आदिवासी गांवों में प्रायः बीमारियों का कारण देवी-देवाताओं एंव आत्माओं के कोप को समझा जाता है। गुनिया और ओझा आदि के सुझाव पर उनके उपचार हेतु मार्ग, सूकर, कबूतर आदि की बलि पर धन व्यय किया जाता है। विभिन्न बीमारियों के लक्षण, बचाव के उपाय, उपचार आदि के विषय में आधारभूत जानकारी उन्हें साधारण भाषा मे दी जाने की आवश्यकता है।
जिस तरह से अब मनुष्यों की चेचक एंव हैजा बीमारियों को समझ कर टिकाकरण कराया जाता है उसी तरह सूअरों की इन बीमारियों की जानकारी हो जाने पर पशुपालन स्वमेव टिकाकरण कराएंगे और उसमें सहयोग करेंगे। सूकर पिल्लों में मृत्युदर लगभग 3-% है जो कि प्रायः उनकी माँ के भारी भरकम शरीर के ऊपर चढ़ जाने, निमोनिया, फर्श गीला होने से, खराब मौसम, दस्त या पिगलेट एनीमिया यानि कि खून की कमी तथा पेट कीड़ों के कारण होती है।
सूकर जाति में होने वाली बीमारियाँ, जीवाणु, विषाणु और कीटाणुओं द्वारा फैलाई जाती है। सूअरों पर आंतरिक परजीवी जैसे जूएँ और लीखों आदि का प्रकोप भी होता है। सूअरों का त्वचा का बारीकी से परीक्षण किए जाने पर बीमार पशु की पहचान आसानी से की जा सकती है। बीमार सूकर में निम्न लक्षण पाये जा सकते हैं।
इनमें से कोई भी एक से अधिक लक्षण पाए जाने पर सूकर की बीमारी के लिए गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। देर से उपचार की अपेक्षा जल्दी उपचार करना परेशानी एंव आर्थिक हानि दोनों ही बचाता है। जबकि एक बार हमेशा ही ध्यान मे रखना चाहिए कि उपचार की अपेक्षा बचाव बेहतर होता है। स्थानीय तौर पर पाये जाने वाले विषाणु एंव जीवाणु द्वारा फैलाई जाने वाली बीमारियों के लिए सूकर प्रायः संवेदनशील हुआ करते हैं। अतः तेज बुखार तथा अन्य लक्षणों के मिलने पर तुरंत पशु चिकित्सक से उचित परीक्षण कराया जाना चाहिए।
गोल एंव फीता कृमियों के प्रति भी सूकर अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। गोल कृमियों के संक्रामण से सूकर का वजन घट सकता है। वह आंतरिक रूप से भी कमजोर हो जाता है। श्वांस असाधारण हो जाती है
जबकि फीताकृमियों के जीवन चक्र का एक्स विशेष भाग सूकर के शरीर में उत्पन्न होता है, जो कि मनुष्य जाति पर अपना कुप्रभाव दिखाते हैं। अतः ये इस रूप से मानव जाति के लिए हानिकारक हैं, इससे बचाव के कुछ उपाय किए जा सकते हैं। जैसे सूकर को मनुष्य का मल खाने से बचाया जावे तथा मृत सूकर के शव को जमीन मे गहराई से दबाया जाना चाहिए या जलाया जाना चाहिए।
इन परजीवियों से बचाव के लिए कई यौगिक उपयोग किए जाते हैं, जिनमें से पिपरजीन नामक यौगिक प्रायः उपयोग मे आता है।
जूएँ, मक्खियाँ तथा अन्य बाह्य परजीवी सूकर की त्वचा में खुजली पैदा करते हैं जिससे वह दीवालों आदि से रगड़कर शांत करना चाहते हैं। कुछ बाह्य परजीवियों की उपस्थिती को देखा नहीं जा सकता है, बल्कि त्वचा मोटे और अजीब तरह से उठी हुई होने से पहचाना जा सकता है। इन दोनों ही परिस्थितियों मे जुओं के लिए उपयोग होने वाले यौगिकों के घोल में पशु को नहलाना चाहिए।
इस तरह के यौगिकों के मिले वाले पैकिंग पर मात्रा आदि की जानकारी छपी रहती है, अथवा स्थानीय पशु चिकित्सक से सलाह ली जा सकती है। एक बार नहलाने से यदि काम नहीं चले तो बार-बार इस प्रक्रिया को दोहराया जा सकता है। सूकर के साथ-साथ उनके रहने का बाड़ा भी यदि उसी घोल से धो दिया जावे तो अधिक अच्छा रहेगा।
स्त्रोत: छत्तीसगढ़ सरकार की आधिकारिक वेबसाइट
अंतिम बार संशोधित : 2/12/2020
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