मवेशी या अन्य पशुधन के बीमार हो जाने पर उनका इलाज करने के वनिस्पत उन्हें तंदुरूस्त बनाये रखने का इंतजाम करना ज्यादा अच्छा है। कहावत प्रसिद्ध है “समय से पहले चेते किसान”। पशुधन के लिए साफ-सुथरा और हवादार घर – बथान, सन्तुलित खान – पान तथा उचित देख भाल का इंतजाम करने पर उनके रोगग्रस्त होने का खतरा किसी हद तक टल जाता है। रोगों का प्रकोप कमजोर मवेशियों पर ज्यादा होता है। उनकी खुराक ठीक रखने पर उनके भीतर रोगों से बचाव करने की ताकत पैदा हो जाती है। बथान की सफाई परजीवी से फैलने वाले रोगों और छूतही बीमारियों से मवेशियों का रक्षा करती है। सतर्क रहकर पशुधन की देख – भाल करने वाले पशुपालक बीमार पशु को झुंड से अलग कर अन्य पशुओं को बीमार होने से बचा सकते हैं। इसलिए पशुपालकों और किसानों को निम्नांकित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
मवेशियों के कई तरह के रोग फैलते हैं। मोटे तौर पर इन्हें निमनंकित तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –
क. संक्रामक रोग या छूतही बीमारियाँ।
ख. सामान्य रोग या आम बीमारियाँ।
ग. परजीवी जन्य रोग।
संक्रामक रोग संसर्ग या छूआ – छूत से एक मवेशी से अनेक मवेशी से अनेक मवेशियों में फ़ैल जाते हैं। किसानों को इस बात का अनुभव है कि ये छूतही बीमारियाँ आमतौर पर महामारी का रूप ले लेती है। संक्रामक रोग प्राय: विषाणुओं द्वारा फैलाये जाते हैं, लेकिन अलग – अलग रोग में इनके प्रसार के रास्ते अलग – अलग होते हैं। उदहारणत: खुरहा रोग के विषाणु बीमार पशु की लार से गिरते रहते हैं तथा गौत पानी में घुस कर उसे दूषित बना देते हैं। इस गौत पानी के जरिए अनेक पशु इसके शिकार हो जाते हैं। अन्य संक्रामक रोग के जीवाणु भी गौत पानी मृत के चमड़े या छींक से गिरने वाले पानी के द्वारा एक पशु से अनेक पशुओं को रोग ग्रस्त बनाते हैं। इसलिए यदि गांव या पड़ोस के गाँव में कोई संक्रामक रोग फ़ैल जाए तो मवेशियों के बचाव के लिए निम्नाकिंत उपाय कारगर होते हैं –
अ. गलाघोंटू
यह बीमारी गाय – भैंस को ज्यादा परेशानी करती है। भेड़ तथा सुअरों को भी यह बीमारी लग जाती है। इसका प्रकोप ज्यादातर बरसात में होता है।
लक्षण – शरीर का तापमान बढ़ जाता है और पशु सुस्त हो जाता है। रोगी पशु का गला सूज जाता है जिससे खाना निगलने में कठिनाई होती है। इसलिए पशु खाना – पीना छोड़ देता है। सूजन गर्म रहती है तथा उसमें दर्द होता है। पशु को साँस लेने में तकलीफ होती है, किसी - किसी पशु को कब्जियत और उसके बाद पतला दस्त भी होने लगता है। बीमार पशु 6 से 24 घंटे के भीतर मर जाता है। पशु के मुंह से लार गिरती है।
चिकित्सा – संक्रामक रोग से बचाव और उनकी रोग – थाम के सभी तरीके अपनाना आवश्यक है। रोगी पशु की तुरंत इलाज की जाए। बरसात के पहले ही निरोधक का टिका लगवा कर मवेशी को सुरक्षित कर लेना लाभदायक है। इसके मुफ्त टीकाकरण की व्यवस्था विभाग द्वारा की गई है।
आ. जहरवाद (ब्लैक क्वार्टर)
यह रोग भी ज्यादातर बरसात में फैलता है। इसकी विशेषता यह है कि यह खास कर छ: महीने से 18 महीने के स्वस्थ बछड़ों को ही अपना शिकार बनाता है। इसको सूजवा के नाम से भी पुकारा जाता है।
लक्षण – इस रोग से आक्रांत पशु का पिछला पुट्ठा सूज जाता है। पशु लंगड़ाने लगता है। किसी किसी पशु का अगला पैर भी सूज जाता है। सूजन धीरे – धीरे शरीर के दूसरे भाग में भी फ़ैल सकती है। सूजन में काफी पीड़ा होती है तथा उसे दबाने पर कूड़कूडाहट की आवाज होती है। शरीर का तापमान 104 से 106 डिग्री रहता है। बाद में सूजन सड़ जाती है। तथा उस स्थान पर सड़ा हुआ घाव हो जाता है।
चिकित्सा – संक्रामक रोग से बचाव और रोक – थाम के तरीके, जो इस पुस्तिका में अन्यत्र बतलाए गए है, अपनाए जाएँ। पशु चिकित्सा के परार्मश से रोग ग्रस्त पशुओं की इलाज की जाए। बरसात के पहले सभी स्वस्थ पशुओं को इस रोग का निरोधक टिका लगवा देना चाहिए।
इ. प्लीहा या पिलबढ़वा (एंथ्रेक्स)
यह भी एक भयानक संक्रामक रोग है। इस रोग से आक्रांत पशु की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है। इस रोग के शिकार मवेशी के अलावे भेड़, बकरी और घोड़े भी होते हैं।
लक्षण – तेज बुखार 106 डिग्री से 107 डिग्री तक। मृत्यु के बाद नाक, पेशाब और पैखाना के रास्ते खून बहने लगता है। आक्रांत पशु शरीर के विभिन्न अंगों पर सूजन आ जाती है। प्लीहा काफी बढ़ जाती है तथा पेट फूल जाता है।
चिकित्सा – संक्रामक रोगों की रोक – थाम उनसे बचाव के तरीके अपनाए तथा पशु – चिकित्सा की सेवाएँ प्राप्त करें। यह रोग भी स्थानिक होता है। इसीलिए समय रहते पशुओं को टिका लगवा देने पर पशु के बीमार होने का खतरा नहीं रहता है।
ई. खुरहा – मुहंपका (फूट एंड माउथ डिजीज़)
यह रोग बहुत ही लरछूत है और इसका संक्रामण बहुत तेजी से होता है। यद्यपि इससे आक्रांत पशु के मरने की संभावना बहुत ही कम रहती है तथापि इस रोग से पशु पालकों को को काफी नुकसान होता है क्योंकि पशु कमजोर हो जाता है तथा उसकी कार्यक्षमता और उत्पादन काफी दिनों तक के लिए कम हो जाता है। यह बीमारी गाय, बैल और भैंस के अलावा भेड़ों को भी अपना शिकार बनाती है।
लक्षण – बुखार हो जाना, भोजन से अरुची, पैदावार कम जाना, मुहं और खुर में पहले छोटे – छोटे दाने निकलना और बाद में पाक कर घाव हो जाना आदि इस रोग के लक्षण हैं।
चिकित्सा – संक्रामक रोग की रोक-थाम के लिए बतलाए गए सभी उपायों पर अम्ल करें। मुहं के छालों को फिटकरी के 2 प्रतिशत घोल सा साफ किया जा सकता है। पैर के घाव को फिनाइल के घोल से धो देना चाहिए। पैर में तुलसी अथवा नीम के पत्ते का लेप भी फायदेमंद साबित हुआ है। गाँव में खुरहा – चपका फूटपाथ बनाकर उसमें से होकर आक्रांत पशुओं को गुजरने का मौका देना चाहिए। घावों को मक्खी से बचाना अनिवार्य है।
बचाव – पशु को साल में दो बार छ: माह के अंदर पर रोग निरोधक टिका लगवाना चाहिए।
उ. पशु – यक्ष्मा (टी. बी.)
मनुष्य के स्वस्थ्य के रक्षा के लिए भी इस रोग से काफी सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि यह रोग पशुओं का संसर्ग में रहने वाले या दूध इस्तेमाल करने वाले मनुष्य को भी अपने चपेट में ले सकता है।
लक्षण - पशु कमजोर और सुस्त हो जाता है। कभी – कभी नाक से खून निकलता है, सूखी खाँसी भी हो सकती है। खाने के रुचि कम हो जाती है तथा उसके फेफड़ों में सूजन हो जाती है।
चिकित्सा – संक्रामक रोगों से बचाव का प्रबंध करना चाहिए। संदेह होने पर पशु जाँच कराने के बाद
एकदम अलग रखने का इंतजाम करें। बीमारी मवेशी को यथाशीघ्र गो – सदन में भेज देना ही उचित है, क्योंकी यह एक असाध्य रोग है।
ऊ. थनैल
दुधारू मवेशियों को यह रोग दो कारणों से होता है। पहला कारण है थन पर चोट लगना या था का काट जाना और दूसरा कारण है संक्रामक जीवाणुओं का थन में प्रवेश कर जाता। पशु को गंदे दलदली स्थान पर बांधने तथा दूहने वाले की असावधानी के कारण थन में जीवाणु प्रवेश क्र जाते हैं। अनियमित रूप से दूध दूहना भी थनैल रोग को निमंत्रण देना है साधारणत: अधिक दूध देने वाली गाय – भैंस इसका शिकार बनती है।
लक्षण – थन गर्म और लाल हो जाना, उसमें सूजन होना, शरीर का तापमान बढ़ जाना, भूख न लगना, दूध का उत्पादन कम हो जाना, दूध का रंग बदल जाना तथा दूध में जमावट हो जाना इस रोग के खास लक्षण हैं।
चिकित्सा – पशु को हल्का और सुपाच्य आहार देना चाहिए। सूजे स्थान को सेंकना चाहिए। पशूचिकित्सक की राय से एंटीवायोटिक दवा या मलहम का इस्तेमाल करना चाहिए। थनैल से आक्रांत मवेशी को सबसे अंत में दुहना चाहिए।
ऋ. संक्रामक गर्भपात
यह बीमारी गाय – भैंस को ही आम तौर पर होती है। कभी - कभार भेंड बकरी भी इससे आक्रांत हो जाते हैं।
लक्षण – पहले पशु को बेचैनी जाती है और बच्चा पैदा होने के सभी लक्षण दिखाई देने लगते हैं। योनिमुख से तरल पदार्थ बहने लगता है। आमतौर पर पांचवे, छठे महीने ये लक्षण दिखाई देने लगते हैं और गर्भपात हो जाता है। प्राय: जैर अंदर ही रह जाता है।
चिकित्सा – सफाई का पूरा इंतजाम करें। बीमार पशुओं को अलग कर देना चाहिए। गर्भपात के बाद पिछला भाग गुनगुने पानी से धोकर पोंछ देना चाहिए। गर्भपात के भ्रूण को जला देना चाहिए। जिसे स्थान पर गर्भपात हो, उसे रोगाणुनाशक दवा के घोल से धोना चाहिए। पशुचिकित्सक को बुलाकर उनकी सेवाएँ हासिल करनी चाहिए।
नोट – 6 से 8 महीने के पशु को इस रोग (ब्रूसोलेसिस) का टिका लगवा देने से इस रोग का खतरा कम रहता है।
संक्रामक रोगों के अलावा बहुत सारे साधारण रोग भी हैं जो पशुओं की उत्पादन – क्षमता कम कर देते है। ये रोग ज्यादा भयानक नहीं होते, लेकिन समय पर इलाज नहीं कराने पर काफी खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। नीचे साधारण बीमारियों के लक्षण और प्राथमिक चिकित्सा के तरीके बतलाए जा रहे है।
अ. अफरा
हरा और रसीला चारा, भींगा चारा या दलहनी चारा अधिक मात्रा में खा लेने के कारण पशु को अफरा की बीमारी हो जाती है। खासकर, रसदार चारा जल्दी – जल्दी खाकर अधिक मात्रा में पीने से यह बीमारी पैदा होती है। बाछा – बाछी को ज्यादा दूध पी लेने के कारण भी यह बीमारी हो सकती है। पाचन शक्ति कमजोर हो जाने पर मवेशी को इस बीमारी से ग्रसित होने की आशंका अधिक होती है।
लक्षण
नोट: तुरंत इलाज नहीं करने पर रोगी पशु मर भी सकता है।
चिकित्सा
आ. दुग्ध - ज्वर
दुधारू गाय भैंस या बकरी इस रोग के चपेट में पड़ती है। ज्यादा दुधारू पशु को ही यह बीमारी अपना शिकार बनाती है। बच्चा देने के 24 घंटे के अदंर दुग्ध – ज्वर के लक्षण साधारणतया दिखेते हैं।
लक्षण
चिकित्सा
इ. दस्त और मरोड़
इस रोग के दो कारण हैं – अचानक ठंडा लग जाना और पेट में किटाणुओं का होना। इसमें आंत में सुजन हो जाती है।
लक्षण
चिकित्सा
ई. जेर का अंदर रह जाना
पशु के व्याने के बाद चार – पांच घंटों के अंदर ही जेर का बाहर निकल जाना बहुत जरूरी है। कभी - कभार जेर अंदर ही रह जाता है जिसका कुपरिणाम मवेशी को भुगतना पड़ता है। खास कर गर्मी में अगर जेर छ: घंटा तक नहीं निकले तो इसका नतीजा काफी बुरा हो सकता है। इससे मवेशी के बाँझ हो जाने आंशका भी बनी रहती है। जेर रह जाने के कारण गर्भाशय में सूजन आ जाती है और खून भी विकृत हो जाता है।
लक्षण
चिकित्सा
उ. योनि का प्रदाह
यह रोग गाय – भैंस के व्याने के कुछ दिन बाद होता है। इससे भी दुधारू मवेशियों को काफी नुकसान पहूंचता है। प्राय: जेर का कुछ हिस्सा अंदर रह जाने के करण यह रोग होता है।
लक्षण
चिकित्सा
नोट: इससे पशु को बचाने के लिए सावधानी बरतनी जरूरी है, अन्यथा पशु के बाँझ होने की आशंका रहेगी।
ऊ. निमोनिया
पानी में लगातार भींगते रहने या सर्दी के मौसम में खुले स्थान में बांधे जाने वाले मवेशी को निमोनिया रोग हो जाता है। अधिक बाल वाले पशुओं को यदि ढोने के बाद ठीक से पोछा न जाए तो उन्हें भी यह रोग हो सकता है।
लक्षण
चिकित्सा
ऋ. घाव
पशुओं को घाव हो जाना आम बात है। चरने के लिए बाड़ा तपने के सिलसिले में तार, काँटों या झड़ी से काटकर अथवा किसी दुसरे प्रकार की चोट लग जाने से मवेशी को घाव हो जाता है। हाल का फाल लग जाने से भी बैल को घाव हो जाता है और किसानों की खेती – बारी चौपट हो जाती है। बैल के कंधों पर पालों की रगड़ से भी सूजन और घाव हो जाता है। ऐसे सामान्य घाव और सूजन को निम्नांकित तरीके से इलाज करना चाहिए।
चिकित्सा
बाह्य एवं आन्तरिक परजीवियों के कारण भी मवेशियों को कई प्रकार की बीमारियों परेशानी करती है। इनके बारे में पूरी जानकारी हासिल करने के लिए पशुपालन सूचना एवं प्रसार सेवा, ऑफ पोलो रोड, पटना – 1 से नि: शुल्क छपी हुई पुस्तिकाएँ मंगाकर पढ़ें।
बछड़ों का रोग
निम्नांकित रोग खास कर कम उम्र के बछड़ों को परेशान करते हैं।
अ. नाभि रोग
लक्षण
चिकित्सा
आ. कब्जियत
बछड़ों के पैदा होने के बाद अगर मल नहीं निकले तो कब्जियत हो सकती है।
चिकित्सा
इ. सफ़ेद दस्त
यह रोग बछड़ों को जन्म से तीन सप्ताह के अंदर तक हो सकता है। यह छोटे- छोटे किटाणु के कारण होता है। गंदे बथान में रहने वाले बछड़े या कमजोर बछड़े इस रोग का शिकार बनते हैं।
लक्षण
चिकित्सा
ई. कौक्सिड़ोसिस
यह रोग कौक्सिड़ोसिस नामक एक विशेष प्रकार की किटाणु को शरीर के भीतर प्रवेश कर जाने के कारण होता है।
लक्षण
1. रोग की साधारण अवस्था में दस्त के साथ थोड़ा – धोड़ा खून आता है।
2. रोग की तीव्र अवस्था में बछड़ा खाना पीना छोड़ देता है।
3. कुथन के साथ पैखाना होता है जिसमें खून का कतरा आता है।
4. बछड़ों कमजोर होकर किसी दूसरी बीमारी का शिकार भी बन सकता है।
चिकित्सा
1. जितना जल्द हो सके पशु चिकित्सक को बुलाकर इलाज शुरू कर देना चाहिए।
उ. रतौंधी
यह रोग साधारणत: बछड़ों को ही होता है। संध्या होने के बाद से सूरज निकलने के पहले तक रोग ग्रस्त बछड़ा करीब – करीब अद्न्हा बना रहता है। फलत: उसने अपना चारा खा सकने में भी कठिनाई होती है। दुसरे बछड़ों या पशु से टकराव भी हो जाता है।
चिकित्सा
1. इन्हें कुछ दिन तक 20 सें 30 बूँद तक कोड लिवर ऑइल दूध के साथ खिलाया जा सकता है।
2. पशु चिकित्सक से परामर्श लिया जाना जरूरी है।
स्रोत : पशुपालन सूचना एवं प्रसार विभाग , बिहार सरकार
अंतिम बार संशोधित : 3/3/2020
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