नीम (अजाडिरेकटा इंडिका) वनस्पति जगत के मेलियेसी कुल का तेजी वे बढ़ने वाला एक सदाबहार (शुष्क क्षेत्रों में पतझड़) वृक्ष है| जिसकी उत्पति भारतीय उप – महाद्वीप (भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश व म्यांमार) में हुई हैं| परन्तु इसके बहुउपयोगी गुणों के कारण दक्षिण-पूर्वी एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, मध्य अमेरिका के राज्यों, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड आदि सहित कैरिबियन देशों में भी इसे उगाया जाने लगा है| भारत में नीम की सबसे अधिक संख्या उत्तर प्रदेश में तत्पश्चात क्रमशः तमिलनाडू, कर्नाटका, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रेदश, गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल, राजस्थान आदि प्रदेशों में पायी जाती है| यह मुख्यता: मैदानी भाग, सड़कों के किनारे, खेतों की मेड़ों पर, गांवों के आसपास एव पड़ती भूमि में प्राकृतिक रूप से ही पाया जाता है| परंतु अब सम्पूर्ण भारत में उगाया भी जाने लगा है| सामान्य रूप से यह सड़कों के किनारे वृक्षों से आच्छादित मार्ग (एवेन्यू) बनाने के लिए उगाया जाता है| इसके बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए अब वैज्ञानिक/तकनीकी पद्धति से पौधारोपण करने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है|
भारतीय उप-महाद्वीप मूल का वृक्ष होने के कारण हिंदी नाम, नीम ही सारे विश्व में प्रचलित है| जबकि इसका वैज्ञानिक नाम अजाडीरेक्ट इंडिका है जो की मूलत: फारसी से लिया गया है| फारसी में नीम को आजाद दरख्त – ए- हिन्द के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ है हिन्दुस्तान स्वत्रंत वृक्ष|
भारतीय ग्रामीण समाज ने शताब्दियों पूर्व नीम को एक विशिष्ट वृक्ष के रूप में पहचाना तथा वह इससे प्राप्त जड़, तना छाल, टहनियों, पतीयों, पुष्प, फल बीजरस, तेल, अर्क आदि का अपने दैनिक जीवन में औषधियों, कीटनाशकों एवं उर्वरकों के रूप में भरपूर उपयोग करता आया है और इसे प्राकृतिक वैद्य की संज्ञा दी है| आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने नीम में पाये जाने वाले विभिन्न अवयवों का विश्लेषण कारके इस तथ्य की पुष्टि की है कि यह अनमोल एवं अदभुद गुणों से भरा एक अद्वितीय वृक्ष है|
पर्यावरण विशेषज्ञों, प्रकृतिविदों, चिकित्साविदों, कृषि वैज्ञानिकों एवं वन – विशेषज्ञों आदि द्वारा इसके विभिन्न गुणों जैसे वायरस रोधी, क्षय रोग नाशक, वैक्टीरिया नाशक, फफूंदी नाशक, अमीबा नाशक, फोड़ा/जहरबाद नाशक, खाज/खुजली नाशक, सूजन विरोधी, पाइरिया नाशक, चर्मरोग नाशक, मूत्रवर्धक, ह्रदय संबंधी, कीट नाशक, कीट डिंबनाशक, सूत्र कृमिनाशक, मछिली नाशक और इसके योगिकों के अन्य जैविक क्रियाओं के कारण उत्पति एवं औषधीय रूप से इसे बहुउपयोगी माना गया है| अत: इसे कल्पवृक्ष या देव वृक्ष भी कहा जाता है
नीम वनस्पति जगत के पुष्प बीजी (एन्जियोस्पर्मी) संघ का द्विबिज पत्री वर्ग का पौधा है जो कि बहूदल पूंजिय उपवर्ग की डिस्कप्लोरी श्रेणी में आता है| यह मेलियेसी कूल में पाया जाता है तथा इसका अलावा अन्य सामान्य प्रजातियाँ जैसे मेलिया अजाडिरेक्ट, मेलिया इंडिका आदि भी हमारे देश में पायी जाती है|
इसमें मूसला जड़ होती है| जिसमें मुख्य जड़ गोल लंबी व गहराई तक जाती है| मुख्य जद्से द्वितीयक, तृतीयक जड़ें फूटकर जाल के रूप में गहराई तक फैली रहती है| जड़ गंधयुक्त हल्के पीले रंग की होती है|
तना
नीम का तना, सीधा, एकसार लंबाई व मोटाई वाला होता है| इसके गोल तने पर काले भूरे रंग की एक मोटी, फटी व खुरदरी छाल होती है| लकड़ी मजबूत, गंधयुक्त, हल्के पीले रंग की व मध्य में गहरे मैरून/कत्थई रंग की होती है है| मुख्य तने से शाखाएँ व टहनियां ऊपर ही छत्र के रूप में विकसित होती हैं|
एक लंबी पर्णवृत्त पर पत्तियाँ एकांतर अथवा समांतर क्रम में संयोजित होकर संयूक्त पत्ती कहलाती है| इनके किनारे दांतेदार होते हैं और रंग गहरा हरा व सतह साफ चिकनी होती है तथा मार्च से अप्रैल में नयी पत्तियाँ आने लगती है| शुष्क परिस्थितियों में सभी पत्तियाँ कुछ समय तक के लिए गिर जाती है तथा वृक्ष पर्णविहीन हो जाता है|
पुष्प उभयलिंगी अर्थात नर और मादा जननांग एक ही पुष्प पर होते हैं| इनमें मकरंद की भीनी सुगंध आती है जो मधुमक्खियों को शहद के लिए आकर्षित करती हैं और फूलों से परागण के लिए लाभकारी होती हैं| पुष्प सफेद रंग आकार में छोटे-छोटे तथा गूछों के सदृश्य आते हैं| मध्य व उत्तर भारत में पूष्पकाल मार्च से अप्रैल के बीच होता है| जबकि मालावार क्षेत्र में जनवरी, मैसूर व उसके आसपास के क्षेत्रों में फरवरी, हिमालय पर्वत के निचले क्षेत्रों में मई, देश के कुछ भागों में अगस्त-सितंबर माह में भी फूल लगते हैं|
नीम के फलों को निंबोली कहते हैं| जो शुरू में कच्ची व हरी होती है तथा सामान्यत: मई से जून तक आती है| पकने पर यह पीले रंग की होकर गिरने लगती है| जिसे अगस्त तक प्राप्त किया जा सकता है| इन पकी निंबोलिया में पीले छिलके के अंदर गाढ़ा सफेद तरल चिपचिपा रस होता है तथा मध्य में बीज होता है|
बीज द्विपत्री होता है तथा अंकुरण में बीज भूमि से बाहर आ जाते हैं| एक निंबोली में सामान्यत: एक बीज होता है| बीजों के सफेद आवरण को उतारने पर मिंगी/ करनल (गिरी) में 40-50 प्रतिशत तेल होता है|
उष्णकटिबंधीय जलवायु का पौधा होने के कारण इसे गर्म व ठंडी दोनों जलवायु में लगाया जा सकता है| यह शून्य डिग्री सेंटीग्रेड से 50 डिग्री सेंटीग्रेड तक का तापमान सहन कर सकता है| परंतु शून्य डिग्री से नीचे तापमान पर यह पौधा जीवित नहीं रहता| अच्छी वृद्धि के लिए 450 से 1200 मिलीमीटर प्रतिवर्ष वर्षा वाले स्थान अति उपयुक्त मने जाते हैं| उचित जल प्रबंधन और जल विकास वाली सभी प्रकार की भूमि जैसे शुष्क पथरीली, रेतीली, उथली, गहरी चिकनी, अम्लीय (5पी. एच) एवं क्षारीय (10 पी.एच) भूमि में आसानी से इसे उगाया जा सकता है| आरंभिक अवस्था में नीम के पौधे को पाले का खतरा बना रहता है| अत: वृक्षारोपण के बाद एक वर्ष तक पाले से बचाना आवश्यक होता है| तत्पश्चात पाला सहन कर सकने में यह सक्षम हो जाता है|
वृक्ष उगाने, उनका रख रखाव करने तथा उनके उपज प्राप्त करने तक की संपुर्ण प्रक्रिया को वृक्ष संवर्धन कहा जाता है| नीम के वृक्षों को प्राकृतिक रूप से बीजों द्वारा उगाना सबसे सरल व उपयुक्त है| सामान्यत: इसको पौधशाला में बीजों से तैयार पौध के रोपण द्वारा अथवा सीधे बीजों को रोपण स्थल पर बुआई करके उगाते हैं| नीम के वृक्ष को अन्य पादप संवर्धन तकनीक से भी तैयार किया जा सकता है| नीम का वृक्ष बहुवर्षीय पौधा है जो कि एक बार लगा देने से 60 से 80 वर्ष तक उपज दे सकता है| अत: नीम के पौधे लगाने हेतु गुणवत्ता वाले बीजों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए| गुणवत्ता वाले बीजों हेतु विश्वसनीय स्रोतों जैसे राज्य के वन विभाग, कृषि विभाग, उद्यान विभाग, कृषि विश्वविद्यालय आदि से संपर्क किये जा सकता हैं| इसके लिए उत्तम क्वालिटी के बीज निम्नलिखित शोध संस्थानों से भी प्राप्त किए जा सकते जैन :-
उपर्युक्त विश्वसनीय स्रोतों से बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के पश्चात् निम्नलिखित तरीकों से पौधे तैयार करना चाहिए|
पौध तैयार करने हेतु पौधशाला का निर्माण समतल भूमि में ऐसी जगह करना चाहिए जहाँ सिंचाई, जलनिकास व छाया की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध हो| पौधशाला में क्यारियां बनाने से पूर्व वहां की मिट्टी को 30 सें. मी. गहराई तक खोद देना चाहिए| फिर 5 या 10 मीटर लंबी, 1 मीटर चौड़ी तथा 15-20 सें. मी. ऊँची क्यारियाँ बना लेनी चाहिए| इन क्यारियों की 2.5 से 5 सें. मी. ऊपरी सतह पर उपजाऊ मिट्टी, जैव खाद और बालू 1:1:1 के अनुपात में फैली देनी चाहिए|
अच्छी क्वालिटी के बीजों को जुलाई – अगस्त माह में बीज संग्रहण के बाद शीघ्र उपर्युक्त क्यारियों में 15-20 सें. मी. गहराई पर बो दिया जाता है| इसमें अंकुरण 7 से 21 दिनों में आ जाता है| जब पौधे लगभग एक माह के हो जाएँ तब उन्हें पालीथीन की थैलियों में स्थानांतरित कर देते हैं| बीजों को सीधे पालीथीन की थैलियों में जैविक खाद, बालू व उपजाऊ mitti 1:1:1 के अनुपात में भरकर दो बीज प्रति थैली के हिसाब से भी बो सकते हैं| एक बाद उपर्युक्त वृद्धि की अवस्था में एक पौधा प्रति थैली में रहने देते हैं एवं अतिरिक्त पौधे सावधानी से निकाल कर अन्य खाली थैलियों में स्थानांतरित कर देते हैं|
एक माह की औसत आयु के पौधे को अंकुरण क्यारियों से पालीथीन थैलियों में प्रतिरोपित करते हैं| पौध स्थानांतरण, संध्या काल में ही करना चाहिए तथा स्थानांतरण की पूर्व संध्या पर कायरी को अच्छी तरह से सिंचित करना चाहिए| प्रतिरोपण के समय सावधानी इस बात की रखनी चाहिए कि पालीथीन थैली में पौधों की जड़ें सीधी गहराई तक जाएँ एवं जड़ों के चारों ओर की मिट्टी अच्छी तरह से दबा दें| जिससे हवा बिल्कुल न रहे| प्रतिरोपण के तुरंत बाद फव्वारे से हल्का पानी अवश्य देना चाहिए|
सर्वप्रथम अप्रैल – मई माह में पौधारोपण स्थल 45×45×45 सें. मी. माप के गड्ढे खोद लेना चाहिए ताकि तेज धुप की गर्मी के हानिकारक कीटों के अंडे एवं प्यूपा नष्ट हो जाएँ| यदि वृक्षारोपण मेड़ों पर किया जाना है तो गड्ढे 4×4× मी. की दूरी पर तथा कृषि वानिकी व अही उत्पाद प्राप्त करने हेतु 5×5 मीटर व इससे अधिक दूरी पर सूविधानुसार बनाए जा सकते हैं| ईंधन काष्ठ प्राप्ति करने के उद्देश्य से वृक्षारोपण किए जाने की दशा में यह दूरी 3×3 मीटर तक भी रखी जा सकती है| प्रति गड्ढे में 5-6 कि. ग्रा. जैविक खाद, 20-25 ग्राम कीटनाशक, 10 ग्राम यूरिया, 20 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 20 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 1.2 किलो नीम की खली तथा उपजाऊ मिट्टी मिलाकर गड्ढे को भर देना चाहिए|
मानसून की प्रथम वर्षा होने पर 8-10 माह की आयु के स्वस्थ्य व निरोग पौधों को उपर्युक्त विधि से तैयार किए गए गड्ढे में लगा देना चाहिए| पौध को लंबे समय तक रोकने पर उसकी मूसला जड़ अधिक लंबी हो जाती है और फिर जड़ को निकलना मुश्किल हो जाता है| पालीथीन थैलियों में तैयार किए गए पौधों के पौधरोपण करते समय पालीथीन थैली पौधे से अलग कर पौधे को गड्ढे में सीधा रखना चाहिए तथा मिट्टी चढ़ाकर पैरों से भलीभांति दबा देना चाहिए तथा सिंचाई कर देनी चाहिए| पौधारोपण स्थल में पानी का अधिक समय तक भराव नहीं होना चाहिए अन्यथा पौधा नष्ट हो सकता है|
सामान्यत: वृक्षारोपण के लगभग 3-4 वर्ष के बाद वृक्ष में फल आने लगते हैं| तब तक पौधों के रखरखाव का विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है| रोपण से एक माह के भीतर निराई करना आवश्यक है| इस समय पौध के चारों 50 सें. मी. के घेरे से समस्त खरपतवार, घास आदि के जड़ से निकाल देना चाहिए| उसके लगभग एक माह बाद दूसरी निराई तथा आवश्यकता पड़ने पर तीसरी निराई अक्टूबर माह के अंत तक करना आवश्यक है| इसी समय पौधे के चारों ओर 50 सें. मी. के घेरे में निराई व गुड़ाई करते हुए थाला बनाना आवश्यक है तथा आवश्यकता पड़ने पर वृक्षारोपण में सिंचाई भी करनी चाहिए|
पौधरोपण काल एवं इसकी दो वर्ष की अवधि तक पौधों अच्छी वृद्धि के लिए समय-समय पर रासायनिक व गोबर की देशी खाद देना आवश्यक है| पौधारोपण के पूर्व एक गड्ढे में यूरिया, सुपर फास्फेट एवं पोटाश, प्रत्येक की लगभग 5-10 ग्राम मात्रा डालनी चाहिए तथा प्रथम निराई के समय डी. ए. पी. 10 ग्राम मात्रा का डालनी चाहिए तथा प्रथम निराई के समय 10 ग्राम सुपर फास्फेट देना चाहिए| द्वितीय वर्ष में जुलाई- अगस्त में गोबर की सड़ी खाद व कीटनाशक मिलाकर मिट्टी में मिला चाहिए|
नीम के पौधों की वृद्धि पर रासायनिक तत्वों जैसे पोटैशियम व जस्ते की कमी का असर पड़ता है| पोटैशियम की कमी होने पर पत्तियों के किनारे व सिरों पर हरे पीले धब्बे उभर आते हैं तथा पत्तियाँ धीरे- धीरे मरने लगती हैं| जिसे नेकरोसिस कहते हैं तथा पत्तियाँ धीरे –धीरे मरने लगती हैं| जोसे नेकरोसिस कहते हैं| जबकि जस्ते की कमी होने से तने से रेसिन अधिक मात्रा में निकलने लगता है| पत्तियों के किनारे पर पीले धब्बे स्पष्ट दिखने लगते हैं तथा पत्तियाँ पुरानी पड़ने पर तेजी से गिरने लगती हैं| अत: इन तत्वों की कमी के लक्षण स्पष्ट होने पर तुरंत इनकी आपूर्ति आवश्यक है|
यद्यपि नीम स्वयं कीटनाशक प्रभाव रखता है फिर भी कुछ कीटों का घातक प्रभाव नीम पर देखा गया है जोकि पौधों की कोमल तनों में छेद करके पोषक तत्व को चूस लेते हैं तथा पत्ते खा जाते हैं| ऐसे कीटों से वृक्ष की रक्षा हेतु मैलाथियान 0.25 प्रतिशत या डीमेक्रोन 0.02 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना लाभकारी होता है| इसके अलावा कभी- कभी जड़ों का सड़ना, तना व शाखाओं में गेरूई (बरमाइट), पत्तियों में धब्बे आदि फूफून्दजनित रोगों के लक्षण कभी भी दिखाई देते हैं| जिनसे सुरक्षा हेतु उचित प्रबंध करना चाहिए|
नीम की पत्तियों का स्वाद कडुवा होने के बावजूद इसे कुछ पशूओं जैसे भेड़, बकरी, ऊंट आदि द्वारा खाया जाता है तथा विशेष कर नई कोमल पत्तियों को अधिक नुकसान पहूंचता है| जिससे पौधों को जानवरों द्वारा चरने से बचाए जाने पर भी ध्यान देना आवश्यक है|
साधारणत: नीम का वृक्ष 5-6 वर्ष की अवस्था से फल देना आरंभ कर देता है तथा औसतन 30-50 कि.ग्रा. निंबोला (नीम का फल) प्रति वर्ष प्रत्येक वृक्ष से प्राप्त किया जा सकता है| साथ में औसतन 350 किग्रा पत्तियाँ प्रति वृक्ष प्राप्त होती हैं| एक पेड़ लगभग 100 वर्षों तक फल देता है 30 कि. ग्रा. फल से औसतन 6 किलो नीम का तेल तथा 24 कि.ग्रा. खली प्राप्त की जा सकती है| बाजार में नीम का तेल 20-40 रूपये प्रति किलो तथा खली 5-10 रूपये प्रति किलो की दर से बेचा जा सकता है| नीम के वृक्षों को 5×5 मीटर लगाने पर प्रति हैक्टेयर 400 वृक्ष उगाए जा सकता है तथा इनसे लगभग 8 वर्ष बाद 50 से 200 घन मीटर तक लकड़ी प्राप्त की जा सकती है|
भारत में लगभग डेढ़ करोड़ नीम के पेड़ हैं| जिसकी बीज उत्पादन क्षमता लगभग 540.000 टन है किन्तु दुर्भाग्यवश इस क्षमता के मात्र 20-25 प्रतिशत का ही दोहन किया जा सकता है| शेष सड़कर बर्वाद हो जाता है| प्राथमिक बीज संग्राहक द्वारा जो भी बीज इकट्ठा किया जाता है उसके लिए उसे उचित कीमत नहीं मिल पाता है इसका प्रमुख कारण बीज व मींगी एकत्रित करने की विधि तहत विपणन हेतु बाजार की जानकारी का अभाव है| अत: आगे बताई गई विधि से क्वालिटी बीज एकत्र करके उचित मूल्य प्राप्त किया जा सकता है|
नीम का फल पककर पीला होने लगे तो इन्हें वृक्ष पर ही तोड़ लेना उत्तम रहता है| इस स्थिति में नीम के प्रमुख गुणकारी तत्व अजाडीरेक्टन की मात्रा सर्वाधिक होती है| चूंकि, डाल में सभी एक साथ न पककर धीरे –धीरे, महीनों तक पकते रहते है अत: आर्थिक दृष्टि से फलों को जमीन से इकट्ठा किया जाता है| इसके लिए वृक्ष के नीचे जमीन की सतह पर झाडु लगाकर फर्श को फल तोड़ने की पूर्व संध्या पर साफ कर देना चाहिए तथा सुबह के समय जाकर वृक्ष के नीचे से निंबोलिया को एकत्रित कर सकते है| जमीन से एकत्र की गई निम्बोलिया में हानिकारक कवको व जीवाणूओं के संक्रमण का खतरा रहता है| जो बाद में बीज तथा इसके तेल की गुणवत्ता पर नुकसानदायक असर डालते हैं| अत: वृक्षों के नीचे सूती कपड़े की चादर डालकर बांस इत्यादि से वृक्ष की टहनियों को हिलाकर एक साथ एक ही वृक्ष से अधिक मात्रा में बीज को एकत्र करना चाहिए| जमीन से एकत्र की गई निम्बोलियों में से कचरा, कूड़ा साफ करें| अगर मिट्टी लगी हुई हो तो उसे धोकर साफ पानी में खंगाल लेना चाहिए| इस प्रकार एकत्र किए गए बीजों को साफ एवं सूखे पर्श पर 2-3 दिन तक खुली हवा में गुदा को मुलायम होने के लिए छोड़ देना चाहिए|
उपर्युक्त विधि से एकत्र किए फलों को पानी में डालकर हाथ से रगड़ने से छिलका, गुदा व बीज अलग – अलग हो जाते हैं| यह कार्य स्क्रबर्स द्वारा भी किया जा सकता है| गुदा रहित बीजों को बांस की छलनी या टोकरी में डालकर बहते हुए पानी से धो देते है ताकि सभी गूदा व छिलका छूटकर बीज से अलग हो जाएँ| बीज को पानी में लंबे समय तक डुबाना नहीं चाहिए|
उपर्युक्त ढंग से प्राप्त बीज को अधिक ग्राम सतह पर और अधिक धूम में सुखाना उपयुक्त नही होता है| किन्तु नमी को जल्द से जल्द सुखाना भी आवश्यक है| अत: बीज को टाट, बोरा, कपड़ा या चटाई पर बिछाकर हल्की धुप में या हवादार कमरे में पंखे से सुखाना उत्तम रहता है| पक्की फर्श, प्लास्टिक सहित और लोहे की सीट धूप में अधिक गर्म हो जाती है| अत: इस पर सुखाने से परहेज करें| गंदी कच्ची जमीन पर सुखाने से इसके से इसके संक्रमण का खतरा रहता है| छाए में सुखाने से अजाडीरेक्टन अवयव का ह्रास नहीं होता| बीज को ऐसे पालीहाउस में जहाँ तापमान 40 डिग्री सेंग्रेड तक बढ़ सकता हो तथा आर्द्रता (नमी) की कमी धीरे-धीरे होती है, में भी सुखाया जा सकता है|
सामान्यत: नीम बीजों को छिलका सहित ही विभिन्न प्रयोजनों जैसे नर्सरी, तेल निकालने आदि हेतु प्रयुक्त किया जाता है| इसका भंडारण व स्थानांतरण भी छिलका सहित ही होता है| परंतु तेल निकालने के उद्देश्य से इकट्ठे किए जा रहे बीजों की गिरी को कवच रहित करके उपयोग में लाना परिवहन व्यय व तेल निष्कर्षण लागत की दृष्टि से किफायती होता है|
बीज की गुठली को दाल दड़ने की चक्की में डालकर, ओखली में हल्का सा कूटकर या सील पर बट्टे से दड़कर छुडाया जा सकता है| इस कार्य के लिए नीम की गुठली तोड़कर गिरी अलग करने वाली मशीन, डीकाटिकेटर’ का प्रयोग भी किया जा सकता है|
नीम बीजों का भंडारण बीजों के उपयोग की दृष्टि कसे काफी महत्वपूर्ण है| नर्सरी के उद्देश्य से एकत्र करने के बीज भण्डारण की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकी इनकी अंकुरण क्षमता अवधि अल्पकालिक (2-3 सप्ताह) होती है| परंतु जब बीज का संग्रह तेल, जैव रसायन, अजाडीरेक्टन, फैटी एसिड आदि प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है तो इसमें 5-6 महीने से 1 वर्ष तक का समय लगता है| तब तक बीजों की सावधानी पूर्वक भण्डारण की आवश्यकता होती है| तापमान तथा नमी, भंडारण के दौरान नीम बीजों की गुणवत्ता प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक हैं| बीजों का भण्डारण नमी रहित जुट के बैग अथवा हवायुक्त कंटेनर में करना चाहिए| बीजों को कमरे के तापमान अथवा 15-25 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर भंडारण करना लाभप्रद रहता है| 30 प्रतिशत से अधिक नमी होने पर बीजों में कवक संक्रमण होता है| जबकि 20 प्रतिशत नमी भी बीज की गुणवत्ता को धीरे – धीरे खत्म करने लगती है| प्रयोगों से ऐसा पाया गया है कि बीज का भंडारण 12 से 14 प्रतिशत नमी पर करने से उसकी अंकुरण क्षमता 3-4 महीने तक बनी रहती है| यदि बीज का उपयोग जैव रसायन के व्यवसायिक उपयोग के लिए होता है तो 9 प्रतिशत नमी की मात्रा की संस्तुति की जाती है इससे कम नमी होने पर बीज सिकुड़ने लगता है तथा अजाडीरेक्टन की मात्रा घटने लगती है|
प्राय: ऐसा पाया गया है कि नीम के बीजों की बाजार में बिक्री की समुचित व्यवस्था के अभाव में प्राथमिक बीज संग्राहकों में नीम बीजों के एकत्रीकरण में उदासीनता विकसित हो जाती है| फलस्वरूप इस बहुपयोगी एवं बहुमूल्य पदार्थ का कचरा बनकर रह जाता है| राष्ट्रिय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नीम की उपयोगिता के मद्देनजर बढ़ती मांग के बावजूद किसानों को उचित पारिश्रमिक भी नहीं मिल पाता है| जिसका मुख्य कारण किसानों को इन बाजारों या खरीदार संस्थाओं की जानकारी नहीं होती है| अत: इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए बीज संग्रहकों को सलाह दी जाती है कि वे उपर्युक्त विधि से एकत्र किए गए अच्छी क्वालिटी के बीजों को निम्नलिखित निकायों/संस्थाओं अथवा जैव कीटनाशक उत्पादकों को बेचकर उचित मूल्य प्राप्त कर सकते हैं :-
लगभग प्रत्येक क्षेत्र में स्थानीय बाजार/मंडी होती है| जहाँ से स्थानीय तेल मिलें सीधे या दलालों के माध्यम से नीम का बीज, गिरी व खली खरीदते हैं| प्राथमिक बीज संग्राहक नीम को इन मंडियों में सीधे बीज संग्राहकों को संग्रहित बीज सहकारी या समुदायिक रूप में इन मण्डियों में बेचना चाहिए|
तेल मिलें, जो कि अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्रों/कस्बों में पायी जाती है, कच्चा माल नजदीक से ही खरीदना लाभकारी समझते हैं| किसान/संग्राहक, इन मिलों में बीज गिरी या तेल ले जाकर बेच सकते हैं|
खादी ग्रामोद्योग आयोग व खादी ग्रामोद्योग बोर्ड की सहायता से साबुन बनाने वाली इकाइयाँ साबुन निर्माण में नीम के तेल का उपयोग करती हैं और इसका बड़ा भाग बाजार से क्रय करती हैं| इसके लिए खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग/बोर्ड की नजदीकी शाखा से संपर्क किया जा सकता है अथवा खाड़ी एवं ग्रामोद्योग आयोग, 3 इरला मार्ग, विले पारले (पश्चिम), मुम्बई – 400058 (महाराष्ट्र) से नजदीकी खरीद केंद्र के बारे में जानकारी ली जा सकती है|
द साल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसियेशन ऑफ इंडिया के नजदीकी स्थानीय को बीज गिरी एवं कहल बेच सकते हैं तथा अधिक जानकारी हेतु डी साल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसियेशन ऑफ इंडिया, 142 जौलीमेकर, चैम्बर नं.- 2 चौदहवां ताल, 225 नरीमन पॉइंट, मुम्बई- 400021 (महाराष्ट्र) से संपर्क कर सकते हैं|
निम्नलिखित प्रमुख नीम आधारित जैव कीटनाशक उत्पादकों का भी सीधे संपर्क करके अच्छा मूल्य प्राप्त कर सकते हैं:-
जैसा कि विदित है कि नीम से प्राप्त जड़, तना छाल, टहनियां, पुष्प, फल बीजरस, तेल आदि का औषधियों, कीट नाशकों एवं खाद के रूप में उपयोग होता है| इसलिए इसे बहुपयोगी कल्पवृक्ष भी कहा जाता है| नीम की इस बहूपयोगीता का प्रमुख कारण उसमें पाये जाने वाले विशिष्ट भौतिक/रासायनिक तत्व हैं जिका संक्षिप्त विविरण निम्नलिखित है:-
नीम की लकड़ी का विशष्ट घनत्व भार होता है जिसके कारण मजबूती के दृष्टिकोण से यह अन्य इमारती लकड़ी के सामान होता है| इसका उपयोग फर्नीचर, भवन निर्माण तथा कृषि उपकरण बनाने में होता है| इसे जलाने पर प्रति कि.ग्रा. 5000 किलो कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है इसलि इसे ईंधन के रूप में भी उपयोग करते हैं| इसकी मध्य की लकड़ी में टेनिन, अकार्बनिक कैल्सिमय, पोटैशियम तथा लौह लवण आदि पाये जाते हैं| इसकी जड़ व तने की छाल में सारभूत तेल, रेजिन, गोंद, स्टार्च, मारगोसिन आदि पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं|
हरी पत्तियों में प्रोटीन, वसा कार्बोहाइड्रेटस, रेशा, खनिज तत्व जैसे कैल्सियम, फास्फोरस, लोहा, कैरोटीन, विटामिन- ए, सी आदि महत्वपूर्ण तत्व पाये जाते हैं| नीम की पत्तियों को ऊंट, बकरी, आदि के इलाज के लिए किया जाता है| साथ ही त्वचा रोग, खुजली, बालों के रूसी, जूँ आदि से छूटकारा पाने में नीम पत्ती के रस का उपयोग होता है| पत्ती को पीसकर जलीय घोलकर फसलों में छिडकाव करने से कीटों एवं व्याधियों से फसल की सुरक्षा हो सकती है| नीम की सूखी पत्तियों में मौसम (मानसून, जाड़ा, गर्मी) के अनुसार क्रूड प्रोटीन (14-15.7 प्रतिशत), क्रूड, फाइबर (11.2-18.2 प्रतिशत), फास्फोरस (0.13-0.18 प्रतिशत) कैल्सियम (1.19-2.39 प्रतिशत) आदि पाये जाते हैं तथा इसका उपयोग अनाजों के साथ मिलकर भण्डारण में किया जाता है| इससे भण्डारण के दौरान लगने वाले कीटों का प्रकोप नहीं होता है| इसमें यह ध्यान देना आवश्यक है कि धुप में सुखाने से पत्तियों का औषधीय गुण कम हो जाता है| अत: इसे छाया में सुखाया जाना चाहिए|
नीम की छाल में मुख्यत: निम्बीन (0.04 प्रतिशत), निम्बीन (0.001 प्रतिशत), निम्बीडीन (0.4 प्रतिशत), टेनिन (6 प्रतिशत), एमिनोएसिड, कैल्सियम, पोटाशियम, लोहा, लवण, रेसिन, गोंद, स्टार्च आदि तत्व पाये जाते हैं| जिसका उपयोग टेनिन के उप्तादन, रस्सी एवं औषधि निर्माण आदि के काम में किया जाता है|
नीम के फूल में वसीय अम्ल की उपस्थिति पाई पायी गयी है जोकि आरकिडिक (0.7 प्रतिशत) स्टीयरिक (8.2 प्रतिशत), ओलिक (65.3 प्रतिशत), लिनोलिक (8.0 प्रतिशत) आदि के रूप में उसके वैक्सीय भाग में मिलते हैं| फूल में सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम, आयरन, क्लोराइड, कार्बोनेट, सल्फेट व सिलिका भी पाया जाता है| नीम के फूल आंख के लिए लाभकारी, कृमि, पित्त और विष का नाश करने वाला, पाक के कटु तथा सभी प्रकार की अरूचि का नाश करने वाला होता है|
नीम के फल में छिलका लगभग 23.8 प्रतिशत, गूदा 47.5 प्रतिशत, आवरण 18.6 प्रतिशत तथा गिरी 10.1 प्रतिशत पायी जाती है| फल का गुदा आदमी, जानवर तथा चिड़ियों द्वारा खाया जाता है| इसका प्रयोग पेट के कीड़े मारने या उन्हें पेट से बाहर निकालने के लिए किया जा सकता है| इसके गूदे से तैयार किए गए पानी के घोल को फसलों पर छिड़काव करने से उन्हें टिड्डी के प्रभाव से बचाया जा सकता है|
नीम का बीज तोड़ने पर इसका आधे से अधिक भाग (लगभग 55 प्रतिशत) गुठली के रूप में अलग हो जाता है तह शेष लगभग 45 प्रतिशत गिरी या मींगी के रूप में प्राप्त होता है| बीज में तेल लगभग 30-32 प्रतिशत, निम्बीन और निम्बीडीन 2 प्रतिशत तथा निम्बोडोल 0.6 प्रतिशत पाया जाता है| नीम का बीज मुख्यत: तेल निकलने के लिए प्रयुक्त क्या जाता है|
गिरी में 45 – 50 प्रतिशत तेल पाया जाता है तथा इस तेल में विभिन्न वसीय अम्ल जैसे पामिटिक (14.9 प्रतिशत), लिनोलिक (7.5 प्रतिशत), ओलिक (61.9 प्रतिशत), स्टीयरिक (14.4 प्रतिशत), अरेचिडिक (1.3 प्रतिशत) तथा अन्य वसीय अम्ल (1 प्रतिशत) पाये जाते हैं| नीम के तेल में प्रमुख ग्लिसरैड्स जैसे पूर्ण संतृप्त (0.6 प्रतिशत), असंतृप्त (22.0 प्रतिशत) स्टीआरोडियालीन (34 प्रतिशत), पामिटदियालिन (26प्रतिशत), ओलियो-पामिटो – स्टीयरिन (12 प्रतिशत) तथा ओलियोडिपामीटिन (5 प्रतिशत) पाये जाते हैं| नीम के तेल में गंधक यौगिक भी होता है| जिसके कारण यह खाने योग्य नहीं होता है| नीम के तेल में कडुवा सत 2 प्रतिशत होता है| जिसमें निम्बीडीन (1.2-1.6 प्रतिशत), निम्बिन (0.1 प्रतिशत), निम्बी निन (0.01 प्रतिशत) आदि महत्वपूर्ण रसायन होते हैं| नीम के तेल का प्रमुख उपयोग चर्मरोगों, औषधि निर्माण, फसलों की रक्षा, यूरिया संरक्षण, परिवार नियोजन, दीपक जलाने, साबुन व सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण, आदि में किया जाता है|
नीम का तेल निकालने वाली औद्योगिक इकाइयों को नीम की खली एक मुख्य उप उत्पाद के रूप में प्राप्त होती है जो कि मशीन चालित कोल्हू से पिराई करने पर गिरी /गूदे से 55-70 प्रतिशत तथा बीज से 80-85 प्रतिशत तक प्राप्त की जा सकती है| इसमें प्रोटीन, शर्करा, वसा, रेशा व रख के साथ-साथ नाइट्रोजन (2-3 प्रतिशत) फास्फोरस (1.0 प्रतिशत), पोटाश (1.44 प्रतिशत), तथा राख में आयरन (0.17 प्रतिशत) आदि पाये जाते हैं| इसके अतिरिक्त इसमें बहुत से जटिल कार्बनिक यौगिक, अकार्बनिक तत्व पोटैशियम, कैल्सिमय, मैग्नीशियम, लिमनायडस आदि भी उपलब्ध रहते हैं|
लिमनायडस नीम से प्राप्त मुख्य बहुपयोगी रासायनिक पदार्थ है जो कि कीटों, जीवाणू, विषाणू, कृमि व फफूँद आदि की रोकथाम तथा उनसे जनित रोगों को नियंत्रित करने में प्रभावकारी सिद्ध हुए हैं| अभी तक के अध्ययनों के अनुसार चार प्रमुख लिमनायडस – अजाडिरेकटिन, सेलानिन, मीलियनट्रोल तथा निम्बीन सबसे ज्यादा उपयोगी साबित हुए है| नीम की खली अति उपयुक्त कहद के रूप में सिद्ध हुई है तथा प्रयोगों में यह पाया गया है की यूरिया को नीम की खली की कोटिंग देने से इसमें पायी जाने वाली नाइट्रोफिकेशन, फास्फोरस तथा पोटाश की अच्छी मात्रा होने कारण इसे जैविक खाद का एक अच्छा संभावित स्रोत माना जा रहा है|
एक शक्तिशाली कीटनाशक के रूप में नीम प्राचीनकाल से ही विख्यात है| पुराने जमाने से ही नीम की पत्तियाँ भारत में अन्न भंडारण में प्रयुक्त होती आयी हैं तथा गर्म ऊनी वस्त्रों को रखते समय भारतीय नारी सभी नीम की पत्तियों का इस्तेमाल करती आयी है| इधर कुछ समय से कृषि के क्षेत्र में भी नीम ने हलचल मचायी है| कीटनाशक दवाओं का जब बोलबाला हुआ तो अधिक से अधिक कारगर कीटनाशक बनाने की होड़ सी लगी गई| सबसे पहले डॉ. पल गिलर ने डी.डी.टी. का अविष्कार दुसरे विश्वयुद्ध के समय किया था फिर बी.एच.सी. तथा मैलाथियान और अन्य सिंथेटिक कीटनाशक बाजार में आए| परंतु शीघ्र ही इनके दूष्परिणाम सामने आने लगे| वंछित कीड़ों के नाश के साथ- साथ लाभदायक कीट जो पौधों के परागण में सहायक होते हैं तथा नाशी कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं आदि का भी विनाश होने लगा| यही नहीं, पर्यावरण प्रदूषण का खतरा अलग उप्तन्न होने लगा| इन सबी समस्याओं के समाधान हेतु दोषमुक्त कीटनाशक पदार्थों की खोज आरंभ हुई तथा नीम इस कसौटी पर खरा उतरा|
यद्यपि कीटनाशक पदार्थ, नीम के सभी हिस्सों में पाया गया है| परंतु नीम के बीज में इसकी मात्रा सबसे अधिक होती है| इसको निकालने के लिए किसी विशेष तकनीक की जरूरत नहीं हेयर तथा किसान इसे गाँव में घर पर ही निकाल सकते हैं|
पानी के घोल में- यह सबसे सीधा और आसान तकनीक है| नीम की गुठली को सुखाकर, पिस लिया जाता है| फिर इसे मलमल के कपड़े में बांधकर बाल्टी या ड्रम से भरे पानी में करीब रात भर भिंगोकर सुबह निचोड़ा जाता है| इससे हलके भूरे रंग का घोल प्राप्त होता है| यदि चाहें तो गुठली के पाउडर को सीधा पानी के ड्रम में डालकर सुबह कपड़े से छान लेना चाहिए| इस घोल का पौधे पर सीधा छिड़काव किया जा सकता है| आमतौर पर 10 लीटर पानी के लिए 500 ग्राम बीज का पाउडर काम में लिया जाता है तथा एक हैक्टेयर फसल के लिए 20-30 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है| नीम के पत्तों को भी रात भर पानी में डूबोकर सुबह चबाकर इस्तेमाल किया जा सकता है|
सबसे अधिक मात्रा में नीम से कीटनाशक पदार्थ अल्कोहल की सहायता से निकाल जाते हैं| मैथनोल या इथनोल में यह सबसे अधिक घुलनशील होते हैं तथा नीम के बीज को अल्कोहल में डूबोकर 0.2 से 6.2 प्रतिशत कीटनाशक पदार्थ निकाले जा सकते हैं| अल्कोहल द्वारा कीटनाशक पदार्थ में अजाडिरेकटिन की मात्रा 3000 पी.पी.एम्. से 100000 पी.पी.एम. तक हो सकती है|
नीम का तेल भी शक्तिशाली फसल संरक्षक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है| तेल निकालने के बाद बची हुई खली बहुत असरदार कीटनाशक एवं खाद का काम करती है|
नीम के घोल को तरीकों से इस्तेमाल में लाया जा सकता है| इसका घोल सीधे फसल पर छिड़का जा सकता है| परंतु नई तकनीक से अब इसे घुलनशील कीटनाशक तथा पाउडर, रख, दाने आदि में बदला जा सकता है| जो कि बाजार में उपलब्ध भी है| इसको सिंचाई वाले पानी के स्थ भी दिया जाता है| बहुत से पदार्थों के ऊपर नीम का लेप चढ़ाकर लगाया जाता है जो मच्छरों को भागने के काम आता है|
अभी तक नीम से नौ लीमोनायड्स निकले गए हैं इनमें से अजाडिरेकटिन, मेलीथमट्रोल, सेलेनिन, निम्बीन और निम्बीडीन सबसे अधिक जाने जाते हैं और अतिमहत्वपूर्ण भी हैं| आज विश्व भर में प्रयोगों से यह माना जाने लगा है कि नीम द्वारा उपचारित पौधों जैसी सुरक्षा पा सकते हैं| नीम के घोल के छिड़काव के कारण कीड़ों के खाने की क्षमता बहुत कम हो जाती है| वृद्धि या विकास बहुत कम हो जाता है| अंतर्व्यापी प्रभाव के कारण नीम का असर पूरे पौधे में फ़ैल जाती है| जिससे रस चूसने वाले कीड़ों से भी सुरक्षा मिलती है| इस प्रकार यह एक सम्पूर्ण कीटनाशक सिद्ध हुआ है|
नीम का तेल (2.3 लीटर प्रति हैक्टेयर) या नीम का घोल, टिड्डी की रोकथाम के लिए बहुत कारगर सिद्ध हुआ है| इसके इस्तेमाल से कीट फसल पर| वृद्धि बैठता तो है परंतु नहीं खाता, कीट बहुत सुस्त हो जाता है तथा उसकी उड़ने की क्षमता बहुत कम हो जाती है पक्षी आसानी से इनको शिकार बना लेते हैं| नीम का घोल बहुत से पट्टी खाने वाले कीट, रस चूसने वाले बीटल्स, फल मक्खी, सफेद मक्खी, लीफ माइटस आदि से सुरक्षा प्रदान करता है| इसके छिडकाव से कीट या तो खाना कम कर देते हैं या उनके बढ़ने की क्षमता कम हो जाती है| वह एक अवस्था से दूसरी अवस्था में नहीं जा पाते हैं तथा भृंग (लार्वा) बनने से पहले ही मर जाते हैं| बहुत से कीड़ों की अंडे देने की क्षमता कम हो जाती है तथा जो अंडे दिए भी जाते हैं उनसे कीड़े नहीं निकलते | अनाज के भंडारण में लगने वाले सभी प्रकार के कीड़ों को कम करने में काफी सहायक हुआ है| भण्डारण में तो नीम का बहुत महत्व है| नीम की पत्तियाँ तथा नीम का घोल, भंडारण में लगने वाले सभी प्रकार के कीड़ों को कम करने में काफी सहायक हुआ है| भण्डारण के समय बोरों को नीम के घोल से उपचारित कर सूखा कर भण्डारण करने से किसी भी कीटनाशी दवा के बराबर सुरक्षा मिलतीं है| नीम से बनी कीटनाशी से बड़ी आसानी से तथा बिना किसी वायु प्रदूषण के मच्छर का नियंत्रण किया जा सकता है|
नीम की खली खाद के रूप में भी लाभदायक होती है| कीटनाशक के रूप में प्रभावी होने साथ- साथ यह भूमि को उपजाऊ भी बनाती है| | ऐसा संभावत: नीम द्वारा उन वैक्टीरियाओं को निष्क्रिय करने के कारण होता है जो अमोनिया को नाइट्रोजन में बदल देते हैं| इसके इस्तेमाल से पर्यावरण प्रदूषण तथा कीड़ों की प्रतिरोधक प्रजातियाँ उत्पन्न होने का भय नहीं रहता|
नीम के वृक्ष को यदि नीम-हाकिम कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि अकेले नीम, सैकड़ों रोगों की दवा है| नीम का अंग-प्रत्यंग जैसे पत्तियाँ, छाल, लकड़ी, फूल, फल सभी उपयोगी और औषधियूक्त होता है| आयुर्वेद के मतानुसार नीम कफ, वमन, कृमि, सूजन आदि का नाश करने वाला, पित्तदोष और ह्रदय के दाह को शांत करने वाला है| साथ ही यह वात, कुष्ठ, विष, खाँसी, ज्वर, रूधिर- विकार अधि को दूर करने में सहायक और केशों के लिए भी हितकारी है| ग्रामीण क्षेत्रों में इसका उपयोग निम्न प्रकार से करते हैं :-
एक भाग नीम की छाल को कूटकर 10 भाग पने में डालकर आधे घंटे तक उबालें, फिर छाने के बाद तब तक उबालें जब तक 4 भाग पानी शेष रह जाए| यह काढ़ा स्तम्भकार पौष्टिक और ज्वरनाशक होता है| हल्के मलेरिया में नीम छाल का काढ़ा नियतकालिक रोगरोधी और टानिक के रूप में उपयोगी है|
नीम के छिलके 15 ग्राम, कलि मिर्च 7 नग को पिस कर पानी के साथ लें|
नीम पत्र के 40 मिली लीटर र्स को गरम लोहे से छौंक कर पीएं|
नीम की पत्तियाँ 15 ग्राम, कलि मिर्च 7 ग्राम को बारीक़ घोटकर 1-1 मि.ग्रा. की छोटी - छोटी गोलियां बनाकर सूखा लें तथा गर्म जल के साथ तीन- चार गोलियां सुबह - शाम गूनगूने पानी से निगल जाएँ| यह नजला-जुकाम के के लिए अति लाभप्रद दवा है|
पत्तियों को बैंगन या अन्य सब्जियों के साथ कभी – कभी प्रयोग करने से पेड़ के कीड़ मर जाते हैं| नीम का तेल 8-10 बूँद चाय में डालकर पी लें| पेट के कीड़े शीघ्र मर जाएंगे| नीम की कोमल पत्तियों का रस एवं शहद मिलकर चाटें| नीम की कोमा पत्तियों को हींग के साथ खाएँ अथवा कोमल पत्तियाँ कलि मिर्च के साथ सुबह के वक्त पीएं, लाभ होता है|
नीम की कोमल पत्तियों को सुखाकर, पीसकर, छानकर पीने से आराम मिलता है|
नीम की अंतरछाल तवे में भूनकर जला डालें और पिस कर चूर्ण बना लें| 10 ग्राम चूर्ण,
दही के साथ लेने से आराम होता है|
आधार चम्मच नीम का तेल प्रतिदिन पीने से लगभग दो सप्ताह में ववासीर ठीक हो जाता है| नीम की गुठली की गिरी 50 ग्राम लेकर अच्छी प्रकार कूट कर व मिलाकर जंगली बेर के समान गोलियां बना लें| एक गोली प्रतिदिन प्रात: के समय पानी के साथ एक माह तक निरंतर खायें| बवासीर के कष्ट में आराम आएगा|
नीम की गिरी, मूसब्वर, रसौत-तीनों चीजें बराबर मिलाकर छोटी-छोटी गोली बना लें| प्रात: काल एक गोली मठ्ठा के साथ कुछ दिन लेने से आराम मिलता है| नीम की अंतरछाल 5 ग्राम और गुड 10 ग्राम मिलाकर लेना लाभकारी होता है|
नीम पंचाग (छाल, पत्ती, जड़ फल, फूल) का काढ़ा पीने से राहत होती है| नीम की छाल का काढ़ा पीने से आराम मिलता है|
नीम की छाल की रस में सफेद जीरा मिलकर पीवें| नीम का तेल गाय के दूध मिलाकर लें|
नीम की साफ पत्तियाँ 10 ग्राम और भूनी हुई फिटकरी 5 ग्राम को पानी के साथ पीसकर गोलियां बना लें, ज्वर आने के दो घंटे पूर्व एक गोली और फिर एक घंटे बाए एक गोली लेने से ज्वर रूक जाता है| नीम की कोपल 60 ग्राम, स्वेता भष्म 30 ग्राम को खरल में पीसकर गोली बना लें, एक गोली मिश्री तथा शीतल जल के साथ लेना फायदेमंद होता है|
तीन माशा नीम की कोपलों को 15 दिन तक लगातार खाने से 4 महीने तक चेचक नहीं निकलती, यदि निकलती भी है आंखे ख़राब नहीं होती है| नीम का बीज, हल्दी और बहेड़ा को बराबर मात्रा में लेकर शीतल जल में पीसकर, छानकर कुछ दिनों तक पीने से शीतला (चेचक) निकलने का डर नहीं रहता है|
नीम की कोपलों के रस में मिश्री मिलाकर एक सप्ताह तक सुबह – शाम पीयें|
नीम पट्टी व हल्दी को 4:1 के अनुपात में पीसकर प्रयोग करें| खुजली वाली जगे नीम का तेल लगाएं| नीम के पत्तों का रस 12 मिली ग्राम प्रतिदिन पीने से दाद व खुजली में आराम मिलता है|
नीम के पत्तों को दही में पीसकर दाद पर लगाने से दाद जड़समूल नष्ट हो जाता है दूधिया कत्था, नैनिया, गंधक, चौकिया सुहाग, पिंत पापड़ा, तूतिया, कलौजी सब चीजें सामान भाग लेकर नीम के पत्तियों के रस में घोटकर गोलियां बनाएं तथा दाद को खूब खुजलाकर इन गोलियों को जल में घिसकर लगाएँ|
सफेद कुष्ठ में नीम के फूल, पट्टी छाल को पीसकर 2 माशा शर्बत में मिलाकर 40 दिन पीने से यह ठीक हो सकता है| आयुर्वेद के अनुसार कुष्ठ रोग की अधिकांश दवाओं में नीम मिलायी जाती है|
सफेद दागों में लगातार कुछ दिन नीम का तेल लगाएँ|
नीम की पत्तियों को पीस कर शहद मिलाकर लगाने से बहता हुआ घाव सूख जाता है| 10 मि. ली. की नीम की पत्तियों का रस, 10 मि. ली. सरसों का तेल और 20 मि. ली. पानी में मिलाकर धीमी आग में पकाएं| तेल मात्र रह जाने पर रख लें| इस तेल को लगाने से विषैला घाव शीघ्र भर जाता हैं|
नीम की पत्तियाँ 30 ग्राम, सरसों का तेल 50 मि. ली. दोनों एक में मिलाकर जलावें, पत्तियों का रस तेल में आ जाने पर 5 ग्राम हल्दी का चूर्ण डालकर जलावें| फिर छानकर शहद मिलाकर रख लें और कान में एक- दो बूँद रात को सोते समय डालें|
नीम की पत्तियों के रस में नमक डालकर थोड़ा गर्म का कान में डालें
चार- पांच बूँद नीम का तेल कान में डालने से बहरापन दूर होता है|
नीम की लकड़ी के कोयले को बारीक़ पीसकर दांतों पर मलें| नई की छाल बबूल की छाल, मैलसिरी के बीज, सुपारी जली, बादाम के छिलके जले हुए प्रत्येक 50 ग्राम, खरिया मिट्टी, 100 ग्राम बहेटा 20 ग्राम, कलि मिर्च 3 ग्राम, लौंग 6 ग्राम और पिपरमिंट 1 ग्राम सबको पीसकर छानकर रख लें| इस दंत मंजन से दातों की पीड़ा, पानी लगना पीव आना आदि दूर हो जाता है|
नीम की पत्तियों को पानी में उबाल लें| पानी ठंडा हो जाने पर पत्तियों को अलग कर सिर धोने से बालों का झड़ना बंद हो जाता है| बाल काले हो जाते है| हैं सिर में फूंसिया नही निकलती हैं| नीम और बेर की पत्तियाँ पीसकर सिर में लगा लें और दो घंटे बाद धो डालें इसका एक महीना प्रयोग करने पर बाल उग आते हैं|
नीम की पत्तियों का रस 10 मिली, सरसों का तेल 10 मिग्रा तथा पानी 25 मिली मिलकर हल्की आंच में पकाएं| केवल तेल शेष रह जाने पर उतार कर ठंडा कर लें| इस तेल को लगाने से विषैले से विषैला घाव शीघ्र भर जाता है| सर्पडशित व्यक्ति को कड़वी नीम की पत्तीयां के साथ नमक या काली मिर्च चबवायें और जब तक जहर न उतरे विष रहने तक स्वाद न जान पड़ेगा| विष उतर जाने पर नीम की पत्तियाँ कड़वी जान पड़ती हैं| इससे सर्प का विष चढ़े रहने की परीक्षा भी हो जाती है|
प्रतिदिन प्रात: कड़वी नीम की 5-7 पतीयाँ सदैव चबाने से सर्प का विष चढ़ने का भय कम रहता है|
नीम की छाल या पत्तियाँ या फलों को तम्बाकू की भांति चिलम रख कर पीने से बिच्छू का विष उतर जाता है|
नीम की पत्तियाँ, काली मिर्च तथा सेंधा नमक साथ- साथ पीसकर गोघृत में मिलाकर चटा दे| यदि रोगी के पूरे शरीर में कटा हो तथा हालत ख़राब हो तो पत्तियाँ मुंह बंद करके चबाने को दें| नीम की गंध और रस सिर विष का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा| नीम की पत्तियों को पीसकर वांछित स्थान पर खूब मलने से विषैले कीटों का काटा हुआ आराम पाता है|
नीम की पत्तियों का रस पिलाने से अफीम का नशा शांत होता है|
सिर में नीम का तेल लगाने से सिर की जूँ – लीख मर जाती हैं
क्र.सं |
औषधि |
नीम तत्व |
वितरक |
उपयोग |
1. |
एमिल नीम कैप्सूल |
पट्टी का रस |
एमिल फर्मी क्यूटिकल्स |
चर्म रोगों में |
2 |
क्लीन एन क्लीयर कैप्सूल |
नीम पत्तों का सार |
डाबर इंडिया लि. |
रक्तशोधन व त्वचा को साफ करना |
3 |
क्योरोलिन मरहम |
नीम तेल |
केमिक्योर लेबो. प्र.लि. उदयपुर |
दर्द और रोग से रक्षा करने वाला |
4 |
ग्रिनिम कैप्सूल |
नीम पत्तों सार |
डाबर इंडिया लि. |
रक्त शोधक चर्मरोग निवारक |
5 |
पसूटोन |
पत्ती का चूर्ण |
डोमेस्टोन प्र.लि. विजयवाड़ा |
पशुओं के पेट के कीड़े को मारने हेतु |
6 |
निम्बोला कैप्सूल |
नीम तेल |
की फार्मा नई दिल्ली |
खून में शर्करा बढ़ने पर (मधुमेह में) |
7 |
नीम क्योर क्रीम |
नीम पट्टी का सार और तेल |
एक्सेल्सर इंटर –प्राइजेज (अब फार्मूलेशन इंडिया), गोल्ड क्वाटर, कानपुर |
समस्त त्वचा रोगों में एंटीसेप्टिक |
8. |
नेमलेंट |
नीम तेल |
डेमोस्टॉ प्रा. लि. |
घाव पर लगाने के लिए |
9 |
नीम फेस पैक |
- |
प्यूमा कंपनी |
- |
10 |
निम्वादी चूर्ण |
- |
गूरूकूल, कांगड़ी |
रक्त शोधक व अन्य चर्म रोगों में |
11 |
नीम शैम्पू |
नीम पत्ती का रस व अन्य |
मेघदूत ग्रामोद्योग सेवा संस्थान, लखनऊ |
- |
12 |
निमादी मंजन |
- |
तदैव |
- |
13 |
नीम टूथपेस्ट |
- |
कलकत्ता केमिकलक कं, कलकत्ता |
- |
14 |
नीम तेल |
- |
अनेक आयुर्वेदिक कंपनियां |
- |
15 |
निम्बहरीद्रदी चूर्ण |
- |
झंडू, गूरूकूल कांगड़ी |
कुष्ठ रोग व अन्य चर्म रोगों में |
16 |
बायो नीम लिक्विड |
नीम आदि |
बायोटिक्स बांटे –निकल एक्स्ट्रेकट्स नई दिल्ली |
चर्म रोगों में |
17 |
सेंसल |
तेल |
एक्सेल्सर इंटरप्राइजेज, कानपुर |
तरल एंटीसेप्टिक बेंजाइल टोनरव गर्भरोधी |
18 |
लक्यूइन टेबलेट |
पत्ती का सार |
जे.एंड जे. डिचांस लेबो, प्रा. लि. हैदराबाद |
जीर्ण मलेरिया में |
क्र. |
दवा का नाम |
उत्पादक / विपणक |
1 |
आर. डी. 9 रिपेलिन |
आई.टी.सी.लि. राजमुन्दरी आंध्र प्रा. |
2 |
गोदरेज अचूक |
बहार एग्रोकेम एंड फीड प्रा. लि. मुम्बई विपणक – गोदरेज एग्रोवेट लि. मुम्बई |
3 |
जवान क्राप प्रोटेक्टर |
एम. सी. डी. एग्रो प्रा. लि. मुम्बई |
4 |
नीम ऑइल इमल्शन |
सिओ एग्रो रिसर्च लैब्स, मुम्बई |
5 |
नीम आधारित
|
भारतीय कृषि एवं अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली तदैव तदैव तदैव |
6 |
नीमार्क |
वेस्ट कोस्ट हर्बोकेम प्रा. लि.,मुम्बई |
7 |
नीम प्लस |
बी.डी. किथेन एंड कं., मुम्बई |
8 |
नीम टॉप |
श्री कृष्णा कं., कोयम्बटूर |
9 |
निमासोल |
इ.आई.डी. पैरी इंडिया, लि. चेन्नई |
10 |
नीम गोल्ड |
सौउद्रण पेट्रोकेमिकल्स इण्डस्ट्रीज कार्पो, लि. चेन्नई |
11 |
नीम गार्ड |
अक्षय केमिकल्स, मुम्बई विपणक: घरदा केमिकल्स, प्रा. लि. मुम्बई |
12 |
नीम रिच – 1 |
मोनोफिक्स एग्रो प्रोडक्ट्स लि. मुम्बई |
13 |
नीम रिच – 2 |
मोनोफिक्स एग्रो प्रोडक्ट्स लि. मुम्बई |
14 |
निमोसान |
एग्रोन्यूल इंडस्ट्रीज |
15 |
नीमता – 2100 |
ए. जे. केमिकल्स |
16 |
निम्ब |
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली |
17 |
निम्बीसीडीन |
टी. स्टेन्स एंड कं. लि. कोयम्बटूर |
8 |
निम्बोसोल |
विक्टोरिया लेवोरेट्रिज, तमिलनाडू |
19 |
निम्लिन |
सनलाइन |
20 |
नेथ्रिन |
अमितुल एग्रोकेम प्रा. लि., गोरखपुर |
21 |
नीम कम्पाउंड |
यूरेका एग्रोकेम लि. लखनऊ |
22 |
निमको |
मिनरल ऑइल एंड एग्रो इण्डस्ट्रीज लि., अहमदाबाद |
23 |
फिल्ड मार्शल |
खेती बाड़ी कार्नर, बड़ोदरा, (गुजरात) |
24 |
मार्गोसाइड – सी. के. |
मोनो फिक्स एग्रोप्रोडोक्ट लि. हुबली |
25 |
मार्गोसाइड – ओ. के. |
मोनो फिक्स एग्रोप्रोडोक्ट लि. हुबली |
26 |
वेलग्रो |
आई. टी. सी. राजमून्दरी, आं प्र. |
27 |
सूनीम |
सूनीदा एक्सपोर्टस, मुम्बई |
28 |
निको नीम |
निको एग्रो मैन्योर, डकार, गुजरात |
स्रोत: राष्ट्रीय तिलहन एवं वनस्पति तेल विकास बोर्ड/कृषि मंत्रालय, भारत सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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