राठी गाय को थर प्रदेश के किसानों की जीवन रेखा माना गया है राठी अनके दुधारू नस्लों में से इस क्षेत्र के लिए यह सर्वोतम साबित हो चुकी है। इसके नाम की उत्पति को खानाबदोश चरवाहे जिन्हें राठ कहा जाता था, से हुई मानी गई है। राठी नस्ल वर्तमान में प्रमुख रूप से राजस्थान के बीकानेर, श्री गंगानगर, हनुमानगढ़ और चूरू जिले में पाली जाती है। स्वभाव से सीधी – सादी, शांत और आकर्षक दिखने वाली नस्ल होने के कारण क्षेत्र के प्रगतिशील किसानों द्वारा इसे अपनाया गया है। राठी गाय का दूध मरूस्थल की कठिन परिस्थितियों में उत्पन्न होने वाला सभी के लिए पौष्टिक आहार है।
थार क्षेत्र के बिकानेर, चूरू, हनुमानगढ़ और श्रीगंगानगर जिले में रहने वाले पशुपालकों के लिए राष्ट्रीय डेयरी योजना – 1 के अंतर्गत राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एन.डी.डी.बी) ने राठी नस्ल की गायों के विकास की पंचवर्षीय योजना स्वीकृत की है। यह परियोजना राजस्थान सहकारी डेयरी फेडरेशन, जयपुर और उरमूल ट्रस्ट, बीकानेर के सक्रिय भागदारी एवं सहयोग से चलाई जा रही है। ग्राम स्तर पर परियोजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए गाँव में पशु विकास समितियों का गठन भी किया जाएगा।
इस योजना का मुख्य उद्देश्य अधिक दुधारू राठी नस्ल की गायों को प्रयोग में लेते हुए दूध उत्पादन को बढ़ाना है। परियोजना में वैज्ञानिक तकनीक से उत्तम कोटि के राठी नस्ल के सांडों को तैयार करके उनके बीज का अधिकतम उपयोग कर कृत्रिम गर्भाधान, पशु रोगों का तुरंत उपचार, पशुओं को उच्च पोषकता वाला पशुआहार और उनका बेहतर तरीके से रखरखाव करके दूध के उत्पादन को बढ़ाया जाएगा जिससे कि पशुपालक को अधिक से अधिक आर्थिक लाभ हो। पशुपालकों की आय बढ़े इसके लिए पशुओं की उन्नत नस्ल का वीर्य, अच्छी गुणवत्ता का पशु आहार, हरा चारा एवं विभिन्न रोगों के टीकों के सुलभ रहने की जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता है पशुपालन प्रजनन और पशु आहार से संबंधित वैज्ञानिक जानकारियों को पशुपालन, प्रजनन और पशुआहार से संबंधित वैज्ञानिक जानकारियों को पशुपालकों तक पंहुचाने की। इसलिए इस पुस्तिका का निर्माण किया गया है। आप इसमें दी गई बातों को पढ़ें, समझें और दूसरों को भी समझाएं जिससे की गाँव का प्रत्येक पशुपालक आर्थिक लाभ पाकर खुशहाल रहे।
भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। वर्ष 2010 – 11 में भारत का कुल दूध उत्पादन 12.18 करोड़ टन रहा। योजना आयोग के अनुमान एवं सकलघरेलू उत्पाद की लगातार उच्च वृद्धि के कारण हुए सुधार के पश्चात् यह संभावना है कि दूध की मांग वर्ष 2016 – 17 तक लगभग 15.5 करोड़ टन तथा वर्ष 2021 -22 तक लगभग 20 करोड़ टन होगी। दूध की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अगले 15 वर्षों में वार्षिक वृद्धि को 4 प्रतिशत से अधिक रखना आवश्यक है।
अत: प्रजनन तथा पोषण पर केन्द्रित कार्यक्रम द्वारा वर्तमान पशु जनसंख्या की उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए एक वैज्ञानिक तरीके से योजनाबद्ध बहुराज्य पहल करना अत्यावश्यक है। राष्ट्रीय डेयरी योजना (एन.डी.पी.) की परिकल्पना पन्द्रह वर्षों की अवधि को ध्यान में रखते हुए की गई है, क्योंकि एक अधिक उत्पादक पशु को उत्पन्न करने में तीन से पांच वर्ष की अवधि अपेक्षित होती है तथा दूध उत्पादन वृद्धि के लिए प्रणाली को विकसित तथा विस्तार करने में इतना समय लगता है।
राष्ट्रीय डेयरी योजना चौदह मुख्य दूध उत्पादन करने वाले राज्यों जो कि आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल पर केन्द्रित रहेगी। देश का 90 प्रतिशत से अधिक दूध उत्पादन इन राज्यों में होता है, इनके पास 97 प्रतिशत प्रजनन योग्य गाय एवं भैंस तथा 98 प्रतिशत चारा संसाधन है। इसका लाभ संपूर्ण देश में होगा। उदहारण के लिए उच्च अनुवांशिक गुण (एच.जी.एम) वाले सांड सारे ए और बी वीर्य स्टेशनों पर उपलब्ध रहेंगे और उच्च गुणवत्ता वाला रोग मुक्त वीर्य देश के सभी दुग्ध उत्पादकों तक पहुंचेगा। राष्ट्रीय डेयरी योजना का प्रथम चरण, 2242 करोड़ रूपये की परियोजना परिव्यय पर है, जो मुख्यत: विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित किया जाएगा। यह छ: वर्षो की अवधि में लागू किया जाएगा। इसके निम्नलिखित उद्देश्य होंगे –
राष्ट्रीय डेयरी योजना का कार्यान्वयन
योजन के प्रथम चरण में बहुआयामी पहलों की श्रृंखलाएं 2012 – 2013 से शुरू होकर छ: वर्षों की अवधि तक कार्यन्वित की जानी है। जिसमें वैज्ञानिक प्रजनन और पोषण के माध्यम से उत्पादकता में बढ़ोतरी की जाएगी।
कृत्रिम गर्भाधान में, उच्च अनुवांशिक योग्यता के सांड़ों से प्राप्त वीर्य के प्रयोग से ही किसी भी बड़ी आबादी में अनुवांशिक प्रगति लायी जा सकती है। दुग्ध उत्पादन को बढ़ाने के लिए दुधारू पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान को 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 35 प्रतिशत करने की आवश्यकता है। यह रोग मुक्त एवं उच्च अनुवांशिक योग्यता के गाय, भैंस और साँड़ों के अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित संतान परिक्षण और वंशावली चयन द्वारा उत्पदान एवं जर्सी और होल्सटिन फ्रीजियन (एच. एफ) सांड/भ्रूण अथवा वीर्य का आयात करके किया जा सकता है। इस योजना में संतान परिक्षण (पी.टी.) और वंशावली चयन (पी.एस.) के माध्यम से विभिन्न नस्लों के 2500 उच्च अनुवांशिक योग्यता के साँड़ों का उत्पादन और 400 विदेशी साँड़ों/भ्रूण का आयात किया जाएगा।
वंशावली चयन (पी एस) के माध्यम से आय नस्लें – राठी, साहिवाल, गिर, कांकरेज, थारपारकर और हरिआना।
इस योजना ए और बी श्रेणी के वीर्य उत्पादन केन्द्रों को मजबूत बनाया जाएगा और उच्च गुणवत्ता तथा रोग मुक्त वीर्य का उत्पादन किया जाएगा। योजना के अंतिम वर्ष में लगभग 10 करोड़ उच्च गुणवत्ता के रोग मुक्त वीर्य खुराकों के सालाना उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है।
इस योजना में मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का अनुकरण करते हुए एक पेशेवर सेवा प्रदाता के माध्यम से कृत्रिम गर्भाधान वितरण सेवाओं के लिए प्रायोगिक मॉडल की स्थापना की जाएगी। ऐसा इसलिए किया जाएगा क्योंकि, कृत्रिम गर्भाधान सेवाओं में जवावदेही और विश्वसनीय आंकड़ो के संग्रह एवं ट्रैकिंग के द्वारा ही अनुवांशिक प्रगति के लाभ की मात्रा को मापा जा सकता है।
लगभग 3000 प्रशिक्षित मोबाईल कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन यह सुनिश्चित करेंगे कि मानक संचालन प्रक्रिया का पालन, आंकड़ों का संग्रह और ट्रेकिंग करते हुए पेशेवर सेवाएँ किसान के दरवाजे पर वितरित हो रही हैं।
यह सब तभी संभव है जब जैव सुरक्षा के ऐसे उपाय किए जाएँ जो सांड उत्पादन क्षेत्रों और वीर्य उत्पदान केन्द्रों में पशुओं के रोगों को निरोध और नियंत्रित करें। राज्य सरकारों को सांड उत्पदान क्षेत्रों और वीर्य उत्पदान केन्द्रों को पशुओं में संक्रामक और स्पर्शजन्य रोगों की रोकथाम और नियंत्रण अधिनियम 2009 के तहत रोग नियंत्रण क्षेत्र घोषित करने, नियमित टीकाकरण और टीकाकरण पश्चात निगरानी, कान – टैगिंग के माध्यम से टीका लगाए हुए पशुओं की पहचान और रोग निदान प्रयोगशलाओं को मजबूत बनाने की जैसी गतिविधियाँ करनी अनिवार्य है। इससे यह सुनिश्चित होगा की कृत्रिम गर्भाधान के लिए रोग मुक्त उच्च अनुवांशिक योग्य वीर्य ही प्रयोग किया जाता है।
सन्तुलित आहार खिलाने पर ही पशु अपनी अनुवांशिक क्षमता के अनुरूप दूध का उत्पादन करते हैं। इस पद्धति द्वारा ने केवल उनके स्वास्थ और उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बल्कि यह दुग्ध उत्पादन की लागत को भी काफी कम करता है, क्योंकि दूध उत्पादन में आने वाली लागत आहार का अनुमानत: 70 प्रतिशत का योगदान है, जिससे किसान की आय में बढ़ोतरी होती है। आहार संतुलन के लिए राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा एक सरल एवं आसानी से उपयोग होने वला कंप्यूटरीकृत सोफ्टवेयर विकसित किया गया है। आहार संतुलन का एक अतिरिक्त लाभ मीथेन उत्सर्जन स्तर में कमी करना भी है, जो कि ग्रीन हाउस गैसों में एक महत्वपूर्ण कारक है।
इस योजना में दूध उत्पादकों को दुधारू पशुपओं के लिए राशन संतुलन एवं पोषक तत्वों के बारे में 40,000 प्रशिक्षित स्थानीय जानकर व्यक्ति परामर्श सेवाओं द्वारा उनके घर – घर जाकर उन्हें शिक्षित करेंगे। किसानों को उन्नत किस्मों के उच्च गुणवत्ता चारा बीज उपलब्ध करा कर चारे की पैदावार बढ़ाई जाएगी तथा साइलेज बनाने और चारा संवर्धन का प्रदर्शन भी किया जाएगा। इस योजना में 40,000 प्रशिक्षित स्थानीय जानकर व्यक्तियों के द्वारा आहार संतुलन के बारे में 40,000 गांवों के लगभग 27 लाख दुधारू पशुओं पर परामर्श प्रदान करें का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके साथ ही 7,500 टन प्रमाणित चारा बीज का उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है।
दूध उत्पादन कार्य में लगभग 7 करोड़ ग्रामीण परिवार संलग्न हैं, जिसमें अधिकतर छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसान है। डेयरी सहकारिता छोटे पशुपालक, विशेषकर महिलाओं के समवेश और आजीविका का सुनिश्चित करती है। यह वांछित है कि सहकारी क्षेत्र बेचने योग्य अतिरिक्त दूध से संगठित क्षेत्र द्वारा प्रबंधन किए जाने वाले वर्तमान 50 प्रतिशत के हिस्से को बनाए रखे।
इस योजना में दूध को उचित तथा पारदर्शी तरीके से इकट्ठा करने और समय पर भुगतान सुनिश्चित करने की गाँव आधारित दूध संकलन प्रणाली स्थापित करके उसका विस्तार किया जाएगा। वर्तमान डेयरी सहकारिता को सुदृढ़ करना और उत्पादक कंपनियों अथवा नई पीढ़ी की सहकारिताओं को ग्रामीण स्तर पर दूध मापन, परिक्षण, संकलन और दूध प्रशीतन से संबंधित बुनियादी ढाँचा स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। संस्थागत ढाँचा निर्माण तथा प्रशिक्षण के लिए सहायता भी दी जाएगी। योजना के अंत में 23,800 अतिरिक्त गांवों को सम्मिलित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
इस योजना के सफल कार्यान्वयन के लिए कुशल तथा प्रशिक्षित मानव संसाधन अनिवार्य तथा महत्वपूर्ण है। फिल्ड में काम करने वाली कार्मिकों का प्रशिक्षण एवं विकास करना इस योजना के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण क्षेत्र होगा। क्षमता निर्माण, प्रशिक्षण तथा प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन के लिए शिक्षा अभियान और गाँव स्तर पर उन्नत प्रक्रियाओं को अपनाना भी एक मुख्य पहल होगी। यह अनुमान है कि एनडीपी के अंतर्गत लगभग सभी स्तर के 60,000 कार्मिकों को प्रशिक्षण तथा पुन: अभिविन्यास की आवश्यकता होगी।
राष्ट्रीय डेयरी योजना के अंतर्गत की जाने वाली पहल, विभिन्न भौगिलिक स्थानों पर फैली हुई हैं। इसलिए विभिन्न गतिविधियों के संचालन के लिए आई.सी.टी. (सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी) पर आधारित प्रणालियों को एकीकृत करना आवश्यक है। विभिन्न गतिविधियों के एकीकरण के साथ – साथ विभिन्न स्तरों पर निगरानी तथा रिपोर्टिंग के लिए आई. सी. टी. पर आधारित सूचना प्रणाली लागू करना, आवश्यक विश्लेषण करना तथा योजना कार्यान्वयन में आवश्यक परिवर्तन में सहायता देना अनिवार्य है। इस योजना में सभी स्तर पर आधारभूत, मध्य – कालिक एवं योजना समापन पर सर्वेक्षण एवं विशिष्ट सर्वेक्षण/अध्ययन किया जाएगा। अध्ययन अनुभवों का दस्तावेज बनाकर ग्रामीणों और संस्थानों में अनुभव बांटे जाएंगे।
इससे योजना की गतिविधियों की प्रभावशाली निगरानी तथा समन्वय में आसानी होगी। वार्षिक योजनाओं को समय पर तैयार करके सरलता से लागू किया जा सकेगा। योजना की प्रगति तथा परिणामों की नियमित समीक्षा तथा प्रतिवेदन में भी खासा मदद मिलेगी।
इस परियोजना के दीर्घकालिक लाभ को समझना अत्यंत जरूरी है। दरअसल, सभी लाभों के रूप में योजना से वैज्ञानिक पद्धति तथा व्यवस्थित प्रक्रियाएं स्थापित होंगी, जिससे यह आशा की जाती है कि देश में दूध उत्पादन करने वाले पशुओं की आनुवांशिकी अनुकूल और निरंतर सुधार के पथ पर आगे बढ़ेगी।
आधुनिक कृत्रिम गर्भाधान पशुपालन की तकनीकों में सबसे अधिक स्वीकृत एवं प्रचलित तकनीक है। इससे पशुओं की नस्ल में सुधार आता है तथा मादा पशुओं में वीर्य जनित बीमारियाँ नहीं फैलती हैं। इस विधि में उत्तम नस्ल के सांड की उपयोगिता में कई सौ गुना वृद्धि हो जाती है। प्राकृतिक रूप से एक सांड साल में केवल 50 से 100 गायों को भी गर्भित कर सकता है। इसके विपरीत कृत्रिम गर्भाधान द्वारा वीर्य को अतिहिमीकृत करके साल में 5,000 से 10,000 गायों को गर्भित किया जा सकता है। किसान की दृष्टि से कृत्रिम गर्भाधान बहुत सस्ती एवं उपयोगी तकनीक है क्योंकि उसे सांड के रख रखाव व खान – पान पर खर्च करने की जरूरत नहीं होती है।
कृत्रिम गर्भाधान द्वारा गर्भधारण दर अधिक हो इसके लिए अनेक सावधानियों की आवश्यकता पड़ती है। यह सावधानियाँ एवं सुझाव, गौ पालक तथा कृत्रिम गर्भाधानकर्ता दोनों के लिए अपने स्तर पर अलग – अलग होते हैं। गाय पालक इन सुझावों को प्रयोग में लाकर गाय में गर्भाधान दर में वृद्धि कर सकते हैं तथा कृत्रिम गर्भाधानकर्ता अपनी विश्वसनीयता को बढ़ा सकते हैं।
पशुओं के स्वास्थ्य तथा अधिक उत्पादन के लिए उनके आहार में कई प्रकार के खनिज पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है, जैसे कि कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, तांबा, जस्ता, मैंगनीज, कोबाल्ट, आयोडीन तथा नमक इत्यादि जिनकी पूर्ति आहार द्वारा की जाती है। खनिज मिश्रण या मिनरल मिश्रण ऊपर लिखित खनिजों का मिश्रण है तथा इन खनिजों को निश्चित मात्रा में पशु की आवश्यकतानुसार ही बनाया जाता है जिनकी संरचना आगे दी गई है।
पुराने ज़माने में विस्तार खेती के समय पशु खेतों में चरने के लिए जाया करते थे। खेतों में पशुओं के लिए विभिन्न प्रकार की घास होती थी। एक घास किसी एक सूक्ष्म खनिज पर पर्याप्त होती थी तो दूसरी किसी अन्य सूक्ष्म खनिज में । इस प्रकार खेतों में मिश्रित घास खाने से सूक्ष्म खनिजों की आपूर्ति हो जाती थी। सघन खेती होने से पशुओं का खेतों में चराई के लिए जाना बंद हो गया। आजकल पशुओं को सर्दियों में बरसीम, जई और गर्मियों में ज्वर, मक्का खिलाया जाता है। जिसके कारण कुछ सूक्ष्म खनिजों की पशुओं में कमी होने लगी है। जिसका सीधा प्रभाव पशु उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर पड़ता है। इसलिए गायों की उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता बनाए रखने के लिए खनिज मिश्रण खिलाना अति आवश्यक है।
जैसे कि ऊपर बताया गया है कि पशु आहर में जौ की खल, आटा, भूसा तथा किसी भी हरे चारे को मिलकर की गई सानी से यह खनिज पर्याप्त मात्रा में पशु को नहीं मिलते, इसलिए उन्हें ऊपर से मिलाना पड़ता है। अधिक दूध देने वाले पशु को तो इन खनिजों (कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, जस्ता, तांबा, मैगनीज, कोबाल्ट इत्यादि) की आवश्यकता और भी अधिक होती है क्योंकि यह दूध का एक अंश है। किसी भी एक खनिज की कमी अगर पशु को हो जाए तो उस पशु के स्वास्थ्य तथा दूध उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है जैसे कि भूख न लगना दूध में कमी आना, बच्चा न होना या बच्चा न ठहरना इत्यादि।
बछड़ी का देर से जवान होना जनन की एक प्रमुख समस्या है। यदि बछड़ी को जीवन की प्रारंभिक अवस्था में पर्याप्त मात्रा में सन्तुलित पोषण नहीं दिया जाता है तो वह अक्सर गर्मी में नहीं आती है। बछड़ी की यौवनवस्था उनकी उम्र की अपेक्षा वजन पर निर्भर करती है। वजन पूरा न होने के कारण बछड़ी के जननांग क्रियाशील नहीं हो पाते हैं। गर्भधारण के समय बछड़ी की वजन लगभग 250 किलोग्राम होना चाहिए। यदि बछड़ी को अच्छी खुराक दी जाए तो वह वजन 24 से 30 महीने में आ जाता है। बछड़ी में सही समय पर यौवनावस्था लाने के लिए उन्हें संतुलित आहार खिलाना चाहिए तथा उनके राशन में 15 – 20 ग्राम खनिज लवण मिश्रण जरूर मिला देना चाहिए।
जनन की ऐसी अवस्था जिसमे मद चक्र बंद हो जाता है अथवा पशु में गर्मी के लक्षण दिखाई नहीं देते हैं, अमदकाल कहलाता है। अमदकाल कोई बीमारी नहीं है परंतु इसमें पशु की उत्पादकता घट जाती है। अमदकाल की अवस्था को दो भागों में बाँटा जा सकता है
वास्तविक अमदकाल तथा शांत अमदकाल।
वास्तविक अमदकाल जननहीनता की एक ऐसी अवस्था है जिसमें गाय वास्तविक रूप से गर्मी में नहीं आती है। गायों में वास्तविक अमदकाल अधिक दूध उत्पादन, वातावरण की अधिक गर्मी, संतुलित आहार की कमी अथवा अन्य शारीरिक रोग के कारण हो सकता है। इस स्थिति में डिंब ग्रंथियों की निष्क्रियता के कारण गाय का मद चक्र पूरी तरह से बंद हो जाता है। संतुलित आहार में कमी के कारण और ब्याने के बाद गाय अक्सर ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन के कारण गाय न तो ताव में आती है और न ही गाभिन हो पाती है। शारीरिक ऊर्जा में गिरावट रोकने के लिए गाय को संतुलित आहार खिलाना चाहिए तथा दाने में मक्का/गेहूं की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। खनिज लवणों की कमी के कारण भी गाय गर्मी में नहीं आती है। खनिज लवणों की पूर्ति के लिए गाय को रोजाना 40 से 50 ग्राम खनिज लवण चारे अथवा दाने में मिलाकर खिलाने चाहिए।
शांत अमदकाल – शांत अमदकाल में गाय गर्मी में आती है परंतु उसका स्वभाव अत्यंत शांत रहता है जिसे पशुपालक समझ नहीं पाता।
फूल दिखाना अर्थ प्रोलेप्स गाभिन गायों की एक प्रमुख समस्या है। इस रोग में योनि अथवा बच्चेदानी, योनिद्वार से बाहर निकल आती है। यह समस्या गर्भावस्था के आखिरी महीनों से लेकर बच्चा देने के 1 से 2 महीने तक कभी भी हो सकती है। गायों में प्रोलेप्स के अनके कारण हो सकते हैं परंतु शरीर में कैल्शियम की कमी इसका प्रमुख कारण होता है। अन्य कारणों में पशु को कब्ज होना, प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन की कमी तथा पिछले ब्यांत में कठिन प्रसव व बच्चे को गलत तरीके से खींचना हो सकता है। गायों में फूल दिखाने की समस्या प्रसव से लगभग 15 से 60 दिन पहले, प्रसव के दौरान अथवा प्रसव के 1 से 2 महीने तक देखी जाती है।
अगर प्रसव से पहले प्रोलेप्स हो तो गाय का बाड़ा चारों तरफ से सुरक्षित व बंद होना चाहिए ताकि कुत्ते और कौवे ऐसे स्थान से दूर रहें। कुत्ते और कौवे, शरीर के बाहर निकले हुए भाग को काटकर खाने लगते हैं जिससे पशु को काफी नुकसान पंहुच सकता है। गाय के बांधने का स्थान साफ – सुथरा होना चाहिए। फर्श पर भूसा व गंदगी नहीं चाहिए। भूसा व गंदगी चिपकने के कारण गाय को जलन होती है और वह पीछे की ओर जोर लगाना शुरू कर देती है। गाय को ऐसे फर्श को सूखा चारा (तूड़ी/भूसा) न खिलाएं। हरा चारा खिलाएं तथा दाने में चोकर की मात्रा बढ़ा दें। गाय को कब्ज न होने दें। चारा ऐसा हो कि गोबर पतला रहे। गाय के दाने में रोजाना 60 से 70 ग्राम खनिज लवण मिश्रण जरूर मिलाएँ। ये खनिज मिश्रण दवा विक्रेता के यहाँ अनेक नामों (एग्री.मिन, मिनिमिन, मिल्कमिन इत्यादी) से मिलते हैं। रोग की शुरूआत में आयुर्वेदिक दवाईयाँ जैसे प्रोलेप्स इन अथवा प्रोलेप्स – क्योर आदि का प्रयोग किया जा सकता है। होम्योपैथिक दवाई – सीपिया 200 X की 10 बूँदे रोजाना पिलाने से भी लाभ मिलता है।
योनि के बाहर निकले भाग को साफ व ठंडे पानी से धो लें जिससे उस पर भूसा, मिट्टी व धुल के कण न लगे रहे। पानी में लाल दवा (पोटेशियम परमैंनेट) डाल सकते हैं। पानी में डिटोल आदि दवा जो योनि में जलन करे, नहीं डालनी चाहिए। हाथ योनि के अंदर करने से पहले नाखुन काट लेने चाहिए तथा साफ हाथों से योनि को धीरे – धीरे अंदर धकेलना चाहिए। योनि अंदर हो जाने के बाद उस पर नर्म रस्सी की ईडूनी बांध देनी चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए की ईडूनी अधिक कसी न हो तथा पेशाब करने के लिए 3-4 अंगुलियों जितनी जगह रहे। यह ईडूनी प्रसव की शुरूआत होने पर खोल देनी चाहिए। शरीर में कैल्शियम की पूर्ति के लिए कैल्शियम की बोतल खून में चढ़वा लेनी चाहिए।
प्रसव के दौरान होने वाला प्रोलेप्स सबसे अधिक खतरनाक माना जाता है। समय पर उपचार न किया जाए तो गाय के मरने की संभावना बढ़ जाती है। यह प्रोलेप्स मुख्य रूप से ब्याने के तुरंत बाद या 4-6 घंटे के अंदर सबसे अधिक होता है। प्रोलेप्स होने पर गाय बैठी रहती है तथा गर्भाशय बाहर निकल आता है। बाहर निकले भाग पर लड्डू जैसे संरचनाएँ दिखाई देती हैं। इन पर जेर भी चिपकी हो सकती है। यदि प्रोलेप्स की समस्या प्रसव के कुछ दिनों बाद आती है तो उसका मुख्य कारण बच्चेदानी में कोई घाव या संक्रमण होता है। यह घाव व संक्रमण प्रसूति के समय गलत तरीके से बच्चा खींचने से अथवा जेर रूकने व गंदे हाथों से जेर निकालने से हो सकता है। योनि से अक्सर बदबूदार, लालिमा लिए मवाद निकलता है। योनि में जलन के कारण गाय अक्सर पीछे की ओर जोर लगाती रहती है। जिससे बच्चेदानी बाहर निकल आती है।
प्रसव के बाद प्रोलेप्स होने पर गाय को अन्य पशुओं से अलग बांध कर रखें। गर्भाशय को लाल दवा युक्त ठंडे/बर्फीले पानी से धो दें ताकि इस पर भूसा व गोबर न चिपका रह। गर्भाशय को एक गीले तौलिए से ढक दें ताकि गर्भाशय सूखने ने पाये तथा उस पर मक्खियाँ न बैठें। शरीर के निकले भाग की सफाई पर विशेष ध्यान चाहिए। उसे जुती द्वारा कभी अंदर न करें। प्रसव के दौरान होने वाला प्रोलेप्स काफी खरतनाक होता है अत: तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क कर उचित ईलाज कराना चाहिए। गर्भाशय में बच्चा फंसने पर उसे जबरदस्ती अथवा नीम हकीम द्वारा नहीं निकलवाना चाहिए। जेर रूकने पर उसे निकालने के लिए अधिक जोर नहीं लगाना चाहिए। प्रोलेप्स अक्सर वंशानुगत भी होता है। अत: ऐसा बछड़ा जिसकी माँ को प्रोलेप्स की शिकायत रही हो प्रजनन के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए। गाय को 40 से 50 ग्राम कैल्शियम युक्त खनिज लवण मिश्रण नियमित रूप से खिलाना चाहिए। गर्भाशय में संक्रमण के कारण प्रोलेप्स है तो गाय को एंटीबायोटिक के इंजेक्शन 3 से 5 दिन में लगवाने चाहिए। बच्चेदानी में भी दवाई रख सकते हैं। गाय के चारे में रोजाना 60 से 70 ग्राम खनिज मिश्रण जरूर मिलाएँ। ये खनिज मिश्रण विक्रेता के यहाँ अनेक नामों (एग्रिमिन, मिनिमान, मिल्कमिन इत्यादि) से मिलते हैं।
एक अथवा दोनों अगले पैर बच्चेदानी के अंदर मुड़े होना, अगले पैरों का गर्दन के ऊपर चढ़ना, सिर का पैरों के बीच नीचे को झुका होना, सिर और गर्दन का पीछे की ओर मुड़ जाना, अगले पैरों का गर्दन के ऊपर चढ़ना, सिर का पैरों तथा थूथन का साथ – साथ आना, पिछले दोनों पैर बच्चेदानी में मुड़ जाना आदि कई ऐसी स्थितियां हैं जिनमें बच्चा अक्सर फंस जाता है। बच्चे में विकास संबंधी दोष के कारण भी बच्चा फंस सकता है।
अधिक दूध देने वाली गायें अक्सर इस रोग से प्रभावित होती हैं। यह रोग मुख्य रूप से कैल्शियम की कमी के कारण होता है। गर्भावस्था के दौरान माँ के शरीर में उपस्थित कैल्शियम की काफी मात्रा बच्चे की हड्डियों के विकास के लिए स्थानांतरित हो जाती है। ब्याने के बाद कैल्शियम की काफी मात्रा दूध में भी चली आती है। एक अनुमान के अनुसार प्रति किलोग्राम, दूध में लगभग 1.2 ग्राम तथा खीस में 2.3 ग्राम कैल्शियम पशु के शरीर से निकल जाता है है। यदि गर्भावस्था के दौरान गाय के आहार में कैल्शियम की पर्याप्त मात्रा नहीं है तो इससे शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है। रोग के लक्षण आमतौर पर ब्याने के लगभग 72 घंटे के अंदर प्रकट हो जाते हैं। गाय का शरीर ठंडा पड़ जाता है। कमजोरी के कारण गाय खड़ी नहीं रह पाती है और बैठ जाती है। गाय की कंपकपी महसूस होती है तथा बेहोशी छायी रहती है। गाय अपनी गर्दन को कोख के ऊपर रख लेती है तथा जुगाली करना बंद कर देती है पशु कड़ा गोबर करता है।
उपचार के लिए गाय को कैल्शियम का इंजेक्शन लगाया जाता है। कैल्शियम की आधी दवा खून में तथा आधी दवा चमड़ी के नीचे लगाई जाती है। दवा का असर एकदम होता है तथा गाय तुरंत खड़ी होकर जुगाली करने लगती है। चमड़ी के नीचे लगाए टीके की सिकाई कर देनी चाहिए। रोग की रोकथाम के लिए गाय को 50 से 70 ग्राम खनिज लवण मिश्रण दाने में मिलाकर रोजाना खिलाना चाहिए। ब्याने के 2 से 3 दिन बाद तक सारा दूध एक साथ नहीं दुहना चाहिए।
एक अध्ययन के मुताबिक हमारे प्रदेश में 60 प्रतिशत से भी अधिक गायों में समय पर नई न होना जैसे कुप्रभाव पाये जाते हैं। क्षेत्रीय स्वरूप उत्तम गुणवत्ता वाले मिनरल मिश्रण खिलाने से इन कूप्राभावों को रोका जा सकता है। इनको नियमित रूप से खिलाने के और भी कई लाभ हैं।
नमक भी पशु आहार में खनिज जितना ही आवश्यक है। इसका पाचन पर क्रिया सीधा असर पड़ता है। नमक मुख्यत: दो खनिज होते हैं – सोडियम व क्लोरिन । नमक की आवश्यकता कूल आहार में आधा प्रतिशत होती है। सानी करते समय पशु आहार में इसे इस तरह मिलाया जा सकता है-
ऊपरलिखित मात्रा में प्रात: सानी करते समय खनिज मिश्रण और नमक को अच्छी तरह मिला दें परंतु यदि कुछ किसान भाई दाना मिश्रण इकट्ठा बनाकर रखते हैं तो दाने मिश्रण में खनिज मिश्रण दो प्रतिशत तथा साधारण नमक (मोटा) एक प्रतिशत मिलकर रख दें। प्रतिदिन इन्हें मिश्रित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
इस रोग को घुर्रखा, घुड़का व घोटुआ भी कहते है। गायों में फैलने वाला यह एक भयानक संक्रामक रोग है। लक्षण प्रकट होने पर 80 से 90 प्रतिशत गायों की मृत्यु हो जाती है। वर्षा ऋतू के आगमन पर यह रोग अधिक फैलता है। यह रोग दूषित चारा, दाना, पानी के खाने से, रोगी पशु के संपर्क में आने से तथा मक्खी, मच्छरों आदि के काटने से फैलता है।
इस रोग में शारीरिक रूप से स्वस्त व तगड़े पशु जो लगभग छ: माह से तीन वर्ष की उम्र के बीच होते हैं, अधिक प्रभावित होते हैं। एक बार लक्षण प्रकट होने पर 80 से 90 प्रतिशत पशुओं की मौत हो जाती है। तीन साल की उम्र के बाद यह रोग बहुत कम होता है।
विषाणु द्वारा तेजी से फैलने वाला यह एक संक्रामक रोग है। रोगी पशु के संपर्क में आने से यह रोग स्वस्थ पशुओं को लग जाता है। संक्रमित चारा, दाना, पानी, गोबर, मूत्र, मांस आदि में विषाणु उपस्थित होते हैं जो अन्य पशुओं को रोग फैला सकते है} इस रोग से प्रभावित पशुओं की संख्या तो बहुत का होती है। इस रोग के कारण पशु पालकों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। क्योंकि रोग के ठीक होने के बाद भी पशुओं की कार्यक्षमता तथा दूध उत्पादन क्षमता काफी घट जाती है। रोग ठीक होने के बाद पशु अक्सर हांफते रहते हैं।
यह रोग ब्रूसेला नामक जीवाणु द्वारा होता है। गर्भपात के बाद योनि से निकला स्राव, जेर व बच्चा पशु के चारा, दाना, पानी को दूषित कर देते हैं। संक्रमित पानी व चारा खाने से रोग के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तथा गर्भपात का कारण बनते हैं
इस रोग के कारण अनके पशु एक साथ प्रभावित हो जाते हैं अत: रोग को संक्रामक गर्भपात के नाम से भी जाना जाता है। पशुओं से यह रोग मनुष्यों में भी फ़ैल जाता है। बछड़ों में इस रोग के कारण अंडकोषों में सूजन आ जाती है। रोग के जीवाणु वीर्य में उपस्थित रहते हैं तथा प्राकृतिक गर्भाधान के समय गाय को संक्रमित कर देते हैं।
पशुओं के प्रबंधन में लापरवाही जैसे बाड़े के गंदे और दूषित फर्श, सफाई की कमी, कीचड़ की अधिकता, मक्खियों की भरमार, बैठने का स्थान का उबड - खाबड़ या छोटे पत्थरों की बहुतायत, गंदे हाथों से दूध निकालना, थनों आदि पर घाव होना, थनैला रोग को पैदा करने में सहायक होते हैं। ऐसे पशु जो अधिक दूध देते हैं वे इस रोग की चपेट में ज्यादा आते हैं। ब्यांत बढ़ने के साथ – साथ रोग होने की संभावना भी बढ़ती रहती है। यह रोग मुख्य रूप से थनों पर गंदगी लगने के कारण फैलता है।
पशुओं में दो प्रकार के परजीवी पाये जाते हैं – आंतरिक परजीवी और बाहरी परजीवी। ये परजीवी पोषण पशु के ख़ून से लिए हैं। इससे पशु कमजोर हो जाता है तथा उसका उत्पादन घट जाता है। आंतरिक परजीवी पशु के शरीर के अंदर रहते हैं जबकि बाहरी परजीवी मुख्य रूप से शरीर के बाहर त्वचा पर रहते हैं।
इन परजीवियों में यकृत फ्ल्यूक (लिवर फ्ल्यूक) चपटे कृमि, गोलकृमि, फीताकृमि (टेप वर्म) और चपेटा कृमि प्रमुख हैं। लीवर फ्ल्यूक के कारण पशु को दस्त लग जाते हैं, एनीमिया हो जाता है, जबड़े के नीचे तथा पेट में पानी भर जाता है। पशु को ऐसे स्थान पर न चरने दें जहाँ कि घास में घोंघे अधिक हो। दूषित तालाबों व पोखरों का पानी न पिलाएं। गोलकृमि मुख्य रूप से पशुओं की छोटी आंत में रहता है तथा कभी-कभी वे इतने ज्यादा हो जाते हैं कि वे आंत में रूकावट कर पूरी तरह बंद लगा देते हैं। इस रोग में बच्चों को दस्त, पेट दर्द, सुस्ती तथा बढ़वार में कमी हो जाती है। अधिक संख्या में होने पर पेट दर्द के कारण बच्चे पैर मरते हैं तथा तड़फन होती है। फीताकृमि शरीर के सभी अंग जैसे फेफड़ा, मस्तिष्क, आंत आदि में पाया जाते हैं। नवजात बछड़ा – बछड़ी को 10 दिन की आयु पर, फिर 21 दिन बाद तथा फिर हर 3 से 6 महीने के अंतराल पर कृमिनाशक दवा पिलानी चाहिए।
बाहरी परजीवियों में मक्खियाँ, मच्छर, फाइलेरिया, चिचड़ियाँ, माईट्स, जूएँ आदि आती हैं, ये परजीवी पशु का खून चूसने के साथ – साथ अनके बीमारियाँ के कीटाणु भी शरीर में छोड़ देते हैं। पशु को झूंझलाहट होती है तथा उसका दूध उत्पादन काफी घट जाती है। इसके रोकथाम व उपचार के लिए कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए। ब्यूटोक्स नामक दवा की 1 मि. ली. मात्रा को 1 लीटर पानी में घोलकर अथवा मैलाथियोन 0.5 प्रतिशत दवा का घोल पशु पर स्प्रे करें।
टीका का नाम |
पहला डोज |
दूसरा डोज |
बाद में |
रक्षा – ओवैक, खुरपका – मुंह पका |
4 माह की उम्र में |
नौ माह के बाद |
प्रत्येक वर्ष |
रक्षा एचएस – गला घोंटू |
6 माह |
----------- |
प्रत्येक वर्ष |
रक्षा – बीक्यू : लंगड़ा बुखार |
6 माह |
----------- |
|
एक से अधिक बीमारियों के संयुक्त टीके |
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रक्षा एच एस + बीक्यू: गलाघोंटू – व लंगड़ा बुखार के लिए |
6 माह की उम्र में |
-------- |
प्रत्येक वर्ष |
रक्षा बायोवैक : मुंहपका और गलाघोंटू का संयुक्त टिका |
4 माह की उम्र में |
9 माह की उम्र में |
प्रत्येक वर्ष |
रक्षा ट्रायोवैक : खुरपका – मुंहपका, लंगड़ा और गलाघोंटू बुखार का संयुक्त टिका |
4 माह की उम्र में |
--------- |
प्रत्येक वर्ष |
ब्रूसेलोसिस |
4 से 8 माह की की केवल बछिया के जीवन में एक बार |
हर किसान के मन में ज्यादा दूध देने वाली गाय की चाहत होती है। दूध उत्पादन और प्रजनन, गाय पालन में साथ-साथ चलने चाहिए। पशु आहार, दूध उत्पादन और प्रजनन क्षमता दोनों को प्रभावित करता है। एक सफल गाय पालक बनने के लिए ज्यादा दूध उत्पादन के अतिरिक्त गाय भी 12 – 14 महीने में ब्या जानी चाहिए। थोड़े ही किसान ऐसे हैं जिनकी गाय 12 से 14 माह के अंतराल पर दोबारा ब्याती है।
शुरू के तीन महीनों में गायों में दूध उत्पादन ज्यादा होता है, ऐसे में यदि उनको उचित मात्रा में सन्तुलित आहार न मिले तो शरीर में जमी हुई वसा, विटामिन व खनिज तत्व दूध उत्पादन के लिए प्रयोग कर लिए जाते हैं। इससे शरीर का भार कम हो जाता है। इसका सीधा प्रभाव दूध उत्पादन और प्रजनन क्षमता पर पड़ता है। गाय गर्मी में नहीं आती और धीरे – धीरे दूध देना बंद कर देती है शरीर में वसा एवं अन्य आवश्यक तत्व जमा होने में फिर लगभग एक साल से ज्यादा समय लग जाता है। जब यह तत्व काफी मात्रा में एकत्र हो जाते हैं। तब जाकर गाय गर्मी में आती है। इस प्रकार गाय का अगला ब्यांत आने तक डेढ़ से दो साल का समय लग जाता है। कई गाय तो इससे भी ज्यादा समय ले लेती हैं। ज्यादा दूध देने वाली गायों में यह प्रवृति और भी ज्यादा देखी गई है। ऐसा दूध देने वाली गायों में यह प्रवृति और भी ज्यादा देखी गई है। ऐसा होने सा गाय पालन घाटे का धंधा बन जाता है।
संतुलित पशु आहर इस समस्या का काफी हद तक समाधान कर सकता है। हमें पता होना चाहिए कि संतुलित आहार क्या है? इसे कैसे बनाया जाता है? कब – कब और कितना खिलाना चाहिए? इस बारे में निम्नलिखित जानकारियाँ पशुपालकों के लिए लाभदायक हैं –
एक गाय 24 घंटे में जितना भोजन खाती है, वह एक राशन कहलाता है। असंतुलित राशन वह होता है जो कि गाय को 24 घंटों में जितने पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है वह देने में असफल रहता है। जबकि संतुलित राशन गाय को ठीक समय पर ठीक मात्रा में पोषक तत्व प्रदान करता है।
संतुलित आहार में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज तत्वों तथा विटामिनों की मात्रा पशु की आवश्यकता अनुसार रखी जाती है। इसे दो भागों में बांटा जा सकता है।
पशुओं के राशन में चारे का होना अत्यंत आवश्यक है। दुधारू पशुओं में सामान्य वसा प्रतिशत बनाए रखने में चारे के कार्य में अव्यवस्था आने से भी रोकता है। दुधारू पशुओं से अधिक उत्पादन के लिए चारा अधिक से अधिक मात्रा में खिलाना चाहिए। हरे चारे से पोषक तत्व पशुओं को आसानी से मिल जाते हैं और उनमें विटामिन की मात्रा भी अधिक होती है। पशु भी इसे चाव से खाते हैं। कई साधारण सी विधियाँ विकसित की गई हैं जिनके द्वारा राशन में चारे की मात्रा की निर्धारण किया जा सकता है।
उदहारण के लिए राशन में कुल शुष्क पदार्थ का 1/3 पदार्थ चारे से प्राप्त होना चाहिए। दलहनी चारों में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है और जब यह चारा पशु को खिलाया जाता है तो राशन में दाना मिश्रण की मात्रा को कम किया जा सकता है। साधारण तौर पर चारे तीन प्रकार के होते हैं।
क्र.सं |
चारा /दाना |
मात्रा |
1. |
जौ/गेहूं |
35 कि.ग्रा. |
2. |
सरसों की खल |
20 कि. ग्रा. |
3. |
बिनौले की खल |
22 कि. ग्रा. |
4. |
गेहूं की चोकर |
20 कि. ग्रा. |
5 |
खनिज मिश्रण |
2 कि. ग्रा. |
6 |
साधारण नमक |
1 कि. ग्रा. |
कुल |
100 कि. ग्रा. |
क्र.सं |
चारा /दाना |
मात्रा |
1. |
मक्का/जौ/ गेहूं |
35 कि. ग्रा. |
2. |
बिनौले की खल |
25 कि. ग्रा. |
3. |
दालों की चूरी |
17 कि. ग्रा. |
4. |
चावल की पालिश |
20 कि. ग्रा. |
5 |
खनिज मिश्रण |
2 कि.ग्रा. |
6 |
साधारण नमक |
1 कि. ग्रा. |
कुल |
100.कि. ग्रा. |
क्र.सं |
चारा /दाना |
मात्रा |
1. |
मक्का/जौ |
38 कि. ग्रा. |
2. |
मूंगफली की खल |
24 कि. ग्रा. |
3. |
दालों की चूरी |
15 कि. ग्रा. |
4. |
चावल की पालिश |
20 कि. ग्रा. |
5 |
खनिज मिश्रण |
2 कि. ग्रा. |
6 |
साधारण नमक |
1 कि. ग्रा. |
कुल |
100 कि. ग्रा. |
क्र.सं |
चारा /दाना |
मात्रा |
1. |
गेहूं |
36 कि. ग्रा. |
2. |
सरसों की खल |
12 कि. ग्रा. |
3. |
बिनौली की खल |
12 कि. ग्रा. |
4. |
दालों की चूरी |
10 कि. ग्रा. |
5 |
चौकर |
15 कि. ग्रा. |
6 |
चावल की पालिश |
10 कि. ग्रा. |
7 |
खनिज मिश्रण |
2 कि. ग्रा. |
8 |
नमक |
1 कि. ग्रा. |
कुल |
100 कि. ग्रा. |
क्र.सं |
चारा /दाना |
मात्रा |
1. |
गेहूं/जौ/मक्का |
20 कि. ग्रा. |
2. |
बाजरा |
15 कि. ग्रा. |
3. |
सरसों की खल |
15 कि. ग्रा. |
4. |
बिनौली की खल |
5 कि. ग्रा. |
5. |
सोयाबीन की खल |
5 कि. ग्रा. |
6. |
चौकर |
15 कि. ग्रा. |
7. |
चावल की पालिश |
12 कि. ग्रा. |
8. |
खनिज मिश्रण |
2 कि. ग्रा. |
9. |
नमक |
1 कि. ग्रा. |
कुल |
100 कि. ग्रा. |
उपरोक्त तालिका में से उपलब्धता के अनुसार पशुपालक आपने पशु के लिए चारा बना सकता है। याद रहे कि दाने को खिलाने से पहले उबालें या फिर भीगों का दें। जिससे की वह पच जाए।
स्त्रोत: राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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