गर्मी के दिनो में लू से बचाव के लिए खेत के चारो तरफ बागड वायु अवरोधक के रूप मे लगाना चाहिए, इसके लिए उत्तर एवं पश्चिम दिशा मे ढैंचा की दो कतार लगाते है। जिससे फसल को अधिक तापमान एवं लू से बचाया जा सकता है।
क्र.सं | कीट के नाम | लक्षण एवं नुकसान | प्रबंधन |
1. | तना छेदक कीट | केले के तना छेदक कीट का प्रकोप 4-5 माह पुराने पौधो में होता है। शुरूआत में पत्तियॉ पीली पड़ती है तत्पश्चात गोदीय पदार्थ निकालना शुरू हो जाता है। वयस्क कीट पर्णवृत के आधार पर दिखाई देते है। तने मे लंबी सुरंग बन जाती है। जो बाद मे सड़कर दुर्गन्ध पैदा करता है। |
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2. | पत्ती खाने वाला केटर पिलर | यह कीट नये छोटे पौधों के उपर प्रकोप करता है लर्वा बिना फैली पत्तियों में गोल छेद बनाता है। |
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3. | सिगाटोका लीफ स्पाट | यह केले में लगने वाली एक प्रमुख बीमारी है इसके प्रकोप से पत्ती के साथ साथ घेर के वजन एवं गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। शुरू में पत्ती के उपरी सतह पर पीले धब्बे बनना शुरू होते है जो बाद में बड़े भूरे परिपक्व धब्बों में बदल जाते है। |
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4. | पत्ती गुच्छा रोग | यह एक वायरस जनित बीमारी है पत्तियों का आकार बहुत ही छोटा होकर गच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाता है। |
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5. | जड़ गलन | इस बीमारी के अंतर्गत पौधे की जड़े गल कर सड़ जाती है एवं बरसात एवं तेज हवा के कारण गिर जाती है। |
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भण्डारण :कटाई उपरांत केला की गुणवत्ता मे काफी क्षति होती है क्योकि केला उत्पादनस्थल पर भंडारण की समाप्ति व्यवस्था एवं कूल चेंम्बर की व्यवस्था नही होती है। कूल चेम्बर मे 10-12 0 c तापक्रम रहने से केला के भार व गुणवत्ता मे हराश नही होता एवं बाजार भाव अच्छा मिलता है। इस विधि मे बहते हुए पानी मे 1 घंटे तक केले को रखा जाता है। भंण्डारण मे केले को दबाकर अथवा ढककर नही रखना चाहिए अन्यथा अधिक गर्मी से फल का रंग खराब हो जाता है। भंडार कक्ष में तापमाकन 10-12 ब और सापेक्ष आर्द्रता 70 प्रतिशत से अधिक ही होनी चाहिए।
प्रायरू स्थानिय बाजार मे विक्रय के लिए गुच्छा परिवहन किया जाता है, परन्तु निर्यात के लिए हैण्ड को बंच से पृथक करते है, क्योकि इसमे सं क्षतिग्रस्त एवं अविकसित फल को प्रथक कर दिया जाता है। चयनित बडे़ हैण्डस को 10 पीपीएम क्लारीन के घोल में धोया जाता है फिर 500 पीपीएम बेनोमिल घोल में 2 मिनट तक उपचारित किया जाताहै।
निर्यात हेतु प्रत्येक हैण्ड को एच.एम.एच, डीपीआई बैग में पैककर सीएफबी 13-20 किलो प्रति बाक्स की दर से भरकर रखा जाता है। ट्रक अथवा वेन्टिीलेटेड रेल बैगन मे 150ब तापक्रम पर परिवहन किया जाता है। जिससे फल की गुणवत्ता खराब नही होती है।
जून जुलाई रोपण वाली फसल की उपज 70-75 टन प्रति हेक्टेयर एवं अक्टूबर से नवम्बर में रोपित फसल की औसत उपज 50 से 55 टन प्रति हेक्टेयर होती है।
केले के फल से प्रसंस्करित पदार्थ जैसे केला चिप्स, पापड़, अचार, आटा, सिरका, जूस, जैम इल्यादि बना सकते है। इसके अलावा केले के तने से अच्छे किस्म के रेशे द्वारा साड़ियॉ, बैग, रस्सी एवं हस्त सिल्क के माध्यम से रोजगार सृजन किया जा सकता है।
क्र.सं | विवरण | परंपरागत विधि | टिशू कल्चर |
1. | दूरी (मीटर में) पंक्ति से पंक्ति पौध से पौध | 1.5 1.5 | 1.6 1.6 |
2. | पौध संख्या (प्रति एकड़) | 1742 | 1550 |
3. | लागत रूपये में (प्रति पौधा) | 22 | 33 |
4. | लागत रूपये में (प्रति एकड़) | 38324 | 51150 |
5. | फसल अवधि (महीने में) | 18 | 12-13 |
6. | उपज (औसतन गुच्छे का वनज किलोग्राम/पौधा) गैर फलन पौध संखया लगभग 10 प्रति”ात | 15 174 23 | 23 0 35.65 |
7. | विक्रय मूल्य रूपये में (प्रति मैट्रिक टन) | 6000 | 6000 |
8. | कुल आय (रूपये में) | 1,41,120 | 2,13,900 |
9. | शुद्ध आय (रूपये में) | 1,02,796 | 1,62,750 |
स्त्रोत: मध्यप्रदेश कृषि,किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग,मध्यप्रदेश
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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