उपोष्ण कटिबंधीय वातावरण में अंगूर उत्पादन
इस क्षेत्र के लिए मानकीकृत और अनुशंसित अंगूर उत्पादन प्रौद्योगिकी नीचे दी गई हैः
अंगूर की खेती के लिए गर्म, शुष्क व वर्षा रहित गर्मी तथा अति ठंड वाले सर्दी के मौसमों की आवश्यकता होती है। मई -जून के दौरान फलों के पकते समय वर्षा का होना नुकसान दायक है। इससे फल की मिठास में कमी आती है, फल असमान रूप से पकता है और चटक जाता है। अंगूर की खेती के लिए अच्छी जल-निकासी वाली मिट्टी बेहतर मानी जाती है। अंगूर की खेती अलग-अलग प्रकार की ऐसी मिट्टी मे की जा सकती है जिसमें फर्टिलाइजर का पर्याप्त उपयोग हुआ हो और उसकी अच्छी देखभाल की गई हो। रेतीली तथा बजरीदार मिट्टी में भी अंगूर की अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की परिस्थतियों के तहत अंगूर की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टयों यथा लाल बजरी, काली मिट्टी, कंकड़ीली तथा कठोर सतह वाले क्षेत्रों में भी संभव है। हालांकि इस क्षेत्र में लाल बजरी और यहां तक कि रेतीली मिट्टी की बहुतायत है, फिर भी परिणामों से पता चलता है कि पर्याप्त उर्वरकों और सिंचाई के प्रयोग से यहां अंगूर की अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है। सामान्तः 2.5 मीटर गहराई तक की मिट्टी आदर्श मानी जाती है। इसका pH मान 6.5 से 8 होना चाहिए। विनिमय शील सोडियम की दर 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। किसानों को 0.3 प्रतिशत अथवा अधिक अवणता वाली मिट्टी में अंगूर की खेती से बचना चाहिए। समस्याग्रस्त क्षेत्रों समें अंगूर की खेती के लिए साल्ट क्रीक, डॉगरिज ओर 1613 जैसे लवण सहिष्णु मूलवृंतों के प्रयोग का सुझाव दिया जाता है जिनका प्रयोग उपरोक्त किस्मों के मूलवृंत रोपण के लिए किया जा सकता है।
प्रूनिंग वुड से ली गई एक वर्षीय परिपक्व केन से तने की कटिंग कर अंगूर का प्रवर्धन आसानी से किया जा सकता है। प्रत्येक कटिंग पैंसिल जितनी मोटी व 20-25 सें. मी. लंबी होनी चाहिए जिसमें 3-4 गांठे हों। इस प्रकार तैयार की गई कलम को या तो क्यारियों में अथवा मेंड़ों पर 45 डिग्री के कोण पर रोपा जाता है। अभी हाल ही में, वेज ग्राफ्टिंग का प्रयोग करते हुए फरवरी -मार्च (सुशुप्त कलियों में अंकुरण से पूर्व) तथा जुलाई-अगस्त (वर्षा उपरान्त) के दौरान एक वर्ष पुरानी मूलवृंत की स्व-स्थाने (इन सिटू) (मूल अवस्था में) ग्राफ्टिंग की गयी है।
बेलों के बीच उचित दूरी रखने के लिए रोपण से पहले किसानों को एक ले-आउट प्लान तैयार कर लेना चाहिए। सामान्य तौर पर यह दूरी इस प्रकार रखी जाती है - हैड सिस्टम में 2 मी. ग 2 मी.; ट्रेलिस सिस्टम में 3 मी. ग 3 मी.; बॉवर सिस्टम में 4 मी. ग 4 मी.; Y सिस्टम में 3 मी. ग 4 मी.।
नवम्बर-दिसंबर के दौरान 75 सें मी. ग 75 सें. मी. आकार के गड्ढे खोदकर उनमें गोबर की खाद और 1000 ग्राम नीम की खली को मिट्टी के साथ 1:1 अनुपात में मिला देना चाहिए। अच्छी तरह मिलाने के उपरांत इसमें एक कि. ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट और 500 ग्रा. सल्फेट ऑफ पोटाश मिला देना चाहिए। दीमकों द्वारा संक्रमित क्षेत्रों में गड्ढों को 30-50 लीटर जल में 0.2 प्रतिशत क्लोरापइरीफॉस मिलाकर पानी से भर देना चाहिए। एक भारी सिंचाई करके मिट्टी को ठीक से बैठ जाने लिए छोड़ देना चाहिए। जनवरी के अंतिम सप्ताह में शाम के समय प्रत्येक गड्ढे में एक वर्षीय जड़ कटिंग का रोपण किया जाता है। एक पखवाड़े के बाद बेल कांट-छांट करके एक मजबूत व परिपक्व तने के रूप में रहने दिया जाता है। ऐसी बेलों का रोपण समुचित अंतराल पर किया जाना चाहिए।
यद्यपि उपोष्ण क्षेत्र के लिए बेल के आधार पर फल देने वाली किस्में अधिक उपयुक्त है लेकिन ऐसे क्षेत्र में पुष्ट बेल वाली किस्में उगाई जाती है।
हैड सिस्टम :
यह सिस्टम सबसे सस्ता है क्योंकि इसमें कम निवेश की जरूरत होती है। अतः यह अल्प संसाधन वाले किसानों के लिए उपयुक्त है। इस प्रणली के तहत, बेलों को एकल तने के रूप में 1.2 मी. ऊंचाई तक बढ़ाया जाता है और उनमें विभिन्न दिशाओं में अच्छी तरह से फैली हुई चार से छः शाखाओं को बढ़ने दिया जाता है। बाद में ये शाखाएं लकड़ी की भांति काष्ठीय बन जाती हैं जिनमें फलों के 8-10 गुच्छे लगते हैं। छंटाई करने पर अगले वर्ष के लिए नई शाखाएं निकलती हैं। सामान्यतः अंगूर की खेती के लिए कुछ अन्य प्रणालियों को भी आजमाया जा सकता है। जिनमें प्रमुख हैः
ट्रेलिस सिस्टम :
हालांकि यह थोड़ी खर्चीली है, फिर भी इसे सभी अर्ध-प्रबल किस्मों हेतु अपनया जा सकता है। पौधे 3 मी. ग् 3 मी. दूरी पर रोपे जाते हैं तथा लता की शाखाओं को तार पर 2 स्तरों पर फैलने दिया जाता है। लोहे के खंभों की मदद से तार क्षैतिज बांधे जाते हैं, पहला भू-सतह से 3/4मीटर की ऊंचाई पर तथा दूसरा पहले से 25 सें. मी. ऊपर रखा जाता है।शाखाओं को मुख्य तने के दोनों और फैलने दिया जाता है।
बॉवर, परगोला अथवा पंडाल सिस्टम :
पौधों को 2 मी. की ऊंचाई तक एकल तने के रूप में बढ़ने दिया जाता है तथा उसके उपरांत लता को मंडप के ऊपर सभी दिशाओं में फैलने दिया जाता है। यह लता मंडप 12 गेज वाली तारो से जाली के रूप में बुना जाता है। और इस जाली को एंगल आरनपत्थरों या लकड़ी के खंभों के सहारे फैलाया जाता है। बेल की मुखयटहनियों पर फल देने वाली शाखाओं को बढ़ने दिया जाता है और इनकी कटाई-छटाई प्रति वर्ष की जाती है।
‘Y’ ट्रेलिस सिस्टम :
अंगूर की बेलों को विभाजित कर खुली (केनोपी) परबढ़ने दिया जाता है। ‘Y’ के आकार वाले एंगल ट्रेलिस पर 120 से 130 सें.मी. की ऊंचाई पर बांधे गए तारों पर फलदार शाखाओं को बढ़ने दिया जाता है। सामन्यतः एंगल 100-110 डिग्री कोण का होता है जिसकी शाखाएं 90-120से. मी. तक फैली होती है। इस प्रणाली की सबसे लाभदायक बात यह है कि इसमें फलगुच्छों को सीधी तेज धूप से बचाया जा सकता है।
उत्तरी भारत में, मध्य दिसंबर से मध्य जनवरी के दौरान जबकि बेलें निष्क्रिय अवस्था में होती हैं, मध्य बेल की कटाई-छंटाई प्रारंभ की जा सकती है लेकिन मध्य भारत (यथा छत्तीसगढ़) में दोहरी कटाई-छंटाई भी की जा सकती है। फल दने वाली बेलों की छंटाई सामान्यतः रोपण के 2-3 वर्ष पश्चात बेल को वांछित आकृति देने और अपनाई जा रही प्रणाली के अनुसार की जाती है। चूंकि अंगूर के गुच्छे प्रत्येक मौसम में बेल से फूटने वाली नई टहनियों पर फलते हैं, अतः पिछलें वर्ष कीटहनियों की निश्चित लंबाई तक छंटाई करना महत्वपूर्ण होता है। किस गांठ तक बेल को छांटा जाए यह किस्म की प्रबलता पर निर्भर करता है।
अंगूर की कुछ किस्मों में छंटाई की सीमा
प्रति केन कलियों की संख्या |
किस्में |
2-3 |
ब्यूटी सीडलेस |
3-4 |
पर्लेट, डिलाइट |
4-6 |
पूसा उर्वशी, पूसा नवरंग, हिमरोद |
9-12 |
थॉम्पसन सीडलेस, पूसा सीडलेस, किशमिश, चामी |
छंटाई के उपरांत बेलो पर 2.2 प्रतिशत ब्लीटॉक्स की छिड़काव करना चाहिए। पौधे के आधार पर दिखाई पड़ने वाले सभी अंकुरों को हाथ से हटा देना चाहिए।
युवा एवं फल वहन करने वाली बेलों को पोषक तत्व प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है। सामान्यतः बेलों को पोषक तत्वों की आधी खुराक मिट्टी के माध्यम से तथा शेष आधी पत्तियों पर छिड़काव करके दिए जाने की सिफारिश की जाती है। विशेषकर नव विकसित पत्तियों पर सुबह के समय यूरिया (2 प्रतिशत वाले घोल) के छिड़काव की सिफारिश की जाती है। प्रति पौधा 25 कि. ग्रा. की दर से अच्छी तरह से सड़े हुए गोबर की खाद को फरवरी माह में मिट्टी में मिलाया जाता है। उसके उपरांत फरवरी माह में ही बेलों की छंटाई के तुरंत बाद प्रत्येक बेल में 200 ग्रा. पोटेशियम सल्फेट, 250 ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 250 ग्रा. अमोनियम सल्फेट के प्रयोग की सिफारिश की जाती है। फल लगना शुरू हाने के पश्चात अप्रैल माह में 200 ग्रा. पोटेशियम सल्फेट की दूसरी खुराक का प्रयोग किया जाता है। आयरन एवं जिंक जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के लिए इनका 0.2 प्रतिशत की दर से छिड़काव किया जाता है।
उपोष्ण- कटिबंधीय फलदार बेलों में उर्वरीकरण की अनुसूची
पोषक तत्व (कि. ग्रा./है.) |
माह |
|||
फरवरी |
मार्च |
अप्रैल |
मई |
|
नाइट्रोजन(N) |
250 |
350 |
- |
1 |
पोटेशियम (P2O5) |
800 |
400 |
- |
- |
फास्फोरस(K2O) |
- |
200 |
200 |
200 |
नई रोपी गई बेलों को रोपण के पश्चात् सींचा जाता है। खाद एवं उर्वरकों के प्रयोग के बाद भी सिंचाई की जानी चाहिए। यह तब और भी महत्वपूर्ण है जब फलों का विकास हो रहा हो। जैसे-जैसे फलों के रंग में परिवर्तन आने से परिपक्वता का पता चले सिंचाई की आवृत्ति कम की जा सकती है, ताकि फलों में अधिक शर्करा संचित की जा सके। यदि वर्षा न हो तो फलों की तुड़ाई के उपरांत भी सिंचाई जारी रखी जा सकती है। निष्क्रय अवधि (नवम्बर से जनवरी) के दौरान किसी प्रकार की सिंचाई की आवश्यकता नहीं है। ड्रिप सिंचाई के भी आशातीत नतीजे प्राप्त हुए हैं। शून्य (0) से 0.25 बार के मृदा नमी क्षेत्र में बंसत तथा ग्रीष्म में 5-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। बसंत एवं ग्रीष्म में प्रति बेल 3.5 ली. जल क्षमता वाली 15 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।
स्त्रोत-
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार कृषि मंत्रालय अधीन कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग एक स्वायत्त संगठन।
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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