हमारे देश में व्यावसायिक रूप से अंगूर की खेती पिछले लगभग छः दशकों से की जा रही है और अब आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बागवानी उद्यम के रूप से अंगूर की खेती काफी उन्नति पर है। आज महाराष्ट्र में सबसे अधिक क्षेत्र में अंगूर की खेती की जाती है तथा उत्पादन की दृष्टि से यह देश में अग्रणी है। भारत में अंगूर की उत्पादकता पूरे विश्व में सर्वोच्च है। उचित कटाई-छंटाई की तकनीक का उपयोग करते हुए मूलवृंतों के उपयोग से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अंगूर की खेती की व्यापक संभावनाएं उजागर हुई हैं।
भारत में अंगूर की खेती अनूठी है क्योंकि यह, उष्ण शीतोष्ण,सभी प्रकार की जलवायु में पैदा किया जा सकता है। हालांकि अंगूर की अधिकांशतः व्यावसायिक खेती (85प्रतिशत क्षेत्र में) उष्णकटिबन्धीय जलवायु वाले क्षेत्रों में (महाराष्ट्र,कर्नाटक,आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु) तथा उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु वाले उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से ताजा अंगूर उपलब्ध नहीं होते हैं। अतः उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्र जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली व राजस्थान के कुछ भागों में अंगूर की खेती की जा रही है, जिससे जून माह में भी अंगूर मिलते हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान में अंगूर की खेती जननद्रव्य के संग्रहण,नए जीन प्ररूपों के प्रजनन,वृद्धि नियामकों के इस्तेमाल,सस्य तकनीकों के मानकीकरण(इनमें कटाई-छंटाई, मूल-वृन्त,जल एवं पोषकतत्वों की आवश्यकता आदि विषय भी शामिल हैं) और कटाई उपरांत प्रौद्योगिकी पर वर्ष 1956 मं अनुसंधान कार्य शुरू किया गया। प्रचलन में लाने के लिए अंगूर की अनेक किस्में विकसित की गई। इन सभी किस्मों की व्यावसायिक खेती की जा रही है, तथापि इन तीनों में ही इस क्षेत्र की आदर्श किस्म बनने की दृष्टि से कोई न कोई कमी है। इसे ध्यान में रखते हुए अगेती परिपक्वता,अच्छे सरस फल के साथ उच्च पैदावार के गुणों से युक्त जीनप्ररूपों के विकास का एक सघन प्रजनन कार्यक्रम प्रारंभ किया गया। भा.कृ.अं.सं. में दो सफल हाइब्रिड नामतः पूसा उर्वशी एवं पूसा नवरंग विकसित किए गए और उन्हें कई सालों तक बहु-स्थानक परीक्षणों के उपरांत 1996-97 में जारी किया गया। उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में बुवाई के लिए उपयुक्त अंगूर की किस्मों के मुखय गुण नीचे दिए गए हैं:
मूलतः कैलिफोर्निया (यूएसए) की किस्म ब्यूटी सीडलेस एक जल्दी पकने वाला किस्म है। इसके गुच्छे शंक्वाकार व छाटे से मध्यम आकार के होते हैं। इसके दाने सरस, छोटे, गोल, गहरे लसल से लगभग काले रंग के होते है। फलों का गूदा मुलायम और हल्का सा अम्लीय होता है। फलों में एक-दो खाली व अप्पविकसित खोखले बीज हाते हैं तथा छिलका मध्यम मोटा होता है। इस किस्म में कुल घुलनशील शर्करा (टीएसएस) 18-19 प्रतिशत है। यह किस्म मध्य जून तक पकती है। तत्काल खाने की दृष्टि से यह एक उपयुक्त किस्म है।
मूलतः कैलिफोर्निया की किस्म पर्लेट को उगाने की सिफारिश उत्तर भारत की परिस्थितियों के लिए की जाती है। यह शीघ्र पकने वाली, मध्यम प्रबल, बीजरहित तथा मीठे स्वाद वाली किस्म है। इसके गुच्छे मध्यम से लंबे, खंक्वाकार और गठे हुए होते हैं। इसका फल सरस, हरा, मुलायम गूदे और पतल छिलके वाला होता है। इस किस्म में कुल घुलनशील शर्करा (टीएसएस) 20-22 प्रतिशत है। फसल के आधे पक जाने पर जिब्रेलिक अम्ल (30 प्रति दस लक्षांश) GA3 का छिड़काव बहुत लाभदायक होता है। यह किस्म जून के दूसरे सप्ताह से पकना शुरू हो जाती है।
लोकप्रिय किस्म पूसा सीडलेस की खेती उत्तरी भार में की जाती है। यह जून के तीसरे सप्ताह में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी लताएं समजबूत होती हैं और उनमें मध्यम से लंबे आकार के गठीले गुच्छे आते हैं। इसके दाने सरस, छोटे, बीज रहित और हरापन लिए हुए पीले रंग के हाते हैं। गूदा मुलायम और मीठा हाता हैं जिसमें कुल घुलनशील शर्करा (टी एस एस) 22 प्रतिशत है।
पूसा उर्वशी अंगूर की एक शीघ्र पकने वाली हाइब्रिड किस्म है जिसके फल तने के आधरा पर लगने शुरू हो जाते हैं। इसके गुच्छे कम गठीले (खुले) तथा आकार में मध्यम हाते हैं जिनमें मध्यम आकार के, अंडाकार,हरापन लिए हुए पीले बीज रहित अंगूर लगते है। यह किस्म ताजा खाने तथा किशमिश बनाने हेतु उपयुक्त हैं। इस हाइब्रिड में कुल घुलनशील शर्करा (टी एस एस) का स्तर 20-22 प्रतिशत है और यह बीमारियों का प्रतिरोधी है तथा उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों मंध जहां मानसून से पहले छुट-पुट वर्षा की समस्याहै, उगाए जाने के लिए अच्छी है।
पूसा नवरंग एक टंनटुरियर हाइब्रिड किस्म है जो जल्दी पकने वाली है। इसमें फल बेल में नीचे की ओर लगते है। इसके गुच्छे कम गठीले, मघ्यम आकर के होते हैं। तथा अंगूर मध्यम गोलाकार होते हैं। यह किस्म जूस तथा रंगीन शराब के लिए अच्छी है। यह हाइब्रिड ऐन्थ्रक्नोज बीमारी का प्रतिरोधी है तथा उपोष्ण-कटिबन्धीय क्षेत्रों में जहां मानसून से पहले छुट-पुट वर्षा की समस्या है, उगाए जाने के लिए अच्छा है।
पूसा उर्वशी एवं पूसा नवरंग दोनों किस्मों के जारी होने के बाद से ही अंगूर की खेती करने वाले किसानों को आकर्षित किया है। जननद्रव्य विनिमय एवं वितरण के तहत, राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केन्द्र, पुणे, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना तथा चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर सहित विभिन्न अनुसंधान केन्द्रों को अंगूर की बेलों की कलमों की आपूर्ति की गयी। इसी प्रकार सिनौली, मेरठ (उ. प्र.); सांगली (हि.प्र.); हिन्दौर (म. प्र.) तथा रायपुर के समीप राजनंद गांव (छत्तीसगढ़); रायगढ़ (उड़ीसा) आदि के प्रगतिशील किसानों को अंगूर की कलमें उपलब्ध कराई गई जहां इनका प्रदर्शन बेहतर रहा। ऊपर बताए गए बहुत से क्षेत्र अंगूर की खेती के लिए परंपरागत क्षेत्र नहीं माने जाते। अतः पूसा अंगूर किस्मों को लोकप्रिय बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में अंगूर की खेती की संभावना तलाशने के उद्देश्य से प्रगतिशील किसानों की मदद से एक सहयोगी अनुसंधान कार्यक्रम की शुरूआत की गयी।
इस विवरण में छत्तीसगढ़ में अंगूर की खेती की सफलतम तकनीकों पर प्रकाश डाला गया है। संस्थान ने रायपुर जिले के राजनंद गांव के निवासी एवं प्रगतिशील किसान डॉ. बी. एन पालीवाल के साथ सक्रिय सम्पर्क स्थापित किया। पारम्भ में उनके भालूकोन्हा गांव स्थित फार्म हाउस पर थॉमसन सीडलेस, पर्लेट, हिमरोद, सोनाका, तास-ए-गणेश आदि जैसी आठ किस्मों के साथ पूसा नवरंग और पूसा उर्वसी दोनों की 50-50 कलमें लगाई गई। साथ ही अंगूर की खेती की पूरी सस्य विधियां उपलब्ध कराई गई। वर्ष 1999 में फार्म हाउस की अंगूर लताओं में फल आने के उपरांत छत्तीसगढ़ जैसे अंगूर की खेती वाले गैर-परंपरागत क्षेत्र में अंगूर की सफल खेती एक राष्ट्रीय समाचार बन गई। भा. कृ. अं. सं. के वैज्ञानिकों के सक्रिय परामर्श और खेत दौरों के परिणामस्वरूप अंगूर की खेती की विभिन्न सस्य क्रियाओं का मानकीकरण किया गया। इस सफलता से समग्र क्षेत्र की आंखें खोल दीं तथा क्षेत्र के अन्य किसानों को भी पूसा नवरंग और पूसा उर्वशी पौधों की हाइब्रिड कलमों की आपूर्ति की गई।
वर्तमान में, लगभग 15 हैक्टर क्षेत्र में पूरी तरह से पूसा अंगूर की खेती की जाती है। इस सफलता ने राज्य के किसानों का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया और राज्य कृषि विभाग ने रायपुर को छतीसगढ़ का अंगूर की खेती वाला जिला घोषित कर दिया है। पिछले कुछ वर्षो के दौरान स्थानीय गैर सरकारी संगठन, पालीवाल ग्रेप रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, भालूकोना, राजनन्द गांव के प्रयासों से अंगूर की खेती का दायरा पड़ोसी जिलों नामतः दुर्ग और कावर्धा तक बढ़ा। वर्तमान में अंगूर की व्यावसायिक खेती करने वाले 15 से अधिक प्रगतिशील किसानों ने एक सहकारी समिति का गठन किया है।
लवण सहिष्णु मूलवृंतों का उपयोग, ड्रिप सिंचाई आदि जैसी अंगूर की खेती की नई तकनीकें काफी लोकप्रिय हो रही है। डॉ. पालीवाल के फार्म हाउस में प्राप्त नतीजे उत्साहवर्धक हैं। समुचित छंटाई तकनीक के साथ मूलवृंत के प्रयोग से उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई है। डॉगरिज मूलवृंत के इस्तेमाल से पूसा उर्वशी और पूसा नवरंग किस्माकें के अंगूरों के आकार और गुणवत्ता दोनों में उल्लेखनीय सुधार पाया गया है। क्षेत्र में अंगूर की खेती से प्राप्त लागत : लाभ आकलन से पता चलता है कि ताजे अंगूरों के उत्पादन में जहां प्रति एकड़ 1,0,000 रूपये का लाभ है, वहीं किशमिश उत्पादन में यह लाभ बढ़कर 1,50,000 रूपये प्रति एकड़ हो जाता है।
स्त्रोत-
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार कृषि मंत्रालय अधीन कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग एक स्वायत्त संगठन।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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