मध्य प्रदेश मे तिल की खेती खरीफ मौसम में 315 हजार हे. में की जाती है।प्रदेश मे तिल की औसत उत्पादकता 500 कि.ग्रा. /हेक्टेयर ळें प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़, सीधी, शहडोल, मुरैना, शिवपुरी सागर, दमोह, जबलपुर, मण्डला, पूर्वी निमाड़ एवं सिवनी जिलो में इसकी खेती होती है
हल्की रेतीली, दोमट भूमि तिल की खेती हेतु उपयुक्त होती हैं। खेती हेतु भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7.5 होना चाहिए। भारी मिटटी में तिल को जल निकास की विशेष व्यवस्था के साथ उगाया जा सकता है।
किस्म |
विमोचन वर्ष |
पकने की अवधि (दिवस) |
उपज (कि.ग्रा./हे.) |
तेल की मात्रा (प्रतिशत) |
अन्य विशेषतायें |
टी.के.जी. 308 |
2008 |
80-85 |
600-700 |
48-50 |
तना एवं जड सड़न रोग के लिये सहनशील। |
जे.टी-11 (पी.के.डी.एस.-11) |
2008 |
82-85 |
650-700 |
46-50 |
गहरे भूरे रंग का दाना होता है। मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील। गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त। |
जे.टी-12(पी.के.डी.एस.-12) |
2008 |
82-85 |
650-700 |
50-53 |
सफेद रंग का दाना , मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील, गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त। |
जवाहर तिल 306 |
2004 |
86-90 |
700-900 |
52.0 |
पौध गलन, सरकोस्पोरा पत्ती घब्बा, भभूतिया एवं फाइलोड़ी के लिए सहनशील । |
जे.टी.एस. 8 |
2000 |
86 |
600-700 |
52 |
दाने का रंग सफेद, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील। |
टी.के.जी. 55 |
1998 |
76-78 |
630 |
53 |
सफेद बीज, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सड़न बीमारी के लिये सहनशील। |
तिल की बोनी मुख्यतः खरीफ मौसम में की जाती है जिसकी बोनी जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक करनी चाहिये। ग्रीष्मकालीन तिल की बोनी जनवरी माह के दूसरे पखवाडे से लेकर फरवरी माह के दूसरे पखवाडे तक करना चाहिए । बीज को 2 ग्राम थायरम+1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम , 2:1 में मिलाकर 3 ग्राम/कि.ग्रा. फफूंदनाशी के मिश्रण से बीजोपचार करें। बोनी कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतारों में पौधो से पौधों की दूरी 10 से.मी. रखते हुये 3 से.मी. की गहराई पर करे ।
मध्य प्रदेश में तिल उत्पादन हेतु नत्रजन,स्फुर एवं पोटाश की अनुशंसित मात्रा इस प्रकार मात्रा (कि.ग्राम./है.) है ।
अवस्था |
नत्रजन |
स्फुर |
पोटाश |
सिंचित |
60 |
40 |
20 |
असिंचित/वर्षा आधारित |
40 |
30 |
20 |
बोनी के 15-20 दिन पश्चात् पहली निंदाई करें तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालना चाहिये । निंदा की तीव्रता को देखते हुये दूसरी निंदाई आवश्यकता होने पर बोनी के 30-35 दिन बाद नत्रजनयुक्त उर्वरकों का खडी फसल में छिडकाव करने क पूर्व करना चाहिये।
क्र |
नींदा नाशक दवा का नाम |
दवा की व्यापारिक मात्रा/है. |
उपयोग का समय |
उपयोग करने की विधि |
1 |
फ्लूक्लोरोलीन (बासालीन) |
1 ली./है |
बुवाई के ठीक पहले मिट्टी में मिलायें। |
रसायन के छिडकाव के बाद मिट्टी में मिला दें। |
2 |
पेन्डीमिथिलीन |
500-700 मि.ली./है. |
बुआई के तुरन्त बाद किन्तु अंकुरण के पहले |
500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे। |
3 |
क्यूजोलोफाप इथाईल |
800 मि.ली./है. |
बुआई के 15 से 20 दिन बाद |
500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे। |
क्र |
रोग का नाम |
लक्षण |
नियंत्रण हेतु अनुशंसित दवा |
दवा की व्यापारिक मात्रा |
उपयोग करने का समय एंव विधि |
1. |
फाइटोफ्थोरा अंगमारी |
प्रारंभ में पत्तियों व तनों पर जलसिक्त धब्बे दिखते हैं, जो पहले भूरे रंग के होकर बाद में काले रंग के हो जाते हैं। तिल की फाइटोप्थोरा बीमारी |
थायरम अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी से बीजोपचार |
नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) |
नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें। खड़ी फसल पर रोग दिखने पर रिडोमिल एम जेड (2.5 ग्रा./ली.) या कवच या कापर अक्सीक्लोराइड की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतर से छिड़काव करें। |
2. |
भभूतिया रोग |
45 दिन से फसल पकने तक इसका संक्रमण होता है। इस रोग में फसल की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता हैं |
गंधक |
घुलनशील गंधक (2 ग्राम/लीटर) का छिड़काव करे |
रोग के लक्षण प्रकट होने पर घुलनशील गंधक (2 ग्राम/ लीटर) का खडी फसल में 10 दिन के अंतर पर 2-3 बार छिड़काव करे। |
3. |
तना एवं जड़ सड़न |
संक्रमित पौधे की जड़ों का छिलका हटाने पर नीचे का रंग कोयले के समान घूसर काला दिखता हैं जो फफूंद के स्क्लेरोषियम होते है। |
थायरम अथवा ट्राइकोडरमा विरिडी |
नियंत्रण हेतु थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी ( 5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें। |
|
4. |
पर्णताभ रोग (फायलोडी) |
फूल आने के समय इसका संक्रमण दिखाई देता हैं । फूल के सभी भाग हरे पत्तियों समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधे में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी -छोटी दिखाई देती हैं। |
फोरेट |
फोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर |
नियंत्रण हेतु रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट करें तथा फोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर के मान से खेत में पर्याप्त नमी होने पर मिलाये ताकि रोग फेलाने वाला कीट फुदका नियंत्रित हो जाये। नीम तेल (5मिली/ली.) या डायमेथोयेट (3 मिली/ली.) का खडी फसल में क्रमषः 30,40 और 60 दिन पर बोनी के बाद छिड़काव कर |
5. |
जीवाणु अंगमारी |
पत्तियों पर जल कण जैसे छोटे-छोटे बिखरे हुए धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर भूरे रंग के हो जाते हैं। यह बीमारी चार से छः पत्तियों की अवस्था में देखने को मिलती हैं। |
स्ट्रेप्टोसाइक्लिन |
स्ट्रेप्टोसाइक्लिन(500 पी.पी.एम.)पत्तियों पर छिड़काव करें |
बीमारी नजर आते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (500 पी.पी.एम.) और कॉपर आक्सी क्लोराईड (2.5 मि.ली./ली.) का पत्तियों पर 15 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें। |
इल्लीयां |
फसल के प्रारंभिक अवस्था में इल्लीयां पत्तियों के अंदर रहकर खाती हैं। |
प्रोफ़ेनोफॉस या निबौलीकाअर्क |
प्रोफ़ेनोफॉस 50 ईसी 1 ली./हे. या निबौली का अर्क 5 मिली/ली. |
500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें |
कली मक्खी |
कली मक्खी प्रारम्भिक अवस्था में अण्डे देती है अण्डों से निकली इल्लियां फूल के अंडाशय में जाती है जिससे कलियां सिकुड़ जाती है |
क्विनॉलफॉस या ट्रायजफॉस |
क्विनॉलफॉस 25 ईसी (1.5मि.ली./ली. )या ट्रायजफॉस 40 ईसी |
(1 मि.ली./ली.)500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें |
उपरोक्तानुसार तिल की काष्त करने पर लगभग 5 क्व./ हे उपज प्राप्त होती है। जिसपर लागत -व्यय रु 16500/ हे के मान से आता है। सकल आर्थिक आय रु 30000 आती है। शुद्ध आय रु 13500/ हे के मान से प्राप्त हो कर लाभ आय-व्यय अनुपात 1.82 मिलता है।
स्रोत: कृषि विभाग, मध्यप्रदेश सरकार
अंतिम बार संशोधित : 9/24/2019
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