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दुधारू पशुओं में बीमारियों से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

दुधारू पशुओं में बीमारियों से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

गो-पशुओं में जेर का रुकना: कारण एवं निदान

जेर या प्लेसेंटा वह संरचना होती है जो गर्भावस्था में मादा से शिशु तक खुराक को पहुँचती है। इस संचरना में मादा के गर्भाशय तथा शिशु के शरीर की कई झिल्लियाँ तथा रक्त संचार की नलिकाएं सम्मिलित होती है। जेर के मध्यम से माँ के शरीर से गर्भाशय शिशु तक ऑक्सीजन, रक्त शर्करा, एमिनो एसिड, कैल्शियम, फास्फोरस, विटामिन्स, सूक्षम पोषक तत्व तथा अन्य जीवन रक्षक अवयवों का आदान-प्रदान होता है। गर्भकाल पूरा हो जाने के बाद गर्भस्थ शिशु के शरीर से कुछ ऐसे पदार्थ निकलते हैं जो मादा के शरीर से शिशु को बाहर निकालने में मदद करते हैं और इस प्रकार से शिशु, माँ के शरीर से बाहर आ जाता है। अब शिशु के शरीर से बाहर निकल जाने के पश्चात जेर का कोई काम नहीं रह जाता है। अतः प्रक्रति के नियमानुसार, जेर प्रसव के 3 से 8 घंटे के भीतर सामान्य अवस्था में मादा के शरीर निकल आती है 1 यदि किसी कारणवश मादा के शरीर से जेर लगभग 12 घंटे तक भी नहीं निकलती है, तो हम उस दशा को जेर का रुकना या अटकना या  रिटेंशन ऑफ़ प्लेसेंटा कहते हैं।

पशुओं में जेर रुकने या अटकने के कारण

  1. मादा पशु का गर्भकाल के दौरान किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित हो जाना। कुछ स्वास संक्रमित बीमारियाँ जैसे ब्रुसेलोसिस, विब्रियोसिस, लेप्टोस्पाईरोसिस, लिस्टियोसिस तथा आई.बी. आर आदि से मादा के ग्रसित हो जाने पर जेर के अटकने की संभावना काफी बढ़ जाती है।
  2. मादा पशु के शरीर में खनिज तत्वों की कमी या उनके अनुपात में गड़बड़ी के कारण भी पशुओं में प्रसव के बाद जेर अटक जाती है। इन खनिज तत्वों में कैल्शियम तथा फास्फोरस का अनुपात, आयोडीन, विटामिन ए तथा ई की कमी, मैग्नीशियम, कॉपर, कोबाल्ट, सेलेनियम आदि प्रमुख है।
  3. असाधारण  प्रसव जैसे कि गर्भकाल पूर्ण होने से पहले ही बच्चे का जन्म, बच्चे का अविकसित होना या पैदा होने में कठिनाई ( हिस्टोकिया) आदि की दशा में भी पशु के प्रसव के बाद जेर अटक जाती है।
  4. पशु के गर्भकाल के दौरान शरीर में विभिन्न हारमोंस की कमी या गड़बड़ी जैसे इस्ट्रोजन तथा ऑक्सीटोसिन की कमी भी पशुओं में जेर रुकने का कारण हो सकता है।
  5. मादा के गर्भाशय में सुजन, किसी प्रकार का मरोड़ या ऐंठन की वजह से भी जेर अटक जाती है।
  6. यदि कसी वजह से पशु का गर्भाशय प्रसवोपरांत शिथिल पड़ जाता है। उस अवस्था में भी जेर अटक सकती है।

पशुओं में जेर अटकने या रुकने के लक्षण तथा उनसे होने वाली बीमारियाँ

मादा पशु के जननांग से प्रसव के बाद जेर का कुछ हिस्सा बाहर निकाल हुआ दिखाई देता है।यदि प्रसव के 3 से 8 घंटे बाद भी जेर पूर्ण रूप से शरीर से बाहर नहीं निकलती है तो पशु के शरीर में अन्य बिमारियों का खतरा बढ़ जाता है, अर्थात यदि पशु के शरीर से 24 घंटे के भीतर जेर नहीं निकल पाती है, तो जेर की गर्भाशय में ही सड़न शुरू हो जाती है। इसी के साथ यदि समय पर उपचार नहीं किया गया तो पशु में टोक्सिमिया, परिटोनाइटिस, नेक्रोटिक बेजाइंटिस , बल्वाइटिस, पायोमेट्रा तथा बाद में बांझपन आदि बीमारियाँ भी देखने को मिलती है, चूँकि पशुओं में मादा जननांग के पास मलद्वार भी खुलता है। अतः मल के साथ निकलने वाले जीवाणु जेर के मध्यम से पुनः गर्भाशय तथा थनों तक पहुंच जाते हिं और कई बीमारियाँ पैदा करते हिं, जिनमें गर्भाशय शोध तथा थनैला रोग प्रमुख है। पशु को बुखार, दूध उत्पादन में कमी, कमजोरी, नाड़ी तथा श्वसन गति का बढ़ जाना आदि लक्षण प्रदर्शित होते हैं समुचित उपचार के अभाव में पशु की मृत्यु भी हो सकती है। इसी प्रकार से  थनैला  रोग हो जाने पर  पशु के थन में सुजन, दूध के साथ ही खून का स्राव तथा बाद में दूध मने मवाद भी जाने लगता है। जिसका उपचार काफी खर्चीला होता है।

उपचार

इस बीमारी से ग्रसित पशु का उपचार काफी हद तक रोग के लक्षणों के आधार पर निर्भर करता है। अतः  जेर न निकलने की दशा में कुशल पशुचिकित्सक से ही पशु का इलाज कराना चाहिए। पशु के जेर को हाथ से निकालने हेतु किसी अकुशल व्यक्ति की सहायता न लें, ऐसा करने से पशु के जननागों की क्षति तथा पशु अगला उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है। हाथों से जेर निकालते समय वैज्ञानिक विधि का अवश्य ध्यान रखें।

  1. पशु के शरीर में कमजोरी तथा गर्भाशय में शिथिलता  की दशा में कैल्शियम का प्रयोग (सुई अथवा मुंह के द्वारा) सुनिश्चित करना चाहिए। इसी के साथ-साथ गर्भाशय में सामान्य संकुचन बनाए रखने के लिए बाजार में उपलब्ध गर्भशयी टानिक (यूटेराइन टानिक) का भी इस्तेमाल करना चाहिए।।
  2. पशु में बुखार आदि होने की दशा में बुखार कम करने वाली दवाइयों का प्रयोग करना चाहिए।
  3. पशुओं में जीवाणुओं के संक्रमण को रोकने के लिए जिवाणुरोधी दवाइयों (एंटीबायोटिक्स) का प्रयोग सुनिश्चत  करना चाहिए। ये दवाइयां सुई के माध्यम से गर्भाशय तथा मांस दोनों में ही दी जा सकती है।
  4. यदि पशु का गर्भाशय शिथिल पड़ गया है तो हारमोंस के इंजेक्शन (ऑक्सीटोसिन/इस्ट्रोजन) का भी प्रयोग किया जा सकता है।
  5. पशु के शरीर में अत्यंत कमजोरी एवं जेर निकालने के दौरान अत्याधिक रक्त स्राव की दशा में शरीर में पानी (एन.एस.एस.) तथा खून का थक्का बनाने वाली दवाओं का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।

बचाव

कुछ सामान्य बातों को अमल में लाकर भी पशुओं में जेर अटकने की समस्या को रोका जा सकता है, जो निम्न है –

  1. पशु को गर्भाशय में संतुलित आहार अवश्य देना चाहिए। इसके अलावा आहार में विटामिन्स तथा खनिज तत्वों की समुचित मात्र भी अवश्य देना चाहिए।
  2. पशु को प्रतिदिन आवश्यक व्यायाम भी कराना चाहिए तथा साफ-सुथरा रखना चाहिए।
  3. पशु के प्रसव के समय आस-पास का स्थान तथा पशु के शरीर को भी साफ-सुथरे स्थान पर बांधना चाहिए।
  4. गर्भाशय में पशु को किसी प्रकार के अंदरूनी चोट व मोच से बचाना चाहिए। समूह एक अन्य जानवरों से गाभिन पशु को अलग रखना चाहिए।
  5. गर्भकाल के दौरान किसी संक्रामक बीमारी की आशंका पर पशु को पशु चिकित्सक से अवश्य दिखाना चाहिए।

उपरोक्त सभी बातों को यदि ध्यान में रखा जाए तथा अमल में लाया जाए तो निश्चित रूप से ऐसे भी जिनमें जेर अटक गई हो, उपचारोप्रांत लगभग पूर्णमात्रा में दूध का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है तथा साथ ही साथ पशु के भविष्य की प्रजनन क्षमता को भी सामान्य रखा जा सकता है।

लेखन: एच.आर.मीना एवं बी.एस. मीना

गर्मी व बरसात के मौसम में डेरी पशुओं को कैसे खिलाएं?

गर्मी के मौसम में, विशेषतया जब वातावारण तापमान में वृद्धि के साथ-साथ उमस भी अधिक हो, डेरी पशुओं के उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है। इस वातावरण में पशु अपने शरीर में उत्पन्न गर्मी को वातावरण में निष्कासित नहीं कर पाते, जिसके फलस्वरूप उनके शरीर का तापमान बढ़ जाता है और रात के समय तापमान घटने पर कुछ घंटों ही राहत महसूस का पाते हैं। इस स्थिति में निपटना पशुपालकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। हमारे देश के कई बैग उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पड़ते हैं, जिस कारण खासकर अप्रैल से सितम्बर तक काफी गर्म व् उमस भरे दिन होते हैं। इसके साथ-साथ, फसल चक्र भी इस प्रकार है कि मई-जून में हरे चारे की कम उप्ब्ल्धता इस समस्या को और भी गंभीर बना देती है। ऐसे के स्वास्थ्य में गिरावट, जल्दी-जल्दी पानी पीना, खुराक कम होना, पशुओं की वाहक क्षमता में कमी, श्वसन दर में वृद्धि इत्यादि असर देखे जा सकते हैं। खासकर विदेशी व संकर नस्ल के पशु कारकों से अधिक प्रभावित होते हैं।

इन सब परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कुछ कदम उठाने चाहिए, जैसे गर्मी को सहन कर पाने वाले पशुओं का चयन, वातावरण को ठंडा रखने हेतु कुछ सुविधाएं जैसे छायादार पेड़, पंखा, कूलर आदि की व्यवस्था, पशुपोषण में आवश्यक फेरबदल, जिसके फलस्वरूप पशुओं के आहार द्वारा उत्पन्न गर्मी की मात्रा कम हो, इत्यादि । इस आलेख में हम केवल पशु पोषण संबंधी बातों का जिक्र करे रहे है, ताकि पशुधन को इस मौसम के कारण होने वाले संभावित दुष्प्रभाव से बचाया जा सके।

  1. गर्मी के कारण पशु की भूख प्रभावित होती है परन्तु विभिन्न पोषण तत्वों की आवश्यकताएं बढ़ जाती हैं। इन दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए आहार के विभिन्न अवयवों का चयन करना चाहिए, ताकि वे ज्यादा खा पाएं और समुचित मात्रा में पोषक तत्व भी प्राप्त हो सकें। इसके अतिरिक्त, आहार से उत्पन्न ऊर्जा की मात्रा भी कम हो ताकि पशु अतिरिक्त दबाव न बनें। सबसे पहले तो राशन में ऊर्जा की उपलब्धता पर पड़ता है। इसके लिए सबसे तरीका है  चारे की मात्रा कम कर दें और दाने की मात्रा अधिक। इससे राशन का घनत्व बढ़ जाएगा (कम रेशा होने के कारण आहार की अंतग्राह्यता बढ़ेगी) यहाँ पर एक बात और बताने योग्य है,  अलग-अलग प्रकृति के खाद्य पदार्थ पचने के दौरान अलग-अलग मात्रा में गर्मी उत्पन्न करते हैं, जिसे ताप वृद्धि कहते हैं। वसा पचने के दौरान सबसे कम तथा कार्बोहाइड्रेट से सबसे अधिक व प्रोटीन से उससे अधिक ऊष्मा उत्पन्न होती है। कार्बोहाइड्रेट की मात्रा के साथ-साथ उसकी प्रकृति/संरचना भी महत्व रखती है। स्टार्च आदि से कम तथा रेशे से ज्यादा ऊष्मा उत्पन्न होती है। इसलिए आहार में भूसा या अन्य सूखे चारे की मात्रा कम कर दें। आहार से अधिक ऊर्जा वाले खाद्य जैसे खल, तिलहन आदि ज्यादा शामिल करें।
  2. अधिक दुध देने वाले पशुओं के आहार में खल की अपेक्षा तिलहन की मात्रा बढ़ाने से पशु को थोड़े आहार से अधिक ऊर्जा मिलेगी जिसके फलस्वरूप उत्पादन स्तर बना रहेगा। पूरे राशन में यदि 6% से अधिक वसा हो तो उसका रेशे की पाचकता पर दुष्प्रभाव पड़ता है। ऐसी अवस्था में बाईपास वसा खिलाना एक विकल्प है।
  3. आहार में प्रोटीन की मात्रा आवश्कता से अधिक होना भी वांछनीय नहीं है क्योंकि ऐसे में मूत्र द्वारा अधिक नाइट्रोजन (यूरिया के रूप में) निष्कासन के कानर पशु को अधिक उर्जा खर्च करनी पड़ती है। उस दशा में यदि 18% से अधिक प्रोटीन हो तो खून में भी यूरिया की मात्रा बढ़ जाती है जो कि पशु के शरीर के तापमान को प्रभावित करती है।
  4. प्रोटीन की कमी तो प्रत्यक्ष रूप से उत्पादन पर बुरा प्रभाव डालती है। साथ में प्रोटीन की गुणवत्ता का भी ध्यान रखना चाहिए। आहार में 60% से अधिक रयूमन पाचनशील प्रोटीन हो ताकि पशु को 40% बाईपास प्रोटीन उपलब्ध हो सके जिससे पशु को एमिनो अम्ल अधिक मात्रा में उपलब्ध होंगे। लाइसिन एक अमीनों अम्ल है जो अनाज/तिलहन से अपर्याप्त मात्रा में होता है इसके निदान स्वरुप है 1% रासायनिक लाइसिन आहार में मिलने से अधिक दूध उत्पादन क्षमता वाले पशुओं के दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होगी।
  5. जैसे कि ऊपर बताया गया है कि आहार में दाने की मात्रा अधिक व सुखा चारा कम देना चाहिए परन्तु इससे रयुमन में अम्लता की संभावना बढ़ जाती है। उससे बचने के लिए आहार में 1% मीठा सोडा/पोटेशियम कार्बोनेट आह्व बाईकार्बोनेट मिलाने से अम्लता की snbha कम हो जाएगी एवं दूध में वसा की मात्रा में गिरावट भी नहीं आएगी।
  6. गर्मी के दबाव के कारण पशुओं की खनिज तत्वों के उपाचय पर प्रभाव पड़ता है, जिसमें विशेषकर सोडियम व पोटेशियम शामिल हैं। इस मौसम में पसीने द्वारा सोडियम व् पोटेशियम निकलते रहते हैं, जिसकी भरपाई आहार द्वारा की जानी चाहिए वैसे भी हरे चारे की कम उपलब्धता के कारण पोटेशियम का अंश आहार में कम रहता है।
  7. गर्मी में पशु हांफने लगता है जिससे अधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड साँस द्वारा बाहर निकलने के कारण साँस लेने में दिक्कत आती है। इस  मौसम में विशेषका रमुमिनरल मिक्सचर जैसे कैटायोनिक आधारित डीकैड मिश्रण लाभकारी है।
  8. हरे चारे की कमी में साइलेज खिलाना भी लाभकारी है क्योंकि साइलेज बनाने की प्रक्रिया में चारा कुछ हद तक किन्वित हो जाता है। अतः यह जल्दी पचेगा और पाचन के दौरान गर्मी  का दबाव पशु पर अपेक्षाकृत कम होगा।
  9. आहार के साथ-साथ की मात्रा व गुणवत्ता महत्व रखती है। अतः पशु को प्रचुर मात्रा में उपलब्धता करवाना जरुरी है, जिससे पशु पर गर्मी का दबाव कम हो और उसके शरीर का तापमान सामान्य रहे।

लेखन: वीना मणि, एस.एस.कुंडु एवं चन्द्र दत्त

गो पशुओं का बार-बार गर्भाधान कराने के बावजूद भी गर्भाधान न करना (कारण एवं समाधान) रिपीट ब्रीडिंग)

गोवंशीय पशुओं का बार-बार गर्मी में आना तथा स्वस्थ्य एवं प्रजनन योग्य नर पशु से गर्भाधान/कृत्रिम गर्भाधान सही समय पर कराने पर भी मादा पशु द्वारा गर्भधारण न करने की अवशता को “रिपीट ब्रीडिंग” कहते हैं। ऐसे पशुओं से सामान्यतः नियमित मदचक्र (18-22 दिन) होता है एवं जननांगों से कोई मवाद या गंदा स्राव आदि नहीं आता है। फिर भी पशु को तीन या इससे अधिक बार गर्भाधान कराने पर भी गर्भ नहीं ठहरता है। गोवंशीय पशुओं में ब्रीडिंग की दर 10-20% है जो कि खराब प्रबन्धन एवं कुपोषण की स्थिति में और ज्यादा हो सकती है। समान्यतः यदि भूर्ण की मृत्यु पशु के गाभिन होने के 8-16 दिनों के भीटर होती है तो पशु के मदचक्र पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है, परन्तु तत्पश्चात भ्रूण मृत्यु होने की दशा के गर्मी में आने क अन्तराल बढ़ जाता है।

कारण

  1. निषेचन प्रक्रिया का न होना
  • अन्डोत्सर्ग न होना/अन्डोत्सर्ग के बिना गर्मी में आना
  • अन्डोत्सर्ग में विलम्ब
  • अंडवाहिका मार्ग में अवरोध/संक्रमण
  • शुक्राणुओं एवं अंडाणुओं की बनावट व वंशानुगत/प्राप्त त्रुटि या उनकी अधिक उम्र।
  • जननांगों में जन्मजात संरचनात्मक त्रुटियाँ।
  1. भ्रूण की मृत्यु हो जाना
  • भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में मृत्यु
  • निषेचित अण्डों के प्रत्यारोपण/निषेचन में बाधा
  • विभिन्न प्रकार के हारमोंस में कमी/असंतुलन, जैसे-प्रोजेस्ट्रान में कमी व एस्ट्रोजन की अधिकता इत्यादि।
  • अत्यधिक वातावरणीय ताप एवं आर्द्रता
  • गर्भाशय में संक्रमण
  • भ्रूणीय विसंगतियाँ
  • विभिन्न जननांगों का संक्रमण
  • प्रतिरक्षा संबंधित व्याधियां

समाधान

  1. रिपीट ब्रीडिंग (बार-बार गर्मी में आने) वाले पशुओं को उचित मात्रा में संतुलित आहार, पर्याप्त हरा चारा एवं खनिज मिश्रण अवश्य दें।
  2. विभिन्न प्रकार के जीवाणु एवं विषाणु जनित बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण एवं परजीवी रोगों की रोकथाम हेतु प्रबंध करना चाहिए।
  3. उचित आवास-व्यवस्था का प्रबंध एवं नियमित साफ सफाई करना चाहिए।
  4. स्वच्छ एवं पारदर्शी योनि स्राव होने पर गर्भाधान कराना चाहिए।
  5. पशु को सही समय से गाभिन करवाने की सफलता की दर अधिकतम रहती है। ध्यान देने योग्य तथ्य यही है कि अगर पशु शाम को गर्मी में आये तो अगले दिन सुभ और यदि गर्मी के लक्षण सुबह दिखाई पड़े तो उसी दिन शाम तक गाभिन कराने के ले अवश्य ले जाना चाहिए।
  6. पशुओं में गर्मी के लक्षण दिन में दो बार (सुबह एवं शाम) अवश्य देखने चाहिए। जिससे गर्भाधान के उचित समय का ज्ञान किया जा सके।।
  7. गर्भाधान से पहले वीर्य की जाँच अवश्य करनी चाहिए था यह ध्यान रखना चाहिए कि इनमें प्रयुक्त सांड में कोई संक्रमन न हो या वीर्य में अग्रदिशा में गतिशील शुक्राणुओं की उचित संख्या (50-10 मिलियन) होनी चाहिए।
  8. हिमंकित वीर्य  का तरलीकरण अत्यधिक सावधानी से करना चाहिए।
  9. यह कार्य कृत्रिम गर्भादान विशेषज्ञों द्वारा ही किया जाना चाहिए, तथा वीर्य को गर्भाशय ग्रीवा से गर्भाधान  की स्थिति में सांडों को समय-समय पर बदलते रहना चाहिए।
  10. समय-समय पर ऐसे पशुओं के जनन अंगों की जाँच विशेषज्ञों  द्वारा करायी जानी चाहिए।
  11. जननांगों की संक्रमित अवस्था में गर्भाधान नहीं करना चाहिए।
  12. ब्योने के तुरंत बाद जननांगों का संक्रम रोकने हेतु उचित उपचार एवं रोकथाम करनी चाहिए।

लेखन: एच.आर.मीना गोपाल सांखला एवं बी.एस. मीना

स्त्रोत: राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान

अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020



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