प्रशिक्षण सुविधा होनी चाहिए। इन चार्टी से मधुमक्खी पालकों को मधुमक्खी रोगों के विशिष्ट लक्षणों की व्याख्या करने में सहायता मिलेगी।
रोग एवं नाशकजीव प्रबंध पर अद्यतन सूचना
मधुमक्खी रोगों तथा नाशकजीवों के अत्यधिक प्रभावी प्रबंध के लिए मधुमक्खी पालकों को राज्य विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा नाशकजीव प्रबंध की विभिन्न अनुशंसित कार्यनीतियों के बारे में पूर्ण और अद्यतन सूचना उपलब्ध करानी चाहिए । तथापि ये तभी संभव है जब नाशकजीव प्रबंध पर नवीनतम जानकारी से युक्त प्रशिक्षण सुविधा उपलब्ध कराई जाए। इसके लिए प्रशिक्षण संकाय तथा राज्य कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के बीच जल्दी-जल्दी सम्पर्क स्थापित होने की आवश्यकता है।
नाशकजीव तथा रोग प्रबंध की सटीक कार्यविधि का प्रदर्शन
मधुमक्खी झुण्डों तथा मधुमक्खियों पर किसी हानिकारक प्रभाव के बिना मधुमक्खी के रोगों तथा शत्रुओं का सर्वश्रेष्ठ प्रबंध करने के लिए इन प्रबंधात्मक विधियों के बारे में प्रदर्शन तथा इसके साथ-साथ अभ्यास के सत्र आयोजित किए जाने चाहिए। इससे रसायनों की अतिरिक्त खुराक या मधुमक्खियों के रसायनों के आवश्यकता से अधिक सम्पर्क में आने से संबंधित समस्याओं से निपटने में सहायता मिलेगी तथा इन रसायनों के उपयोग के बारे में उचित विधियों का प्रचार–प्रसार भी हो सकेगा।
मधुमक्खी पालकों द्वारा गलत विधियां अपनाने से होने वाली हानियों के बारे में जागरूकता
मधुमक्खी पालकों को मधुमक्खियों के रोगों व नाशकजीवों के प्रबंध के लिए गलत रसायनों तथा विधियों को अपनाने के कारण उन्हें जो हानि होती है, उसके प्रति जागरूक किए जाने की आवश्यकता है। ऐसा कार्यशालाएं और प्रक्षेत्र दिवस आयोजित करके किया जा सकता है। इन विषयों पर पम्फलेट और पुस्तिकाओं के वितरण से इसके प्रचार-प्रसार तथा इसे अपनाने में व्यापक सहायता प्राप्त होगी।
मधुमक्खी रोगों तथा शत्रुओं की उचित पहचान
मधुमक्खी पालकों को मधुमक्खियों के विभिन्न रोगों तथा उन पर आक्रमण करने वाले विभिन्न नाशकजीवों के लक्षणों के बारे में सीखना चाहिए। इस उद्देश्य से उन्हें प्रशिक्षण के दौरान मधुमक्खी रोगों के प्रत्येक लक्षण जैसे पहचान की अवस्था, आरंभिक लक्षण, संक्रमित झुण्ड तथा मधुमक्खी के रंग व बनावट में होने वाले प्रगामी परिवर्तन, सर्वाधिक संवेदनशील क्लोनियों की दशा, अन्य रोगों और नाशकजीवों द्वारा उत्पन्न होने वाले समान दिखाई देने वाले लक्षणों, कमेरी मक्खियों की कोई विशिष्ट पसंद नर मक्खी या रानी की जातियों आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी जानी चाहिए। पुष्टीकरण या किसी प्रकार का भ्रम होने पर उन्हें विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों या निकट के कृषि विज्ञान केन्द्र से सम्पर्क करना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो मधुमक्खी पालकों को विशेषज्ञों के समक्ष निरीक्षण के लिए मधुमक्खियों या उनके झुण्ड के रोगों का नमूना प्रस्तुत करना। चाहिए। गलत तरीके से एकत्रित, पैक बंद किए गए या परिवहन किए गए नमूनों से नमूनों में विकृति आ सकती है इसलिए कभी-कभी सटीक पहचान में समस्या उत्पन्न हो सकती है। अतः मधुमक्खी पालकों को पहले से ही विशेषज्ञ से यह ज्ञात कर लेना चाहिए कि उसे उनके समक्ष किस प्रकार के नमूने भेजने हैं, कैसे एकत्र करना है, संक्रमित मक्खी झुण्ड या मक्खियों के नमूनों को कैसे पैक बंद करके उन तक ले जाना है आदि । यदि दौरे के दौरान विशेषज्ञ उपलब्ध न हो तो वह नमूना सहायक स्टाफ को पूरे नाम व पते, सम्पर्क टेलीफोन नम्बर, मधुमक्खी पालन शाला का स्थल, नमूना एकत्र करने की तिथि, दृष्टव्य लक्षणों, कालोनी की शक्ति तथा प्रवासन का नवीनतम इतिहास या किए गए। रसायन के उपयोग के विवरण के साथ सौंप देना चाहिए।
मधुमक्खी शाला में तथा आसपास की मधुमक्खी शालाओं में मधुमक्खियों के रोगों व नाशकजीवों के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए मधुमक्खी पालकों को वैज्ञानिक ढंग से क्लोनियों का प्रबंध करना चाहिए ताकि रोगों व नाशकजीवों के प्रसार हेतु अनुकूल स्थितियां सृजित होने से बचा जा सके। किसी मधुमक्खी शाला में क्लोनियों के बीच मधुमक्खी रोगों व नाशीजीवों के प्रचार–प्रसार के मुख्य कारण यहां सूचीबद्ध दिए जा रहे हैं।
शहद निकालने की प्रक्रिया के दौरान रोगी क्लोनियों से स्वस्थ क्लोनियों को बदलने का कार्य मधुमक्खी क्लोनियों को एक साथ रखते हुए या खाली छत्ते, मधुमक्खी झुण्ड या कालोनी समानीकरण के लिए पराग अथवा मधुमक्खी के छत्ते या स्थान के प्रबंध से रोगी क्लोनियों से स्वस्थ क्लोनियों में संक्रमण का प्रसार हो सकता है। अतः इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
खुले में भरण
यद्यपि मधुमक्खी शाला में खुले में भरण उपलब्ध कराना आसान और सस्ता है लेकिन इस विधि की सिफारिश नहीं की जाती है क्योंकि इससे संक्रमित से स्वस्थ क्लोनियों में मधुमक्खी के रोगों व कुटकियों का प्रसार हो सकता है। इससे मधुमक्खियों पर साथ वाली मधुमक्खी शाला तथा संक्रमित वन्य मधुमक्खी क्लोनियों से रोगों व नाशकजीवों का आक्रमण हो सकता है।
मधुमक्खी शाला में क्लोनियों के बीच परस्पर चोरी
भोजन की कमी की अवधि के दौरान सशक्त कालानी की मधुमक्खियां शहद छीनने के लिए कमजोर क्लोनियों पर आक्रमण करती हैं। इस अवांछित प्रक्रिया से मधुमक्खी रोगों व कुटकियों से संक्रमित क्लोनियों से रोगों व नाशकजीवों का स्वस्थ क्लोनियों तक प्रसार हो सकता है। अतः मधुमक्खी पालकों को मधुमक्खी शाला से इस प्रकार की छीना-झपटी से बचने के लिए सुरक्षात्मक उपाय करने चाहिए। इन उपायों में क्लोनियों के प्रवेश द्वार को संकरा करने के पश्चात् शाम के समय एक साथ सभी क्लोनियों में भोजन उपलब्ध कराना शामिल है। यह भोजन मधुमक्खी के छत्तों पर या उनके निकट फैलना नहीं चाहिए।
पास की मधुमक्खी शाला की क्लोनियों में ही चोरी
निकट की मधुमक्खी शालाओं की मधुमक्खियां या वन्य मधुमक्खियां भी पुष्प रस की कमी की अवधि के दौरान संक्रमित क्लोनियों से शहद की चोरी कर सकती हैं। इससे उस क्षेत्र की मधुमक्खी शालाओं में मधुमक्खी रोगों और कुटकियों का प्रसार-प्रचार हो जाता है।
क्लोनियों से मधुमक्खियों का भाग जाना
युवा मधुमक्खियां या नर सामान्यतः पास की क्लोनियों में चले जाते हैं। यह पलायन या तो क्लोनियों के बीच दूरी कम होने या क्लोनियों की कतारों में कम अंतर होने अथवा तेज चलने वाली हवा आदि के कारण होता है। संक्रमित क्लोनियों से मक्खियों के इस पलायन से स्वस्थ क्लोनियों में भी रोगों तथा नाशकजीवों का प्रसार होने की संभावना रहती है।
मिलावट उपकरण का उपयोग
यदि किसी उपकरण का उपयोग रोगी कालोनी में किया जाता है और उसके पश्चात् उसी उपकरण का उपयोग स्वस्थ कालोनी में भी कर लिया जाता है तो मधुमक्खी शाला में रोग फैल सकते हैं। कालोनी प्रबंध के दौरान इस्तेमाल होने वाले ढक्कन निकालने के चाकू तथा शहद निष्कर्षण उपकरण, छत्ते में इस्तेमाल होने वाले अन्य औजार शहद निकालने की प्रक्रिया के दौरान मधुमक्खियों के रोगों के प्रचार-प्रसार के प्रति अधिक उत्तरदायी होते हैं।
बाहरी या विदेशी झुण्डों को पकड़ना व उनके छत्ते बनाना
किसी अन्य मधुमक्खी शाला से मधुमक्खी झुण्डों को पकड़ना व उनके छत्ते बनाना आर्थिक रूप से तभी लाभदायक है जब पकड़ा गया झुण्ड स्वस्थ हो। तथापि, इस बात की अधिक संभावना रहती है कि इन बाहरी झुण्डों में कुछ मधुमक्खियां रोगों से संक्रमित हो सकती हैं। अतः इन पकड़े गए झुण्डों को अलग व तब तक निगरानी में रखा जाना चाहिए जब तक यह सुनिश्चित हो जाए कि उन्हें अपनी मधुमक्खी शाला में लाने पर रोगों या नाशकजीवों का कोई जोखिम नहीं है।
क्लोनियों की खरीद व बिक्री
खरीदी गई नई क्लोनियों को चिनित करके व अलग रखते हुए नियमित रूप से जांचा जाना चाहिए, ताकि मधुमक्खी शाला में रोगों और नाशकजीवों के आने से बचा जा सके। मधुमक्खी शाला में विद्यमान नाशकजीवों और रोगों की गहनता का स्तर तब बढ़ने की अधिक संभावना रहती है। जब नई खरीदी गई क्लोनियों में रोगों व नाशकजीवों का भारी संक्रमण होता है।
जहां कहीं भी संभव हो, रोगग्रस्त व नाशकजीव छत्तों व क्लोनियों के प्रबंध के लिए गैर-रासायनिक उपाय इस्तेमाल किए जाने चाहिए। उदाहरण के लिए नर मक्खी के झुण्ड में वैरोरा कुटकी को फंसाने तथा संक्रमित सीलबंद नर मक्खी के झुण्ड को नष्ट करने से क्लोनियों में कुटकियों की संख्या को कम करने में सहायता मिलती है। तली पर चिपचिपे कागज का उपयोग या तली पर जाली का उपयोग करके वैरोरा कुटकियों को छत्तों से निकालने में सहायता मिलती है। क्योंकि ये कुटकियां छत्ते की तली के नीचे रखे बोर्ड पर गिर जाती हैं। यूरोपीय रोगग्रस्त झुण्ड के प्रबंध के लिए शुक स्वार्म विधि का उपयोग किया जा सकता है। इस विधि में किसी भी रसायन का उपयोग नहीं होता है। इस मामले में संक्रमित क्लोनियों की सभी मधुमक्खियों को हिलाया जाता है। तथा इन क्लोनियों में सभी छत्तों को छत्ता फाउंडेशन से युक्त फ्रेमों से बदल दिया जाता है। मोम के पतंगे के कम पैमाने के संक्रमण को संक्रमित छत्तों को धूप में रखकर प्रबंधित किया जा सकता है।
मधुमक्खी रोगों तथा शत्रुओं के प्रबंध के लिए मधुमक्खी पालकों को अनुशंसित विधियों को अपनाना चाहिए। अनुशंसित रसायन की आवश्यकता से अधिक खुराक मधुमक्खी झुण्डों या मधुमक्खियों के अस्तित्व गहन रूप से प्रभावित कर सकती है। अनुशंसित मात्रा से कम खुराक का इस्तेमाल करने का नाशकजीवों की वांछित मृत्यु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। कुछ मामलों में यदि रसायन का उपयोग सिफारिश के अनुसार किया जाता है लेकिन मधुमक्खियां उसे रसायन के सम्पर्क में अनुशंसित समय से कम अवधि तक रहती हैं तो नाशकजीव प्रबंध सफल नहीं होता है। रसायन के दो अनुप्रयोगों के बीच के अंतराल तथा उपचारों की संख्या अनुशंसा के अनुसार ही रखी जानी चाहिए।
मधुमक्खी पालकों को मधुमक्खी रोगो के संक्रमण की गहनता तथा मधुमक्खियों के शत्रुओं के मौसमी प्रकोप होने की घटनाओं तथा स्तर का पूरा रिकॉर्ड रखना चाहिए। इससे उन्हें मधुमक्खी रोगों के विरुद्ध प्रतिरोध करने वाली क्लोनियों को चुनने तथा बड़े पैमाने पर रानी मधुमक्खी के प्रजनन व पालने के लिए प्रजनकों के उपयोग के बारे में जानकारी प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। यह विधि अपनाकर स्वस्थ स्टॉक बनाया रखा जा सकता है जिससे मधुमक्खियों के शत्रुओं तथा रोगों के नियंत्रण हेतु रसायनों के उपयोग को न्यूनतम किया जा सकता है।
परागकों का कीटनाशकों पर प्रमुख प्रभाव परागकों के कीटनाशकों के प्रति सीधे सम्पर्क में तब आना है जब वे फसलों के पुष्पों पर पुष्प रस तथा पराग के लिए मंडराते हैं। पुष्पों पर मौजूद अपशिष्ट कीटनाशी पुष्पों पर आने वाले परागकों के प्रति विषालु होते हैं। उनके शरीर में कीटनाशियों के प्रवेश के कारण अथवा आस-पास के क्षेत्र में छिडके गए कीटनाशी से हवा या पानी के मिलावट होने से कीटनाशक पहुंच जाते हैं। कीटनाशी से संक्रमित पराग या पुष्प रस एकत्र करने के परिणामस्वरूप युवा मधुमक्खियों या झुण्ड में विषालुता उत्पन्न हो सकती है।
मधुमक्खी शाला में मधुमक्खी क्लोनियों में अचानक मधुमक्खियां बड़ी संख्या में मरने लगती हैं। ये मरी हुई मधुमक्खियां छत्तों के सामने अथवा छत्तों की चौड़ी तली के नीचे भी पाई जाती हैं। कालोनी के सामने इन मरी हुई मधुमक्खियों के पराग थैले में पराग भरा हुआ हो सकता है। संक्रमित मधुमक्खियों की टांगें कांपती हैं और वे रेंगकर चलती हैं। विष से प्रभावित मक्खियां कभी एक ओर या उल्टी लुढक जाती हैं तथा कांपते हुए चलती हैं।
फसल का भंडारण - परागक मुख्यत
फसलों के पुष्पों की ओर आकर्षित होते हैं, यद्यपि कभी-कभी पुष्पों का अतिरिक्त रस भी फसलों की गैर-पुष्पन अवस्था के दौरान मधुमक्खियों व अन्य परागकों को आकृष्ट कर सकता है। तथापि, मधुमक्खियों के लिए अनुकूल पुष्पीय फसलें अपनी पुष्पन अवधि के दौरान बड़ी संख्या में परागकों को आकर्षित कर सकती हैं। अतः फसलों के पुष्पन के दौरान नाशकजीवों के उपयोग के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों की मृत्यु हो जाती है।
कीटनाशियों के उपयोग का समय
कीटनाशियों के उपयोग का समय परागकों की मृत्यु पर बहुत प्रभाव डालता है। परागकों की सर्वोच्च गतिविधि की अवधि के दौरान यदि कीटनाशियों का उपयोग किया जाता है तो इसका परागकों की संख्या पर सर्वाधिक हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
नाशकजीवनाशियों की प्रकृति
प्रयुक्त नाशकजीवनाशी की प्रकृति भी परागकों के प्रति विषालुता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नाशकजीवनाशियों के बने रहने या उनकी अपशिष्ट क्रिया से उनकी आविषालुता बहुत प्रभावित होती है। कृत्रिम पाइरेथॉइड मधुमक्खियों के लिए अत्यंत विषाक्त हैं लेकिन अपनी प्रतिकर्षी प्रकृति के कारण इन्हें अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता है। इस सबको ध्यान में रखते हुए हरित रसायनविज्ञान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
फार्मूलेशन का प्रकार
किसी कीटनाशी का फार्मूलेशन परागकों के प्रति विषालुता को बहुत प्रभावित करता है। सामान्यतः दानेदार फार्मूलेशन छिड़ककर इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों तथा धूल वाले रसायन छिड़ककर इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों की तुलना में सुरक्षित होते हैं।
यदि हो सके तो किसानों को मधुमक्खी पालकों को कम से कम एक दिन पहले कीटनाशियों के उपयोग के बारे में सूचित कर देना चाहिए ताकि मधुमक्खी पालक मधुमक्खी कालोनियों को होने वाली क्षति को न्यूनतम करने के लिए आवश्यक व्यवस्था कर सकें या सावधानी अपना सकें।
उपरोक्त उपाय अपनाकर किसी क्षेत्र में किसान और मधुमक्खी पालक खेतों में तथा मधुमक्खियों के छत्तों में मधुमक्खियों तथा अन्य परागकों की उच्चतर संख्या बनाए रख सकते हैं। इससे उन्हें बीजों या फलों के साथ-साथ शहद के उत्पादन में भी वृद्धि करने में मदद मिलती है। इस प्रक्रिया से मधुमक्खी पालक और किसान एक दूसरे के और घनिष्ठ सम्पर्क में आएंगे तथा उन्हें एक-दूसरे की गतिविधियों से ज्यादा से ज्यादा फायदा होगा। नियम बनाकर या उन्नत नाशकजीव नियंत्रण कार्यक्रमों के माध्यम से नाशकजीवनाशियों के हानिकारक प्रभाव को नियंत्रित करने की तत्काल आवश्यकता है।
अंतिम बार संशोधित : 5/1/2023
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